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श्रालोचना खंड
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करते थे । रजोगुण प्रधान भक्त भगवान से स्पर्द्धा की भावना रखता है और तामसी प्रकृति का भक्त भगवान से वैर-भावना का ही सम्बन्ध स्थापित करता है | रामचरित मानस का रावण इसी कोटि का भक्त था । वैर भी हृदय का एक सम्बन्ध है और स्नेह, प्रेम की ही भाँति श्रत्यन्त तीव्र भी है । इस प्रकार भक्ति विविध प्रकार की हो सकती है, परन्तु जिस भक्ति को साहित्य और काव्य में भक्ति की संज्ञा प्रदान की गई है वह केवल सत्वगुण प्रधान भक्त द्वारा सत्वगुण प्रधान भगवान की भक्ति है ।
थी कि उस 'अकल, नहीं सकता और जब
नहीं होता, तब तक
भक्ति काव्य की व्यापकता का मुख्य कारण यह था कि भक्त कवियों ने केवल अपनी भक्ति भावना का ही निरूपण और श्रभिव्यंजन नहीं किया, वरन् उन्होंने भगवान् के स्वरूप का, उनके विशिष्ट गुणों का भी निरूपण किया, उनकी दयालुता और भक्तवत्सलता के भी गीत गाए, भक्तों की महत्ता, कष्ट - सहिष्णुता और अटल निष्ठा की प्रशंसा भी की। इतना ही नहीं निर्गुणवादी संत कवियों ने सतगुरु को भी भक्ति का एक अंग माना और उनकी प्रशंसा भी जी खोल कर की। बात यह श्रीह, श्रभेद' भगवान का ज्ञान बिना गुरु के हो ही तक भगवान का ज्ञान नहीं होता, उसका साक्षात्कार सच्ची भक्ति भावना का उदय सम्भव ही नहीं है । इसीलिये तो कबीर ने गुरु का महत्व गोविन्द के समान अथवा कुछ अधिक और भक्तमाल के रचयिता नाभादास ने भक्त, भक्ति, ही शरीर के चार नाम माने है । इस प्रकार भक्त कवियों ने भगवान का वर्णन किया— उनकी नरलीला, उनकी सर्वव्यापकता, उनकी भक्तवत्सलता के गीत गाए; भक्तों का गुणगान किया; गुरु की वंदना की और अपनी भक्ति भावना की सरस धारा-सी उमड़ा दी। साथ ही कुछ भक्त कवियों ने इस भवसागर के अपने कुछ अनुभव भी बताए और लौकिक जीवों की कल्याण-कामना से प्रेरित हो उन्हें संसार की अनित्यता और उससे पार १- गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागू पाँय, बलिहारी गुरु आपने जिन गोविंद दियो बताय । २-- भक्त, भक्ति, भगवन्त, गुरु, चतुर्नाम वपु एक ।
ही
स्थिर किया है'; भगवंत और गुरु को एक
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