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मीराँबाई
वहाँ प्रख्यात भक्त तथा विद्वान् रूप गोस्वामी के दर्शन किए। वृंदावन से मीराँ द्वारका की ओर कब और क्यों गईं इसका कुछ भी पता नहीं है, परंतु इतना तो निश्चय रूप से कहा जा सकता है कि सं० १६०३ से पहले ही वे द्वारका पहुँच गई थीं; क्योंकि प्रायः सभी इतिहासकारों ने सं० १६०३ में द्वारका में मीराँ की मृत्यु निश्चित किया है । सं० १६०३ में मीराँ की मृत्यु नहीं हुई जैसा कि श्रागे विचार किया जाएगा, परन्तु वे उस समय तक द्वारका अवश्य पहुँच गई होंगी । वृंदावन में वे काफी दिनों तक रही होंगी क्योंकि वृंदावन उन्हें बड़ा प्रिय था । वे स्वयं लिखती हैं:
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श्राली महाँने लागे वृंदावन नीको ॥ टेक ॥
घर-घर तुलसी ठाकुर पूजा, दरसण गोविंद जी को ॥ निरमल नीर बहुत जमुना में, भोजन दूध दही को || रतन सिंघासन श्राप बिराजे, मुकट धरयो तुलसी को ॥ कुंजन-कुंजन फिरत राधिका, सबद सुणत मुरली को ॥ मीराँ के प्रभु गिरधर नागर, भजन बिना नर फीको || और 'भक्त नामावली' में भी लिखा मिलता है:
ललिता हू लह बोलि के, तासों हौ प्रति हेत । श्रानंद सों निरखत फिरै, वृन्दावन रस खेत ॥
फिर उस 'रस खेत' वृंदावन को छोड़ वे द्वारका क्यों चली गई, इसका कुछ कारण नहीं मिलता । प्रियादास ने अवश्य इस ओर संकेत किया है कि 'राना की मलीन मति देखि बसी द्वारावती, परन्तु राना की मलीन मति से मीरों के वृंदावन - निवास में क्या बाधा पड़ सकती थी, यह बात समझ में नहीं । सम्भव है कि वृंदावन के समान द्वारका को भी गिरधर लाल का प्रिय स्थान जान कर मीराँ तीर्थ-यात्रा के विचार से गई होंगी और वहीं - रम गई होंगी । कारण चाहे जो भी हो सं० १६०० के आसपास अथवा कुछ पीछे मीराँ वृंदावन से द्वारका चली गई और मृत्यु पर्यन्त वहीं रणछोड़ जी के मन्दिर में निवास करती रहीं ।
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