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मीराबाई
जाता है। ईश्वर के प्रति प्रेम प्रकट करने का सब को समान अधिकार है, चाहे वह स्त्री हो अथवा पुरुष, चाहे वह ब्राह्मण हो अथवा शुद्र, ईश्वर तो सब का समान रूप से है। इसी भावना से प्रेरित होकर स्वामी रामानंद ने भक्तों में जाति-पाँति की भावना ही मिटा दी थी। दूसरी ओर सनातन हिंदू धर्म और समाज में ऊँच-नीच और स्त्री-पुरुष में भेद की भावना प्रबल रूप से विद्यमान थी। अद्विजों को शिक्षा का अधिकार न था, स्त्रियों को परदे के भीतर रहने की आशा थी, पुरुष-समाज में निकलने का उन्हें अधिकार भी न था। इतना ही नहीं एक वर्ग अछूनों का हुया करता था जिसके स्पर्श मात्र से द्विज वर्ग अपवित्र हो जाया करता था। गाँव-गाँव, नगर-नगर में जातिवहिष्कृत व्यक्तियों का जीवन भार-स्वरूप हो रहा था। अस्तु. इन विरोधी भावनाओं और विचार-धारात्रों में संघर्ष की भावना बहुत अधिक थी और यह संघर्ष प्रत्यक्ष सामने आया। प्रत्येक संत और भक्त के सम्बंध में इस संघर्ष की अनेक कथाएँ कही जाती है। एक भक्त चाहे वह कितना ही प्रतिभासम्पन्न और सिद्धि-प्रास क्यों न हो, प्रबल हिन्दू धर्म और समाज के विरुद्ध एक बहुत ही निर्बल और तुच्छ प्राणी या, इसीलिए हिन्दू समाज के कितने अत्याचार उसे सहने पड़ते थे। संत ज्ञानेश्वर, नामदेव, तुलसीदास
और नरसी मेहता इत्यादि सभा भक्तों को इस विरोध और संघर्ष में कष्ट उठाना पड़ा था, परन्तु इन विरोधों से उनकी भक्ति-भावना निरंतर बढ़ती ही गई, कभी पराजित होकर कम नहीं हुई। __ समाज और वातावरण के विरुद्ध जितना प्रबल विरोध मीराँबाई को सहना पड़ा था उतना शायद ही किसी भक्त के बाँट में पड़ा हो । बात यह थी कि मीराँ स्त्री थीं और साधारण स्त्रा नहीं, चित्तौड़ राजवंश की कुलबधू थीं, तिसपर भी अकाल में विधवा हो गई थीं। इसीलिए उनके ऊपर बंधन भी विशेष था। परम्परा से स्त्रियाँ परदे में रहती आई थीं, पुरुषों की दासी बनकर उनकी सभी अनुचित-उचित अाशात्रों का पालन करना उनका कर्तव्य हुश्रा करता था; उनकी कोई स्वतंत्र सत्ता न थी। फिर विधवात्रों के ऊपर हिन्दू समाज का शासन और भी कटोर था। परन्तु मीरों उन स्त्रियों में न थीं।
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