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मीराँबाई प्रकट और प्रत्यक्ष भिन्नता दिखलाई पड़ती है, वह माया के कारण है । माया के आवरण से आच्छादित होकर जीव ब्रह्म से विलग हो जाता है । माया के इस अावरण ने निराकार को साकार, निर्गुण को सगुण, असीम को ससीम और अनंत को सांत बना दिया है । जो ज्ञानी हैं, जिन्हें निर्गण और निराकार असीम और अनंत का श्राकर्षण विशेष है, वे इस माया के आवरण को स्वीकार करना नहीं चाहते, इसे वे भ्रांति मानते हैं, अज्ञान समझते हैं। स्वप्न में अनुभव किए गए सुख और दुःख जैसे असत्य हैं, यह माया जगत भी ठीक वैसा ही है । इसीलिए ज्ञानी पुरुष इस नाया के आच्छादन को भेद कर ब्रह्म में विलीन हो जाना चाहते हैं। परन्तु जो ज्ञानी नहीं हैं, जिन्हें निर्गण और निराकार असीम और आनंत के प्रति विशेष आकर्षण नहीं हैं, वरन् इस सगुण
और साकार प्राणी के प्रति जिनमें मोह और ममता है वे इस माया के प्रावरण को सत्य मानकर उसे स्वीकार करते हैं; वे ब्रहा में विलीन होना नहीं चाहते, ब्रह्म का सान्निध्य प्रात करना ही उनका चरम उद्देश्य होता है । भागवत पुराण में इस प्रावरण-विरहित ब्रा को कवित्व की भाषा में पुरुष की और माया के प्रावरण में आच्छादित जीव को लज्जा के यावरण में रहने वाली नारी की संज्ञा दी गई है। ब्रह्म पुरुष है, जीव नारी और इसी आधार पर माधुर्यभाव की भक्ति की प्राण-प्रतिष्ठा हुई है।
हिन्दी साहित्य-संसार में मीराँबाई माधुर्य-भाव की भक्ति की प्रतीक हैं । मीरों को अपने नारीत्व का पूर्ण ज्ञान है, अपने लज्जा के प्रावरण के प्रति मोह है। उस श्रावरण-विरहित ब्रह्म की श्रेष्ठता स्वीकार करता हुई भी वे अपना आवरण छोड़ना नहीं चाहतीं। भागवत की प्रसिद्ध चीर-हरण-लीला का वर्णन करती हुई वे कहती हैं :
मट द्यो मेरो चीर, मोरारी, मोरारी रे झट द्यो मेरो चीर । ले मेरो चीर कदम चढ़ बैठो, में जल बीच उघाड़ी। ऊभी राधा अरज करत हे, हो चीर दीवो गिरधारी ।
प्रभु तोरे पाँव परूँगी। जे राधा तेरो चीर चहत हो. जल से हो जा न्यारी ।
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