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अालोचना खंड
जल से न्यारी काना कभुवे न होवंगी, तुम हो पुरुष हम नारी ।
लाज मोहुँ अावत भारी ।। तुम तो कु वर नंदलाल कहावो, में ब्रजभान दुलारी। मीराँ के प्रभु गिरधर नागर, तुम जीते हम हारी।
चरन पर जाउँ बलिहारी ॥
. [बृहत् काव्य दोहन भाग ७ मीरां के पद नं०११२ ] श्रावरण-विरहित ब्रह्म-रूपी पुरुष मुरारी की जीत हुई और माया के प्रावरण से बाच्छादित जीव-रूपी नारी राधा ने अपना पराजय स्वीकार किया, परंतु उस जीव का भी कितना अटल निश्चय है "जल से न्यारी काना कभुवे न होवूगी तुम हो पुरुष हम नारीलाज मोहूँ श्रावत भारी ।" नारीत्व की मर्यादा का कितना सुंदर चित्रण है।
वहीं नारीत्व की मर्यादा मीरों की भक्ति और कवित्व का मूल रहस्य है । जीव की नारी भावना को लेकर और भी कितने कवियों ने माधुर्य-भाव की भक्ति-धारा प्रवाहित की है, परन्तु उन कवियों ने नारीत्व की मर्यादा का ध्यान नहीं रखा, नारी जीवन की पवित्रता और महानता का चित्र उपस्थित नहीं किया। उन्होंने केवल उच्छखल नारी-प्रकृति का ही चित्र उपस्थित किया । उन कवियों · लगभग सभी के सभी पुरुष थे, इसी कारण सम्भवतः उन्होंने नारी-जीवन की पवित्र मर्यादा का निर्वाह नहीं किया; परन्तु उनमें जो स्त्री कवि भी हुई हैं, उन्होंने भी परम्परा के वशीभूत होकर नारी-प्रकृति की पवित्रता और मर्यादा का ध्यान नहीं रखा। मीराँबाई ने उस परम्परा की अवहेलना कर नारी-ज वन की जो एक मर्यादा स्थापित की, वह भारतीय साहित्य में अद्वितीय है । वृंदावन में गौएँ चरानेवाले मुरलीधर श्याम से बे प्रार्थना करती हैं :
मने चाकर राख जी, मने चाकर राखो जी। चाकर रहतूं बाग लगासं, नित उठ दरसण पासू । बिन्द्राबन की कंज गलिन में, तेरी लीला गासं ॥
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