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मीराँबाई
विष का प्याला राणा जी भेज्यो पीवत मीराँ हासी रे।
मीरों के प्रभु गिरधर नागर, सहज मिले अबिनासी रे ॥ वह ऐसा उल्लास था जो पावस-पयस्विनी की भाँति सब कुछ बहा ले जाने में समर्थ था, जिसमें बदनामी भी मीठी लगती थी । कवीन्द्र रवीन्द्र ने जिस भक्ति की उपेक्षा करते हुए लिखा है :--
ये भक्ति तोमारे लये धैर्य नाहिं माने, मुहूर्ते विह्वल हय नृत्य-गीत गाने, भावोन्माद मत्तताय, सेइ ज्ञानहारा उद्भ्रांत उच्छलफेन भक्ति-मद-धारा
नाहि चाहि नाथ। संत कबीर-भूमिका पृ० १९५ से उद्धन ] मीरा ने उसी 'ज्ञानहारा' भक्ति को स्वीकार किया था। जो भक्ति ज्ञान और कर्म से समन्वित है, वह विशुद्ध भक्ति नहीं है। वह ज्ञानी पुरुष के लिए उपयुक्त हो सकती है, परंतु भक्ति-प्राण नारी के लिये नहीं । मीराँ नारी थीं, भक्ति की प्रतीक थीं, इसी कारण उन्होंने इस 'ज्ञानहारा उद्भ्रांत उच्छलफेन भक्ति-पद-धारा' को अपनाया। मीराँ की भक्ति-भावना की यही महत्ता है।
१ राणा जी मुझे यह बदनामो लगे मीठी ॥ टेक ।। कोई निन्दो कोई बिन्द चो. मैं लूंगी चाल अपूठी ॥
[ मीराँ० की पदा० पद सं० ३६ पृ० १९]
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