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तीसरा अध्याय
मीराँ का काव्य - विषय - भक्ति
भक्ति युग के सभी भक्त कवियों का एक ही काव्य विषय था भक्ति, परंतु एक ही विषय होते हुए भी उसमें संकीर्णता और सीमितता का लेश भी नहीं है । रीतिकालीन कवियों का भी एक ही काव्य-विषय था शृंगार, परंतु वह कितना सीमित और संकीर्ण है । बात यह थी कि भक्त कवियों की काव्यपरम्परा सजीव थी, इसी कारण एक ही विषय भक्ति को अपनी रुचि वैचित्र्य, चिन्तन और भावना के कारण उन्होंने विविध प्रकार से अनुभव कर अगणित काव्य रूपों और शैलियों में प्रकाशित किया – किसी ने सबदी, साखी और रमैनी लिखी, किसी ने महाकाव्य और खंडकाव्य की रचना की, किसी ने पदों में रस की धारा उमड़ाई और किसी ने जनता में प्रचलित होली, धमार
र चाँचर की धूम मचा दी । रीतिकालीन कवियों की काव्य- परम्परा सजीव न थी, केवल प्राचीन संस्कृत साहित्य परम्परा का अंधानुकरण मात्र था, इसीलिए उसमें काव्य-रूप और शैली की विविधता नहीं मिलती, विषय की व्यापकला नहीं मिलती, मिलती है केवल एकरसता और एक ही कला का निर्जीव प्रदर्शन |
भक्ति काव्य की व्यापकता दिखाने के पहले भक्ति की स्पष्ट व्याख्या कर - लेना अत्यंत आवश्यक है। किसी भी पदार्थ से गाढ़ा प्रेम रखना भक्ति कहलाता है । भक्ति रसामृत - सिन्धु के अनुसार "हमारे इष्ट पदार्थों की श्रोर जो हमारा श्रांतरिक प्रेम रहता है, उसी उत्साहित प्रेम को भक्ति कहते हैं । " पत्नी का अपने पति के प्रति जो प्रगाढ़ प्रांतरिक प्रेम है वही उसकी पति-भक्ति है । परंतु किसी भी इष्ट पदार्थ के प्रेम को भक्ति नहीं कहते, केवल ईश्वर के प्रति
१ भक्ति योग [ मूल लेखक अश्विनीकुमार दत्त । हिन्दी अनुवादित पृ० १ ]
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