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जीवनी खंड
आवश्यकता पड़ी होगी, जैसा कि जनश्रुति में प्रसिद्ध है, तो वह समय सं०१५६० के आसपास अथवा उससे पहले ही हो सकता था जब कि उनके देवर राणा विक्रमादित्य का अमात्य वीजावर्गी उनपर अनेक अत्याचार कर रहा था। सं० १५६१ के पहले ही मीराँ ने मेवाड़ त्याग दिया था क्योंकि उस वर्ष चित्तौड़ में जो साका हुअा था उसमें मीराँबाई न थीं । अतः इस पत्र का समय अधिक से अधिक सं० १५६१ हो सकता है, परंतु 'गुसाई-चरित' में यह तिथि १६१६ दी गई है जब कि मीराँ सम्भवतः मेवाड़ में थी भी नहीं। यदि यह भी मान लिया जाय कि सं० १५६०-६१ के आसपास मीराँ ने कोई पत्र भेजा था तब भी इस जनश्रुति की संगति नहीं बैठ पाती क्योंकि उस समय तक तुलसीदास पैदा ही हुए थे, क्योंकि विद्वानों ने बहुमत से उनका जन्म सं०१५८६ स्थिर किया है। यदि तुलसीदास जी का जन्म सं०१५५४ भी मान लिया जाय जैसा कि बाबा बेणीमाधव दास ने लिखा है तब भी सं०१६६० तक उन्होंने कोई ऐसा कार्य नहीं किया था जिससे मेवाड़ जैसे सुदूर प्रांत में उनकी कीर्ति पहुँच सके । यदि मीराँ को सचमुच ही ऐसा पत्र भेजना था तो वे पास ही में महाप्रभु वल्लभाचार्य, गुमाई विठ्ठलनाथ, महात्मा सूरदास, गुसाई हित हरिवंश,श्री हरिदास अथवा ऐसे ही किसी और महात्मा के पास भेज सकती थी जिन्होंने उस समय तक काफी कीर्ति प्राप्त कर ली थी और मेवाड़ के पास ही ब्रजमंडल के निवासी थे। कुंवर कृष्ण ने बाबा वेणीमाघ वदास के कथन को सत्य और सुसंगत प्रमाणित करने के लिए अपने निबंध 'मीराँबाई-जीवन और कविता में यह अनुमान लगाया है कि 'जब ब्रज-भूमि में मुगल पठानों के रण-वाद्य बजने लगे तो सम्भवतः सं०१६१२-१३के आसपास (मीराँ) पुनः चित्तौर की ओर रवाना हुई ।...... सम्भवतः इसी समय उन्होंने सुखपाल के हाथ पत्रिका भेजी होगी जो उन्हें ( गुसाई तुलसीदास जी को) सं०१६१६ के बाद मिल सकी थी। इस अनुमान में कुछ भी सत्य नहीं है क्योंकि मीराँ बृदावन से मीधे द्वारका नली गई थीं। उनके फिर मेवाड़ लौट आने का
१ पारपद् निबंधावली द्वितीय भाग (हिन्दी परिषद्, प्रयाग 1वश्वाालय द्वारा प्रकाशित) प्रथम निबंध।
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