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जीवनी खंड
और बालक राधा माधव के विवाह का खेल खेला करते थे और उसी खेल ही खेल में न जाने कब मीराँ ने अपने गिरधर लाल को वरण कर लिया था।
मृत्यु-व्यवसायी उन वीर राजपूतों के यहाँ शिक्षा-दीक्षा का कोई विशेष प्रबंध न था । बालक तलवारों के खेल ही खेल में मरना और मारना सीख लेते थे; बालिकाएँ गुड़ियों के खेल में ही प्रेम और वीरता की शिक्षा पा लेती थीं । गोरा और बादल, बाप्पा रावल और हम्मीर, पद्मिनी और कर्म देवी इत्यादि की वीर कहानियाँ राजस्थान के श्वास-प्रश्वास में प्रवाहित होती थीं । प्रचलित लोकगीत और रमते योगियों के उपदेश ही उस युग की पाठशालाएँ थीं। मीराँबाई भी उसी जलवायु में पली थीं और उसी पाठशाला से उन्होंने शिक्षा ग्रहण की थी।
सं० १५७२ में राव दूदा की मृत्यु हुई और उनके ज्येष्ठ पुत्र राव बीरमदेव मेड़ता के शासक हुए । दूसरे ही वर्ष सं० १५७३ में बीरमदेव ने मेवाड़ के पराक्रमी महाराणा सांगा के ज्येष्ठ कुँवर भोजराज के साथ मीरों का विवाह कर दिया। मीरा ने अपने पारलौकिक जीवन और प्रेम का अाधार तो पहले ही पा लिया था, अब उन्हें अपने लौकिक जीवन और प्रेम के लिए भी एक
आधार मिल गया। परंतु उनका वैवाहिक जीवन बहुत ही संक्षिप्त रहा। विवाह के कुछ ही दिनों पश्चात् सं० १५८० के आसपास ही कुवर भोजराज की मृत्यु हो गई । केवल बीस वर्ष की छोटी अवस्था में ही मीराँ विधवा हो गई और उनके जीवन का वह लौकिक आधार छिन गया । अस्तु, उनके जीवन में लौकिक और पारलौकिक प्रेम के सामंजस्य की जो सम्भावना थी वह एकदम मिट गई । अब मीराँ का असीम स्नेह, अनंत प्रेम और अद्भुत प्रतिभा एक साथ ही गिरधारी लाल की ओर उमड़ पड़ी.।
लौकिक प्रेम की इतिश्री होने पर मीराँ ने पारलौकिक प्रेम की ओर ध्यान दिया और वे भगवान् कृष्ण की भक्त बन गई। भक्त जीवन की प्रमुख विशेषता यह है कि उसमें ऊँच-नीच और स्त्री-पुरुष की भेद-भावना का लोप हो
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