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मोरांचाई
उपमा और उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों की झलक अवश्य मिल जाएगी और प्रसाद गुण तो मीराँ की कविता का प्राण ही है, परंतु ये सभी विशेषताएँ सुन्दर काव्यों में साधारण रूप से पाए जाते हैं, कला के रूप में मीरों में इनका लेश मात्र भी नहीं है । और ये जो थोड़े अलंकार मिल भी जाते हैं वे प्रायः अपवाद-स्वरूप ही हैं, क्योंकि इनकी संख्या नगण्य है । सच तो यह है कि जहाँ हृदय की अत्यंत मार्मिक वेदनाओं और गूढ़ भावों को खोल कर रखना पड़ता है, वहाँ गुण और अलंकार, ध्वनि और वक्रोक्ति आदि काव्य-कला की परम्पराओं की कोई उपयोगिता ही नहीं, कोई सार्थकता ही नहीं; वहाँ तो कवितासुंदरी अपने सरल स्वाभाविक वेश में ही अत्यंत आकर्षक जान पड़ती है।
भारतवर्ष में बहुत प्राचीन काल से ही काव्य में कला की प्रधानता स्वीकार की गई है । इसी कारण प्रायः सभी कवियों में कला का गहरा रंग पाया जाता है। परंतु मीराँ की कविता में इसका अपवाद मिलता है। अंधे कवि सूरदास ने विरहिणी राधिका के अंगों की श्रीहीनता दिखलाने के लिए काव्य-परम्परा का सहारा लेकर लिखा है :
तब ते इन सबहिन सचु पायो । जब ते हरि संदेस तिहारौ सुनत ताँवरो आयो । फूले ब्याल दुरे ते प्रगटे पवन पेट भरि खायो। ऊँचे बैठि विहंग सभा बिच, कोकिल मंगल गायो । निकसि कंदरा ते केहरिहू माथे पूँछ हिलायो ।
बन गृह तें गजराज निकसि कै अँग अँग गर्व जनायो । १उपमा-(श्रा नातो नाम को मोसू तनक न तोड़ेयो जाइ।
पाना न्य पीली पडी रे लोग को पिंड रोग। (ब) प्यारे दरसण दोयो आय, तुम बिन रह्यो न जाय ।।
जल बिन कैवल, चंद विन रजनी, ऐसे तुम देख्यां बिन सजनी। २ उत्पेक्षा जबसे मोहिं नंदनंदन दृष्टि पड्यो माई।
तबसे परलोक लोक, कळू न सुहाई।। कुंडल की झलक अलक, कपोलन पर छाई। मनों मीन सरवर तजि, मकर मिलन आई।
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