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आलोचना खंड
१५७ इसी लौकिक भक्ति का प्रतिपादन किया गया है जो हृदय की एक मधुर और सरस भावना की बाढ़ के तुल्य है, जो एक नशा है, एक उन्माद है । कबीर स्पष्ट शब्दों में उपदेश करते हैं :
पीले प्याला हो मतवाला, प्याला नाम अमी रस का रे। और मीराँ भी इसी नशा और उन्माद का वर्णन करती हुई कहती हैं :
लगी मोहिं राम खुमारी हो ।
रिमझिम बरसै मेहड़ा भीजे तन सारी हो। इस लौकिक भक्ति-भावना के अनुभव से जिस सात्विक भाव और अनुभाव की अभिव्यक्ति होती है उसका वर्णन भक्त कवियोंने बड़े सुन्दर ढंग से किया है । गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस में भक्तों के सात्विक भावों का, उनके भक्ति से द्रवित हृदय का, अविरल अश्रुधारा, गदगद कंठ, हास्य और प्रसन्नता का बड़ा ही सुन्दर चित्र उपस्थित किया है। अरण्य कांड में 'प्रेम मगन' सुतीक्ष्ण का एक चित्र देखिए :
निर्भर प्रेम मगन सुनि ग्यानी । कहि न जाइ सो दसा भवानी । दिसि अस विदिसि पन्थ नहिं सूमा । को मैं चलेउँ कहाँ नहिं बूझा ।
कबहुँक फिरि पाछे पुनि जाई । कबहुँक नृत्य करै गुन गाई।। यह प्रेम के मतवाले का उन्माद है और भक्ति-काल इसी उन्माद की एक व्यापक अभिव्यक्ति से ओतप्रोत है। भक्त के अंतरतम की प्रानन्द-धारा बाढ़ के जल के समान समी इन्द्रियों से फूट निकलती थी। तभी तो मीराँगा उठती हैं:
मैं तो साँवरे के रज रांची।
साजि सिंगार बाँध पग घुघुरू लोक लाज तजि नाची। अस्तु, भक्ति-काल की मुख्य विशेषता यह थी कि ध्यान और धारणा वाली भक्ति तथा अंतरतम की अानन्दधारा का सम्बन्ध लौकिक भावनात्रों
और इन्द्रियगत अनुभूतियों की अभिव्यक्ति से जुड़ गया । ज्ञान-समन्वित-भक्ति के स्थान पर पागल बना देने वाली उग्रभक्ति का प्रचार हुआ । शान क्या
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