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मीराँबाई
सं० १६२२ के आसपास अथवा कुछ बाद में प्राप्त किया होगा । मीराँबाई के अतिरिक्त अन्य सभी भक्तों का सं० १६२२ तक जीवित रहने का निश्चय -सा इस पद से यह निष्कर्ष निकालना अनुचित न होगा कि मीराँबाई भी सं २६२२ के आसपास तक जीवित थीं ।
है,
हरि-भक्तों को पिता समझ कर हृदय से लगाना मीरांबाई की ही विशेषता थी । मीरों के चरित्र की यह पवित्रता और उच्चता, सरलता और विनम्रता उनके काव्य में प्रतिबिम्बित हुई है ।
'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' में भी मीराँबाई के सम्बंध में कुछ बातें मिलती हैं। यह प्राचीन वार्ता ग्रंथ गुसाई गोकुलनाथ द्वारा सं० १६२५ में लिखा माना जाता है | इसकी प्रामाणिकता के सम्बंध में विद्वानों को संदेह रहा है । अभी कुछ ही दिनों पहले विद्या विभाग काँकरोली से प्रकाशित 'प्राचीन वार्ता रहस्व' द्वितीय भाग की भूमिका में इस ग्रंथ को प्रामाणिक प्रमाणित करने की चेष्टा की गई है, और इन वार्ताओं के सम्बंध में कुछ नई बातें भी बतलाई गई हैं। 'चौरासी वैष्णवन की बार्ता' तथा 'दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता' के तीन संस्करण माने जाते हैं। मूल रूप में इन वार्ताओं का जन्म मौखिक कंथन और प्रवचन द्वारा हुआ । श्री गोकुलनाथ जी कथा प्रवचनों में 'बैठक चरित्र, बरू वार्ता और सेवकों से सम्बंध रखने वाले चरित्र (वार्ता के प्रसंग ) वर्णन करते थे ।' इस प्रथम संस्करण का समय सं० १६४२ से १६४५ तक माना गया है । इसके कुछ समय पश्चात् 'संग्रह की साहजिक मानवीय लिप्सा वृत्ति ने उन्हें सुरक्षित रखने के लिए एक अव्यवस्थित लिखित स्वरूप दिया जिसका समय सं० १६९४ से १७३५ तक माना जाता है । यह द्वितीय संस्करण था जिसमें ८४ और २५२ वैष्णवों का वर्गीकरण किया गया और गोकुलनाथ जी के शिष्य हरिराम ने वार्तायों में गोकुलनाथ जी का नाम निर्देश किया । तीसरा संस्करण श्री हरिराय जी के समय में हुआ । इसी समय हरिणय ने भाव प्रकाश' नामक टिप्पण भी लिखा । इस प्रकार वार्ताओं को प्रामाणिक प्रमाणित अवश्य किया गया परंतु इतिहास और जीवन-चरित्र के लिये इसकी उपयोगिता नगण्य है । इसका कारण यह है कि ये वार्ता-ग्रंथ
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