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जीवनी खंड
होती तो प्रियादास इसका उल्लेख करना कभी न भूलते रघुराजसिंह रचित भक्तमाला' में भी मीराँ रैदास की शिष्या नहीं है, केवल इन पदों में ही मीराँ रैदास की शिष्या जान पड़ती है जो सम्भवतः रैदास के शिष्यों की रचनाएँ है। गुजरात में रविदासी सम्प्रदाय का बहुत अधिक प्रभाव पहले भी था और अब भी है। जब मीराबाई की कोर्ति गुजरात में बहुत अधिक फैलने लगी क्योंकि गुजरात में मीराँ के पदों का उतना ही प्रचार है जितना संयुक्त प्रांत में तुलसी और सूर के पदों का तब अपने गुरु का महत्व घोषित करने के लिए रैदास के शिष्यों ने सम्भवतः मीरों के नाम से इस प्रकार के पद लिखकर प्रचलित करा दिए।
स्थान और काल की दृष्टि से मीराँ. रैदास की शिष्या नहीं हो सकती। रैदास काशी के निवासी और संत कबीर के समकालीन थे और उनका समय सं० १४५५ से १५७५ के अासपास माना गया है। रैदास की मृत्यु के समय मीरों की अवस्था अधिक से अधिक १८ वर्ष की हो सकती थी और उस समय तक उनके पतिदेव भी जीवित थे । अतः सं० १५७५ के पहले तक मीरों का काशी के चौक में संत रैदास को गुरु रूप में प्राप्त करना असम्भव जान पड़ता है और १२० वर्ष की बृद्धावस्था में रैदास का काशी से मेवाड़ की यात्रा करना तो एक दम असम्भव कल्पना है । अस्तु, स्थान और काल के विचार से मीरों और रैदास का एक दूसरे के सम्पर्क में आना सम्भव ही नहीं था। फिर सिद्धांत की दृष्टि से मीरौं रैदास की शिष्या नहीं हो सकतीं। 'चौरासी वैष्णवन को वार्ता' से स्पष्ट है कि मीराँ की प्रकृति बहुत ही स्वतंत्र और उदार थी । कितना ही प्रयत्न करने पर भी वल्लभाचार्य के शिष्य उन्हें अपने साम्प्रदाय में न ला सके थे। नच तो यह है कि मीरा की भक्ति-भावना साम्प्रदायिकता की सीमा से बहुत परे थी। यह सम्भव है कि अपनी उदार
और विनम्र भावना के कारण उन्होंने सभी सम्प्रदाय वालों की सत्संगति की होगी और बहत सम्भव है कि अपनी पितामही सास झाली रानी के पास पाने जाने वाले रैदास के शिष्यों के सम्पर्क में भी वे श्राई हों, और उनसे प्रभावित भी हुई हो, परंतु किसी सम्प्रदाय-विशेष अथवा गुरु विशेष की शिष्या बनकर रहना उनकी प्रकृति के अनुकूल न था।
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