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मीराबाई योगी श्रासन मार कर अडिग होकर बैठा है जो न पाते दिखाई पड़ता है न जाते, वह किसी का भी मित्र नहीं । वह विचित्र योगी अधबीच ही में छोड़ कर चला गया, उसकी प्रीति दुःख का मूल है । मीराँ के भाग्य में ऐसा ही दुःख भोगना लिखा था, तभी तो उसकी प्रीति ऐसे योगी से जुड़ गई है। स्वयं मीराँ कहती हैं :
तेरो मरम नाहिं पायो रे जोगी। आसण मांडि गुफा में बैठो ध्यान हरी को लगायो । गल बिच सेली हाथ हाजरियो, अंग भभूति रमायो। मीरों के प्रभु हरि अबिनासी भाग लिख्योसो ही पायो।
[ मीराबाई की पदावली पद सं० १८९] एक योगी का रूप गीता के योगेश्वर कृष्ण के लिए अद्भुत नहीं कहा जा सकता, फिर भी मीरों के इस सेल्ही, हाजरियों से युक्त योगी को गीता के कृष्णा से भिन्न ही मानना पड़ेगा। हीनयान सम्प्रदाय वाले बौद्ध भगवान बुद्ध को 'योगी' कहते थे । महायान सम्प्रदाय में योगी बुद्ध के स्थान पर बोधिसत्व की प्रतिष्ठा की गई परंतु वज्रियान सम्प्रदाय के बौद्धों तथा सिद्धों ने और उन्हीं के प्रभाव से नाथों ने अपने भगवान को योगी के रूप में स्वीकार किया। हठयोग, तंत्र तथा शैवागम के धार्मिक साहित्य में योगी शिव जी का पर्यायवाची शब्द है । नाथ सम्प्रदाय के प्रमुख श्राचार्य गोरखनाथ शैव माने जाते हैं और उनकी हठयोग-परम्परा के संस्थापक श्रादिनाथ स्वय
बोलत बचन मधुर से मान, जोरत नाहीं प्रीत । मैं जाएँ या पार निभेगी, छांड़ि चले अधबीच । मीरों के प्रभु स्याम मनोहर प्रेम पियारा मोत ॥ [ मी० पदा० पद सं०६१] कोई दिन याद करोगे रमता राम अतीत ॥ 'पासण मार अडिग होय वैठा, याही भजन की रीत।। मैं तो जाए जोगी सङ्ग चलेगा, छांड़ गया अथवीच । आत न दीसे जात नदीसे, जोगी किसका मीत । मीरा कहे प्रभु गिरधर नागर, चरणन आवे चीत ॥ [वही पद संख्या ५९]
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