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जीवनी खंड
उनकी अपनी एक त्वतंत्र सत्ता थी, वे अपने प्रियतन गिरधर नागर की दासी मीरी थी, उनको नाच-गा कर रिझाना ही उनका धर्म था, साधु-संतों से भगवद्वार्ता करना उनका प्रिय विषय था। अतएव उन्हें पुरुष-समाज का विरोध सहना पड़ा। वह पुरुष-समाज भी कोई साधारण न था, मेवाड़ की सारी राजशक्ति उसके पीछे थी। परन्तु बाबर और हुमायूँ जैसे मुगल सम्राटों का हृदय दहला देनेवाली यह राजशक्ति एक अबला भक्त मीराँबाई के धर्म और विश्वास को.हिला न सकी । बालक राणा की अोट लेकर मेवाड़ के अमात्य वीजावर्गी ने उस अबला भक्त पर क्या-क्या अत्याचार न किए, परन्तु मीराँ भी तो एक राजपूत कन्या थीं। आग की लपटों को सहर्ष आलिङ्गन करनेवाली बालाओं में मीरा अग्रगण्य थीं। अस्तु, सभी प्रकार के कष्टों को सहन करती हुई, विष का प्याला पीकर अमर हुई उस भक्त ने अपनी भक्ति-भावना को अक्षुण्ण रक्खा।
सं० १५६० के अासपास मीराँ बाई ने अपने चाचा बीरमदेव का निमंत्रण पाकर मेवाड़ का त्याग किया । परन्तु वह त्याग पराजित व्यक्ति का त्याग न था, वह एक विजयी का त्याग था जैसे भभवान् कृष्ण ने मथुरा का त्याग किया था। उस त्याग ने मेवाड़ को मुक्ति दी। अब मेड़ता में मीराँ के गिरधर नगर की प्रतिष्ठा हुई। परन्तु अब मीराँ के भक्त जीवन की अग्निपरीक्षा अथवा विष-परीक्षा हो चुका थी, उन्हें स्वच्छंद भाव से भक्ति साधना का वरदान मिल चुका था। राव बोरमदेव और वार जयमल दोनों ही मीराँ का अादर करते थे । यह क्रम चार-पाँच वर्षों तक चलता रहा । सं०१५६५ में जय राव मालदेव ने बारमदेव से मेड़ता छीन लिया, तब मारों के लिए एक अाश्रय को आवश्यकता हुई । स्त्रियों के लिए पितृगृह और पतिगृह वही दो श्राश्रय-स्थान हुआ करते हैं । पितृगृह में श्राश्रय का अभाव पाकर मीराँ अपने पतिगृह को चलीं। लौकिक पति और पतिगृह से तो उनका सम्बंध टूट ही चुका था, अतः व अपने पारिलौकिक पति गिरधर नागर के प्रिय कोड़ाक्षेत्र वदावन की अोर चली।
जिस समय मासूबाई बृंदावन में पहुँची, उस समय उनके गिरधर नागर को बंदावन छोड़े सहसों वर्ष बीत चुके थे। तब से उस समय तक न जाने
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