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चौथा अध्याय
मीराँ की प्रेम-साधना महाप्रभु चैतन्यदेव ने मनुष्य मात्र का धर्म तोन सत्यों पर अवलम्बित माना है। पहला सम्बंध-स्रष्टा और सृष्टि का सम्बंध; दूसरा अभिधेयईश्वर के प्रति मानव का कर्तव्य और तीसरा प्रयोजन अर्थात् मानव-सृष्टि का भविष्य । इन तीनों में सम्बंध का ज्ञान ही सत्य की पहली सीढ़ी है। दर्शन के क्षेत्र में ब्रह्म और जगत् (जीव) का सम्बंध; धर्म के क्षेत्र में ईश्वर
और मानव प्राणी का सम्बंध तथा काव्य के क्षेत्र में शब्द और अर्थ का सम्बंध ही मुख्य विचारणीय विषय है । अस्तु, भक्ति-साहित्य में मगवान् और भक्त का सम्बंध ही सबसे प्रथम और प्रधान वस्तु है ।
दर्शन की भाषा में जो ब्रह्म और जीव का सम्बंध है काव्य की भाषा में वही 'तुम और मैं' के रूप में व्यक्त किया गया है । स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने भगवान तक पहुँचने के तीन मार्ग स्थिर किये हैं--पहला मार्ग अहं अथवा मैं का मार्ग है, जिसमें कि साधक कहता है कि सभी कुछ यहाँ तक कि ब्रह्म भी मैं हूँ दूसरा मार्ग तू अथवा तुम का मार्ग है जिसमें साधक कहता है कि ईश्वर ! सभी स्थान पर तुम्ही तुम हो और यह सभी कुछ तुम्हारा ही है तुम्हारे अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं । तीसरा मार्ग 'तुम
और मैं का मार्ग है जिसमें साधक कहता है कि 'भगवान् ! तुम स्वामी हो मैं सेवक हूँ, तुम प्रियतम हो मैं दास हूँ।' इन तीनों मागों में किसी एक की भी पूर्ण साधना से भगवान् मिल जाते हैं। भक्त कवियों का मार्ग 'तुम
और मैं' का मार्ग है, उन्होंने 'तुम और मैं' का सम्बंध विभिन्न रूपों में प्रकट किया है । कबीर इस सम्बंध को इस प्रकार व्यक्त करते हैं:
कबिरा कूता राम का, मुतिया मेरा नाउँ । गले राम की जेवड़ी, जित बैंचे तित जाउँ ।
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