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मीबाई
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आलवारों के पावन कंठ से निकली हुई भक्ति-धारा श्री रामानुज, मध्व, विष्णुस्वामी और निम्बार्क जैसे बाचायों की प्रतिभा सरस्वती के संयोग से एक बाढ़ सी उमड़ कर दक्षिण भारत को रसमय करती हुई उत्तर की ओर बढ़ी और कुछ ही समय में बंगाल और मध्यदेश भी इस भक्ति धारा के प्रवाह से रसमय हो उठा । काशी में स्वामी रामानंद अपनी द्वादश शिष्यमंडली के साथ 'जात-पाँत पूछे नहिं कोई, हरि को भजै सो हरि को होई ।' का प्रचार कर रहे थे और पावन भूमि ब्रज में एक और महाप्रभु वल्लमाचार्य अपने शिष्यों के माथ बाल गोपाल भक्ति का प्रसार कर रहे थे, दूसरी ओर चैतन्यदेव के प्रिय शिष्य रूप, सनातन और जीव गोस्वामी माधुर्य-भाव की भक्ति भावना से रस की धारा वहा रहे थे। दैवयोग से यह समय मी भक्तिधर्म के प्रसार में विशेष सहायक प्रमाणित हुआ -- विजेता यवनों से पददलित और पीड़ित निराश हिन्दू जनता के लिये ईश्वर की भक्ति के अतिरिक्त और चारा ही क्या था ? परन्तु यह भक्ति-धारा राजपूताने की मरुभूमि में अपना मार्ग खोजने में असमर्थ थी । वहाँ अब भी तलवार के पानी और रक्त के रंग की होली खेली जाती थी, वहाँ अब भी मुंडमाली को मुंडमाल चढ़ाया जाता था । राम और कृष्ण के स्थान पर वहाँ भाले और बछ की पूजा होती थी;सरयू और यमुना के स्थान पर वहाँ के वीर पुजारी' शोणित के स्रोत' में स्नान कर अपना जीवन कृतार्थ करते थे और 'सुने रे निर्बल के बल राम' के स्थान पर वहाँ
तन तलवारों तिलछियो, तिल तिल ऊपर सीब | वाला वाव ऊटसी, छिन इक ठहर नकीच !!"
के गीत गाये जाते थे । सच तो यह है कि भक्ति-धर्म की अग्नि परीक्षा के लिये राजस्थान की मरुभूमि ने जौहर की नाग जला रक्खी थी । परंतु यह
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१ इस वीर का शरीर तलवार के घावों से टुकड़े टुकड़े हो गया है और तिल तिल पर सिला हुआ है। हे चारण । तुम थोड़ी देर के लिए अपनी वीर वाणी बंद करो, नहीं तो यह वीर गोले घावों से उठ कर अभी फिर रंग के लिये चला जायगा ।
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