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आलोचना 'खंड
१५३
राधा और मीरा - राधा और मीराँ दोनों ने ही भगवान् कृष्ण से प्रेम किया था। बंगाल के वैष्णव कवियों तथा विद्यापति ने राधा का कृष्ण के प्रति प्रेम प्रथम दर्शन में ही व्यक्त किया है । यह प्रेम भी एक ही ओर नहीं दोनों ओर है; श्रीकृष्ण जी भी प्रथम दर्शन में ही अपना हृदय खो बैठते हैं । प्रथम दर्शन के पश्चात् ही राधा और कृष्ण का प्रेम व्यक्त करते हुए विद्यापति लिखते हैं :
जबहिं दुहुँ दिठि बिरल, दुहु मन दुख लागु । दुहुक आसदिय बूफल, मनमथ आँकुर भांगु । विरह दहन दुहु तात्रय, दुहु समीहय मेलि । एकक हृदय एक न पाउल, ते नहिं पाउल केलि ॥
यह रूपजन्य आकर्षण आगे बढ़ कर प्रेम का प्रौढ़ स्वरूप ग्रहण करता है । दूसरी ओर कवि सूरदास को सम्भवतः यह प्रथम दर्शन का रूपजन्य प्रेम रुचिकर न था । इसीलिये उन्होंने बालक्रीड़ानों में ही राधा-कृष्ण का मिलन करा कर साहचर्य द्वारा प्रेम का प्रौढ़ स्वरूप प्रकट किया । परंतु मीरों का अपने गिरधर नागर के प्रति जो प्रेम है उसका प्रारम्भ न प्रथम दर्शन से होता है, न साहचर्य द्वारा उसमें विकास और प्रौढ़ता श्राती है । वह प्रेम विरह से ही प्रारम्भ होता है और विरह में ही उसकी चरम परिणति है । यह बात कुछ असम्भव सी जान पड़ती है, परन्तु सत्य है । गिरधर नागर के प्रति अपनी प्रीति का वर्णन करती हुई मीराँ कहती हैं : मेरी उनकी प्रीति पुरानी, उन बिन पल न रहाऊँ ।
परन्तु यह कितनी पुरानी प्रीति है इसका कुछ ठिकाना नहीं । कहीं-कहीं संकेत रूप में मीराँ ने अवश्य बतला दिया है कि यह प्रीति इस जन्म से भी पुरानी है, वह किसी पूर्व जन्म का प्रेम है :
मेरे प्रीतम प्यारे राम ने लिख भेजूँ री पाती ॥ स्याम सनेसो कबहुँ न दीन्हों जान बूझ गुरु बाती । ऊँची चढ चढ पंथ निहारू रोय रोय अँखिया गती ।
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