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अालोचना खंड
११३
मिलना कठिन है कैसे मिलौंगी प्रिय जाय । सममि सोचि पग धरौं जतन से बार-बार डिग जाय ॥ ऊँची गैल राह रपटीली, पाँव नहीं ठहराय ।। लोक-लाज कुल की मरजादा, देखत मन सकुचाय ॥ नैहर-बास बसौं पीहर में, लाज तजी नहिं जाय ।
अधर भूमि जहँ महल पिया का, हम पै चढ़यो न जाय ॥ इत्यादि परंतु मीराँ की नारीत्व पर श्रद्धा थी, विश्वास था । इसीलिए उन्होंने नारी की अज्ञानता, असमर्थता और अबलापन की ओर ध्यान न देकर नारी का अटल प्रेम और विश्वास, सहनशीलता और त्याग देखा और प्रियतम के विरह में लज्जा को तिलांजलि देकर पिया के ऊँचे महल की ओर जाने का प्रयत्न नहीं किया, अभिसार की प्रवृत्त नहीं दिखाई, वरन् अपनी निश्चल भक्ति, व्यथा सहने की क्षमता और त्याग से भगवान को ही अपने निकट खींचने का प्रयत्न किया। विरह की व्यथा से व्याकुल होकर वे गा उठती है:
दरस बिन दूखन लागे नैन । जब के तुम बिछुरे प्रभु मोरे कबहुँ न पायो चैन । सबद सुणत मेरी छतियाँ काँपै, मीठेमीठे बैन । बिरह कथा का काहूँ सजनी, बह गई करवत ऐन ॥ कल न परत पल हरि मग जोवत, भई छमासी रैण ।
मीरों के प्रभु कबरे मिलोगे, दुख मेटण सुख दैण || इस कष्ट-सहिष्णुता में, इस व्यथा में कितना त्याग है, कितना अात्म-समर्पण है, वह भी माराँ स्पष्ट रूप में कह देती हैं :
तुमरे कारण सब सुख छाड्या अब मोहिं क्यूं तरसावी हो। बिरह बिथा लागी उर अंतर, सो तुम श्राय बुझावी हो ।
अब छोड़त नाहिं बन प्रभू जी, हँसि करि तुरत बुलावी हो। __ मीरा दासी जनम जनम की, अंग से अंग लगावी हो।
विद्यापति तथा बंगाल के वैष्णव कवियों ने भी जीवात्मा को नारी का रूपक दिया, परंतु नारी जाति के प्रति उनकी मी श्रद्धा अधिक नहीं थी।
मी.८
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