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ज्ञान-समन्वित-भक्ति को सतयुग, त्रेता और द्वापर युगों के उपयुक्त बताकर कलियुग में इसी उग्र भक्ति की उपयोगिता सिद्ध की गई।
भक्तों के अनुभव और अानन्द जब अलौकिक और इन्द्रियातीत की कोटि से नीचे उतारकर लौकिक और इन्द्रियगम्य अनुभूतियों और संवेदनायों की कोटि में ला दिए गए, तब ज्ञान-समन्वित-भक्ति के स्थान पर लौकिक भावनाओं ने भक्ति का स्वरूप धारण किया और अनुभव की तीव्रता की दृष्टि .से इन भावनाओं को भी मुख्य पाँच स्वरूप दिया गया जो साहित्य में शांत, दास्य, सख्य, वत्सल और मधुर के नाम से प्रसिद्ध हैं | अनुभव की अतिशय तीव्रता और भावों के उत्कट आवेग के कारण मधुर-भाव की भक्ति ही सर्वोत्कृष्ट कोटि की भक्ति मानी गई और उनके अभाव में शांत भाव की भक्ति निन्नतम कोटि की भक्ति हुई । दास्य, सख्य, वत्सल भाव की भक्ति इन दोनों के बीच में प्रतिष्टित हुई । इतना ही नहीं, मधुर भाव की इस उग्रतम भक्ति-भावना में भी स्वकीय और परकीय भाव की दो साधनाओं के बीच परकीय भावना के उग्रतर होने के कारण कुछ भक्ति-सम्प्रदायों में परकीय साधना का अत्यधिक महत्त्व स्वीकार किया गया।
भावना की दृष्टि से उग्रतम और तीव्रतम होने पर भी परकीय साधना में उच्छङ्खलता और असंयम को बहुत अधिक प्रश्रय मिला और भक्तों में ज्यों-ज्यों भक्ति-भावना शिथिल पड़ती गई त्यों-त्यों इस साधना ने समाज में उच्छङ्खलता, असंयम और अश्लीलता का बीज बोया । मीरों की भक्तिभावना इस उग्रतम और तीव्रतम कोटि की होती हुई भो उसकी अभिव्यक्ति में उच्छङ्खलता और असंयम नाममात्र को भी नहीं है। गोस्वामी तुलसीदास के काव्य के सम्बन्ध में कहा जाता है कि उनका शृंगार-वर्णन अत्यंत
१.स्वामी रामकृष्ण परमहंस के उपदेशों में एक स्थान पर कहा गया है, “यदि तुम्हें पागल ही बनना है तो सांसारिक वस्तुओं के पीछे पागल मत बनो, वरन् ईश्वर की भक्ति प्रेम के पीछे पागल बनो। इस कलियुग में उग्रभक्ति ही अधिक उपयोगी है और संयमित भक्ति की अपेक्षा शीन फलदायक होती है। ईश्वर प्राप्ति का दुर्गम गढ़ इस उग्र भक्ति में ही तोड़ना चाहिये।
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