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दो शब्द
'मीराँचाई के प्रणयन का कार्य सन् १६४३ में ही गुरुवर डा० रामकुमार वर्मा के सुझाव से प्रारम्भ हो गया था, परंतु बीच-बीच में कितनी ही बाधाओं के कारण, कई वर्षों बाद यह प्रकाशित हो रहा है। इन पाँचछः वर्षों में मुझे न जाने कितनी प्रेरणाएँ, कितने परामर्श और कितनी सहायता प्राप्त हुई, उन सबका उल्लेख ग्रावश्यक नहीं है, फिर भी अपने हृदय का भार हलका करने के विचार से दो एक शब्द लिख देना अनुचित नहीं जान पड़ता। मेरे श्रद्धास्पद श्राचार्य डाक्टर धीरेन्द्र वर्मा ने समय-समय पर जो प्रोत्साहन और अमूल्य परामर्श दिए, उनके बिना सम्भवतः इस ग्रंथ की रचना ही न हो पाती । उनकी कृपा और स्नेह का मैं इतना अभ्यस्त हो गया हूँ कि उसके लिए आभार-प्रदर्शन सम्भव नहीं जान पड़ता ! सुहृद्वर डा० माताप्रसाद गुप्त ने अपना अमूल्य समय दे पांडुलिपि को भली भाँति पढ़कर कुछ सुझाव दिए थे जिसके लिए मैं उनका ऋणी हूँ। मेरे प्रिय विद्यार्थी श्री नरेशकुमार मेहता, एम० ए०, ने 'वृहत् काव्य दोहन' के गुजराती अक्षरों में छपे मीरों के पदों की प्रतिलिपि नागरी अक्षरों में कर मेरी सहायता की जिसके लिए वे धन्यवाद के पात्र हैं। जिन-जिन लेखकों की कृतियों से इस ग्रंथ के प्रणयन में सहायता ली गई है, उसका मैं आभारी हूँ। अंत में मैं अपने प्रिय मित्र श्री प्रभात शास्त्री, साहित्याचार्य और हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग के साहित्य मंत्री श्री ज्योतिप्रसाद मिश्र 'निर्मल' को अनेक धन्यवाद देता हूँ जिन्होंने इसके प्रकाशन की व्यवस्था की।
दुर्गाकुंड, काशी
श्रीकृष्ण लाल
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