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मीराँबाई
चाकरी में दरसण पाऊँ,सुमिरण पाऊँ खरची। भाव भगति जागीरी पाऊँ,तीनों बाताँ सरसी ।। मोर मुकट पीताम्बर सोहै, गल बैजन्ती माला । बिन्द्राबन में धेनु चराबे, मोहन मुरली वाला ॥ हरे हरे नित बन्न बनाऊँ,बिचबिच राखू क्यारी। सांवरिया के दरसण पाऊँ, पहर कुसुम्भी सारी ।। जोगी पाया जोग करण क,तप करणे संन्यासी । हरी भजन क साधू पाया,बिन्द्रावन के बासी ॥ मीराँ के प्रभु गहिर गभीरा सदा रहो जी धीरा । आधी रात प्रभु दरसण दैहै,प्रेम नदी के तीरा ।।
[मीरांचाई की पदावली पद सं० १५४ पृ० ७४-७५ ] नारी ने पुरुष से चाकरी मांगते हुए उसके उद्यान में मालिन बनने की प्रार्थना की । इसमें उसको कितने ही लाभ थे। अपने प्रियतम की प्रिय वस्तु को सँभालने और सजाने का रुचिर कार्य, फिर प्रातःकाल फूल अर्पित करते समय स्वामी का दर्शन, अवकाश के समय उद्यान के हरे-भरे कुजों में धूम-घूम कर प्रियतम की लीलाओं का सुमधुर गान, उनके लिये नई-नई क्यारियां सजाना,नए-नए फूल खिलाना और अंत में कुसुम्भी सारी पहन कर सांवलिया का दर्शन पाना-कितने अलभ्य लाभ हैं । कुसुम्भी सारी पहन कर 'सांवलिया' के दर्शन पाने की लालसा अपने प्रियतम पुरुष को आकर्षित करने के लिये नहीं है,वह तो केवल अपने संतोष के लिए है,अपनी सहज नारी प्रकृति की तृप्ति के लिए है। बंगाल के कवीन्द्र रवीन्द्र ने इसी सहज 'नारीप्रकृति का चित्रण करते हुए अपने एक गीत में लिखा है :
"श्रो मां ? अाज राजकुमार हमारे द्वार पर से ही निकलने वाले हैं, इस प्रातःकाले में अपना नित्य का अावश्यक कार्य कैसे कर सकती हूँ। मुझे मेरा केश बांधना सिखलाओ, आज मैं कौन-सा वस्त्र धारण करूँ, यह बतलाश्रो।
मां ! मेरी ओर श्राश्चर्यचकित होकर क्या देख रही हो ?
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