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आलोचना खंड
१०६
__ मैं अच्छी तरह जानती हूँ कि वे राजकुमार मेरे वातायन की ओर एक बार भी दृष्टिपात न करेंगे; वे निमिष मात्र में ही मेरे दृष्टि-पथ से दूर चले जाएँगे, केवल वीणा की निरंतर क्षीण होती हुई स्वर-धारा ही बहुत दूर से सिसकती हुई मेरे पास तक था सकेगी। __ परन्तु राजकुमार मेरे ही द्वार पर से जाएँगे और मैं उस समय अपने संदरतम परिधान में मुसज्जित रहूँगी।"
मीराँ ने इसी सहज नारी-प्रकृति का जो भावमय चित्रण किया है वह कितना सरल है फिर भी कितना मधुर । नारी का पुरुष के प्रति जो एक स्वाभाविक याकर्षण है वह केवल एक आकर्षण मात्र है, एक कुतूहल है जिसमें किसी वासना का लेश नहीं, कोई कामना नहीं, जो स्वच्छंद होने पर भी पवित्र है। इसी स्वच्छंद और पवित्र नारी-भावना से मीराँ अपने गिरधर नागर का दर्शन करना चाहती हैं । फिर यह बाग लगाने की चाकरी मीराँ जैसी नारी को ही शोभा देता है । जो असंख्य अनगिनत नारियों का एक ही पुरुष है, जिसकी श्रद्धा और सेवा के लिए लक्षावधि नारियाँ अपनी भिन्न-भिन्न भावनाओं से प्रस्तुत हैं, वहाँ यह प्रेमपूर्ण भावप्रवण चाकरी कितनी अदभुत और अपूर्व है । मीरा ने ही पहले-पहल इस प्रेमपूर्ण चाकरी की कल्पना की थी और उनके साढ़े तीन सौ वर्षों बाद बंगाल के कवीन्द्र रवीन्द्र ने सम्भवतः उन्हीं से प्रभावित होकर इस चाकरी को वरण किया था। वे लिखते हैं :
1. O mother, the young Prince is to pass by our door ---how can I attend to my work this morning ? Show me how to braid up my hair; tell me what garment to put on
Why do you look at me amazed, Mother?
I know well he will not glance up once at my windows; I know he will pass out of my sight in the twinkling of an eye; cnly the vanishing strain of the flute will come sobbing to me from a far. . But the young Prince will pass by our door, and I will put on my best for the moment.
( Gardener VII Song.)
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