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मीराँबाई
जाने के लिए चेतावनी और उपदेश भी दिए । इस प्रकार एक भावना, एक उल्लास मात्र को भक्त कवियों ने कितना व्यापक और सजीव बना दिया। मीराँ ने भी अपनी रुचि और भावना के अनुरूप भगवान का चित्रण किया, भक्ति की धारा उमड़ाई, भवसागर के अपने अनुभव - सुनाए और उपदेश तथा चेतावनी के अंग वर्णित किए।
मीरा के भगवान-मीराँ के भगवान उनके प्रियतम गिरधर नागर हैं जो कितने ही भिन्न-भिन्न रूपों में हमारे सामने आते हैं। उनका पहला स्वरूप निर्गुण ब्रह्म का है जो कबीर, नानक अादि संत कवियों के निर्गण निराकार ब्रह्म के बहुत निकट जान पड़ता है । वह दूर ऊँचे महल का रहने वाला है ।' वह गगन मंडल में सेज विछाकर सोने वाला प्रियतम है । उसके पास पहुँचने का रास्ता ऊँचा-नीचा और रपटीला है जिस पर पाँव भी नहीं टहरते,,जहाँ कोस-कोस पर पहरा बैठा हुआ है और पग-पग पर चोर-लुटेरों का भय है । परन्तु वह दूर ही नहीं है अत्यन्त पास भी है, स्वयं मीरों के हृदय में निवास करने वाला है, जहाँ से वह कहीं अाता जाता नहीं है; वह जीव-नारियों के साथ झुरमुट खेलने वाला प्रियतम है । मीराँ अपने
१ मीरा मन मानी सुरत सैल असमानी । २ गगन मण्डल में सेज पिया की केहि बिधि मिलणा होइ । ३ गली तो चारों बन्द हुई मैं हरि से मिल कैसे जाइ । ऊँची नीची राह रपटीली पाँव नहीं ठहराइ ॥ सोच-सोच पग धरू जतन से बार-बार डिग जाइ । ऊँचा नीचा महल पिया का,हमसे चढ़या न जाय । पिया दूर पन्थ म्हारो झीणों सुरत झकोला खाइ । कोस-कोस पर पहरा बैठ्या, पैंड पैंड बटमार । हे विधना कैसी रच दीनी दूर बस्यो म्हारी गाम । [मीरों की पदा० पद सं० १९३] ४ सखीरी मैं तो गिरधर के रङ्ग राती। पचरण मेरा चोला रग दे मैं झुरमुट खेलन जाती। झुरमुट में मेरा साई मिलेगा खोल अडम्बर गाती ।
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