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बालोचना खंड
और जानकी के विरह में राम के मुख से तुलसीदास ने भी इसी प्रकार की कला की करामात प्रकट किया है जब कि राम कहते हैं :
कुंदकली, दाडिम, दामिनी, कमल, सरद ससि, अहि भामिनी । श्रीफल कनक कदलि हरषाहीं, नेकु न संक सकुच मन माहीं।
सुनु जानकी तोहि बिनु अाजू, हरषे सकल पाइ जनु रानू ।। इस 'रूपकातिशयोक्ति, अलंकार का अानंद सहृदय चाहे जितना पा लें परन्तु राधिका तथा राम के विरह की अभिव्यक्ति इसमें नहीं के बराबर हुई है। मीरों को अपनी विरह व्यथा प्रकट करनी है, इसीलिए उन्हें श्रीफल, दाडिम
और दामिनी तथा व्याल, कोकिल और केहरि की प्रसन्नता की ओर देखने का अवकाश भी नहीं मिलता ; उन्हें तो अपनी ही विरह-व्यथा से छुट्टी नहीं मिलती । वे कितने सरल ढंग से अपनी विरह-व्यथा कह डालती हैं :
मैं विरहणि बैठी जागू, जगत सब सोवै री पाली । बिरहणि बैठी रंगमहल में मोतियन की लड़ पोचै ।। इक विरहणि हम ऐसी देखी अँसुवन की माला पोवै । तारा गिण गिण रैण बिहानी सुखकी घड़ी कब पावै ।
मीरों के प्रभु गिरधर नागर मिल के बिछुड़ न जावै । इस स्पष्ट सरलता में जो सौन्दर्य है वह अलंकार के श्राडम्बर में कहाँ । इसी प्रकार नंदनंदन से अधिक जड़ बादल की प्रोति देखकर रूप-रस की प्यासी गोपियाँ उपालम्भ-स्वरूप कह उठती हैं :
वा ये बदराऊ बरसन पाए । अपनी अवधि जानि नँदनंदन गरजि गगनधन लाए । सुनियत हैं परदेस बसत सखि सेवक सदा पराए । चातक कुल की पीर जानि के, तेउ तहाँ ते धाए ।
तृण किए हरित, हरषि बेली मिलि दादुर मृतक जिवाए ॥ परन्तु मीराँ का ध्यान तो अपने गिरधर नागर पर ही अटल है, उन्हें बादल और चंद्र, मोर और पपीहा आदि की ओर देखने की इच्छा भी नहीं, वे भला
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