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आलोचना खंड
सहृदय पंडितों को मीराँ की कलाविहीनता नहीं जंची। इसी कारण मीरा का हिन्दी साहित्य में जो उचित स्थान है वह आज भी उन्हें नहीं मिला।
विरह-निवेदन में मीरों के पद अद्वितीय है । 'दरद दिवाणी' मीराँ ने विरह की जैसी सच्ची और उत्कृष्ट व्यंजना की है, वैसी व्यंजना अन्य किसी भी कवि की वाणी में नहीं हुई । मीराँ ने अपनी विरहाग्नि की ज्वाला का प्रतिविम्ब अपने चारों ओर फैले विस्तृत प्रकृति में नहीं देखा; चंद्र की शीतल किरणों ने, शीतल कुंजों में मंद-मंद बहने वाली सुगंधित वायु ने, मुसुकाते हुए कुसुमों ने उनकी विरहानल को उद्दीस नहीं किया; सावन की राते उन्हें बावन के डग के समान नहीं जान पड़ी, पलास के 'निरम अंगार' तुल्य डालों पर चढ़कर जल मरने की इच्छा उन्हें कभी नहीं हुई; सारांश यह कि मीरों को अपनी विरह-व्यथा सम्पूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त होकर नहीं दिखाई पड़ी। इसका कारण यह नहीं था कि मीरों का विरह अत्यंत साधारण कोटि का था, वरन् इसका एक मात्र कारण यही मा कि, वह अत्यन्त गम्भीर था। जिस विरह में बाह्य-वेदना ही अधिक होती है अंतवेदना कम, उसी में विरही प्रकृति को, सारे संसार को, ज्वालामय और भस्म होता हुआ देखता है, और स्वयं भी नित्य जलता रहता है । उसी विरह के कारण जायसी की विरहिणी चीत्कार कर उठती है:
लागिउँ जरे, जरै जस भारू, फिरि फिरि भूजेसि, तजिउँ न बारू । सरवर हिया घटत निति जाई, टूक टूक होइ के बिहराई । बिहरत हिया, करहु पिय टेका, दीठि वगरा मेरबहु एका ॥ , उसी विरह में पद्माकर की विरहिणी गोपियाँ भगवान कृष्ण को संदेश भेजती हैं : ऊधो यह सूधो सो संदेसो कहि दीजो जाइ,
ब्रज में हमारे ह्याँ न फूले बन केंज हैं। किंसुक, गुलाब, कचनार औ अनारन के,
डारन पै डोलत अँगारन के पंज हैं । और उसी विरह में सूरदास की विरहिणी गोपियाँ बिलखती हैं :
मी० १२
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