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जीवनी खंड
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मैं तो साँवरे के रंग राँची ।
साज सिंगार बाँधि पग घुँघुरू लोक-लाज तजि नाची ॥
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वृंदावन के निवास ने एक नूतन मीराँबाई को जन्म दिया जिसे हम मीराँ का अवतारी रूप कह सकते हैं । श्रवतार शब्द का प्रयोग वहाँ पौराणिक अर्थ में नहीं वरन् साहित्यिक अर्थ में है । द्वापर युग की ब्रज-गोपियों के अनन्य प्रेम-भक्ति के उच्च आदर्श का पूर्ण निर्वाह करने के कारण मीराँ को उनका श्रवतारी रूप माना गया है । इस अवतारी रूप का प्रथम दर्शन सम्भवतः उस समय होता है जब मीराँ ने माधुर्य भाव की भक्ति का उपदेश करनेवाले वृंदावन के प्रसिद्ध गोस्वामी के सामने इस बात की घोषणा की थी कि ब्रजमंडल में उनके गिरधर नागर के अतिरिक्त और कोई पुरुष ही नहीं है । यह घोषणा कोई मौखिक कथन मात्र न था, मीराँ ने इस सत्य को अपने जीवन में साक्षात् प्रत्यक्ष कर दिखाया था । इसीलिए तो वृन्दावन के विद्वान् गोस्वामियों के रहते हुए भी देवत्व का अभिषेक मीराँबाई ही पर किया गया ।
सं० १६०० के आसपास मीराँबाई ने वृन्दावन से द्वारका का प्रस्थान किया । द्वापर युग की गोपियों से भी जो न हो सका था उसे कलियुग की गोपी ने कर दिखाया । वहाँ रणछोर जी के मंदिर में भगवान् की मूर्ति के. सामने नाचना और गाना ही मीराँ की दिनचर्या थी । मीराँ की भक्ति भावना और कीर्ति एक धर्म-कथा के रूप में चारों ओर फैल गई । आसपास के गावों. से कुंड के झुंड लोग इस देवी के दर्शनों के लिए श्राने लगे थे । दूर-दूर से वैष्णव साधु इस अवतारी मीरों को देखने श्राते थे । गोस्वामी हित हरिवंश, हरिराम व्यास जैसे प्रसिद्ध वैष्णव मीराँ के प्रति श्रद्धांजलि प्रकट करते थे ।
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सं० १६३० के आसपास एक दिन मीरों के इस अलौकिक अस्तित्व का लोप हो गया, परंतु नश्वर शरीर के अंतर्ध्यान होने के पहले ही वे मर हो चुकी थीं; इसीलिए उनके मानव-जीवन के अंत को मृत्यु की संज्ञा न देकर अपने प्रियतम में विलीन होना कहा गया है। मीराँ का अंत भी उनके जीवन के अनुरूप रहा ।