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मीराँबाई प्रगाढ़ प्रेम को ही भक्ति कहते हैं । इसीलिए शांडिल्य सूत्र में लिखा है "ईश्वर के प्रति अपूर्व अनुराग को भक्ति कहते हैं ।'' ईश्वर के अतिरिक्त अन्य इष्ट पदार्थों से जो प्रगाढ़ प्रेम होता है वह सामान्य भक्ति नहीं विशेष भक्ति है, जैसे देश-भक्ति और स्वामी-भक्ति इत्यादि; भक्ति तो केवल एक परमात्मा के ही प्रति होती है।
भक्ति के आश्रय, पालम्बन और भावना ये तीन प्रधान अंग हैं । भक्ति आश्रय है, भगवान बालम्बन और इन दोनों के बीच जो एक भावना का सम्बंध है वही भक्ति है। यह भावना का सम्बंध कई प्रकार का हो सकता है । सामाजिक जीवन में मानव-मानव के बीच जितने भी दृढ़ भावना-सम्बंध हो सकते हैं वे सभी सम्बंध भक्त और भगवान के बीच सम्भव हैं । अस्तु, अाश्रय तथा पालम्बन के प्रकृति-भेद से भक्ति भी कई प्रकार की हो सकती है। भगवान के प्रकृति-भेद से उसकी उपासना-पद्धति में भेद श्रा जाता है । ब्रह्म त्रिगुणात्मक है; सत्त्व गुण से भगवान के दया, दाक्षिण्य श्रादि की उत्पत्ति होती है और ऐसे सत्वगुण-प्रधान ब्रह्म की उपासना उसी के अनुरूप दास्य, सख्य, वात्सल्य और मधुर आदि भावनाओं द्वारा होती है । रजोगुण से भगवान की शक्ति उत्पन्न होती है और ऐसे रजोगुण-प्रधान ब्रह्म की उपासना युद्ध द्वारा ही हो सकती है। असुरों और अत्याचारियों का नाश ही रजोगुण प्रधान ब्रह्म की भक्ति और उपासना हे । तमोगुण से भगवान शरीर धारण कर इच्छानुसार चतुभुज आदि रूप रखते हैं ऐसे तमोगुण-प्रधान ब्रह्म की उपासना पुष्प,माला,चंदन आदि उपहारों से की जाती है। सर्वसाधारण ऐसी ही भक्ति और उपासना किया करते हैं। इसी प्रकार श्राश्रय के प्रकृति-भेद से भी भक्ति-भावना में भिन्नता पाती है। सत्वगुण-प्रधान भक्त नवधा भक्ति करता है जैसा कि रामचरित मानस में भगवान राम ने शबरी को उपदेश किया था। नारद, हनुमान, ध्रव और प्रह्लाद आदि पौराणिक भक्त तथा सूर, तुलसी, मीराँ चैतन्य आदि भक्तगण इसी प्रकार की भक्ति
१ सा ( भक्ति ) परानुरक्तिरीश्वरे । २ देखिए आनंद मठ ( बंकिमचंद्र चटजी का उपन्यास)
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