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पाँचवाँ अध्याय
जीवन-वृत्त मीराँबाई की जीवन-गंगा तीन धाराओं में प्रवाहित हुई है। प्रथम प्रारम्भिक धारा उनके जन्म, बाल्यकाल, शिक्षा और वैवाहिक जीवन से सम्बंध रखती है। दूसरी धारा में वे एक भक्त के रूप में प्रकट होती है जब कि अन्य ईश्वर-परायण भक्तों की भाँति समाज और वातावरण के संघर्ष में आकर अपने धर्म-हठ, भक्ति-भावना और तेजस्विता का परिचय देती हुई श्रागे बढ़ती है, और अंतिम धारा में माधुर्य भाव की भक्ति-भावना के चरम विकास पर पहुँच कर वे ब्रज-गोपी के अवतारी रूप में प्रतिष्ठित होती है और अपनी पावन स्वर-लहरी से संसार का शोक-ताप हरती हुई अनंत में विलीन हो जाती है। वास्तव में मीरों की जीवन-धारा भक्ति-भावना का क्रमिक विकास है।
मेड़ता के वीर शासक रण-बाँकुरे राठौर राव दूदा ने अपने चतुर्थ पुत्र राव रत्नसिंह को निर्वाह के लिए बारह गाँव दिए थे उन्हीं में से एक गाँव कुड़की में सं० १५५६.६० ई. के अासपास एक कन्या-रत्न का जन्म हुआ जो संसार में मोराँबाई के नाम से प्रसिद्ध हुई। चंद्रकला के समान अपने घर को उजाला करता हुई वह बा लेका बढ़ने लगो । बचग्न में ही उसकी माता उसे छोड़ स्वर्ग मिधारों । पिता राव रनसिंह एक वीर सैनिक थे, युद्ध करना ही उनका ब्यवसाय था । अतः मोरौं अपने पितामह राव दूदा के यहाँ मेड़ता में अाकर रहने लगी । दूदा जी केवल तलवार के ही धनी नहीं थे, चतुर्भज मगवान् के भक्त एक परम वैष्णव भी थे। उन्हीं की छत्रछाया में रहकर मोराँबाई और उनके वीर बंधु, राव वीरमदेव के ज्येष्ठ पुत्र, वीर जयमल ने भक्ति और धर्म की शिक्षा पाई थी। बचपन से ही ये बालिका
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