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मीराँबाई
गया । परन्तु इस पत्र-व्यवहार की सत्यता पर विश्वास करना किसी प्रकार भी सम्भव नहीं है। बाबा बेणीमाधव दास ने अपने चरित-नायक की महत्ता प्रमाणित करने के लिए उस युग के सभी लब्धप्रतिष्ठ भक्तों और कवियों का तुलसी से संबंध स्थापित करने के लिए कथाएँ गढ़ी हैं जिनमें लगभग सभी की सभी स्थान, काल और पात्र की दृष्टि से विचार करने पर असंगत और असम्भव जान पड़ती है । महाकवि केशवदास एक ही रात में राम-चंद्रिका जैसे बृहत् महाकाव्य की रचना करके अस्सी घाट पर गुसाई जी के दर्शन के निमित्त पाते है; मुसलमान कवि रसखान को तीन वर्ष तक 'मानस' की कथा सुननी पड़ती है; टट्टी सम्प्रादाय के प्रवर्तक भक्त शिरोमणि महात्मा हरिदास को गुसाई जी से अपना पद शुद्ध कराने निधुवन और वृन्दावन छोड़कर अयोध्या आना पड़ता है और इतना ही नहीं स्वयं महात्मा सूरदास को ७६ वर्ष की बृद्धावस्था में अंधेपन और बुढ़ापे की उपेक्षा कर अपना सूरसागर दिखाने अपने से अवस्था में बहुत छोटे तुलसीदास जी के यहाँ काशी अाना पड़ता है । मेवाड़ जैसे सुदूर प्रांत में रहने अथवा मेवाड़ राजवंश की कुलवधू होनेके कारण ही मीरा पर बाबा जी की कुछ विशेष कृपा हुई कि उन्हें स्वयं परामर्श लेने काशी नहीं
आना पड़ा, वरन सुखपाल विप्र द्वारा एक पत्रिका भेज कर ही वे छुट्टी पा गई । सारांश यह कि सूर, मीराँ, हरिदास, केशव, रसखान और सम्राट अकबर
आदि सभी से गुसाई तुलसीदास को श्रेष्ठतर और महत्तर प्रमाणित करने के लिए ये सब कथाएँ गढ़ ली गई हैं, पर इनमें सत्य की मात्रा लेश भर भी नहीं है।
स्थान, काल और पात्र की दृष्टि से विचार करने पर यह जनश्रति असत्य और असंगत ठहरती है। यदि सच ही मीराँबाई को कभी ऐसे पत्र भेजने की
कुछ लोगों का मत है कि इस पद के साथ निम्न लिखित सवैया भी गुसाईजी ने लिखा था
सो जननी सो पिता सोइ भ्रात, सो भामिन सो हित मेरो। सोइ सगो सो सखा सोह सेवक, सो गुरु सो सुर साहिब चेरो॥ सो तुलसी प्रिय प्रान समान, कहां लो बताइ कहाँ बहुतेरो। जो तजि गेह को देह को नेह, सनेह सों राम को होय सबेरो।।
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