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मीराँबाई
कोई प्रमाण नहीं मिलता । यदि यह भी मान लिया जाय कि सं०१६१२-१३ के श्रासपास मीरौं फिर मेवाड़ लौट आई थीं, तब भी उनपर 'स्वजनों द्वारा अत्याचार किये जाने का कोई प्रमाण नहीं मिलता जिससे प्रेरित होकर वे इस प्रकार का पग गुसाई जी के पास भेजतीं । जैसा कि आगे चलकर विचार किया गया है, सं० १६११ में चित्तौड़ में मीराँ के गिरधर नागर की मूर्ति प्रतिष्ठित कराई गई थी, फिर उनके साथ दुव्र्यवहार कैसे हो सकता था। सारांश यह कि ये सभी अनुमान असंगत है और मीराँबाई के परमार्थी पत्रव्यवहार में लेश मात्र भी। सत्य नहीं है, केवल गुसाई तुलसीदास की महत्ता 'प्रमाणित करने के लिए उनके भक्तों द्वारा कल्पित जान पड़ती है। . इसी प्रकार मीरों के रैदास की शिष्या होने की जनश्रुति भी केवल रैदास की महत्ता बढ़ाने के लिए गढ़ी जान पड़ती है। इस जनश्रुति का मूल श्राधार मीरों के नाम से प्रसिद्ध कुछ स्फुट पद है:
१. मेरो मन लागो हरि जी सं, अब न रहूँगी अटकी । गुरु मिलिया रैदास जी, दीन्हीं ज्ञान की गुटकी' ।।
मी० शब्दा. वे० प्रे० पृ० २५ २. गुरु रैदास मिले मोहिं पूरे, धुर से कलम भिड़ी ।
सतगुरु सैन दई जब पाके, जोत में जोत रली ॥ ३. रैदास मंत मिले मोहिं सतगुरु दीन्हा सुरति सहदानी !
४. मीरा ने गोविन्द मिल्या जी, गुरु मिलया रैदास ॥ और गुजरात में मीरों का एक पद प्रसिद्ध है:
झाँझ पखावज वेणु बाजिया, मालरनो झनकार ।
काशी नगर ना चोक मा मने गुरु मिलिया रोहिदास ॥ परंतु प्रियादास की टीका में मीरों को रैदास की शिष्या नहीं लिखा गया है, वरन् उनकी पितामही सास राणा सांगा की माता काली रानी रतकुंवरि को प्रियाहास ने संत रैदास की शिष्या लिखा है। यदि मीरा भी रैदास की शिष्या २१ घूट। २ बसन्त चितौर मांझ रानी एक झाली नाम नाम विन काम वाली, पानि शिष्य भई है।" प्रियादास की टोका में रैदास के सम्बंध में मिलता है।
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