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मीराबाई
मृत्यु शाके १५४० (सं० १६७५ ) में हुई थी। कुछ विद्वानों का ऐसा भी मत है कि उनकी जन्म तिथि सं० १५७ . है। चाहे जो भी हो जीव गोस्वामी का जन्म ममय सं० १५७० से पहले नहीं बाद में ही पड़ता है और इस प्रकार वे मीराँ से दश अथवा उससे भी कुछ अधिक वर्ष छोटे प्रमाणित होते है । फिर मीनें जब बूंदाबन गई थीं उस समय उनकी अवस्था भी चालीस वर्ष से कम ही थी। अतः तीम वर्ष से भी कम अवस्था वाले संन्यासी के दर्शन के लिए चालीस वर्ष की प्रौड़ वयस्का भक्त का जाना कछ असंगत सा जान पड़ता है जब कि उसी समय और उसी स्थान पर जीव के दोनों परम विख्यात भक्त और विद्वान् चाचा रूप और सनातन भी उपस्थित थे। यह सच है कि
आगे चलकर जीव गोस्वामी विद्वत्ता, भक्ति और कीर्ति तीनों ही में अपने दोनों चाचा से बाजी मार ले गए थे, परंतु जिस समय (सं० १५६६-१६००) मीरों बूंदाबन में थीं उस समय जीव एक नवयुवक संन्यासी मात्र थे और रूप, सनातन पचास वर्ष के प्रौढ़ भक्त और प्रख्यात विद्वान् थे। अतः मीराँबाई का रूप गोस्वामी के दर्शनों के लिए जाना अधिक सुसंगन और सम्भव जान पड़ता है जैसा कि शिशिरकुमार घोष ने लिखा है। जान पड़ता है कि जीव गोस्वामी को अधिक कीर्ति फैलने के कारण ही रूप के स्थान पर जीव का नाम प्रचलित हो गया।
मीराँबाई और गोसाई तुलसीदास के बीच जो परमार्थी पत्र व्यवहार की कथा प्रसिद्ध है वह न तो प्रियादास की टीका में ही मिलती है औरन रघुराज सिंह कृत 'भक्तमाल' में ही उसका उल्लेख है। जान पड़ता है कि 'गोसाईचरित, के रचयिता बाबा वेणीमाधव दास ने ही पहले पहल इसकी कल्पना की । गुमाई चरित' में लिखा है:
1- A tradition in Bengal gives Saka 1445 (1523 A. D.) and Saka 1540 (1618 A. D.) as the dates of his (Jive-Gos. wami's) birth and death respectively. (History of Sanskrita poetics Vol. I pages 255-256- Ist ed. 1923.)
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