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मीराँबाई
और भी, प्रभु जी थे कहाँ गया नेहड़ी लगाय ॥ टेक ॥
छोड़ गया विस्वास सँगाती, प्रेम की बाती बराय ॥ नीदड़ी नहिं आवै सारी रात, किस विश्व होइ परभात ॥
अथवा
प्रीतड़ी और दुखड़ा, ओलूड़ी और जिबड़ो, रमइया और सँगाती, नेहड़ी और नींदड़ी इत्यादि शब्दों में कितनी स्वाभाविक रमणीयता है । श्रनगढ़ और बीहड़ चट्टानों पर उछलती हुई जल की धारा जिस प्रकार मधुर संगीत उत्पन्न करती है, मीरों की स्वाभाविक भाव-धारा भी इन अनगढ़ और स्वाभाविक शब्दों में उसी प्रकार का संगीत उत्पन्न करती है । यह स्वच्छंद संगीत-धारा केवल मीरों के ही पदों में मिल सकती है जो यमक और अनुप्रास के श्राडम्बर से उत्पन्न हुई संगीत से कम मधुर नहीं है । यह सत्य है कि
ललित - लवंग लता - परिशीलन कोमल मलय समीरे । मधुकर-निकर-करम्बित कोकिल कूजित कुंज कुटीरे ।
की कोमल कांत-पदावली अत्यंत मधुर है; परंतु मीराँबाई की :
राम मिलण रो घणो उमावो, नित उठ जोऊँ बाटड़ियाँ । दरस बिना मोहिं कुछ न सुहावै, जक न पड़त है आँखड़ियाँ । तलफत तलफत बहु दिन बीता, पड़ी विरह की पाशड़ियाँ ।
तो बेगि दया करि साहब, मैं तो तुम्हारी दासड़ियाँ । नैण दुखी दरसण कँ तरसें, नाभि न बैठे साँसड़ियाँ । राति दिवस यह आरति मेरे; कब हरि राखै पासड़ियाँ । लगी लगन छूट की नाहीं, अब क्यूँ कीजै टड़ियाँ | मीराँ के प्रभु कबर मिलोगे, पूरौ मन की आसड़ियाँ ।
[ मी० पदा० पद सं० १०८ ]
स्वच्छंद वेग से बहने वाली पदावली भी सच्चे रसिकों के लिए कम मधुर और आकर्षक नहीं है ।
मीरों की भाषा में अलंकरण नहीं, सजावट नहीं, वरन् एक स्वच्छंद
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