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मीराबाई
फायदा न हुश्रा तो अपने मुसाहब की सलाह से जो बीजावर्गी जात का महाजन था, मीराबाई के मारने की तजबीज की, पहिले फूलों की डालियों में सांप-विच्छ छुपा-छुपा कर भेजे और फिर एक प्याला जहर हलाहल का तैयार करके उसी महाजन को दिया कि भाभी जी को पिला ग्रावे । “अागे फिर लिखा है कि “ मीराँबाई ने उस मुसाहब को सराप दिया कि तेरे कुल में
औलाद हो तो माया न हो और जो माया हो तो औलाद न हो । कहते हैं कि इस सराप का असर कुल कौम पर पड़ा। जोधपुर में जो बीजावर्गी बनिये हैं वे भी यही कहते है कि मीराँबाई के सराप से अब तक हमारी औलाद और आमदनी में तरक्की नहीं होती है। 'मेवाड़ के बीजावर्गी तो तीन तेरा हो गए हैं और जब ही से राजों में इस कौम का ऐतबार जाता रहा है और कहीं किसी बीजावर्गी को राज का काम नहीं मिलता।"
अस्तु, साधारण लोगों में जो प्रसिद्ध है कि राणा ने मीराँ पर अत्याचार किए, वह सत्य नहीं है। वास्तव में महाजन जाति का बीजावर्गी ही इन सब अत्याचारों के मूल में था।
मीराँबाई के नाम के सम्बंध में कुछ विद्वानों का अनुमान है कि यह नाम नीराँ का वास्तविक नाम न था केवल संतों द्वारा दिया गया उपनाम मात्र था जो अागे चलकर इतना अधिक प्रचलित हो गया कि मीराँ का वास्तविक नाम एकदम विस्मृत हो गया । इस अनुमान का कारण 'मीराबाई' नाम की असाधरणता है । डा० पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल के मतानुसार 'मीराँ, शब्द का प्रयोग 'कबीर-ग्रंथावली' में तीन स्थानों पर और दाद की बानी में एक स्थान पर मिलता है, अन्यत्र कहीं भी इस शब्द का प्रयोग नहीं मिलता । 'मीराँ' शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए डा० बड़ाथ्वाल इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि यह शन्द फारसी का है, संस्कृत का नहीं । अस्तु, उनका यह अनमान अनुचित नही है कि मीरों की भक्ति भगवान से प्रभावित होकर किसी संत-- विशेषकर मुसलमान संत-ने उन्हें यह नाम दिया हो।
१ मीराबाई का जीवन-चरित्र पृ० ११-१२ । २ वही
पृ० १३ ।
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