________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
आलोचना खंड
जलधारा से सभी अक्षर एकाकार होकर फैल जाते हैं, परन्तु मोराँ जब अपने प्रिय गिरधर नागर को पत्र लिखने बैठती हैं, तब न तो स्याही सूखती है, न कलम की डंक जलती है, न कागज भस्म होता है, न भीगता ही है। फिर भी उनसे पत्र लिखते नहीं बनता। वे कहती हैं :
उत्तियाँ मैं कैसे लिखू लिखही न जाई । टेक ॥ कलम धरत मेरो कर कंपत, हिरदो रहो घराई । बात कहूँ मोहिं बात न श्रावै, नैन रहे फर्राई । किस विध चरण कमल मैं गहिहौं, सबहि अंग थर्राई । मीराँ कहै प्रभु गिरधर नागर, सबही दुख बिसराई ॥
[मी० पदा० पद सं० ७७ ] उस लज्जाशीला से बात ही कहते नहीं बनता । यद्यपि विरह ने उसे इतनी व्यथा दी है फिर भी अपने प्रियतम को वह क्या लिखे, कैसे लिखे, यह समझ ही में नहीं आता । कितनी स्वाभाविक बाल मोरों ने कितने सरल ढग से कह दी है। जायसी की विरहिणी की भाँति वह अपने प्रियतम के पास इस प्रकार का संदेश नहीं भेजती कि :
__ पिय सों कहेहु सँदेसड़ा, हे पंछी हे काग ।
सो धनि विरहे जरि मुई, तेहि क धुनौं मोहिं लाग । क्योंकि इस संदेश में असम्भव अतिशयोक्ति के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है वह तो यदि कोई ले जा सके तो अपनी सच्ची व्यथा का ही संदेश भेजेगी कि :
रमैया, बिन नींद न पावै। नींद न आवे बिरह सतावे, प्रेम की आँच हुलावै ॥ टंक ॥ बिन पिया जोत मंदिर अँधियारौ, दीपक दया न आवै। पिया बिन मेरी सेज अलूनी, जगत रैण बिहावै ।
पिया कब रे घर श्रावै । दादुर मोर पपीहा बोले, कोयल सबद सुणावै । घुमट घटा अलर होइ श्राई, दामिन दमक डरावै ।
नैन झर लावै ! मी० ११
For Private And Personal Use Only