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मीराँबाई
महातरु छाया में ।
सर्वस्व समर्पण करने की विश्वास चुपचाप पड़ी रहने की क्यों ममता जगती है माया में ॥ इस अर्पण में कुछ और नहीं, केवल उत्सर्ग छलकता है ।
मैं दे दूँ और न फिर कुछ लूँ, इतना ही सरल फलकता है ॥ तब वह नारी - जीवन के सबल पक्ष की ओर संकेत करती है। मध्यकालीन संत कवियों ने नारी-जीवन का केवल निर्बल पक्ष ही देखा था । देखिये कबीर का नारी के प्रति कैसा भाव है :
चलो चलो सबही कहैं, पहुँचै बिरला कोय | एक कनक कामिनी, दुर्गम घाटी दोय ||
नारी की भाई पड़े, अंधा होत भुजंग । कबिरा तिनकी कौन गति, नित नारी के संग ॥
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इसी अश्रद्धा के कारण कबीर ने नारी की अज्ञानता, असमर्थता, बलापन और उसके बाह्य आवरण को ही नारी का सर्वस्व मानकर जीवात्मा पर केवल उन्हीं का आरोप किया । नारी के प्रांतरिक गुण -- उसकी लज्जा, करुणा, विश्वास और अटल प्रेम का आरोप करने का उन्हें ध्यान ही न रहा । श्रस्तु जीवात्मा की अज्ञानता को लक्ष्य करके कबीर कहते हैं :
जागु पियारी अब का सोवै । रैन गई दिन काहे को खोवै ॥ जिन जागा तिन मानिक पाया । तैं बौरी सब सोइ गँवाया || पिय तेरे चतुर, मूरख तू नारी । कबहुँ न पिय की सेज सँवारी ॥ इसी प्रकार नारी की अशुचिता का आरोप करके वे जीवात्मा से कहलवाते हैं :
मेरी चुनरी में परि गयो दाग पिया ।
पांच तत्त की बनी चुनरिया, सोरह से बंद लागे जिया । यह चुनरी मेरे मैके ते श्राई, ससुरा में मनुनाँ खोय दिया मलि मलि धोई दाग न छूटा, ज्ञान को साबुन लाय पिया | कहै कबीर दाग कब छुटि हैं, जब साहब अपनाय लिया ॥ और नारी के बलापन और असमर्थता का ध्यान रख कर वे कहते हैं :
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