Book Title: Bharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राच्य विद्यापीठ ग्रन्थमाला- 56 | डॉ. सागरमल जैन आलेख संगह भाग-6 Contestyleteneालिस्ता চেরি টনের डॉ. सागरमल जैन प्रकाशक : प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर (म.प्र.) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण प. पू. मालव सिंहनी श्री वल्लभकुँवरजी म.सा. , प. पू. सेवामूर्ति श्री पानकुँवरजी म.सा. प. पू. सुप्रसिद्ध व्याख्यात्री श्री हेमप्रभाश्रीजी म.सा. प.पू.अध्यात्म रसिका श्री मणिप्रभाश्रीजी म.सा. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्य स्मृति स्व. श्रीमती कमलाबाई जैन पत्नि : डॉ. सागरमल जी जैन जन्म : मार्च 1934, फाल्गुन पूर्णिमा देहविलय : दि. 8 अक्टूबर 2014, शरद पूर्णिमा Page #4 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राच्य विद्यापीठ ग्रंथमाला क्रमांक - 56 सागरमल जैन आलेख संग्रह भाग - 6 भारतीय संस्कृति से सम्बंधित आलेख भारतीय संस्कृति के मूलतत्त्व लेखक डॉ. सागरमल जैन आपुर* U प्रकाशक - प्राच्य विद्यापीठ शाजापुर (म.प्र.) (1) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राच्य विद्यापीठ ग्रंथमाला क्रमांक - 56 सागरमल जैन आलेख संग्रह भाग -6 भारतीय संस्कृति से सम्बंधित आलेख भारतीय संस्कृति के मूलतत्त्व लेखक : डॉ. प्रो. सागरमल जैन प्रकाशक - प्राच्य विद्यापीठ, दुपाड़ा रोड, शाजापुर (म.प्र.) फोन नं. 07364 - 22218 email - sagarmal.jain@gmail.com . प्रकाशन वर्ष 2014-15 कापीराइट - लेखक डॉ. सागरमल जैन मूल्य - रुपए 200/ सम्पूर्ण सेट (लगभग 25 भाग) - 5000/ मुद्रक - आकृति ऑफसेट, नई पेठ, उज्जैन (म.प्र.) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय - डॉ. सागरमल जैन जैन विद्या एवं भारतीय विद्याओं के बहुश्रुत विद्वान हैं। उनके विचार एवं आलेख विगत 50 वर्षों से यत्रतत्र विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और संस्कृत, प्राकृत एवं हिन्दी के विभिन्न ग्रंथों की भूमिकाओं के रूप में प्रकाशित होते रहे हैं। उन सबको एकत्रित कर प्रकाशित करने के प्रयास भी अल्प ही हुए हैं। प्रथमतः उनके लगभग 100 आलेख सागरमल जैन अभिनंदन ग्रंथ में और लगभग 120 आलेख - श्रमण के विशेषांकों के रूप में 'सागर जैन विद्या भारती' में अथवा 'जैन धर्म एवं संस्कृति' के नाम से सात भागों में प्रकाशित हुए हैं। किंतु डॉ. जैन के लेखों की संख्या ही 320 से अधिक हैं। साथ ही उन्होंने संस्कृत एवं प्राकृत तथा जैन धर्म और संस्कृति से सम्बंधित अनेक ग्रंथ की विस्तृत भूमिकाएं भी लिखी हैं। उनका यह समस्त लेखन प्रकीर्ण रूप से बिखरा पड़ा है। विषयानुरूप उसका संकलन भी नहीं हुआ है, उनके अनेक ग्रंथ भी अब पुनः प्रकाशन की अपेक्षा रख रहे हैं, किंतु छह-सात हजार पृष्ठों की इस विपुल सामग्री को समाहित कर प्रकाशित करना हमारे लिए सम्भव नहीं थासाध्वीवर्या सौम्यगुणा श्री जी का सुझाव रहा कि प्रथम क्रम में उनके वीकीर्ण आलेखों को ही एक स्थान पर एकत्रित कर प्रकाशित करने का प्रयत्न किया जाए। उनकी यह प्रेरणा हमारे लिए मार्गदर्शक बनी और हमने डॉ. सागरमल जैन के आलेखों को संग्रहित करने का प्रयत्न किया। कार्य बहुत विशाल है, किंतु जितना सहज रूप से प्राप्त हो सकेगा- उतना ही प्रकाशित करने का प्रयत्न किया जाएगा। अनेक प्राचीन पत्र-पत्रिकाएं पहले हाथ से ही कम्पोज होकर प्रिंट होती थी, साथ ही वे विभिन्न आकारों और विविध प्रकार के अक्षरों से मुद्रित होती थी, उनसब को एक साइज में और एक ही फॉण्ट में प्रकाशित करना भी कठिन था- अतः उनको पुनः प्रकाशित करने हेतु उनका पुनः टंकण.एवं फरीडिंग आवश्यक था। हमारे पुनः टंकण के कार्य में सहयोग किया श्री दिलीप नागर ने एवं प्रुफ संशोधन के कार्य में सहयोग किया- श्री चैतन्य जी सोनी एवं श्री नरेन्द्र जी गौड़ हम इनके एवं मुद्रांक आकृति ऑफसेट उज्जैन के साथ-साथ इन सभी के आभारी हैं। नरेंद्र जैन एवं ट्रस्ट मण्डल प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर ( 3 ) Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय सूची भारतीय संस्कृति से सम्बंधित आलेख भारतीय संस्कृति के मूलतत्त्व -- ल / भारतीय संस्कृति की जीवन-दृष्टि (पृ. 5 - 16) भारतीय संस्कृति का समन्वित स्वरूप . (पृ. 17 - 23) भारतीय दर्शन में सामाजिक चेतना (पृ. 24 - 40) भारतीय संस्कृति में सामाजिक चिंतन (पृ. 41 - 58) भारतीय संस्कृति में सामाजिक-समता . (पृ. 59 - 80) (वर्ण एवं जाति व्यवस्था के विशेष संदर्भ में) , ___ भारतीय संस्कृति में साधना और सेवा का सह-सम्बंध (पृ. 81 - 89) भारतीय संस्कृति में स्वहित और लोकहितं का प्रश्न '(पृ. 90 - 101) भारतीय संस्कृति के जीवन मूल्य (पृ. 102 - 107) भारतीय संस्कृति में धार्मिक सहिष्णुता (पृ. 108 - 136) 10. धर्म का मर्म : भारतीय-जीवन दृष्टि (पृ. 137 - 171) 11. धार्मिक सहिष्णुता और जैनधर्म (पृ. 172 - 200) 12. धर्म निरपेक्षता और बौद्धधर्म (पृ. 201 - 208) 13. हिन्दूधर्म और धार्मिक सहिष्णुता और सह-अस्तित्व (पृ. 209 - 210) 8. (4) Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय संस्कृति की जीवन-दृष्टि सम्यक्-जीवन-दृष्टि का विकास आवश्यक ___ मानव व्यक्तित्व का विकास उसकी अपनी जीवन-दृष्टि पर आधारित होता है। व्यक्ति की जैसी जीवनदृष्टि होती है, उसी के आधार पर उसके विकास की दिशा निर्धारित होती है। कहा भी गया है कि 'यादृशी दृष्टि तादृशी सृष्टि', व्यक्ति की जिस प्रकार की जीवनदृष्टि होती है, उसी प्रकार उसका जीवन व्यवहार भी होता है और जैसा उसका जीवन व्यवहार होता है, वैसा ही वह बन जाता है। आत्म-विकास के आकांक्षी तो सभी व्यक्ति होते हैं, किंतु उनके विकास की दिशा सम्यक् है या नहीं? यह बात उनकी सम्यक् जीवन-दृष्टि पर ही निर्भर होती है। अतः भारतीय दर्शन में सम्यक्जीवन-दृष्टि के विकास पर सबसे अधिक बल दिया गया है। जब व्यक्ति का दृष्टिकोण सम्यक् होगा, तब ही आचार-व्यवहार भी सम्यक् होगा। जब तक दृष्टिकोण सम्यक् नहीं होगा, तब तक व्यक्ति का ज्ञान और आचरण भी सम्यक् नहीं होगा। यही कारण है कि चाहे जैनों का त्रिविध-साधना मार्ग हो या बौद्धों का अष्टांगिक मार्ग हो या गीता का योग मार्ग हो उसमें प्रथम स्थान सम्यक्-दर्शन या सम्यक्-दृष्टि को ही दिया गया है। सम्यक्-दृष्टि ही व्यक्ति के आत्म-विकास की सम्यक्-दिशा निर्धारित करती है और उसी के आधार पर व्यक्ति सम्यक्-दशा को प्राप्त करता है। किंतु यह सम्यक्-दशा अर्थात् मानव-जीवन के लक्ष्य की पूर्णता भी तभी सम्भव होगी, जब हमारे जीवन की दिशा अर्थात् जीवन जीने की पद्धति और जीवन-दृष्टि परिवर्तित होगी। यही कारण था कि भारतीय दर्शनों ने दर्शनविशुद्धि अर्थात् जीवन जीने के सम्यक् दृष्टिकोण पर सबसे अधिक बल दिया। अतः यहां व्यक्ति का जीवन-दर्शन अर्थात् जीवन जीने की दृष्टि क्या हो? इसे समझना परमावश्यक है। जीवन का सम्यक् लक्ष्य : समत्व का सर्जन और ममत्व का विसर्जन किसी भी धर्म के जीवन-दर्शन के लिए सबसे पहली आवश्यकता जीवन के सम्यक् आदर्श या लक्ष्य के निर्धारण की होती है। भारतीय दर्शनों में जीवन का लक्ष्य समभाव या समत्व की उपलब्धि बताया गया है। दूसरे शब्दों में जीवन में समत्व का अवतरण हो, यही जीवन का सम्यक् लक्ष्य है। क्योंकि जैन दर्शन के अनुसार आत्मा समत्व रूप है और इस समत्व तनाव रहित शुद्ध चेतना को प्राप्त कर लेना ही आत्मा का ( 5 ) Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्ष्य है। इसी बात को आचारांगसूत्र में प्रकारांतर से इस प्रकार कहा गया है कि 'आर्यजन समभाव को धर्म कहते हैं भारतीय धर्मों के अनुसार साधना का अध और इति दोनों ही 'समत्व' या समता है। समत्व से तात्पर्य है अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में चित्तवृत्ति में तनाव, विचलन या विक्षोभ नहीं होना। गीता की भाषा में कहें तो दुःख में अनुद्विग्नता और सुख में विगत-स्पृहा होना ही समता है। बौद्धदर्शन इसे तृष्णा-प्रहाण कहता है। . सामान्यतया विभिन्न धर्मों और दर्शनों में जीवन का लक्ष्य मोक्ष या निर्वाण की प्राप्ति माना गया है, किंतु यहां मोक्ष या निर्वाण का क्याअर्थ है यह समझ लेना आवश्यक है। जैन दर्शन में आचार्य कुन्दकुन्द ने स्पष्ट रूप से कहा है कि मोह और क्षोभ से रहित आत्मा की जो समत्वपूर्ण अवस्था है, वही मोक्ष है।' व्यवहार के क्षेत्र में भी हम देखते हैं कि संसार का प्रत्येक व्यक्ति तनावों से मुक्त होकर आत्मिक शांति को प्राप्त करना चाहता है, क्योंकि यही उसकी आंतरिक शांति ही उसका निज स्वभाव है। इस प्रकार वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भारतीय दर्शनों के अनुसार जीवन का सम्यक् लक्ष्य तनावों से मुक्त होना ही है। सभी प्रकार के तनाव, इच्छा, अपेक्षा और भोगाकांक्षा (तृष्णा) जन्य है, अतः भारतीय जीवन-दर्शन का लक्ष्य इच्छा और आकांक्षाओं से परे समत्वपूर्ण चैत्तसिक अवस्था की प्राप्ति ही है। ___ मानव समाज का यह दुर्भाग्य है कि वह अपनी अंतरात्मा से तो तनावों से मुक्त होना चाहता है, किंतु उसके सारे प्रयत्न तनावों के सर्जन के लिए ही होते रहते हैं। इच्छा, आकांक्षा, राग-द्वेष, कपटपूर्ण जीवन-व्यवहार आदि सभी व्यक्ति के जीवन की आत्मतुला को उद्वेलित करते रहते हैं और यही आत्म-असंतुलन या चित्तवृत्ति के विक्षोभ की स्थिति उसे तनावपूर्ण स्थिति में ले जाती है। अतः भारतीय दर्शनों के अनुसार जीवन का लक्ष्य तनावों से मुक्ति ही है, यही वास्तविक धर्म है, सम्यक् साधना है, इसे ही आत्मपूर्णता या आत्मिक शांति कहते हैं। सूत्रकृतांगसूत्र में कहा गया है कि सभी अर्हत् (वीतराग पुरुष) इसी आत्मिक शांति की अवस्था में ही प्रतिष्ठित हैं। अतः यदि सार रूप में कहना हो तो भारतीय धर्म-दर्शन के अनुसार जीवन का लक्ष्य तनावों से मुक्ति ही है। वे सभी जीवन व्यवहार, जो मेरे वैयक्तिक जीवन में, मेरे परिवार में या समाज में या राष्ट्र में अथवा समग्र विश्व में तनाव उत्पन्न कर स्वयं को व दूसरों को उद्वेलित करते हैं, वैयक्तिक और सामाजिक जीवन में शांति भंग करते हैं, वे सभी अधर्म हैं और वे सभी प्रयत्न या उपाय जिनके द्वारा व्यक्ति इन चैतसिक विक्षोभों ( 6 ) Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को या चैत्तसिक विचलनों को समाप्त कर पाता है, वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन में शांति स्थापित करता है, वे सभी धर्म हैं, इसीलिए गीता में भी कहा गया है कि समत्व ही योग है। इसी बात को प्रकारान्तर से भागवत में भी कहा गया है कि समत्व की आराधना ही अच्युत अर्थात् भगवान की आराधना है। इस प्रकार भारतीय जीवन-दर्शन का प्राथमिक सिद्धांत है- हम तनावों से मुक्त होकर जीवन जीए। वर्तमान युग में जो भौतिकवादी, भोगवादी और उपभोक्तावादी संस्कृतियों का विकास हुआ है, उसके कारण आज व्यक्ति अधिक तनावग्रस्त होता जा रहा है। मानव आज जिसे विकास समझ रहा है, वह ही किसी दिन मानवीय सभ्यता और संस्कृति के विनाश का कारण सिद्ध होगा। अत: समत्वपूर्ण या समतावादी जीवन दृष्टि का विकास आवश्यक है, यही भारतीय संस्कृति का लक्ष्य है। .. . आत्म-स्वातंत्र्य या परमात्म स्वरूप की उपलब्धि .. भारतीय जीवन-दर्शन का दूसरा मुख्य संदेश आत्मस्वातंत्र्य है। यहां यह समझ लेना आवश्यक है कि भारतीय दर्शनों के अनुसार स्वतंत्रता का अर्थ स्वच्छन्दता नहीं है। उसके अनुसार स्वच्छन्दता अनैतिक है, पाप मार्ग है और स्वतंत्रता नैतिकता है, धर्म है। सभी व्यक्तियों की यही आकांक्षा रहती है कि वे समस्त प्रकार की परतंत्रता या बंधनों से मुक्त हों। यहां परतंत्रता का अर्थ है- दूसरों पर निर्भरता। यहां तक कि भारीय श्रमण जीवनदर्शन ऐन्द्रिक विषयों या पर-पदार्थों की दासता ही नहीं, ईश्वर की दासता को भी स्वीकार नहीं करता। इसी बात को एक उर्दूशायर ने इस प्रकार कहा है . 'इंसा की बदबख्ती अंदाज के बाहर है। . . कमबख्त खुदा होकर बंदा नजर आता है।' वह यह मानता है कि चाहे जो भी ऐन्द्रिक एवं मानसिक विषयभोग तो वे हमें दासता की ओर ले जाते हैं वे सभी हमारे सम्यक् विकास में बाधक हैं, अतः न केवल मन एवं इंद्रियों के विषय भोगों की दासता ही दासता है, अपितु किसी भी परमसत्ता की इच्छा के आगे समर्पित होकर अकर्मण्य हो जाना भी एक प्रकार की दासता ही है। भारतीय श्रमण दर्शन उपास्य और उपासक, भक्त और भगवान के भेद को भी शाश्वत मानकर चलने को भी एक प्रकार की परतंत्रता ही मानता है। इसलिए उनकी मुक्ति की अवधारणा यही रही है कि व्यक्ति स्वयं परमात्म दशा को उपलब्ध हो जाए। अप्पा सो परमप्पा' यह उनके जीवन-दर्शन का मूल सूत्र है। वह यह मानता है कि तत्त्वतः आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं है, सभी प्राणी परमात्म रूप हैं। हम तत्त्वतः परमात्मा ही (7) Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं, यदि हममें और परमात्मा में कोई भेद है तो वह इतना कि हम अभी अविकास की अवस्था में हैं, हम अपने में उपस्थित उस परमात्म सत्ता को पूणतया अभिव्यक्त नहीं कर पा रहे हैं। जैन दर्शन की सम्पूर्ण साधना का लक्ष्य परमात्म स्वरूप की उपलब्धि ही है। भारतीय वेदांत का तो सूत्रवाक्य है 'सर्वं खलु इदं ब्रह्न'। अयम् आत्मा ब्रह्म। तत्त्वमसि। हममें और परमात्मा में वही अंतर है जो एक बीज और वृक्ष में होता है। बीज में वृक्ष निहित है, किंतु अभिव्यक्त नहीं हुआ है, उसी प्रकार से प्रत्येक व्यक्ति में परमात्म तत्त्व निहित है, किंतु वह अभी पूर्णरूप से अभिव्यक्त नहीं हुए है। बीज ज़ब अपने आवरण को तोड़कर विकास की दिशा में आगे बढ़ता है तो वह वृक्ष का रूप ले लेता है। इसी प्रकार से व्यक्ति भी अपने वासना रूपी आवरणों को तोड़कर परमात्मावस्था को प्राप्त कर सकता है। परमात्मा को पाने का अर्थ अपने में निहित परमात्म तत्त्व की अभिव्यक्ति ही है, परमात्मा कोई बाह्य वस्तु नहीं है, वह तो हमारा ही शुद्ध स्वरूप है, इसलिए जैन दर्शन में परमात्मभक्ति का लक्ष्य है वंदे तद्गुण लब्धये' अर्थात् परमात्म स्वरूप की उपलब्धि ही व्यक्ति की सम्पूर्ण साधना का लक्ष्य है। परमात्म-सत्ता व्यक्ति से भिन्न नहीं है, वह बाहर नहीं है, वह हम ही में निहित है, अतः जैन दर्शन में परमात्म भक्ति का अर्थ कोई याचना या समर्पण नहीं है, अपितु अपनी अस्मिता को पूर्ण अभिव्यक्ति देना है। किसी जैन कवि ने कहा है अज कुलगत केशरी रे लहेरे निजपद सिंह निहाल। तिम प्रभु भक्ति भाव लहे रे निज आतम संभाल // स्वतंत्रता व्यक्ति का स्वतःसिद्ध अधिकार है भारतीय संस्कृति की मान्यता है कि स्वतंत्रता व्यक्ति का स्वतःसिद्ध अधिकार है। हम तत्त्वतः स्वतंत्र हैं, परतंत्रता हमारी ममत्ववृत्ति के कारण हमारे स्वयं के द्वारा आरोपित है। दूसरे शब्दों में स्वतंत्रता हमारा निजस्वभाव है और परतंत्रता हमारा विभाव है, विकृत मनोदशा है। अतः विभाव को छोड़कर स्वभाव में आना ही स्वतंत्रता की या आत्मपूर्णता की उपलब्धि है और भारतीय दर्शनों की अनुसार यही मुक्ति है, आत्मा का परमात्मा बन जाना है। परतंत्रता ‘पर' के कारण नहीं है, वह स्व आरोपित है। 'पर' में ममत्ववृत्ति या मेरेपन का आरोपण कर व्यक्ति स्वयं ही बंधन में आ जाता है। हमारे बंधन का हेतु या कारण हम स्वयं हैं। भारतीय संस्कृति मानती है कि मिथ्या दृष्टिकोण, असंयम, प्रमाद (असहजता), कषाय और मन-वचन-काया की स्वच्छंद प्रवृत्तियों के कारण व्यक्ति बंधन में आता है। परतंत्रता तो स्वयं आरोपित है अतः उससे मुक्ति सम्भव है। ( 8 ). Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुलामी चाहे वह 'मन' की हो या ऐन्द्रिक विषयों की तृष्णा जनित है, वह हमारे द्वारा ही ओढ़ी गई है। अतः सम्यक् जीवन-दृष्टि के विकास के साथ मुक्ति के द्वार स्वतः उद्घाटित हो जाते हैं। भारतीय दर्शनों के अनुसार संसार में मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है, जो इस स्वयं के द्वारा आरोपित या ओढ़ी गई गुलामी से मुक्त हो सकता है, क्योंकि उसमें आत्म-सजगता, विवेकशीलता और संयमन की शक्ति है, आवश्यकता है उसे अपनी इस स्वतंत्र अस्मिता का या 'पर' निरपेक्ष स्व-स्वरूप का बोध कराने की। हमारी मोह निद्रा या अज्ञानदशा ही हमारे बंधन का हेतु है। हमें किसी दूसरी शक्ति ने बंधन में नहीं बांध रखा है अपितु' हम अपनी भोगासक्ति से स्वयं ही बंध गए हैं, अतः उससे हमें स्वयं ही ऊपर उठना होगा। स्व के द्वारा आरोपित 'कारा' को स्वयं ही तोड़ फेंकना होगा। . किसी विचारक ने ठीक ही कहा है- . स्वयं बंधे हैं स्वयं खुलेंगे, सखे न बीच में बोला इस प्रकार भारतीय जीवन-दृष्टि स्व की स्वतंत्र सत्ता के अस्मिता बोध' या 'स्वरूप बोध' का संदेश देती है। भारतीय जीवन-दृष्टि की यह चर्चा व्यक्ति स्वयं की अपेक्षा से की गई है। बाह्य व्यवहार या सामाजिक जीवन दर्शन की अपेक्षा से उसने हमें तीन सूत्र दिए हैं 1. वैचारिक स्तर पर अनाग्रह 2. व्यवहार के स्तर पर अहिंसा 3. वृत्ति के स्तर पर अनासक्ति आगे हम इनके संदर्भ में विस्तृत चर्चा भी करेंगे, किंतुं इसके पूर्व जैन धर्म के इस सूत्र वाक्य को समझ लेना आवश्यक है, जो जैन धर्म को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि - स्याद्वादो वर्ततेऽस्मिन्, पक्षपातो न विद्यते। नास्त्यन्यं पीडनं किंचित्, जैन धर्मः स उच्यते॥ . अर्थात् जैनधर्म की जीवन-दृष्टि का सार यह है कि व्यक्ति पक्षपात या वैचारिक दुराग्रहों से ऊपर उठकर अनाग्रही (स्याद्वादी) दृष्टि को अपनाए और अपने व्यवहार से किसी को किंचित् भी पीड़ा नहीं दे। अहिंसा अर्थात् जीवन का सम्मान - भारतीय चिंतन में अहिंसा शब्द एक व्यापक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। जैन ग्रंथ (9 ) Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरणसूत्र में अहिंसा के निर्वाण, समाधि, शांति, विमुक्ति, क्षान्ति (क्षमाभाव), शिव (कल्याणकारक), पवित्र, कैवल्यस्थान आदि 60 पर्यायवाची नाम दिए हैं। संक्षेप में कहें तो अहिंसा समस्त सद्गुणों की प्रतिनिधि है। सामान्य रूप में अहिंसा का अर्थ है- 'जीवन जहां भी है और जिस रूप में भी है उसका सम्मान करो'। इसीलिए हिन्दूग्रंथ महाभारत में अहिंसा को परमधर्म कहा है। यह मानो कि जिस प्रकार तुम्हें जीवन जीने का अधिकार है उसी प्रकार संसार के प्रत्येक प्राणी को जीवन जीने का अधिकार है। अतः जीवन के जो,जो भी रूप हैं, उन्हें पीड़ा या कष्ट देने, त्रास देने, उन्हें विद्रूपित करने, उन्हें प्रदूषित करने या उन्हें नष्ट करने का हमें कोई अधिकार नहीं है, क्योंकि सभी प्राणी जीना चाहते हैं, जीवन सभी को प्रिय है, कोई भी मरना नहीं चाहता है, सभी को सुख प्रिय है, दुःख अप्रिय है, अतः किसी की हिंसा करना, दुःखी करना या त्रास देना पाप है, अनैतिक या अनुचित है। अहिंसा आर्हत् प्रवचन का सार है उसे शुद्ध और शाश्वत धर्म कहा गया है। क्योंकि संसार के प्रत्येक प्राणी में जिजीविषा की प्रधानता है, सभी अस्तित्व और सुख के आकांक्षी हैं- अहिंसा का आधार यही मनोवैज्ञानिक सत्य है। अहिंसा का अधिष्ठान भय नहीं है, जैसा कि पाश्चात्य दार्शनिक मैकेन्जी ने अपने ग्रंथ 'हिन्दू एथिक्स' में मान लिया है, क्योंकि भय' तो हिंसा का मूल कारण है। पारस्परिक भय और तदजन्य अविश्वास से ही हिंसा का जन्म होता है। आज विश्व में हिंसक शस्त्रों की प्रतिस्पर्धा और देशों के मध्य जो शक्ति-युद्ध का वातावरण बना हुआ है, उसका कारण पारस्परिक अविश्वास और भय की वृत्ति ही है, अतः भारतीय जीवनदर्शन का मूल सिद्धांत है- परस्पर अभय का विकास करो, क्योंकि पारस्परिक अभय और विश्वास से ही अहिंसा का विकास होगा। अतः अहिंसा का अधिष्ठान या मनोवैज्ञानिक आधार आत्मतुल्यता, पर-पीड़ा की आत्मवत् अनुभूति और अभयनिष्ठा ही है। दूसरे प्राणियों के जीवित रहने और जीवन जीने के साधनों पर सभी के समान अधिकार की तार्किक स्वीकृति से ही अहिंसा का विकास सम्भव है। ‘आत्मवत् सर्व भूतेषु' की जीवन-दृष्टि ही वह तार्किक आधार है जो अहिंसा की सम्पोषक है। इस प्रकार अहिंसा की प्रतिष्ठा के मूलाधार हैं - जीवन के प्रति सम्मान, अभय की प्रतिष्ठा, समत्ववृत्ति और आत्मतुला के तार्किक आधार पर दूसरों की पीड़ा को आत्मवत् समझना। तीसरे सामान्यतया यह मान लिया जाता है कि हिंसा नहीं करना, किसी को मारना या कष्ट नहीं देना ही अहिंसा है- यह अहिंसा की आधी-अधूरी अवधारणा है। ( 10 ) Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसा का प्रतिपक्ष अहिंसा है। यह अहिंसा की निषेधात्मक परिभाषा है, लेकिन हिंसा नहीं करना मात्र अहिंसा नहीं है। निषेधात्मक अहिंसा जीवन के समग्र पक्षों का स्पर्श नहीं करती है। साथ ही हिंसा या अहिंसा का सम्बंध मात्र दूसरों से नहीं है। जैन चिन्तकों का कहना है कि हिंसा स्वयं की भी होती है और दूसरों की भी होती है। मात्र यही नहीं व्यक्ति पहले स्वयं की हिंसा करता है, फिर वह दूसरों की हिंसा करता है। आत्महिंसा के बिना 'पर' की हिंसा सम्भव ही नहीं है। दूसरों की हिंसा वस्तुतः अपनी हिंसा है और दूसरों के प्रति करुणा या दया अपने प्रति करुणा या दया है। . इसे अधिक स्पष्टता की दृष्टि से समझने के लिए यह जान लेना आवश्यक है कि दूसरे की हिंसा के पीछे कहीं न कहीं राग-द्वेष या क्रोध, मान, माया एवं लोभ की वृत्ति कार्य करती है- इनसे युक्त होने का अर्थ कहीं न कहीं तनावग्रस्त होना ही है, इनकी उपस्थिति हमारे आत्मिक शांति को भंग कर देती है, शास्त्रीय भाषा में कहें तो व्यक्ति स्वभाव दशा को छोड़कर विभाव दशा (तनावग्रस्त अवस्था) में आ जाता है। अपने शांतिमय निजस्वभाव का यह परित्याग ही तो 'स्व' की हिंसा है। एक अन्य अपेक्षा से जैन दर्शन में हिंसा के दो रूप माने गए हैं- द्रव्य हिंसा और भाव हिंसा। वैचारिक स्तर पर कषाय से कलुषित भाव या दूसरे के अहित की भावना यह भाव हिंसा है या हिंसा का मानसिक रूप है। भाव हिंसा ही द्रव्य हिंसा या हिंसा की बाह्य घटना का कारण होती है। इसीलिए जैन चिन्तकों ने यह माना कि जहां दुर्भाव है, दूसरे के अहित की भावना है वहां निश्चय ही हिंसा है, चाहे उसके परिणामस्वरूप हिंसा की घटना घटित हो या नहीं भी हो। .. इसलिए भारतीय जीवन-दर्शन यह मानता है कि व्यक्ति को आत्मसजगता पूर्वक दूसरों के कल्याण की भावना से कार्य करना चाहिए। साथ ही यह भी आवश्यक है कि वह दूसरों की मंगल भावना से सक्रिय होकर कर्म करे। भारतीय संस्कृति में अहिंसा केवल निष्क्रियता या निषेधात्मक नहीं है, उसका एक सकारात्मक पक्ष भी है जो सेवा, परोपकार और लोक मंगल की भावना से जुड़ा हुआ है, उसमें नहीं करने के साथ-साथ बचाने का भाव भी जुड़ा हुआ है, उसके पीछे लोकमंगल या परोपकार के उदात्त मूल्य भी जुड़े हैं, जो पारस्परिक हित-साधन की भावना में अपना साकार रूप ग्रहण करते हैं। साथ ही सभी भारतीय दर्शनों का मानना है- जीवन एक-दूसरे के सहयोग के आधार पर चलता है। जीवन जीने में परस्पर सहयोग की भावना होनी चाहिए- परस्पर . (11) Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघर्ष, संहार या शोषण की भावना नहीं होनी चाहिए- यही अहिंसा के सिद्धांत का हार्द है। जैन आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र के पांचवें अध्याय में लिखा है- जीवन परस्पर सहयोग के आधार पर चलता है- (परस्परोपग्रहोजीवानाम्)। जीवन जीने में दूसरों का सहयोग लेना और सहयोग देना यही एक प्राकृतिक व्यवस्था है- (The Law of life is the law of co-operation) सहयोग ही जीवन का नियम है। प्राकृतिक व्यवस्था की दृष्टि से यह नियम सर्वत्र कार्य करते हुए दिाखई देती है- हमें जीवन जीने के लिए। प्राणवायु (आक्सीजन) चाहिए, वह हमें वनस्पतिजगत् से मिलती है। वनस्पतिजगत् को किसी मात्रा में कार्बन डाइ-ऑक्साइड चाहिए, उसका उत्सर्जन प्राणीजगत् ही करता है। प्राणीजगत् के अवशिष्ट मलमूत्र आदि वनस्पतिजगत् का आहार बनते हैं, तो वनस्पतिजगत् के फल, अनाज आदि उत्पादन प्राणीजगत् का आहार बन जाते हैं। इस प्रकार प्रकृति का जीवन-चक्र पारस्परिक सहयोग पर चलता है और संतुलित बना रहता है। दुर्भाग्य से पश्चिम के एक चिंतक डार्विन ने इस सिद्धांत को विकास के सिद्धांत के नाम पर उलट दिया। उसने कहा- 'अस्तित्व के लिए संघर्ष और योग्यतम की विजय'। मनुष्य ने अपने को योग्यतम मानकर अन्य जीव जातियों और प्राकृतिक साधनों का दोहन किया जीवों की अन्य प्रजातियों की हिंसा और प्रकृति के जीवन के लिए अंगीभूत या परमावश्यक हवा और पानी को प्रदूषित करने का मार्ग अपनाया। पारस्परिक अविश्वास और भय के बीज बोकर आज मनुष्य ने अपनी ही चिता तैयार कर ली है। आज जीवन के सभी रूपों के प्रति सम्मान रूप अहिंसा और अभय के सिद्धांत ऐसे हैं, जो मानव अस्तित्व को सुरक्षित रख सकते हैं। आज संसार के सभी प्राणियों को आत्मवत् मानकर जीवन के सभी रूपों को, चाहे वे सुविकसित हों या अविकसित हो सम्मान देने की आवश्यकता है। साथ ही इस दृढ़निष्ठा की आवश्यकता है कि प्राणीय-जीवन के सहयोगी तत्त्वों, भूमि, जल, वायु और वनस्पति को तथा क्षुद्र जीवधारियों को विनष्ट करने या उन्हें प्रदूषित करने का हमें कोई अधिकार नहीं है। यही अहिंसा की प्रासंगिकता है। संक्षेप में तो अहिंसा- एक दूसरे के सहयोग पूर्वक लोकमंगल करते हुए जीवन जीने की एक पद्धति है। अहिंसा केवल 'जीओ और जीने दो' के नारे तक ही सीमित नहीं है, अहिंसा का आदर्श है दूसरों के लिए जीयो, अपने क्षुद्र स्वार्थों से ऊपर उठकर दूसरों का हित-साधन करते हुए जीओ। अहिंसा संकीर्णता की भावना से ऊपर उठकर कर्तव्यबुद्धि से लोकहित करते हुए जीने का संदेश देती है। (12) Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरों के विचारों या मान्यताओं के प्रति सम्मान का भाव (Respect of other's Idealogy and Faiths) भारतीय जीवन-दृष्टि का दूसरा महत्त्वपूर्ण सूत्र है- दूसरों के विचारों, मान्यताओं एवं सिद्धांतों के प्रति समादर या सम्मान का भाव रखना तथा अपने विरोधी की विचारधाराओं और मान्यताओं में भी अपेक्षा भेद से सत्यता हो सकती है, इसे स्वीकार करना। जैन दर्शन का अनेकांतवाद यह मानता है कि सामान्यतया हमारा ज्ञान सीमित और सापेक्ष है, क्योंकि हमारे ज्ञान के साधन के रूप में हमारी इंद्रियों का ग्रहण-सामर्थ्य सीमित और सापेक्ष है। दूसरे जिस भाषा के माध्यम से हम अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्ति देते हैं, वे भी सीमित और सापेक्ष है। हमारी घ्राणेन्द्रिय का सामर्थ्य तो चींटी से भी बहुत कम है और हमारी भाषा अनुभूत गुड़ के स्वाद को भी अभिव्यक्ति देने में कमजोर पड़ जाती है, अतः सीमित और सापेक्ष ज्ञान वाले व्यक्ति को यह अधिकार नहीं है कि वह दूसरों की अनुभूतियों, मान्यताओं और विश्वासों को पूर्णतया असत्य या मिथ्या कहकर नकार दे। मेरा ज्ञान और मेरे विरोधी विचारधारा वाले व्यक्ति का ज्ञान या विश्वास भी अपेक्षा भेद से सत्य हो सकता है, यही जैन दर्शन के अनेकांतवाद का मुख्य आधार है। ___यही बात अनाग्रही दृष्टि का विकास करती है। वह दूसरों के विचारों, भावनाओं और धार्मिक या दार्शनिक मान्यताओं के प्रति एक सहिष्णु दृष्टि प्रदान करती है, यह वैचारिक अहिंसा है। व्यक्ति यह मानता है कि सत्य का सूरज जिस प्रकार मेरे आंगन को प्रकाशित करता है, वैसे ही वह मेरे विरोधी के आंगन को भी प्रकाशित कर सकता है। एक ही वस्तु के दो विरोधी कोणों से लिए गए चित्र एक-दूसरे से भिन्न हो सकते हैं, किंतु वे दोनों अपने-अपने कोणों से तो सत्य ही हैं। इसे ही स्पष्ट करते हुए जैन ग्रंथ सूत्रकृतांग में भगवान् महावीर ने कहा है कि जो लोग अपने मत की प्रशंसा करते हैं और अपने विरोधी के मत की निंदा करते हैं, उससे गर्दा करते हैं, वे वस्तुतः सत्य को विद्रूपित करते हैं, वे कभी भी जन्म-मरण के इस चक्र से मुक्त नहीं हो सकते हैं। सत्य सर्वत्र प्रकाशित है, जो भी आग्रह या दुराग्रह के घेरे से अन्मुक्त होकर उसे देख पाता है, वही उसे पा सकता है। दुराग्रह या राग-द्वेष के रंगीन चश्मे पहन कर हम सत्य का साक्षात्कार नहीं कर सकते हैं। सत्य का साक्षात्कार करने के लिए उन्मुक्त दृष्टि का विकास आवश्यक है, सत्य मेरे या पराए के घेरे में आबद्ध नहीं है। जैन आचार्य हरिभद्र ने कहा था मुझे न तो महावीर के वचनों के प्रति आग्रह है और कपिल आदि के प्रति द्वेष (13) Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। जो युक्ति संगत है, समुचित है वही मुझे मान्य है। वस्तुतः जो पक्षों का आग्रही है, वह सत्य का आग्रही नहीं हो सकता है। इसीलिए गांधी ने सत्याग्रह की बात की थी। पक्षाग्रह एक प्रकार का राग ही है, यह सत्य को सीमित और विद्रूपित करता है। पक्षाग्रह से ही विवादों का जन्म होता है, उसके कारण ही सामाजिक जीवन में संघर्ष उत्पन्न होते हैं। वह विग्रह, विषाद और वैमनस्य के बीजों का वपन करता है। अतः जीवन में अनाग्रही उदार दृष्टिकोण का विकास आवश्यक है। अनासक्त जीवनदृष्टि का विकास _व्यावहारिक समाज-दर्शन के क्षेत्र में भारतीय दृष्टि जीवन का तीसरा सूत्र हैअनासक्त, किंतु कर्त्तव्यनिष्ठ जीवन शैली का विकास। जैन, बौद्ध एवं गीता के दर्शनों की मान्यता है कि आसक्ति या तृष्णा ही समस्त दुःखों का मूल है। तृष्णा, भोगासक्ति, इच्छा या आकांक्षा और अपेक्षा से ही तनावों का जन्म होता है, ये तनाव प्रथमतया व्यक्ति को उद्वेलित करते हैं, उद्वेलित या विक्षुब्ध व्यक्ति अपने व्यवहार से परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व को विक्षुब्ध बनाता है। दूसरे शब्दों में तृष्णा या आसक्ति न केवल वैयक्तिक जीवन की शांति भंग करती है, अपितु यह वैश्विक अशांति का भी मूल कारण है। इसलिए आचारांगसूत्र में कहा गया है कि जहां-जहां ममत्ववृत्ति है, वहां-वहां दुःख है ही। यह ममत्ववृत्ति (मेरेपन का भाव) ही, तृष्णा ही भोगासक्ति को जन्म देती है। भोगासक्ति से भोगेच्छा का जन्म होता है और यहीं से आकांक्षा और अपेक्षाओं का सृजन होता है। इसी के परिणामस्वरूप आज मानव प्रकृति के साथ सम्वाद स्थापित कर जीने के सामान्य नियम को भूलकर भोगवाद के एक विकृत मार्ग पर जा रहा है। आज मानव ने जिस उपभोक्तावादी संस्कृति का विकास किया है, वही एक दिन मानव जाति की संहारक सिद्ध होगी। भारतीय विचारकों का कहना है कि आसक्ति या भोगासक्ति से जन्मी इस उपभोक्तावादी संस्कृति के तीन दुष्परिणाम होते हैं - 1. अपहरण (शोषण), 2. प्रकृति के विरुद्ध भोग की प्रवृत्ति और 3. संग्रह या परिग्रह (संचयवृत्ति)। यद्यपि इन तीनों दुष्परिणामों से बचने के लिए जैन आचारशास्त्र में तीन व्रतों की व्यवस्था की गई 1. अस्तेय अर्थात् दूसरों की आवश्यकता की सामग्री पर उनके अधिकार का हनन नहीं करना। 2. भोग और उपभोग की एक मर्यादा/सीमा रेखा निर्धारित करना अर्थात् (14) Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीने के लिए खाना, न कि खाने के लिए जीना। 3. परिग्रह या संचय की एक सीमा निर्धारित करना अर्थात् आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना यद्यपि इन तीनों आचार नियमों के पीछे एक ही जीवन-दृष्टि - रही हुई है और वह है संयमित जीवन शैली का विाकस, जो भारतीय संस्कृति का प्राण यह सत्य है कि जीवन जीने के लिए भोगोपभोग आवश्यक है और भोगोपभोग के लिए संचय आवश्यक है, किंतु भारतीय जीवन दर्शन का कहना है कि यह मर्यादित ही होना चाहिए। असीमित भोगाकांक्षा और संचयवृत्ति हमारे जीवन में तनाव या विक्षोभ उत्पन्न करती है, वैयक्तिक जीवन की समता को और वैश्विक शांति को भंग करती है, अतः इन पर नियंत्रण आवश्यक है और तभी सम्यक् जीवन-दृष्टि का विकास सम्भव होगा। यह ठीक है कि भोग आवश्यक है, किंतु वह त्यागपूर्वक, संयमपूर्वक या मर्यादापूर्वक ही होना चाहिए- इसके लिए ईशावास्योपनिषद् का तेन त्यक्तेन भुंजीथा' का सूत्र वाक्य ही हमारा मार्गदर्शक हो सकता है। दूसरे आज हम भोग के प्राकृतिक साधनों का अमर्यादित दोहन कर जिस उपभोक्तावादी संस्कृति को अपना रहे हैं, इस उपभोक्तावादी जीवन-दष्टि के कारण आज हम आवश्यकता के अनुरूप उत्पादन की बात भूलकर इच्छाओं के उद्वेलन के द्वारा अधिकतम उपभोग के लिए अधिकतम उत्पादन और अधिकतम मौद्रिक लाभ के सिद्धांत पर चल रहे हैं। आज के उत्पादन का सूत्र वाक्य है'अनावश्यक मांगे बढ़ाओं, अपना माल खपाओ और अधिकतम मुनाफा कमाओ।' भारतीय चिंतन कहता है कि हमारी आवश्यकताएं क्या हैं, इसके निर्णायक हम नहीं, प्रकृति या हमारी दैहिक संरचना है। भोग इच्छाओं की पूर्ति के लिए नहीं, अपितु संयमी जीवन की दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए है। आपको जीवन जीने का अधिकार है, किंतु तब तक वह आपके शरीर एवं साधना में सहायक है, आपका जीवन दूसरों के लिए भार रूप नहीं बनाना है। भारतीय जीवन-दृष्टि के अनुसार भोग और त्याग दोनों संयमित जीवन जीने के लिए हैं- अमर्यादित जीवन जीने के लिए नहीं। . साथ ही संचयवृत्ति भी व्यक्ति की आवश्यकता पर आधारित है न कि उसकी असीम तृष्णा पर। भारतीय चिंतन कहता है कि जितनी आवश्यकता है, उतना ही संचय - करो। इस सम्बंध में महाभारत का निम्न श्लोक हमारा मार्गदर्शक है। कहा है__ यावत् भ्रियते जठरं तावत् स्वत्वं देहीनाम् / (15) Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिको योऽभिमन्यते स्तेन एव सः॥ अर्थात् पेट के लिए जितना आवश्यक है उतने पर ही व्यक्ति का अधिकार है जो इससे अधिक पर अपना अधिकार जमाता है वह सामाजिक दृष्टि से 'चोर' ही है। - भारतीय चिंतन इससे भी एक कदम आगे बढ़ कर कहता है- जो धन, सम्पत्ति आदि पर पदार्थ हैं, उन पर हमारा कोई स्वामित्व हो ही नहीं सकता। 'पर' को अपना मानना या उस पर मालिकाना हक जताना मिथ्यादृष्टि है। हमें आवश्यकतानुरूप वस्तु के 'उपयोग' का अधिकार तो है, स्वामित्व का अधिकार नहीं है (We have only use right of then, not the ownership) दूसरे यह भी कहा जाता है कि यदि ‘पर-पदार्थों के प्रति आसक्ति या रागभाव नहीं होगा- उदासीनवृत्ति होगी तो फिर जीवन में सक्रियता समाप्त हो जाएगी, व्यक्ति अकर्मण्य बन जाएगा, क्योंकि रागात्मकता या ममत्त्ववृत्ति या स्वामित्व की भावना ही व्यक्ति को सक्रिय बनाती है' इसके उत्तर में भारतीय जीवन-दृष्टि या गीता एक सूत्र देती है कि- कर्तव्यबुद्धि (Sense of duty) से जीओ न कि ममत्त्वबुद्धि (Sense of attachment) से। इस सम्बंध में जैन परम्परा में निम्न दोहा प्रचलित है- जो मानव जीवन-दृष्टि को स्पष्ट कर देता है सम्यक् दृष्टि जीवड़ा करे कुटुम्ब परिपाल। , अन्तरसूं न्यारो रहे, ज्यूं धाय खिलावे बाल॥ भारतीय संस्कृति का सार यह है कर्त्तव्यबुद्धि से जीवन जीओ, ममत्त्वबुद्धि से नहीं।' (16) Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय संस्कृति का समन्वित स्वरूप . भारतीय संस्कृति एक संश्लिष्ट संस्कृति है। उसे हम विभिन्न चहारदीवारियों में अवरुद्ध कर कभी भी सम्यक् प्रकार से नहीं समझ सकते हैं, उसको खण्ड-खण्ड करके देखने में उसकी आत्मा ही मर जाती है। जैसे शरीर को खण्ड-खण्ड कर देखने से शरीर की क्रिया-शक्ति को नहीं समझा जा सकता है, वैसे ही भारतीय संस्कृति को खण्डखण्ड करके उसकी मूल आत्मा को नहीं समझा जा सकता है। भारतीय संस्कृति को हम तभी सम्पूर्ण रूप से समझ सकते हैं, जब तक कि उसके विभिन्न घटकों अर्थात् जैन. बौद्ध और हिन्दू धर्म-दर्शन का समन्वित एवं सम्यक् अध्ययन न कर लिया जाए। बिना उसके संयोजित घटकों के ज्ञान के उसका सम्पूर्णता में ज्ञान सम्भव नहीं है। एक इंजन की प्रक्रिया को भी सम्यक् प्रकार से समझने के लिए न केवल उसके विभिन्न घटकों अर्थात् कल-पुों का ज्ञान आवश्यक होता है, अपितु उनके परस्पर संयोजित रूप को भी देखना होता है। अतः हमें स्पष्ट रूप से इस तथ्य को समझ लेना चाहिए कि भारतीय संस्कृति के अध्ययन एवं शोध के क्षेत्र में अन्य सहवर्ती परम्पराओं और उनके पारस्परिक सम्बंधों के अध्ययन के बिना कोई भी शोध परिपूर्ण नहीं हो सकता। धर्म और संस्कृति शून्य में विकसित नहीं होते, वे अपने देशकाल और सहवर्ती परम्पराओं से प्रभावित होकर ही अपना स्वरूप ग्रहण करते हैं। यदि हमें जैन, बौद्ध, वैदिक या अन्य किसी भी भारतीय सांस्कृतिक-धारा का अध्ययन करना है, उसे सम्यक् प्रकार से समझना है, तो उसके देश, काल एवं परिवेशत पक्षों को भी प्रामाणिकतापूर्वक तटस्थ बुद्धि से समझना होगा। चाहे जैन विद्या के शोध एवं अध्ययन का प्रश्न हो या अन्य किसी भारतीय विद्या का, हमें उसकी दूसरी सहवर्ती परम्पराओं को अवश्य ही जानना होगा और यह देखना होगा कि वह उन दूसरी सहवर्ती परम्पराओं से किस प्रकार प्रभावित हुई है और उसने उन्हें किस प्रकार प्रभावित किया है। पारस्परिक प्रभावकता के अध्ययन के बिना कोई भी अध्ययन पूर्ण नहीं होता है। __यह सत्य है कि भारतीय संस्कृति के इतिहास के आदिकाल से ही हम उसमें श्रमण और वैदिक संस्कृति का अस्तित्व साथ-साथ पाते हैं, किंतु हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि भारतीय संस्कृति में इन दोनों स्वतंत्र धाराओं का संगम हो गया है और अब इन्हें एक-दूसरे से पूर्णतया अलग नहीं किया जा सकता। भारतीय इतिहास के प्रारम्भिक काल से ही ये दोनों धाराएं परस्पर एक-दूसरे से प्रभावित होती रहीं। अपनी (17) Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनी विशेषताओं के आधार पर विचार के क्षेत्र में हम चाहे उन्हें अलग-अलग देख. लें, किंतु व्यावहारिक स्तर पर उन्हें एक-दूसरे से पृथक् नहीं कर सकते। भारतीय वाङ्मय में ऋग्वेद प्राचीनतम माना जाता है। उसमें जहां एक ओर वैदिक समाज एवं वैदिक क्रिया-काण्डों का उल्लेख है, वहीं दूसरी ओर उसमें न केवल व्रात्यों, श्रमणों एवं अर्हतों की उपस्थिति के उल्लेख हैं, अपितु ऋषभ, अरिष्टनेमि आदि जो जैन परम्परा में तीर्थंकर के रूप में मान्य हैं, के प्रति समादर भाव भी व्यक्त किया गया है। इससे यह प्रतीत होता है कि ऐतिहासिक युग के प्रारम्भ से ही भारत में ये दोनों संस्कृतियां साथसाथ प्रवाहित होती रही है। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के उत्खनन से जिस प्राचीन भारतीय संस्कृति की जानकारी हमें उपलब्ध होती है, उससे सिद्ध होता है कि वैदिक संस्कृति के पूर्व भी भारत में एक उच्च संस्कृति अस्तित्व रखती थी, जिसमें ध्यान, साधना आदि पर बल दिया जाता था। उस उत्खनन में ध्यानस्थ योगियों की सीलें आदि मिलना तथा यज्ञशाला आदि का न मिलना यही सिद्ध करता है कि वह संस्कृति तप, योग एवं ध्यान प्रधान व्रात्य-संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती थी, किंतु इतना निश्चित है कि आर्यों के आगमन के साथ प्रारम्भ हुए वैदिक युग से दोनों ही धाराएं साथ-साथ प्रवाहित हो रही हैं और उन्होंने एक-दूसरे को पर्याप्त रूप से प्रभावित भी किया है। ऋग्वेद में व्रात्यों के प्रति जो तिरस्कार भाव था, वह अथर्ववेद में समादर भाव में बदल जाता है, जो दोनों धाराओं के समन्वय का प्रतीक है। तप, त्याग, संन्यास, ध्यान, समाधि, मुक्ति और अहिंसा की अवधारणाएं, जो प्रारम्भिक वैदिक ऋचाओं और कर्मकाण्डीय ब्राह्मण ग्रंथों में अनुपलब्ध थीं, वे आरण्यक आदि परवर्ती वैदिक साहित्य में और विशेष रूप से उपनिषदों में अस्तित्व में आ गई हैं। इससे लगता है कि ये अवधारणाएं संन्यासमार्गीय श्रमणधारा के प्रभाव से ही वैदिक धारा में प्रविष्ट हुई हैं। उपनिषदों, महाभारत और गीता में एक ओर वैदिक कर्मकाण्ड की समालोचना और उन्हें आध्यात्मिकता से समन्वित कर नए रूप में परिभाषित करने का प्रयत्न तथा दूसरी ओर तप, संन्यास और मुक्ति आदि की स्पष्ट रूप से स्वीकृति यही सिद्ध करती है कि ये ग्रंथ श्रमण और वैदिक-धारा के बीच हुए समन्वय या संगम के ही परिचायक हैं। हमें यह स्मरण रखना होगा कि उपनिषद् और महाभारत, जिसका एक अंग गीता है, शुद्ध रूप से वैदिक कर्मकाण्डात्मक धर्म के प्रतिनिधि नहीं हैं। वे निवृत्ति- प्रधान श्रमणधारा और प्रवृत्तिमार्गी वैदिक धारा के समन्वय का परिणाम हैं। उपनिषदों में और महाभारत, गीता में जहां एक ओर श्रमणधारा के आध्यात्मिक और निवृत्तिप्रधान तत्त्वों को स्थान दिया (18) Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया, वहीं दूसरी ओर यज्ञ आदि वैदिक-कर्मकाण्डों की श्रमण-परम्परा के समान आध्यात्मिक दृष्टि से नवीन परिभाषाएं भी प्रस्तुत की गईं, उनमें यज्ञ का अर्थ पशुबलि न होकर स्वहितों की बलि या समाजसेवा हो गया। हमें यह स्मरण रखना होगा कि हमारा हिन्दू धर्म वैदिक और श्रमण-धाराओं के समन्वय का परिणाम है। वैदिक कर्मकाण्ड के विरोध में जो आवाज औपनिषदिक युग के ऋषि-मुनियों ने उठाई थी, जैन, बौद्ध और अन्य श्रमण परम्पराओं ने मात्र उसे मुखर ही किया है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि वैदिक कर्मकाण्ड के प्रति यदि किसी ने पहली आवाज उठाई, तो वे औपनिषदिक ऋषि ही थे। उन्होंने ही सबसे पहले कहा था कि ये यज्ञरूपी नौकाएं अदृढ़ हैं, ये आत्मा के विकास में सक्षम नहीं हैं। यज्ञ आदि कर्मकाण्डों की नई आध्यात्मिक व्याख्याएं देने और उन्हें श्रमणधारा की आध्यात्मिक दृष्टि के अनुरूप बनाने का कार्य औपनिषदिक ऋषियों और गीता के प्रवक्ता का है। जैन और बौद्ध परम्पराएं तो औपनिषदिक ऋषियों के द्वारा प्रशस्त किए गए पथ पर गतिशील हुई हैं। वे वैदिक कर्मकाण्ड, जन्मना जातिवाद और मिथ्या विश्वासों के विरोध में उठे हुए औपनिषदिक ऋषियों के स्वर का ही मुखरित रूप हैं। जैन और बौद्ध परम्पराओं में औपनिषदिक ऋषियों की अर्हत् ऋषि के रूप में स्वीकृति इसका स्पष्ट प्रमाण है। . यह सत्य है कि श्रमणों ने यज्ञों में पशुबलि, जन्मना वर्णव्यवस्था और वेदों की प्रामाण्यता से इंकार किया और इस प्रकार से वे भारतीय संस्कृति के समुद्धारक के रूप में ही सामने आए, किंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय संस्कृति की इस विकृति का परिमार्जन करने की प्रक्रिया में वे स्वयं ही कहीं न कहीं उन विकृतियों से प्रभावित हो गए। वैदिक कर्मकाण्ड अब तंत्रसाधना के नए रूप में बौद्ध, जैन और श्रमण परम्पराओं में प्रविष्ट हो गया और उनकी साधना पद्धति का एक अंग बन गया। आध्यात्मिक विशुद्धि के लिए किया जाने वाला ध्यान अब भौतिक सिद्धियों के निमित्त किया जाने लगा। जहां एक ओर भारतीय श्रमण परम्परा ने वैदिक परम्परा को आध्यात्मिक जीवन-दृष्टि के साथ-साथ तप, त्याग, संन्यास और मोक्ष की अवधारणाएं प्रदान की, वहीं दूसरी ओर वैदिक परम्परा के प्रभाव से तांत्रिक साधनाएं जैन और बौद्ध परम्पराओं में भी प्रविष्ट हो गईं। अनेक हिन्दू देव-देवियां प्रकारांतर से जैनधर्म एवं बौद्धधर्म में स्वीकार कर ली गईं। जैनधर्म में यक्ष-यक्षिणियों एवं शासनदेवता की अवधारणाएं हिन्दू देवताओं का जैनीकरण मात्र है। अनेक हिन्दू देवियां, जैसे - काली, महाकाली, ज्वालामालिनी, अम्बिका, चक्रेश्वरी, पद्मावती, सिद्धायिका तीर्थंकरों की शासन रक्षक देवियों के रूप ( 19 ) Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में जैनधर्म में स्वीकार कर ली गईं। श्रुत-देवता के रूप में सरस्वती और सम्पत्ति प्रदाता के रूप में लक्ष्मी की उपासना जैन जीवन पद्धति का अंग बन गई। हिन्दू परम्परा का गणेश पार्श्व-यक्ष के रूप में लोकमंगल का देवता बन गया। वैदिक परम्परा के प्रभाव से जैन मंदिरों में भी अब यज्ञ होने लगे और पूजा में हिन्दू देवताओं की तरह तीर्थंकरों का भी आवाहन एवं विसर्जन किया जाने लगा। हिन्दुओं की पूजाविधि को भी मंत्रों में कुछ शाब्दिक परिवर्तनों के साथ जैनों ने स्वीकार कर लिया। इस प्रकार जैन और बौद्ध परम्पराओं में तप, ध्यान और समाधि की साधना गौण होकर कर्मकाण्ड प्रमुख हो गया। इस पारस्परिक प्रभाव का एक परिणाम यह भी हुआ कि जहां हिन्दू परम्पराओं में ऋषभ और बुद्ध को ईश्वर के अवतार के रूप में स्वीकार कर लिया गया, वहीं जैन परम्परा में राम और कृष्ण को शलाका पुरुष के रूप में मान्यता मिली। इस प्रकार दोनों धाराएं एक दूसरे से समन्वित हुईं। दुर्भाग्य से इस देश में विदेशी तत्त्वों के द्वारा न केवल हिन्दू और मुसलमानों के बीच, अपितु जैन, बौद्ध, हिन्दू और सिक्खों, जो कि बृहद् भारतीय परम्परा के ही अंग हैं, के बीच भी खाइयां खोदने का कार्य किया जाता रहा है और सामान्य रूप से यह प्रसारित किया जाता रहा है कि जैन और बौद्ध धर्म न केवल स्वतंत्र धर्म हैं, अपितु वे वैदिक हिन्दू परम्परा के विरोधी भी हैं। सामान्यतया जैन और बौद्ध धर्म को वैदिक धर्म के प्रति एक विद्रोह के रूप में चित्रित किया जाता रहा है। यह सत्य है कि वैदिक और श्रमण परम्पराओं में कुछ मूल-भूत प्रश्नों को लेकर मतभेद हैं, यह भी सत्य है कि जैन और बौद्ध परम्परा ने वैदिक परम्परा की उन विकृतियों का जो कर्मकाण्ड, पुरोहितवाद, जातिवाद और ब्राह्मण वर्ग के द्वारा निम्न वर्गों के धार्मिक शोषण के रूप में उभर रही थीं, खुलकर विरोध किया था, किंतु हमें उसे विद्रोह के रूप में नहीं, अपितु भारतीय संस्कृति के परिष्कार के रूप में समझना होगा। जैन और बौद्ध धर्मों ने भारतीय संस्कृति में आ रही विकृतियों का परिशोधन कर उसे स्वस्थ बनाने हेतु एक चिकित्सक का कार्य किया और चिकित्सक कभी शत्रु नहीं, मित्र ही होता है। दुर्भाग्य से पाश्चात्य चिंतकों के प्रभाव से भारतीय चिंतक और किसी सीमा तक कुछ जैन एवं बौद्ध चिंतक भी यह मानने लगे हैं कि जैन धर्म और वैदिक (हिन्दू) धर्म परस्पर विरोधी हैं, किंतु यह एक भ्रांत अवधारणा है। चाहे अपने मूल रूप में वैदिक एवं श्रमण संस्कृति-प्रवर्तक और निवर्त्तक धर्म परम्पराओं के रूप में भिन्न-भिन्न रही हों, किंतु आज न तो हिन्दू-परम्परा ही उस अर्थ में पूर्णतः वैदिक है और न ही जैन व बौद्ध परम्परा पूर्णतः श्रमण। आज चाहे (20) Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दू धर्म हो अथवा जैन और बौद्ध धर्म हों, ये सभीअपने वर्तमान स्वरूप में वैदिक और श्रमण संस्कृति के समन्वित रूप हैं। यह अलग बात है कि उनमें प्रवृत्ति और निवृत्ति में से कोई एक पक्ष अभी भी प्रमुख हो, उदाहरण के रूप में हम कह सकते हैं कि जहां जैनधर्म आज भी निवृत्ति-प्रधान है वहां हिन्दू धर्म प्रवृत्ति-प्रधान, फिर भी यह मानना उचित नहीं है कि जैनधर्म में प्रवृत्ति एवं हिन्दू धर्म में निवृत्ति के तत्त्व नहीं हैं। वस्तुतः सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति प्रवृत्ति और निवृत्ति के समन्वय में ही निर्मित हुई है। इस समन्वय का प्रथम प्रयत्न हमें ईशावास्योपनिषद् में स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। आज जहां उपनिषदों को प्राचीन श्रमण परम्परा के परिप्रेक्ष्य में समझने की आवश्यकता है, वहीं जैन-बौद्ध परम्परा को भी औपनिषदिक परम्परा के परिप्रेक्ष्य में समझने की आवश्यकता है। जिस प्रकार वासना और विवेक, श्रेय और प्रेय परस्पर भिन्न-भिन्न होकर भी मानव व्यक्तित्व के ही अंग हैं, उसी प्रकार निवृत्ति प्रधान श्रमणधारा और प्रवृत्ति प्रधान वैदिक धारा - दोनों भारतीय संस्कृति के ही अंग हैं। वस्तुतः कोई भी संस्कृति एकांत निवृत्ति या एकांत प्रवृत्ति के आधार पर प्रतिष्ठित नहीं हो सकती है। जैन और बौद्ध परम्पराएं भारतीय संस्कृति का वैसे ही अभिन्न अंग हैं, जैसे हिन्दू परम्परा। यदि औपनिषदिक धारा को वैदिक धारा से भिन्न होते हुए भी वैदिक या हिन्दू परम्परा का अभिन्न अंग माना जाता है, तो फिर जैन और बौद्ध परम्पराओं को उसका अभिन्न अंग क्यों नहीं माना जा सकता। यदि सांख्य और मीमांसक अनीश्वरवादी होते हुए भी आस्तिक हिन्दू-धर्म दर्शन के अंग माने जाते हैं, तो फिर जैन व बौद्ध धर्म को अनीश्वरवादी कहकर उससे कैसे भिन्न किया जा सकता है? भारतीय धर्म और दर्शन एक व्यापक परम्परा है या कहें कि वह विभिन्न विचार परम्पराओं का समूह है, उसमें ईश्वरवाद, अनीश्वरवाद, द्वैतवाद-अद्वैतवाद, प्रवृत्ति-निवृत्ति, ज्ञान-कर्म सभी कुछ तो समाहित हैं। उसमें प्रकृति पूजा जैसे धर्म के प्रारम्भिक लक्षणों से लेकर अद्वैत की उच्च गहराइयां तक सभी कुछ सन्निविष्ट है। ____ अतः जैन और बौद्ध धर्म को भारतीय परम्परा से भिन्न नहीं माना जा सकता। जैन व बौद्ध भी उसी अध्यात्म-पथ के अनुयायी हैं, जिसका प्रवर्तन औपनिषदिक ऋषियों ने किया था। उनकी विशेषता यह है कि उन्होंने भारतीय समाज के दलित वर्ग के उत्थान तथा जन्मनाजातिवाद, कर्मकाण्ड व पुरोहितवाद से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने उस धर्म का प्रतिपादन किया, जो जनसामान्य का धर्म था और जिसे कर्मकाण्डों की अपेक्षा नैतिक सद्गुणों पर अधिष्ठित किया गया था। चाहे उन्होंने भारतीय समाज को पुरोहित वर्ग के धार्मिक शोषण से मुक्त किया हो, फिर भी वे विदेशी नहीं हैं, (21) Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस माटी की संतान हैं, वेशत-प्रतिशत भारतीय हैं। उनकी भूमिका एक शल्य-चिकित्सक की भूमिका है, जो एक मित्र की भूमिका है, शत्रु की नहीं। जैन और बौद्ध धर्म औपनिषदिक धारा का ही एक विकास है और आज उन्हें उसी परिप्रेक्ष्य में समझने की आवश्यकता है। भारतीय धर्मों विशेषरूप से औपनिषदिक, बौद्ध और जैन धर्मों की जिस पारस्परिक प्रभावशीलता के अध्ययन की आज विशेष आवश्यकता है, उसे समझने में प्राचीन स्तर के जैन आगम, यथा-आचारांग, सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित और उत्तराध्ययन आदि हमारे दिशा-निर्देशक सिद्ध हो सकते हैं। मुझे विश्वास है कि इन ग्रंथों के अध्ययन से भारतीय विद्या के अध्येताओं को एक नई दिशा मिलेगी और यह मिथ्या विश्वास दूर हो जाएगा कि जैन-धर्म, बौद्ध-धर्म और हिन्दू-धर्म परस्पर विरोधी धर्म हैं। आचारांग में हमें ऐसे अनेक सूत्र उपलब्ध होते हैं, जो अपने भाव, शब्दयोजना और भाषाशैली की दृष्टि से औपनिषदिक सूत्रों के निकट हैं। आचारांग में आत्मा के स्वरूप के संदर्भ में जो विवरण प्रस्तुत किया गया है, वह माण्डूक्योपनिषद् से यथावत् है। आचारांग में श्रमण और ब्राह्मण का उल्लेख परस्पर प्रतिस्पर्धियों के रूप में नहीं, अपितु सहगामियों के रूप में ही मिलता है। चाहे आचारांग, उत्तराध्ययन आदि जैनागम हिंसक यज्ञीय कर्मकाण्ड का निषेध करते हैं, किंतु वे ब्राह्मणों को भी उसी नैतिक एवं आध्यात्मिक पथ का अनुगामी मानते हैं, जिस पथ पर श्रमण चल रहे थे। उनकी दृष्टि में ब्राह्मण वह है, जो सदाचार का जीवंत प्रतीक है। उसमें अनेक स्थलों पर श्रमणों और ब्राह्मणों (समणामाहणा) का साथ-साथ उल्लेख हुआ है। इसी प्रकार सूत्रकृतांग में यद्यपि तत्कालीन दार्शनिक मान्यताओं की समीक्षा है, किंतु उसके साथ ही उसमें औपनिषदिक युग के अनेक ऋषियों, यथा-विदेहनमि, बाहुक, असितदेवल, द्वैपायन, पाराशर आदि का समादरपूर्वक उल्लेख हुआ है। सूत्रकृतांग स्पष्ट रूप से यह स्वीकार करता है कि यद्यपि इन ऋषियों के आचार-नियम उसकी आचार-परम्परा से भिन्न थे, फिर भी वह उन्हें अपनी अर्हत् परम्परा का ही पूज्य पुरुष मानता है। वह उन्हें महापुरुष और तपोधना के रूप में उल्लेखित करता है और यह मानता है कि उन्होंने सिद्धि अर्थात् जीवन के चरम साध्य मोक्ष को प्राप्त कर लिया था। सूत्रकृतांगकार की दृष्टि में ये ऋषिगण भिन्न आचारमार्ग का पालन करते हुए भी उसकी अपनी ही परम्परा के ऋषि थे। सूत्रकृतांग में इन ऋषियों को सिद्धि प्राप्त कहना तथा उत्तराध्ययन में अन्यलिंग सिद्धों का अस्तित्व मानना यही सूचित करता है कि प्राचीन काल में जैन परम्परा अत्यंत उदार थी और वह मानती थी कि मुक्ति का अधिकार (22) Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवल उसके आचार नियमों का पालन करने वाले को ही नहीं है, अपितु भिन्न आचार मार्ग का पालन करने वाला भी मुक्ति का अधिकारी हो सकता है। _ इसी संदर्भ में यहां ऋषिभाषित (इसिभासियाई) का उल्लेख करना भी आवश्यक है, जो जैन आगम साहित्य का प्रांचीनतम ग्रंथ (ई.पू. चौथी शती) है। जैन परम्परा में इस ग्रंथ का निर्माण उस समय हुआ होगा, जब जैन-धर्म एक सम्प्रदाय के रूप में विकसित नहीं हुआ था। इस ग्रंथ में नारद, असितदेवल, अंगीरस, पाराशर, अरुण, नारायण, याज्ञवल्क्य, उद्दालक, विदुर, सारिपुत्त, महाकश्यप, मंखलिगोसाल, संजय (वेलट्ठिपुत्त) आदि पैंतालीस ऋषियों का उल्लेख है और इन सभी को अर्हत्ऋषि, बुद्ध-ऋषि एवं ब्राह्मणऋषि कहा गया है। ऋषिभाषित में इनके आध्यात्मिक और नैतिक उपदेशों का संकलन है। जैन परम्परा में इस ग्रंथ की रचना इस तथ्य का स्पष्ट संकेत है कि औपनिषदिक ऋषियों की परम्परा और जैन परम्परा का उद्गम स्रोत एक ही है। यह ग्रंथ न केवल जैन धर्म की धार्मिक उदारता का सूचक है, अपितु यह भी बताता है कि सभी भारतीय आध्यात्मिक परम्पराओं का मूल स्रोत एक ही है। औपनिषदिक, बौद्ध, जैन, आजीवक, सांख्य, योग आदि सभी उसी मूल स्रोत से निकली हुई धाराएं हैं। जिस प्रकार जैन धर्म में ऋषिभाषित में विभिन्न परम्पराओं के उपदेश संकलित हैं, उसी प्रकार बौद्ध परम्परा की थेरगाथा में भी विभिन्न परम्पराओं के जिन-स्थविरों के उपदेश संकलित हैं, उनमें भी अनेक औपनिषदिक एवं अन्य श्रमण परम्परा के आचार्यों के उल्लेख हैं, जिनमें एक वर्द्धमान (महावीर) भी हैं। यह सब इस तथ्य का सूचक है कि भारतीय परम्परा प्राचीनकाल से ही उदार और सहिष्णु रही है और उसकी प्रत्येक धारा में यही उदारता और सहिष्णुता प्रवाहित होती रही है। आज जब हम साम्प्रदायिक अभिनिवेशों से जकड़ कर परस्पर संघर्षों में उलझ गए हैं, इन ग्रंथों का अध्ययन हमें एक नई दृष्टि प्रदान कर सकता है। यदि भारतीय सांस्कृतिक चिंतन की इन धाराओं को एकदूसरे से अलग कर देखने का प्रयत्न किया जाएगा, तो हम उन्हें सम्यक् रूप से समझने में सफल नहीं हो सकेंगे। उत्तराध्ययन, सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित और आचारांग को समझने के लिए औपनिषदिक साहित्य का अध्ययन आवश्यक है। इसी प्रकार उपनिषदों और बौद्ध साहित्य को भी जैन परम्परा के अध्ययन के अभाव में सम्यक् प्रकार से नहीं समझा जा सकता है। आज साम्प्रदायिक अभिनिवेशों से ऊपर उठकर तटस्थ एवं तुलनात्मक रूप से सत्य का अन्वेषण ही एक ऐसा विकल्प है, जो साम्प्रदायिक अभिनिवेश से ग्रस्त मानव को मुक्ति दिला सकता है। (23) Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय दर्शन में सामाजिक चेतना भारतीय दार्शनिक चिंतन में उपस्थित सामाजिक संदर्भो को समझने के लिए सर्वप्रथम हमें यह जान लेना चाहिए कि केवल कुछ दार्शनिक प्रस्थान ही सम्पूर्ण भारतीय प्रज्ञा एवं भारतीय चिंतन का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं, इन दार्शनिक प्रस्थानों से हटकर भी भारत में दार्शनिक चिंतन हुआ है और उसमें अनेकानेक संदर्भ उपस्थित हैं। दूसरें यह कि भारतीय दर्शन मात्र बौद्धिक एवं सैद्धांतिक ही नहीं है, वह अनुमूल्यात्मक एवं व्यावहारिक भी है। कोई भी भारतीय दर्शन ऐसा नहीं है, जो मात्र तत्त्वमीमांसीय (Metaphysical) एवं ज्ञान-मीमांसीय (Epistomological) चिंतन से ही संतोष धारण कर लेता हो। उसमें ज्ञान ज्ञान के लिए नहीं, अपितु जीवन के सफल संचालन के लिए है। उसका मूल दुःख की समस्या के निराकरण में है। दुःख-मुक्ति - यही भारतीय दर्शन का 'अथ' और इति' है। यद्यपि तत्त्व-मीमांसा प्रत्येक भारतीय दार्शनिक प्रस्थान के महत्त्वपूर्ण अंग ही हैं, किंतु वे सम्यक् जीवनदृष्टि के निर्माण और सामाजिक व्यवहार की शुद्धि के लिए हैं। भारतीय चिंतन में दर्शन की धर्म और नीति से अवियोज्यता उसके सामाजिक संदर्भ को और भी स्पष्ट कर देती है। यहां दर्शन जानने की नहीं, अपितु जीने की वस्तु रहा है, वह ज्ञान (बौद्धिक ज्ञान) नहीं, अनुभूति है और इसीलिए वह फिलासफी नहीं, दर्शन है, जीवन जीने का एक सम्यक् दृष्टिकोण है। . यद्यपि हमारा दुर्भाग्य तो यह रहा कि मध्य-युग में,दर्शन साधकों और ऋषिमुनियों के हाथों से निकलकर तथाकथित बुद्धिजीवियों के हाथों चला गया, फलतः उसमें तार्किक पक्ष प्रधान तथा अनुभूतिपरक साधना पक्ष एवं आचार-पक्ष गौण हो गया और हमारी जीवन-शैली से उसका रिश्ता धीरे-धीरे टूटता गया। सामाजिक चेतना के विकास की दृष्टि से भारतीय चिंतन को हम तीन भागों में बांट सकते हैं - 1. वैदिक युग, 2. औपनिषदिक युग एवं 3. जैन-बौद्ध युग वैदिक युग में जनमानस में सामाजिक चेतना को जाग्रत करने का प्रयत्न किया गया, जबकि औपनिषदिक युग में सामाजिक चेतना के लिए दार्शनिक आधार (24) Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का प्रस्तुतिकरण किया गया और जैन-बौद्ध युग में सामाजिक सम्बंधों के शुद्धिकरण पर बल दिया गया। भारतीय चिंतन की प्रवर्तक वैदिक धारा में सामाजिकता का तत्त्व उसके प्रारम्भिक काल से ही उपस्थित है। वेदों में सामाजिक जीवन की संकल्पना के व्यापक संदर्भ हैं। वैदिक ऋषि सफल एवं सहयोगपूर्ण सामाजिक जीवन के लिए अभ्यर्थना करते हुए कहता है कि 'संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मानसि जानताम् (ऋग्वेद 10/191/2) तुम मिलकर चलो, मिलकर बोलो, तुम्हारे मन साथ-साथ विचार करें अर्थात् तुम्हारे जीवन व्यवहार में सहयोग, तुम्हारी वाणी में समस्वरता और तुम्हारे विचारों में समानता हो। आगे पुनः वह कहता है - समानो मंत्रः समितिः समानी, समानं मनः सहचित्तमेषाम् / समानी व आकृतिः समाना हदयानी वः॥ समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति // (ऋग्वेद 10/191/3-4) आप सबके निर्णय समान हों , आप सबकी सभा भी सबके लिए समान हो, अर्थात् सबके प्रति समान व्यवहार करें। आपका मन भी समान हो और आपकी चित्तवृत्ति भी समान हो, आपके संकल्प एक हों, आपके हृदय एक हों, आपका मन भी एक-रूप हो, ताकि आप मिलजुल कर अच्छी तरह से कार्य कर सकें। सम्भवतः सामाजिक जीवन एवं समाजनिष्ठा के परिप्रेक्ष्य में वैदिक युग के भारतीय चिंतक के ये महत्त्वपूर्ण उद्गार हैं। वैदिक ऋषियों का कृण्वं तो विश्वमार्यम्' के रूप में एक सुसभ्य एवं सुसंस्कृत मानव-समाज की रचना का मिशन तभी सफल हो सकता था, जबकि वे जन-जन में समाज-निष्ठा के बीज का वपन करते। सहयोगपूर्ण जीवन-शैली उनका मूल मंतव्य था। प्रत्येक अवसर पर शांति-पाठ के माध्यम से वे जन-जन में सामाजिक चेतना के विकास का प्रयास करते थे। वे अपने शांति-पाठ में कहते थे - ॐ सहनावतु सहनोभुनक्तु सहवीर्यं करवावहे, तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्वषावहे। (तैत्तिरीय आरण्यक, 8/2) हम सब साथ-साथ रक्षित हों, साथ-साथ पोषित हों, साथ-साथ सामर्थ्य को प्राप्त हों, हमारा अध्ययन तेजस्वी हो, हम आपस में विद्वेष न करें। वैदिक समाज दर्शन का आदर्श था - ‘शत-हस्तः समाहर, सहस्रहस्तःविकर' सैकड़ों हाथों से इकट्ठा करो (25) Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और हजार हाथों से बांटों, किंतु यह बांटने की बात दया या कृपा नहीं है, अपितु सामाजिक दायित्व का बोध है, क्योंकि भारतीय चिंतन में दान के लिए संविभाग शब्द का प्रयोग होता रहा है, इसमें सम वितरण या सामाजिक दायित्व का बोध ही प्रमुख है, कृपा, दया, करुणा- ये सब गौण हैं। आचार्य शंकर ने दान की व्याख्या की है ‘दानं संविभागम्'। जैन दर्शन में तो अतिथि-संविभाग के रूप में एक स्वतंत्र व्रत की व्यवस्था की गई है। वैदिक ऋषियों का निष्कर्ष था कि जो अकेला खाता है, वह पापी है (केवलाघो भवि केवलादी)। जैन दार्शनिक भी कहते थे 'असंविभागी न हु तस्स मोक्खो', जो समविभागी नहीं है, उसकी मुक्ति नहीं होगी। इस प्रकार हम वैदिक युग में सहयोग एवं सहजीवन का संकल्प उपस्थित पाते हैं, किंतु उसके लिए दार्शनिक आधार का प्रस्तुतिकरण औपनिषदिक चिंतन में ही हुआ है। औपनिषदिक ऋषि ‘एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा' 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म' तथा ईशावास्यमिदं सर्वम्' के रूप में एकत्व की अनुभूति करने लगा। औपनिषदिक चिंतन में वैयक्तिक से ऊपर उठकर सामाजिक एकता के लिए अभेद-निष्ठा का सर्वोत्कृष्ट तात्त्विक आधार प्रस्तुत किया गया। इस प्रकार जहां वेदों की समाज-निष्ठा बहिर्मुखी थी, वहीं उपनिषदों में आकर अंतर्मुखी हो गई। भारतीय दर्शन में यह अभेद-निष्ठा ही सामाजिक एकत्व की चेतना एवं सामाजिक समता का आधार बनी है। ईशावास्योपनिषद् का ऋषि कहता था - यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति / सर्व-भूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते॥ जो सभी प्राणियों को अपने में और अपने को सभी प्राणियों में देखता है, वह अपनी इस एकात्मा की अनुभूति के कारण किसी से घृणा नहीं करता है। सामाजिक जीवन के विकास का आधार एकात्मा की अनुभूति है और जब एकात्मा की दृष्टि का विकास हो जाता है, तो घृणा और विद्वेष के तत्त्व स्वतः समाप्त हो जाते हैं। इस प्रकार जहां एक ओर औपनिषदिक ऋषियों ने एकात्मा की चेतना को जाग्रत कर सामाजिक जीवन के विनाशक घृणा एवं विद्वेष के तत्त्वों को समाप्त करने का प्रयास किया, वहीं दूसरी ओर उन्होंने सम्पत्ति के वैयक्तिक अधिकार का निरसन कर ईश्वरीय सम्पदा अर्थात् सामूहिक सम्पदा का विचार भी प्रस्तुत किया। ईशावास्योपनिषद् के प्रारम्भ में ही ऋषि कहता है - ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् / तेन त्यक्तेन भुंजीथाः मा गृद्ध कस्यस्विद्धनम् / / - ईशा., 1/1 (26) Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात्, इस जगत् में जो कुछ भी है, वह सभी ईश्वरीय है, ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे वैयक्तिक कहा जा सके। इस प्रकार श्लोक के पूर्वार्द्ध में वैयक्तिक अधिकार का निरसन करके समष्टि को प्रधानता दी गई है। श्लोक के उत्तरार्द्ध में व्यक्ति के उपभोग एवं संग्रह के अधिकार को मर्यादित करते हुए कहा गया कि प्रकृति की जो भी उपलब्धियां हैं, उनमें दूसरों (अर्थात् समाज के दूसरे सदस्यों) का भी भाग है, अतः उनके भाग को छोड़कर ही उनका उपयोग करो, संग्रह या लालच मत करो, क्योंकि सम्पत्ति किसी एक की नहीं है। सम्भवतः सामाजिकता की चेतना के विकास के लिए इससे अधिक महत्त्वपूर्ण दूसरा कथन नहीं हो सकता था। यही कारण था कि गांधीजी ने इस श्लोक के संदर्भ में कहा था कि यदि भारतीय साहित्य संस्कृति का सभी कुछ नष्ट हो जाए, किंतु यह श्लोक बना रहे, तो यह अकेला ही उसकी अभिव्यक्ति में समर्थ है। तेन त्यक्तेन भुंजीथाः में समग्र सामाजिक चेतना केंद्रित दिखाई देती है। यदि हम उपनिषदों के पश्चात् महाभारत और उसके ही एक अंश गीता की ओर आते हैं, तो यहां भी हमें सामाजिक चेतना का स्पष्ट दर्शन होता है। महाभारत तो इतना व्यापक ग्रंथ है कि उसमें उपस्थित समाज-दर्शन पर एक स्वतंत्र महानिबंध लिखा जा सकता है। सर्वप्रथम महाभारत में और उसके पश्चात् आचार्य शांतिदेव के बोधिचर्यावतार में हमें समाज की आंगिक संकल्पना का वह सिद्धांत परिलक्षित होता है, जिस पर पाश्चात्य चिंतन में सर्वाधिक बल दिया गया है। आचार्य शांतिदेव लिखते 'कायस्यावयत्वेन यथाभीष्टा करादयः। जंगतो ऽवयवत्वेन तथा कस्मान देहिनः॥' . (बोधिचर्यावतार, 8/114) जिस प्रकार हाथ आदि शरीर के अवयव होने के कारण प्रिय होते हैं, वैसे ही सब प्राणी जगत् के अवयव होने के कारण क्यों प्रिय नहीं होंगे? गीता भी इस एकात्मता की अनुभूति पर बल देती है। गीताकार कहता है कि - ‘आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन। सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमोमतः॥' (गीता, 6/32) अर्थात्, जो सुख-दुःख की अनुभूति में सभी को अपने समान समझता है, वही सच्चा योगी है। मात्र इतना ही नहीं, वह तो इससे आगे यह भी कहता है कि सच्चा (27) Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन या ज्ञान वही है, जो हमें एकात्मा की अनुभूति कराता है- 'अविभक्तं विभक्तेषु . तज्ज्ञानं विद्धि सात्विकम्'। वैयक्तिक हमारी समाज-निष्ठा का एकमात्र आधार है। सामाजिक दृष्टि सर्वभूत-हिते रताः' गीता का सामाजिक आदर्श भी प्रस्तुत करती है। अनासक्त भाव से युक्त होकर लोक-कल्याण के लिए कार्य करते रहना ही गीता के समाज दर्शन का मूल मन्तव्य है। श्रीकृष्ण स्पष्ट रूप से कहते हैं - 'ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः।' (गीता, 12/4) . मात्र इतना ही नहीं, गीता में सामाजिक दायित्वों के निर्वहन पर भी पूरा-पूरा बल दिया गया है। जो अपने सामाजिक दायित्वों को पूर्ण किए बिना भोग करता है, वह गीताकार की दृष्टि में चोर है (स्तेन एव सः, 3/12), साथ ही जो मात्र अपने लिए पकाता है, वह पाप का ही अर्जन करता है (भुंजते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् 3/13) / गीता हमें समाज में रहकर ही जीवन जीने की शिक्षा देती है, इसलिए उसने संन्यास की नवीन परिभाषा भी प्रस्तुत की है। वह कहती है कि-... 'काम्यानां कर्मणा न्यासं संन्यासं कवयो विदुः।' (गीता, 18/2) काम्य अर्थात् स्वार्थयुक्त कर्मों का त्याग ही संन्यास है, केवल निरग्नि और निष्क्रिय हो जाना संन्यास नहीं है। सच्चे संन्यासी का लक्षण है- समाज में रहकर लोक. कल्याण के लिए अनासक्त भाव से कर्म करता रहे। अनाश्रितः कर्मफलं कार्य करोति यः। स संन्यासी च योगी च न निरग्नि च चाक्रियः॥ (गीता 6/1) गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि लोक-शिक्षा को चाहते हुए कर्म करता रहे (कुर्यात् विद्वान् तथासक्तः चिकीर्षुः लोकसंग्रहम् 3/25) / गीता में गुणाश्रित कर्म के आधार पर वर्ण-व्यवस्था का जो आदर्श प्रस्तुत किया था, वह भी सामाजिक दृष्टि से कर्तव्यों एवं दायित्वों के विभाजन का एक महत्त्वपूर्ण कार्य था, यद्यपि भारतीय समाज का यह दुर्भाग्य था कि गुण अर्थात् वैयक्तिक योग्यता के आधार पर कर्म एवं वर्ण का यह विभाजन किन्हीं स्वार्थों के कारण जन्मना बना दिया गया। गीता वर्ण-व्यवस्था को तो स्वीकार करती है, किंतु जन्म के आधार पर नहीं, गुण एवं कर्म के आधार पर (चातुर्वर्त्य मयासुष्टं गुण-कर्मविभागशः - गीता, 4/13) गीता में श्रीकृष्ण स्पष्ट रूप से कहते हैं कि (28) Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्राह्मण क्षत्रिय विशां शूद्राणां च परंतप / कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभाव प्रभवैर्गुणैः // (गीता, 18/41) हे अर्जुन ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के कर्मों का विभाजन उनके स्वभाव से उत्पन्न गुणों के आधार पर किया गया है। सामाजिक जीवन में विषमता एवं संघर्ष का एक महत्त्वपूर्ण कारण सम्पत्ति का अधिकार है। श्रीमद्भागवत भी ईशावास्योपनिषद् के समान ही सम्पत्ति पर व्यक्ति के अधिकार को अस्वीकार करती है। उसमें कहा गया है - यावत् भ्रियेत जठरं, तावत् स्वत्वं देहिनाम् / अधिको योऽभिमन्येत स स्तेनो दण्डमर्हति // - श्रीमद्भागवत, 7/14/8 अर्थात्, अपनी दैहिक आवश्यकता से अधिक सम्पदा पर अपना स्वत्व मानना सामाजिक दृष्टिं से चोरी है, अनधिकृत चेष्टा है। आज का समाजवाद एवं साम्यवाद भी इसी आदर्श पर खड़ा है, योग्यता के अनुसार कार्य और आवश्यकता के अनुसार वेतन'की उसकी धारणा यहां पूरी तरह उपस्थित है। भारतीय चिंतन में पुण्य और पाप को जो वर्गीकरण है, उसमें भी सामाजिक दृष्टि ही प्रमुख है। पाप के रूप में जिन दुर्गुणों का और पुण्य के रूप में जिन सद्गुणों का उल्लेख है, उनका सम्बंध वैयक्तिक जीवन की अपेक्षा सामाजिक जीवन से अधिक है। पुण्य और पाप की एकमात्र कसौटी हैकिसी कर्म का लोक-मंगल में उपयोगी या अनुपयोगी होना। कहा भी गया है - . परोपकारः पुण्याय, पापाय परपीडनम्।' जो लोक के लिए हितकर तथा कल्याणकर है, पुण्य है और इसके विपरीत, जो भी दूसरों के लिए पीड़ा-जनक है, अमंगलकर है, वह पाप है। इस प्रकार भारतीय चिंतन में पुण्य-पाप की व्याख्याएं भी सामाजिक दृष्टि पर ही आधारित हैं। - यदि हम निवर्त्तक धारा के समर्थक जैन, बौद्ध, सांख्य, योग एवं शांकर वेदांत की ओर दृष्टिपात करते हैं, तो प्रथम दृष्टि में ऐसा लगता है कि इनमें समाज की दृष्टि की उपेक्षा की गई है। सामान्यतया यह माना जाता है कि निवृत्ति-प्रधान दर्शन व्यक्ति-परक और प्रवृत्ति-प्रधान दर्शन समाज-परक होते हैं। पं. सुखलालजी के शब्दों में प्रवर्तक धर्म का संक्षेप सार यह है कि जो और जैसी समाज व्यवस्था है, उसे इस तरह नियमबद्ध करना कि जिससे समाज का प्रत्येक सभ्य अपनी-अपनी स्थिति और कक्षा के (29) Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुरूप सुख लाभ करे। प्रवर्तक धर्म समाज-गामी था, इसका मतलब यह था कि प्रत्येक व्यक्ति समाज में रहकर (उन) सामाजिक कर्तव्यों का पालन करे, जो ऐहिक जीवन से सम्बंध रखते हैं। (जबकि) निवर्त्तकधर्म व्यक्तिगामी है, (वह) समस्त सामाजिक एवं धार्मिक कर्तव्यों से बद्ध होने की बात नहीं कहता है। उसके अनुसार व्यक्ति के लिए मुख्य कर्त्तव्य एक ही है, वह यह कि जिस तरह भी हो, आत्म-साक्षात्कार का और उसमें रुकावट डालने वाली इच्छा के नाश का प्रयत्न करे (दर्शन और चिंतन), किंतु इस आधार पर यह मान लेना कि भारतीय चिंतन की निवर्त्तक धारा के समर्थक अर्थात् जैन, बौद्ध, सांख्य, योग, शांकर वेदांत आदि दर्शन असामाजिक हैं, या इन दर्शनों में सामाजिक संदर्भ का अभाव है, नितांत भ्रम होगा। इनमें भी सामाजिक भावना से परांङ्गमुखता नहीं दिखाई देती है। ये दर्शन इतना तो अवश्य मानते हैं कि चाहे वैयक्तिक साधना की दृष्टि से एकाकी जीवन लाभप्रद हो सकता है, किंतु उस साधना से प्राप्त सिद्धि का उपयोग सामाजिक कल्याण की दिशा में ही होना चाहिए। महावीर, बुद्ध और शंकराचार्य का जीवन स्वयं इस बात का साक्षी है कि वे ज्ञान-प्राप्ति के पश्चात् जीवनपर्यंत लोक-मंगल के लिए कार्य करते रहे। यद्यपि इन निवृत्तिप्रधान दर्शनों में जो सामाजिक संदर्भ उपस्थित हैं, वे थोड़े भिन्न प्रकार के अवश्य हैं। इनमें मूलतः सामाजिक सम्बंधों की शुद्धि का प्रयास परिलक्षित होता है। सामाजिक संदर्भ की दृष्टि से इनमें समाजरचना एवं सामाजिक दायित्वों का निर्वहन की अपेक्षा समाज-जीवन को दूषित बनाने वाले तत्त्वों के निरसन पर बल दिया गया है। जैन दर्शन के पंच महाव्रत, बौद्ध दर्शन के पंचशील और योग दर्शन के पंच यमों का सम्बंध अनिवार्यतया हमारे सामाजिक जीवन से ही है। प्रश्नव्याकरण सूत्र नामक जैन आगम में कहा गया है कि तीर्थंकर का यह सुकथित प्रवचन सभी प्राणियों के रक्षण एवं करुणा के लिए है। पांचों महाव्रत सर्वप्रकार से लोकहित के लिए ही हैं - (प्रश्नव्याकरणसूत्र, 1/1/21-22) / हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार, संग्रह (परिग्रह)- ये सब वैयक्तिक नहीं, सामाजिक जीवन की दुष्प्रवृत्तियां हैं। ये सब दूसरों के प्रति हमारे व्यवहार से सम्बंधित हैं। हिंसा का अर्थ है किसी अन्य की हिंसा, असत्य का मतलब है किसी अन्य को गलत जानकारी देना, चोरी का अर्थ है- किसी दूसरे की सम्पत्ति का अपहरण करना, इसी प्रकार संग्रह या परिग्रह का अर्थ है- समाज में आर्थिक विषमता पैदा करना। क्या समाज जीवन के अभाव में इनका कोई अर्थ या संदर्भ रह जाता है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह की जो मर्यादाएं इन दर्शनों ने दीं, वे हमारे सामाजिक सम्बंधों की शुद्धि के (30) Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिए ही हैं। . इसी प्रकार इन दर्शनों की साधना पद्धति में समान रूप से प्रस्तुत मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ की भावनाओं के आधार पर भी सामाजिक संदर्भ को स्पष्ट किया जा सकता है। आचार्य अमितगति इन भावनाओं की अभिव्यक्ति निम्न शब्दों में करते हैं - सात्वेषु मैत्री गुणीषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपा-परत्वम् / माध्यस्थ-भावं विपरीतवृत्तौ सदामआत्मा विदधातु देव // - सामायिक पाठ हे प्रभु ! हमारे मनों में प्राणियों के प्रति मित्रता, गुणीजनों के प्रति प्रमोद, दुःखियों के प्रति करुणा तथा दुष्टजनों के प्रति माध्यस्थ भाव विद्यमान रहें। इस प्रकार इन भावनाओं के माध्यम से समाज के विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों से हमारे सम्बंध किस प्रकार के हों, यही स्पष्ट किया गया है। समाज से दूसरे लोगों के साथ हम किस प्रकार जीवन जीए, यह हमारी सामाजिकता के लिए अति आवश्यक है और इन दर्शनों में इस प्रकार से व्यक्ति को समाज-जीवन से जोड़ने का ही प्रयास किया गया है। इन दर्शनों का हृदय रिक्त नहीं है। इनमें प्रेम और करुणा की अटूट धारा बह रही है। तीर्थंकर की वाणी का प्रस्फुटन ही लोक की करुणा के लिए होता है, (समेच्च लोये खेयन्ने पण्डबेइये), इसीलिए तो आचार्य समन्तभद्र लिखते हैं- 'सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदय तीर्थमिदं तवैव', 'हे प्रभु ! आपका अनुशासन सभी दुःखों का अंत करने वाला और सभी का कल्याण, सर्वोदय करने वाला है। जैन आगमों में प्रस्तुत कुल-धर्म, ग्राम-धर्म, नगरधर्म, राष्ट्र-धर्म एवं गण-धर्म भी उसकी समाज-सापेक्षता को स्पष्ट कर देते हैं। त्रिपिटक में भी अनेक संदर्भो में व्यक्ति के विविध सामाजिक सम्बंधों के आदर्शों का चित्रण किया गया है। इन सब पर इस लघु निबंध में प्रकाश डाल पाना सम्भव नहीं है। पारिवारिक और सामाजिक जीवन में हमारे पारस्परिक सम्बंधों को सुमधुर एवं समायोजनपूर्ण बनाने ' तथा सामाजिक टकराव के कारणों का विश्लेषण कर उन्हें दूर करने के लिए इन दर्शनों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। . वस्तुतः इन दर्शनों ने आचार शुद्धि पर बल देकर व्यक्ति सुधार के माध्यम से समाज-सुधार का मार्ग प्रशस्त किया। इन्होंने व्यक्ति को समाज का केंद्र माना और इसलिए उसके चरित्र के निर्माण पर बल दिया। वस्तुतः इन दर्शनों के युग का समाजरचना का कार्य पूरा हो चुका था, अतः इन्होंने मुख्य रूप से सामाजिक बुराइयों को (31) Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाप्त करने का प्रयास किया और सामाजिक सम्बंधों की शुद्धि पर बल दिया। (4) सम्भवतः भारतीय दर्शन को जिन आधारों पर सामाजिक जीवन से कटा हुआ माना जाता है, उनमें प्रमुख हैं- राग या आसक्ति का प्रहाण, संन्यास या निवृत्ति मार्ग की प्रधानता तथा मोक्ष का प्रत्यया ये ही ऐसे तत्त्व हैं, जो व्यक्ति को सामाजिक जीवन से अलग करते हैं, अतः भारतीय संदर्भ में इन प्रत्ययों की सामाजिक दृष्टि से समीक्षा आवश्यक है। . सर्वप्रथम भारतीय दर्शन आसक्ति, राग या तृष्णा की समाप्ति पर बल देता है, किंतु प्रश्न यह है कि क्या आसक्ति या राग से ऊपर उठने की बात सामाजिक जीवन से अलग करती है। सामाजिक जीवन का आधार पारस्परिक सम्बंध है और सामान्यतया यह माना जाता है कि राग से मुक्ति या आसक्ति की समाप्ति तभी सम्भव है, जबकि व्यक्ति अपने को सामाजिक-जीवन से या पारिवारिक जीवन से अलग कर ले, किंतु यह एक भ्रांत धारणा ही है। न तो सम्बंध तोड़ देने मात्र से राग समाप्त हो जाता है, न राग के अभाव मात्र से सम्बंध टूट जाते हैं, वास्तविकता तो यह है कि राग या आसक्ति की उपस्थिति में हमारे यथार्थ सामाजिक सम्बंध ही नहीं बन पाते। सामाजिक जीवन और सामाजिक सम्बंधों के मूल में व्यक्ति की राग-भावना ही काम करती है। सामान्यतया राग द्वेष का सहगामी होता है और जब सम्बंध राग द्वेष के आधार पर खड़े होते हैं, तो इन सम्बंधों से टकराहट एवं विषमता स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होती है। बोधिचर्यावतार में आचार्य शांतिदेव लिखते हैं - उपद्रवा ये च भवन्ति लोके यावन्ति दुःखानि भयानि चैव। सर्वाणि तान्यात्म परिग्रहेण तत् किं ममानेन परिग्रह / आत्मान् परित्यज्य दुःख त्यैक्तुं न शक्यते॥ . __- बोधिचर्यावतार, 8/134-135 संसार के सभी दुःख और भय एवं तद्जन्य उपद्रव ममत्व के कारण होते हैं। जब तक ममत्व बुद्धि का परित्याग नहीं किया जाता, तब तक इन दुःखों की समाप्ति सम्भव नहीं है, जैसे अग्नि का परित्याग किए बिना तजन्य दाह से बचना असम्भव है। राग हमें सामाजिक जीवन से जोड़ता नहीं है, अपितु तोड़ता ही है। राग के कारण मेरा या ममत्व भाव उत्पन्न होता है। मेरे सम्बंधी, मेरी जाति, मेरा धर्म, मेरा राष्ट्र - ये विचार विकसित होते हैं और उसके परिणामस्वरूपभाई-भतीजावाद, जातिवाद, साम्प्रदायिकता (32) Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और संकुचित राष्ट्रवाद का जन्म होता है। आज मानव जाति के सुमधुर सामाजिक सम्बंधों में ये ही सबसे अधिक बाधक तत्त्व हैं। ये मनुष्य को पारिवारिक, जातीय, साम्प्रदायिक और राष्ट्रीय क्षुद्र स्वार्थों से ऊपर नहीं उठने देते हैं। वे ही आज की विषमता का मूल कारण हैं। भारतीय दर्शन ने राग या आसक्ति के प्रहाण पर बल देकर सामाजिकता की एक यथार्थ दृष्टि ही प्रदान की है। प्रथम तो यह कि राग किसी पर होता है और जो किसी पर होता है, वह सब नहीं हो सकता है, अतः राग से ऊपर उठे बिना या आसक्ति छोड़े बिना सामाजिकता की सच्ची भूमिका प्राप्त नहीं की जा सकती। सामाजिक जीवन की विषमताओं का मूल स्व' की संकुचित सीमा ही है। व्यक्ति जिसे अपना मानता है, उसके हित की कामना करता है और जिसे पराया मानता है, उसके हित की उपेक्षा करता है। सामाजिक जीवन में शोषण, क्रूर व्यवहार, घृणा आदि सभी उन्हीं के प्रति किए जाते हैं, जिन्हें हम अपना नहीं मानते हैं। यद्यपि यह बड़ा कठिन कार्य है कि हम अपनी रागात्मकता या ममत्ववृत्ति का पूर्णतया विसर्जन कर सकें, किंतु यह भी उतना ही सत्य है कि उसका एक सीमा तक विसर्जन किए बिना अपेक्षित सामाजिक जीवन का विकास नहीं हो सकता। व्यक्ति का ममत्व, चाहे वह व्यक्तिगत जीवन, पारिवारिक जीवन या राष्ट्र की सीमा तक विस्तृत हो, हमें स्वार्थ-भावना से ऊपर नहीं उठने देता। स्वहित की वृत्ति, चाहे वह परिवार के प्रति हो या राष्ट्र के प्रति, समान रूप से सामाजिक विरोधी ही सिद्ध होती है। उसके होते हुए सच्चा सामाजिक जीवन फलित नहीं हो सकता। जिस प्रकार परिवार के प्रति ममत्व का सघन रूप हममें राष्ट्रीय चेतना का विकास नहीं कर सकता, उसी प्रकार राष्ट्रीयता के प्रति भी ममत्व सच्ची मानवीय एकता में सहायक सिद्ध नहीं हो सकता। जिन राष्ट्रों में व्यावहारिक सच्चाई एवं प्रामाणिकता है, वे भी अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में सत्यनिष्ठ और प्रामाणिक नहीं हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि व्यक्ति का जीवन जब तक राग या आसक्ति से ऊपर नहीं उठता, तब तक सामाजिकता का सद्भाव सम्भव नहीं हो सकता। समाज त्याग एवं समर्पण के आधार पर खड़ा होता है, अतः वीतराग या अनासक्त दृष्टि ही सामाजिक जीवन के लिए वास्तविक आधार प्रस्तुत कर सकती है और सम्पूर्ण मानव-जाति में सुमधुर सामाजिक सम्बंधों का निर्माण कर सकती है। भारतीय दर्शन में राग के साथ-साथ अहं के प्रत्यय के विगलन पर भी समान रूप से बल दिया गया है। अहं भाव भी हमारे सामाजिक सम्बंधों में बाधा ही उत्पन्न करता है। शासन की इच्छा या आधिपत्य की भावना इसके प्रमुख तत्त्व हैं और इनके कारण सामाजिक जीवन में विषमता एवं टकराहट उत्पन्न होती है। भारतीय दर्शन (33) Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहं के प्रत्यय के विगलन के द्वारा सामाजिक जीवन में परतंत्रता को समाप्त करता है। यदि हम सामाजिक सम्बंधों में उत्पन्न होने वाली विषमता एवं टकराहट के कारणों का विश्लेषण करें, तो उसके मूल में हमारी आसक्ति, रागात्मकता या अहं ही प्रमुख हैं। आसक्ति, ममत्व भाव या राग के कारण ही मनुष्य में संग्रह, आवेश और कपटाचार के तत्त्व जन्म लेते हैं। संग्रह की मनोवृत्ति के कारण शोषण, अप्रामाणिकता, स्वार्थपूर्ण व्यवहार एवं विश्वासघात के तत्त्व विकसित होते हैं। इसी प्रकार आवेश की मनोवृत्ति के कारण क्रूर व्यवहार, संघर्ष, युद्ध एवं हत्याएं होती हैं और कपट की मनोवृत्ति अविश्वास एवं अमैत्रीपूर्ण व्यवहार को जन्म देती है, अतः यह कहना उचित ही होगा कि भारतीय दर्शन ने राग या आसक्ति के प्रहाण पर बल देकर सामाजिक विषमताओं को समाप्त करने एवं सामाजिक समत्व की स्थापना करने में महत्त्वपूर्ण सहयोग दिया है। समाज त्याग एवं समर्पण पर खड़ा होता है, जीता है और विकसित होता है, यह भारतीय चिंतन का महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष है। वस्तुतः आसक्ति या राग तत्त्व की उपस्थिति में सच्चा लोकहित भी फलित नहीं होता है। आसक्ति या कर्म-फल की आकांक्षा के साथ किया गया कोई भी लोक-हित का कार्य स्वार्थपरता से शून्य नहीं होता है। जिस प्रकार शासन की ओर से नियुक्त समाज-कल्याण अधिकारी लोकहित को करते हुए भी सच्चे अर्थों में लोकहित का कर्ता नहीं है, क्योंकि वह जो कुछ भी करता है, वह केवल अपने वेतन के लिए करता है, इसी प्रकार आसक्ति या राग-भावना से युक्त, चाहे बाहर से लोकहित का कर्ता दिखाई दे, किंतु वह सच्चे अर्थ में लोकहित का कर्ता नहीं है। अतः, भारतीय दर्शन ने आसक्ति से या राग से ऊपर उठकर लोकहित करने के लिए एक यथार्थ भूमिका प्रदान की। सराग लोकहित या फलासक्ति से युक्त लोकहित छद्म स्वार्थ ही है, अतः भारतीय दर्शनों में अनासक्ति एवं वीतरागता के प्रत्यय पर जो कुछ बल दिया है, वह सामाजिकता का विरोधी नहीं है। (5) सामान्यतया भारतीय दर्शन के संन्यास के प्रत्यय को समाज निरपेक्ष माना जाता है, किंतु क्या संन्यास की धारणा समाज-निरपेक्ष है? निश्चय ही संन्यासी पारिवारिक जीवन का त्याग करता है, किंतु इससे क्या वह असामाजिक हो सकता है? संन्यास के संकल्प में वह कहता है कि 'वित्तेषणा पत्रेषणा लोकेषणा मया परित्यक्ता, अर्थात् मैं धर्म-कामना, संतान-कामना और यश-कामना का परित्याग करता हूं, किंतु क्या धन-सम्पदा, संतान तथा शाशकीर्ति की कामना का परित्याग समाज का परित्याग है? (34) Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुतः, समस्त एषणाओं का त्याग स्वार्थ का त्याग है, वासनामय जीवन का त्याग है, संन्यास का यह संकल्प उसे समाज-विमुख नहीं बनाता है, अपितु समाज-कल्याण की उच्चतर भूमिका पर अधिष्ठित करता है, क्योंकि लोकहित निःस्वार्थता एवं विराग की भूमि पर स्थित होकर ही किया जा सकता है। भारतीय चिंतन संन्यास को समाज-निरपेक्ष नहीं मानता। भगवान् बुद्ध का यह आदेश ‘चरत्थ भिक्खवे चारिकं बहुजन-हिताय बहुजन-सुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय देव मनुस्मानं' (विनय पिटक-महावग्ग) इस बात का प्रमाण है कि संन्यास लोक-मंगल के लिए होता है। सच्चा संन्यासी वह व्यक्ति है, जो समाज से अल्पतम लेकर उसे अधिकतम देता है। वस्तुतः कुटुम्ब, परिवार आदि का त्याग इसलिए करता है कि वह समष्टि का होकर रहे, क्योंकि जो किसी का है, वह सबका नहीं हो सकता, जो सबका है, वह किसी एक का नहीं है। संन्यासी निःस्वार्थ और निष्काम रूप से लोक-मंगल-साधक होता है। संन्यास शब्द सम्पूर्वक न्यास है, न्यास शब्द का एक अर्थ देखरेख करना भी है। संन्यासी वह व्यक्ति है, जो सम्यक् रूप से एक न्यासी (ट्रस्टी) की भूमिका अदा करता है और न्यासी वह है, जो ममत्व भाव और स्वामित्व का त्याग करके किसी ट्रस्ट (सम्पदा) का रक्षण एवं विकास करता है। संन्यासी सच्चे अर्थ में एक ट्रस्टी है। ट्रस्टी यदि ट्रस्ट का उपयोग अपने हित में करता है, अपने को उसका स्वामी समझता है, तो वह सम्यक् ट्रस्टी नहीं हो सकता है। इसी प्रकार यदि वह ट्रस्ट के रक्षण एवं विकास का प्रयत्न न करे, तो भी सच्चे अर्थ में ट्रस्टी नहीं है। इसी प्रकार यदि संन्यासी लोकेंषणा से युक्त है, ममत्व-बुद्धि या स्वार्थ-बुद्धि से काम करता है, तो संन्यासी नहीं है और यदि लोक की उपेक्षा करता है, लोकं मंगल के लिए प्रयास नहीं करता है, तो वह भी संन्यासी नहीं है। उसके जीवन का मिशन तो सर्वभूत-हिते रतः' का है। संन्यास का राग से ऊपर उठना आवश्यक है, किंतु इसका तात्पर्य समाज की उपेक्षा नहीं है। संन्यास की भूमिका में स्वत्व एवं ममत्व के लिए निश्चय ही कोई स्थान नहीं है, फिर भी वह पलायन नहीं, अपितु समर्पण है। ममत्व का परित्याग कर्त्तव्य की उपेक्षा नहीं है, अपितु कर्त्तव्य का सही बोध है। संन्यासी उस भूमिका पर खड़ा होता है, जहां व्यक्ति अपने समष्टि को और समष्टि में अपने को देखता है। उसकी चेतना अपने और पराए के भेद से ऊपर उठ जाती है। अपने और पराए के विचार से ऊपर हो जाना विमुखता नहीं है, अपितु यह तो उसके हृदय की व्यापकता है, महानता है, इसलिए (35) Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय चिंतकों ने कहा है - ___ अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्। उदारचरितानां तु बसुधैव कुटुम्बकम् // संन्यास की भूमिका न तो आसक्ति की भूमिका है और न उपेक्षा की। उसकी वास्तविक स्थिति ‘धाय' (नर्स) के समान समत्वरहित कर्त्तव्य भाव की होती है। कहा भी गया है - ___सम दृष्टि जीवड़ा करे कुटुम्ब प्रतिपाल। - अन्तर सूं न्यारा जूंधाय खिलावे बाल॥ वस्तुतः निर्ममत्व एवं निःस्वार्थ भाव से तथा वैयक्तिकता और स्वार्थ से ऊपर उठकर कर्तव्य का पालन ही संन्यास की सच्ची भूमिका है। संन्यासी वह व्यक्ति है, जो लोक मंगल के लिए अपने व्यक्तित्व एवं अपने शरीर को समर्पित कर देता है। वह जो कुछ भी त्याग करता है, वह समाज के लिए एक आदर्श बनता है। समाज में नैतिक चेतना को जाग्रत करना तथा सामाजिक जीवन में आने वाली दुःप्रवृत्तियों से व्यक्ति को बचाकर लोक मंगल के लिए उसे दिशा-निर्देश देना संन्यासी का सर्वोपरि कर्त्तव्य माना गया है, अतः हम कह सकते हैं कि भारतीय दर्शन में संन्यास की जो भूमिका प्रस्तुत की गई है, वह सामाजिकता की विरोधी नहीं है। संन्यासी क्षुद्र स्वार्थ से ऊपर उठकर खड़ा हुआ व्यक्ति होता है, जो आदर्श समाज रचना के लिए प्रयत्नशील रहता है। अब हम मोक्ष के प्रत्यय की सामाजिक उपादेयता पर चर्चा करना चाहेंगे। (6) भारतीय दर्शन मानव जीवन के लिए अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष- इन चार पुरुषार्थों को स्वीकार करता है। यदि हम सामाजिक जीवन के संदर्भ में इन पर विचार करते हैं, तो इनमें से अर्थ, काम और धर्म का सामाजिक जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्राचीन काल में इन तीनों की साधना को त्रिवर्ग की साधना कहा जाता था। सामाजिक जीवन में ही इन तीनों पुरुषार्थों की उपलब्धि सम्भव है। अर्थोपार्जन और काम का सेवन तो सामाजिक जीवन से जुड़ा हुआ ही होता है, किंतु भारतीय चिंतन में धर्म भी सामाजिक व्यवस्था और शांति के लिए ही है, क्योंकि धर्म को 'धर्मोधारयते प्रजाः' के रूप में परिभाषित कर उसका सम्बंध भी हमारे सामाजिक जीवन से जोड़ा गया है, वह लोकमर्यादा और लोक-व्यवस्था का ही सूचक है। अतः, पुरुषार्थ-चतुष्टय में केवल मोक्ष ही एक ऐसा पुरुषार्थ है, जिसकी सामाजिक सार्थकता विचारणीय है। प्रश्न यह है कि क्या (36) Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष की धारणा सामाजिक दृष्टि से उपादेय हो सकती है? जहां तक मोक्ष की मरणोत्तर अवस्था या तत्त्वमीमांसीय धारणा का प्रश्न है, उस सम्बंध में न तो भारतीय दर्शनों में ही एकरूपता है और न ही उसकी कोई सामाजिक सार्थकता ही खोजी जा सकती है, किंतु इसी आधार पर मोक्ष को अनुपादेय मान लेना उचित नहीं है। लगभग सभी भारतीय दार्शनिक इस सम्बंध में एकमत हैं कि मोक्ष का सम्बंध मुख्यतः मनुष्य की मनोवृत्ति से है। बंधन और मुक्ति-दोनों ही मनुष्य के मनोवेगों से सम्बंधित हैं। राग, द्वेष, आसक्ति, तृष्णा, ममत्व, अहं आदि की मनोवृत्तियां ही बंधन हैं और इनसे मुक्त होना ही मुक्ति। मुक्ति की व्याख्या करते हुए जैन दार्शनिकों ने कहा था कि मोह और क्षोभ से रहित आत्मा की अवस्था ही मुक्ति है। आचार्य शंकर कहते हैं'वासनाप्रक्षयो मोक्षः' (विवेक चूड़ामणि, 318) वस्तुतः, मोह और क्षोभ हमारे जीवन से जुड़े हुए हैं और इसलिए मुक्ति का सम्बंध भी हमारे जीवन से ही है। मेरी दृष्टि में मोक्ष मानसिक तनावों से मुक्ति है। यदि हम मोक्ष के प्रत्यय की सामाजिक सार्थकता के सम्बंध में विचार करना चाहते हैं, तो हमें इन्हीं मनोवृत्तियों एवं मानसिक विक्षोभों के संदर्भ में उस पर विचार करना होगा। सम्भवतः इस सम्बंध में कोई भी दो मत नहीं रखेगा कि राग, द्वेष, तृष्णा, आसक्ति, ममत्व, ईर्ष्या आदि की मनोवृत्तियां हमारे सामाजिक जीवन के लिए अधिक बाधक हैं। यदि इन मनोवृत्तियों से मुक्त होना ही मुक्ति का हार्द है, तो मुक्ति का सम्बंध हमारे सामाजिक जीवन के साथ जुड़ा हुआ है। मोक्ष मात्र एक मरणोत्तर अवस्था नहीं है, अपितु वह हमारे जीवन से सम्बंधित है। मोक्ष को पुरुषार्थ माना गया है, इसका तात्पर्य यह है कि वह इसी जीवन में प्राप्तव्य है। जो लोग मोक्ष को एक मरणोत्तर अवस्था मानते हैं, वे मोक्ष के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ हैं। आचार्य शंकर लिखते हैं - देहस्य मोक्षो नो मोक्षो न दण्डस्य कमण्डलौः / अविद्या हृदय ग्रन्थि मोक्षो यतस्ततः॥ - विवेक चूड़ामणि, 559 _मरणोत्तर मोक्ष या विदेह-मुक्ति साध्य नहीं है। उसके लिए कोई साधना अपेक्षित नहीं है। जिस प्रकार मृत्यु जन्म लेने का अनिवार्य परिणाम है, उसी पकार विदेह-मुक्ति तो जीवन-मुक्ति का अनिवार्य परिणाम है। अतः, जो प्राप्तव्य है, जो पुरुषार्थ है और जो साध्य है, वह तो जीवन-मुक्ति ही है। जीवन-मुक्ति के प्रत्यय की सामाजिक सार्थकता (37) Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से हम इंकार भी नहीं कर सकते, क्योंकि जीवन-मुक्ति एक ऐसा व्यक्तित्व है, जो सदैव लोक-कल्याण के लिए प्रस्तुत रहता है। जैनदर्शन में तीर्थंकर बौद्धदर्शन में अर्हत् एवं बोधिसत्व और वैदिक दर्शन में स्थितप्रज्ञा की जो धारणाएं प्रस्तुत की गई हैं और उनके व्यक्तित्व को जिस रूप में चित्रित किया गया है, उससे हम निश्चय ही इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि मोक्ष के प्रत्यय की सामाजिक उपादेयता भी है। वह लोक-मंगल और मानव-कल्याण का एक महान् आदर्श माना जा सकता है, क्योंकि जन-जन का दुःखों से मुक्त होना ही मुक्ति है। मात्र इतना ही नहीं, भारतीय चिंतन में वैयक्तिक मुक्ति की अपेक्षा भी लोक कल्याण के लिए प्रयत्नशील बने रहने को अधिक महत्त्व दिया गया है। बौद्धदर्शन में बोधिसत्व का और गीता में स्थितप्रज्ञ का जो आदर्श प्रस्तुत किया गया है, वह हमें स्पष्ट रूप से बताता है कि केवल वैयक्तिक मुक्ति को प्राप्त कर लेना ही अंतिम लक्ष्य नहीं है। बोधिसत्व तो लोक मंगल के लिए अपने बंधन और दुःख की कोई परवाह नहीं करता है। वह कहता है - बहूनामेक - दुःखेन यदि दुखं विगच्छति। उत्पाद्यमेव तद् दुःखं सदयेन परात्मनोः॥ मुच्यमानेषु सत्वेषु ये ते ग्रामोद्यसागराः। - तैरेव ननु पर्याप्तं मोक्षेणारकेन किम् // - बोधिचर्यावतार, 8/105, 108 यदि एक के कष्ट उठाने से बहुतों का दुःख दूर होता हो, तो करुणापूर्वक उनके दुःख दूर करना ही अच्छा है। प्राणियों को दुःखों से मुक्त होता हुआ देखकर जो आनंद प्राप्त होता है, वही क्या कम है, फिर अपने मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा की क्या आवश्यकता है? वैयक्तिक मुक्ति की धारणा की आलोचना करते हुए और जन-जन की मुक्ति के लिए अपने संकल्प को स्पष्ट करते हुए भागवत के सप्तम स्कन्ध में प्रह्लाद ने स्पष्ट रूप से कहा था कि प्रायेण देवमुनयः स्वविमुक्तिकामाः। मौनं चरन्ति विजने न परार्थनिष्ठाः // नेतान् विहाय कृपणाम् विमुमुक्षुरेकः॥ हे प्रभु ! अपनी मुक्ति की कामना करने वाले देव और मुनि तो अब तक काफ हो चुके हैं, जो जंगल में जाकर मौन साधना किया करते थे, किंतु उनमें पॅरार्थ-निष्ठा नहीं थी। मैं तो अकेला इन सब दुःखीजनों को छोड़कर मुक्त होना भी नहीं चाहता। यह (38) Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय दर्शन और साहित्य का सर्वश्रेष्ठ उद्गार है। इसी प्रकार बोधिसत्व भी सदैव ही दीन और दुःखी जनों को दुःख से मुक्त कराने के लिए प्रयत्नशील बने रहने की अभिलाषा करता है और सबको मुक्त कराने के पश्चात् ही मुक्त होना चाहता है। मवेयमुपजीव्योऽहं यावत्सर्वे न निर्वृताः / (बोधिचर्यावतार, 3/21) वस्तुतः मोक्ष अकेला पाने की वस्तु नहीं है। इस सम्बंध में विनोबा भावे के उद्गार विचारणीय हैं - जो समझता है कि मोक्ष अकेले हथियाने की वस्तु है, वह उसके हाथ से निकल जाता है। 'मैं' के आते ही मोक्ष भाग जाता है, मेरा मोक्ष - यह वाक्य ही गलत है। 'मेरा मिटने पर ही मोक्ष मिलता है। (आत्मज्ञान और विज्ञान, पृ.71) इसी प्रकार, वास्तविक मुक्ति अहंकार से मुक्ति ही है। 'मैं' अथवा 'अहं' भाव से मुक्त होने के लिए हमें अपने आपको समष्टि में, समाज में लीन कर देना होता है। मुक्ति वही व्यक्ति प्राप्त कर सकता है, जो अपने व्यक्तित्व को समष्टि में, समाज में विलीन कर दे। आचार्य शांतिदेव लिखते हैं सर्वत्यागश्च निर्वाणं निर्वाणार्थि च मे मनः। त्यक्तव्यं चेन्मया सर्वं वरं सत्वेषु दीयतां // - बोधिचर्यावतार, 3/11 ... इस प्रकार यह धारणा मोक्ष के प्रत्यय सामाजिकता की विरोधी है, गलत है। मोक्ष वस्तुतः दुःखों से मुक्ति है और मनुष्य जीवन के अधिकांश दुःख मानवीय संवेगों के कारण ही हैं, अतः मुक्ति ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, घृणा आदि के संवेगों से मुक्ति पाने में है और इस रूप में वह वैयक्तिक और सामाजिक-दोनों ही दृष्टि से उपादेय भी है। दुःख, अहंकार एवं मानसिक क्लेशों से मुक्तिरूप में मोक्ष की उपादेयता और सार्थकता को अस्वीकार भी नहीं किया जा सकता है। _अंत में हम कह सकते हैं कि भारतीय जीवन-दर्शन की दृष्टि पूर्णतया सामाजिक और लोक मंगल के लिए प्रयत्नशील बने रहने की है। उसकी एकमात्र मंगल कामना सर्वेऽत्रसुखिनः संतु। सर्वे संतु निरामयाः॥ (39) Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय संस्कृति में सामाजिक चिंतन - भारतीय श्रमण एवं वैदिकधारा का एक समन्वित रूप है। वैदिकधारा तो प्रारम्भ से ही समाज परक रही है, किंतु जैन एवं बौद्ध दर्शन के रूप में जीवित श्रमण धारा भी मूलतः संधीय साधनापरक होने से समाज परक रही है। यद्यपि, बौद्धधर्म एवं जैनधर्म निवृत्तिमार्गी श्रमण-परम्परा का धर्म है। सामान्यतया इसे सामाजिक न मानकर व्यक्तिवादी धर्म माना जाता है, किंतु जैनधर्म को एकांत रूप से व्यक्तिवादी धर्म नहीं कहा जा सकता। यह सत्य है कि उसका विकास निवृत्तिमार्गी संन्यास प्रधान श्रमण-परम्परा से ही हुआ है, किंतु मात्र इस आधार पर उसे असामाजिक या व्यक्तिवादी धर्म मानना एक भ्रांति ही होगी। जीवन में दुःख की यथार्थता और दुःखविमुक्ति का जीवनादर्श- यह जैन परम्परा का अथ और इति है, किंतु दुःख और दुःखविमुक्ति के ये सम्प्रत्यय मात्र वैयक्तिक नहीं हैं, उनका एक सामाजिक पक्ष भी है। दुःखविमुक्ति का उनका आदर्श मात्र वैयक्तिक दुःखों की विमुक्ति नहीं है, अपितु सम्पूर्ण प्राणीजगत् के दुःखों की विमुक्ति है और यही उन्हें समाज से जोड़ देता है। श्रमणधारा में धर्म और नीति को अवियोज्य माना गया है और धर्म एवं नीति की यह अवियोज्यता भी उसमें सामाजिक संदर्भ को स्पष्ट कर देती भारतीय चिंतन में सामाजिक चेतना का विकास . सामाजिक चेतना के विकास की दृष्टि से भारतीय चिंतन को तीन युगों में बांटा जा सकता है। (1) वैदिक युग, (2) औपनिषदिक युग, (3) जैन और बौद्ध युग। सर्वप्रथम जहां वैदिक युग में संगच्छध्वं संवदध्वं संवामनांसिं जानताम्'', अर्थात् तुम मिलकर चलो, तुल मिलकर बोलो, तुम्हारे मन साथ-साथ विचार करें- इस रूप में सामाजिक चेतना को विकसित करने का प्रयत्न किया गया, तो वहीं औपनिषदिक युग में उस सामाजिक एकत्व की चेतना के लिए दार्शनिक आधार प्रस्तुत किए गए। ईशावास्योपनिषद् में ऋषि कहता है कि जो सभी प्राणियों को अपने में और अपने को सभी प्राणियों में देखता है, वह अपनी इस एकत्व की अनुभूति के कारण किसी से घृणा नहीं करता। औपनिषदिक चिंतन में सामाजिकता का आधार यही एकत्व की अनुभूति रही है। जब एकत्व की दृष्टि विकसित होती है, तो घृणा और विद्वेष के तत्त्व स्वत: समाप्त हो जाते हैं, क्योंकि ‘पर' रहता ही नहीं, अतः किससे घृणा या विद्वेष किया जाए। (41) Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय संस्कृति में सामाजिक चिंतन - भारतीय श्रमण एवं वैदिकधारा का एक समन्वित रूप है। वैदिकधारा तो प्रारम्भ से ही समाज परक रही है, किंतु जैन एवं बौद्ध दर्शन के रूप में जीवित श्रमण धारा भी मूलतः संधीय साधनापरक होने से समाज परक रही है। यद्यपि, बौद्धधर्म एवं जैनधर्म निवृत्तिमार्गी श्रमण-परम्परा का धर्म है। सामान्यतया इसे सामाजिक न मानकर व्यक्तिवादी धर्म माना जाता है, किंतु जैनधर्म को एकांत रूप से व्यक्तिवादी धर्म नहीं कहा जा सकता। यह सत्य है कि उसका विकास निवृत्तिमार्गी संन्यास प्रधान श्रमण-परम्परा से ही हुआ है, किंतु मात्र इस आधार पर उसे असामाजिक या व्यक्तिवादी धर्म मानना एक भ्रांति ही होगी। जीवन में दुःख की यथार्थता और दुःखविमुक्ति का जीवनादर्श- यह जैन परम्परा का अथ और इति है, किंतु दुःख और दुःखविमुक्ति के ये सम्प्रत्यय मात्र वैयक्तिक नहीं हैं, उनका एक सामाजिक पक्ष भी है। दुःखविमुक्ति का उनका आदर्श मात्र वैयक्तिक दुःखों की विमुक्ति नहीं है, अपितु सम्पूर्ण प्राणीजगत् के दुःखों की विमुक्ति है और यही उन्हें समाज से जोड़ देता है। श्रमणधारा में धर्म और नीति को अवियोज्य माना गया है और धर्म एवं नीति की यह अवियोज्यता भी उसमें सामाजिक संदर्भ को स्पष्ट कर देती भारतीय चिंतन में सामाजिक चेतना का विकास - सामाजिक चेतना के विकास की दृष्टि से भारतीय चिंतन को तीन युगों में बांटा जा सकता है। (1) वैदिक युग, (2) औपनिषदिक युग, (3) जैन और बौद्ध युग। सर्वप्रथम जहां वैदिक युग में संगच्छध्वं संवदध्वं संवामनांसिं जानताम्'', अर्थात् तुम मिलकर चलो, तुल मिलकर बोलो, तुम्हारे मन साथ-साथ विचार करें- इस रूप में सामाजिक चेतना को विकसित करने का प्रयत्न किया गया, तो वहीं औपनिषदिक युग में उस सामाजिक एकत्व की चेतना के लिए दार्शनिक आधार प्रस्तुत किए गए। ईशावास्योपनिषद् में ऋषि कहता है कि जो सभी प्राणियों को अपने में और अपने को सभी प्राणियों में देखता है, वह अपनी इस एकत्व की अनुभूति के कारण किसी से घृणा नहीं करता। औपनिषदिक चिंतन में सामाजिकता का आधार यही एकत्व की अनुभूति रही है। जब एकत्व की दृष्टि विकसित होती है, तो घृणा और विद्वेष के तत्त्व स्वतः समाप्त हो जाते हैं, क्योंकि 'पर' रहता ही नहीं, अतः किससे घृणा या विद्वेष किया जाए। (41) Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घृणा, विद्वेष आदि पराएपन के भाव में ही सम्भव होते हैं, जब सभी स्व या आत्मीय हों, तो घृणा या विद्वेष का अवसर ही कहां रह जाता है। इस प्रकार औपनिषदिक युग में सामाजिक चेतना को एक सुदृढ़ दार्शनिक आधार प्रदान किया गया है, साथ ही सम्पत्ति पर वैयक्तिक अधिकार का निरसन कर सामूहिक-सम्पदा का विचार प्रस्तुत किया गया है। ईशावास्योपनिषद् में सम्पूर्ण सम्पत्ति को ईश्वरीय सम्पदा मानकर उस पर से वैयक्तिक अधिकार को समाप्त कर दिया गया और व्यक्ति को यह कहा गया कि वह जागतिक सम्पदा पर दूसरों के अधिकारों को मान्य करके ही उस सम्पत्ति का उपभोग करे। इस प्रकार 'तेन त्यक्तेन भुजीथा' के रूप में उपभोग के सामाजिक अधिकार की चेतना को विकसित किया गया। इसी तथ्य की पुष्टि श्रीमद्भागवत में भी की गई है, उसमें अपनी दैहिक आवश्यकता से अधिक सम्पत्ति पर अपना अधिकार मानने वाले को स्पष्टतः चोर कहा गया। इस प्रकार हम देखते हैं कि वैदिक और औपनिषदिक युग में सामाजिकता के लिए न केवल प्रेरणा दी गई, अपितु एक दार्शनिक आधार भी प्रस्तुत किया गया है। जैन-धर्म में सामाजिक-चेतना जहां तक जैन और बौद्ध परम्पराओं का प्रश्न है, उनमें सामाजिक-चेतना का आधार एकत्व की अनुभूति न होकर समत्व की अनुभूति रहा है, यद्यपि आचारांग में कहा गया है कि जिसे तू दुःख या पीड़ा देना चाहता है, वह तू ही है। इसमें यह फलित होता है कि आचारांगसूत्र भी एकत्व की अनुभूति पर सामाजिक या अहिंसक चेतना को विकसित करता है, फिर भी जैन और बौद्ध परम्परा में सामाजिक चेतना एवं अहिंसा की अवधारणा के विकास का आधार सभी प्राणियों के प्रति समभाव या समता की भावना रही। उनमें दूसरों की जिजीविषा और सुख-दुःखानुभूति' आत्मवत् सर्वभूतेषु' के आधार पर समझने का प्रयत्न किया गया और सामाजिक सम्बंधों की शुद्धि पर विशेष बल दिया गया। यद्यपि जैन और बौद्धधर्म निवृत्तिप्रधान रहे, किंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि वे समाज से विमुख थे। वस्तुतः, भारत में यदि धर्म के क्षेत्र में संघीय साधना-पद्धति का विकास किसी परम्परा ने किया, तो वह श्रमण-परम्परा ही थी। जैनधर्म के अनुसार तो तीर्थंकर अपने प्रथम प्रवचन में ही चतुर्विध संघ की स्थापना करता है। उसके धर्मचक्र का प्रवर्तन संघ-प्रवर्तन से ही प्रारम्भ होता है। यदि महावीर में लोकमंगल या लोककल्याण की भावना नहीं होती, तो वे अपनी वैयक्तिक-साधना की पूर्णता के पश्चात् धर्मचक्र का प्रवर्तन ही क्यों करते? प्रश्नव्याकरणसूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि तीर्थंकर का यह सुकथित प्रवचन सभी प्राणियों की रक्षा और करुणा (42) Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के लिए है। पांचों महाव्रत सब प्रकार से लोकहित के लिए हैं। हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार और संग्रह (परिग्रह)- ये सब वैयक्तिक नहीं, सामाजिक जीवन की ही दुष्प्रवृत्तियां हैं। जैन साधना-परम्परा में पंचव्रतों या पंचशीलों के रूप में जिस धर्म-मार्ग का उपदेश दिया गया, वह मात्र वैयक्तिक-साधना के लिए नहीं, अपितु सामाजिक जीवन के लिए था, क्योंकि हिंसा का अर्थ है- किसी अन्य की हिंसा, असत्य का मतलब है- किसी अन्य को गलत जानकारी देना, चोरी का अर्थ है- किसी दूसरे की शक्ति का अपहरण करना, व्यभिचार का मतलब है- सामाजिक मान्यताओं के विरुद्ध यौन सम्बंध स्थापित करना। इसी प्रकार संग्रह या परिग्रह का अर्थ है- समाज में आर्थिक विषमता पैदा करना। क्या सामाजिक जीवन के अभाव में इनका कोई अर्थ रह जाता है? अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह के जो जीवनमूल्य जैन-दर्शन ने प्रस्तुत किए, वे पूर्णतः सामाजिक मूल्य हैं। इसी प्रकार बौद्धधर्म के पंचशील भी मूलतः समाज परक रहे हैं।और उनका उद्देश्य सामाजिक सम्बंधों की शुद्धि है। लोक-मंगल और लोक-कल्याण - यह श्रमण-परम्परा का और विशेष रूप से जैन एवं बौद्ध परम्परा का मूलभूत लक्ष्य रहा है। आचार्य समन्तभद्र ने महावीर के धर्मसंघ को सर्वोदय तीर्थ कहा है, वे लिखते हैं कि सर्वापदाः दामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव', अर्थात् हे प्रभो ! आपका यह धर्मतीर्थ सभी प्राणियों के दुःखों का अंत करने वाला और सभी का कल्याण करने वाला है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन एवं बौद्ध परम्परा ने निवृत्तिमार्ग को प्रधानता देकर भी उसे संघीय साधना के रूप में लोक-कल्याण का आदर्श देकर सामाजिक बनाया है। जैन आगमों में कुलधर्म, ग्रामधर्म, नगरधर्म, राष्ट्रधर्म और गणधर्म के जो उल्लेख हैं, वे उसकी सामाजिक सापेक्षता को स्पष्ट कर देते हैं। पारिवारिक और सामाजिक जीवन में हमारे पारस्परिक सम्बंध किस प्रकार सुमधुर और समायोजनपूर्ण बन सकें और सामाजिक टकराव के कारणों का विश्लेषण कर उन्हें किस प्रकार से दूर किया जा सके, यही जैनदर्शन की सामाजिक दृष्टि का मूलभूत आधार है। जैनदर्शन ने आचारशुद्धि पर बल देकर व्यक्ति-सुधार के माध्यम से समाज-सुधार का मार्ग प्रशस्त किया है। यही दृष्टिकोण बौद्धधर्म का भी रहा है। व्यक्ति और समाज : जैन दृष्टिकोण . सामाजिक दर्शन के विभिन्न सिद्धांतों के संदर्भ में जैनों एवं बौद्धों का दृष्टिकोण समन्वयवादी और उदार रहा है। आगे हम क्रमशः उन सिद्धांतों के परिप्रेक्ष्य में जैन एवं बौद्ध दृष्टिकोण पर विचार करेंगे। (43) Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाजदर्शन की दृष्टि से व्यक्ति और समाज में किसे प्रमुख माना जाए, यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। व्यक्तिवादी दार्शनिक यह मानते हैं कि व्यक्ति ही प्रमुख है, समाज व्यक्ति के लिए बनाया गया है। व्यक्ति साध्य है, समाज साधन है, अतः समाज को वैयक्तिक हितों पर आघात करने या उन्हें सीमित करने का कोई अधिकार नहीं है। दूसरी ओर समाजवादी दार्शनिक समाज को ही सर्वस्व मानते हैं। उनके अनुसार सामाजिक कल्याण ही प्रमुख है, समाज से पृथक् व्यक्ति की सत्ता कुछ है ही नहीं। वह जो कुछ भी है, समाज द्वारा निर्मित है। अतः, सामाजिक कल्याण के लिए वैयक्तिक हितों का बलिदान किया जा सकता है। इन दोनों प्रकार के ऐकान्तिक दृष्टिकोणों को जैनदर्शन अस्वीकार करता है। वह यह मानता है कि व्यक्ति और समाज एक-दूसरे से निरपेक्ष होकर अपना अस्तित्व ही खो देते हैं। उसके अनुसार दार्शनिक दृष्टि से व्यक्तिरहित सामान्य (समाज) और सामान्यरहित व्यक्ति - दोनों ही अयथार्थ हैं। वे सामान्य (universal) और विशेष (individual) को न्याय-वैशेषिकों के समान स्वतंत्र तत्त्व नहीं मानते हैं। मनुष्यत्व नामक सामान्य गुण से रहित कोई मनुष्य नहीं हो सकता और बिना मनुष्य (व्यक्ति) के मनुष्यत्व की कोई सत्ता नहीं होती। विशेष रूप से जब हम मनुष्य के संदर्भ में विचार करते हैं, तो पाते हैं कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, अतः सामाजिकता के बिना मनुष्य का कोई अस्तित्व नहीं है। मनुष्य को अपने जैविक अस्तित्व से लेकर भाषा, सभ्यता, संस्कृति और जीवन-मूल्य आदि जो कुछ मिले हैं, वे समाज से मिले हैं। यदि मनुष्य से सामाजिक अवदानों को पृथक् कर दिया जाए, तो उसका कुछ अस्तित्व ही नहीं रहेगा। दूसरी ओर, यह भी सही है कि बिना मनुष्य के मनुष्यत्व का कोई अर्थ नहीं है। मनुष्य से पृथक् मनुष्यत्व नहीं होता, ठीक यही बात समाज के संदर्भ में भी है। समाज का अस्तित्व व्यक्तियों पर निर्भर है। व्यक्तियों के अभाव में समाज सम्भव ही नहीं है। दूसरी ओर, यह भी सत्य है कि व्यक्ति जो कुछ है, वह समाज के कारण है। इस प्रकार भारतीय श्रमण परम्परा के धर्मों में न तो निरपेक्ष रूप से व्यक्ति को महत्त्व दिया गया है और न ही समाज को। जैनधर्म की अनेकांतिक दृष्टि का निष्कर्ष यह है कि व्यक्ति समाज-सापेक्ष है और समाज व्यक्ति-सापेक्ष / जो लोग व्यक्तिनिरपेक्ष समाज अथवा समाज-निरपेक्ष व्यक्ति की बात करते हैं, वे दोनों ही यथार्थ से अपना मुख मोड़ लेते हैं। सामान्य रूप से तो सभी भारतीय दर्शन और विशेष रूप से जैन दर्शन यह मानता है कि व्यक्ति और समाज में किसी एक को ही सब कुछ मान लेना एक भ्रांत धारणा है, यह ठीक है कि सामाजिक कल्याण के लिए व्यक्ति के हितों का (44) Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलिदान दिया जा सकता है, किंतु दूसरी ओर यह भी सही है कि सामूहिक हित भी वैयक्तिक हित से भिन्न नहीं हैं। सबके हित में व्यक्ति का हित तो निहित ही है। व्यक्ति में समाज और समाज में व्यक्ति अनुस्यूत हैं। जैन परम्परा में संघ हित को सर्वोपरिता दी गई है। इस सम्बंध में एक ऐतिहासिक कथा है कि भद्रबाहु ने अपनी वैयक्तिक ध्यान-साधना के लिए संघ के कुछ साधुओं को पूर्व-साहित्य का अध्ययन करवाने की मांग को ठुकरा दिया। इस पर संघ ने उनसे पूछा कि वैयक्तिक साधना और संघहित में क्या प्रधान है? यदि आप संघहित की उपेक्षा करते हैं, तो आपको संघ में रहने का अधिकार भी नहीं है। आपको बहिष्कृत किया जाता है। अंत में भद्रबाहु को संघहित को प्राथमिकता देनी पड़ी। यद्यपि समाज के हित के नाम पर आध्यात्मिक और नैतिक मूल्यों को समाप्त नहीं किया जा सकता। जैन-परम्परा में कहा गया है कि आत्महित करना चाहिए और यदि शक्य हो, तो लोकहित भी करना चाहिए और जहां आत्महित और लोकहित में नैतिक विरोध का प्रश्न हो, वहां आत्महित को ही चुनना पड़ेगा। यद्यपि हमें स्मरण रखना चाहिए कि यहां आत्महित का तात्पर्य वैयक्तिक स्वार्थों की पूर्ति नहीं, अपितु आध्यात्मिक मूल्यों का संरक्षण है। वस्तुतः, वैयक्तिकता और सामाजिकता - दोनों ही मानवीय अस्तित्व के अनिवार्य अंग हैं। पाश्चात्य विचारक ब्रेडले ने कहा था - मनुष्य मनुष्य नहीं है, यदि वह सामाजिक नहीं और यदि वह मात्र सामाजिक है, तो पशु से अधिक नहीं है। मनुष्य की मनुष्यता वैयक्तिकता और सामाजिकता - दोनों का अतिक्रमण करने में है, किंतु हमें यह स्मरण रखना होगा कि जैनदर्शन अपनी अनेकांतिक दृष्टि के कारण मनुष्य को एक ही साथ वैयक्तिक और सामाजिक-दोनों ही मानता है। बोद्धधर्म में तो लोककल्याण का आदर्श प्रमुख रहा है। महायान की बोधिसत्व की अवधारणा तो लोककल्याण से जुड़ी है। राग जोड़ता भी है और तोड़ता भी है ___ यह ठीक है कि जब मनुष्य में राग का तत्त्व विकसित होता है, तो वह दूसरों से जुड़ता है, लेकिन स्मरण रखना चाहिए कि दूसरों से जुड़ने का अर्थ है- कहीं से कटना, क्योंकि जो किसी से जुड़ता है, तो कहीं से कटता अवश्य है। राग का तत्त्व व्यक्ति के स्व की सीमा का विस्तार तो अवश्य करता है, किंतु वह दूसरों से अलग भी कर देता है। जब हम वैयक्तिक स्वार्थों से युक्त होते हैं, तो हमारा स्व संकुचित होता है और जब हम सामाजिकता से जुड़ते हैं, तो हमारे स्व का क्षेत्र विकसित होता है, किंतु जब तक हम अपने और पराए के भाव का अतिक्रमण नहीं कर पाते हैं, तब तक हमारा 'स्व' या ( 45) Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'आत्मा' पूर्ण नहीं बन पाता है। . भारतीय संस्कृति के अनुसार हमारे जीवन में जो भी टूटन है, जो भी सीमाएं हैं और जो भी मेरे-पराए का भाव है, ये सभी राग और द्वेष के तत्त्वों के कारण हैं। जब तक हम मेरा देश, मेरी जाति, मेरा धर्म आदि की अवधारणा में हम 'मैं' और 'मेरे' के घेरों से ऊपर नहीं उठते, दूसरे शब्दों में, मेरे-तेरे के घेरों का अतिक्रमण जब तक नहीं कर जाते, तब तक सही अर्थों में सामाजिक भी नहीं बन पाते हैं।14 मेरे और पराए की मनःस्थिति में हम अपने आपको किन्हीं श्रृंखलाओं में जकड़ा हुआ ही पाते हैं। श्रमणधर्मों की साधना वीतरागता की साधना है, वह अनिवार्य रूप से स्व की संकुचित सीमा को तोड़ना है और अपने और पराए की इस संकुचित सीमा का अतिक्रमण करना असामाजिक होना नहीं है। जैनधर्म मुख्यतया इस बात पर बल देता है कि हम एक स्वस्थ सामाजिकता का विकास करें और यह स्वस्थ सामाजिकता राग के आधार पर नहीं, वरन् राग का अतिक्रमण करके ही की जा सकती है। भारतीय संस्कृति का मूलस्वर है अपने और पराये के भेद से ऊपर उठना है। कहा है- : अयंनिज परोवेत्ति, गणना लघु चैतसाम्। उदारचरिताणां तु वसुधैव कुटुम्बकम् // , सामाजिकता का आधार : रागात्मकता या विवेक ? सम्भवतः यह प्रश्न उपस्थित किया जा सकता है कि भारतीय-दर्शन राग को समाप्त करने की बात करता है, किंतु राग के अभाव में सामाजिक-जीवन से जोड़ने वाला तत्त्व क्या होगा? यदि अपनेपन और मेरेपन का भाव न हो, तो सारे सामाजिकबंधन चरमरा कर टूट जाएंगे। यह रागात्मकता ही है, जो हमें एक-दूसरे से जोड़ती है और समाज का निर्माण करती है, किंतु क्या वस्तुतः रागात्मकता हमारे सामाजिकसम्बंधों का यथार्थ कारण हो सकती है, जैसा कि पूर्व में कहा गया है-राग यदि हमें कहीं जोड़ता है, तो वह हमें कहीं से तोड़ता भी है। मेरी विनम्र मान्यता है कि यदि हम राग के आधार पर समाज को खड़ा करेंगे, तो वह एक स्वार्थी व्यक्तियों का समाज ही होगा। वस्तुतः, समाज की संरचना राग के आधार पर नहीं, विवेक के आधार पर ही सम्भव है। यदि मैं दूसरों का मंगल या हितसाधन इसलिए करता हूं कि वे मेरे अपने हैं और ऐसा करने से मेरे अपनेपन का घेरा कितना ही बड़ा क्यों न हो, मुझे एक स्वार्थी व्यक्ति से अधिक कुछ भी नहीं रहने देगा। हमें दूसरों का हित-साधन केवल इसलिए नहीं करना है (46) Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि वे हमारे अपने हैं, अपितु इसलिए करना है कि दूसरों का हित-साधन करना मेरा स्वभाव है, स्वधर्म है, कर्तव्य है। जैन दार्शनिकों के अनुसार समाज जिस आधार पर खड़ा होता है, वह राग नहीं, विवेक का तत्त्व है, कर्त्तव्यता का बोध है। तत्त्वार्थसूत्र में यह माना गया है कि जीवद्रव्य का स्वभाव परस्पर एक-दूसरे का उपकारक होना है। व्यक्ति के जीवन की सार्थकता स्वहितों/स्वार्थों का बलिदान करके दूसरों का मंगल करने में ही है। पारस्परिक हित-साधन ही जीव का स्वभाव है और इसी से उसकी कर्त्तव्यता है। इसी के आधार पर हमारा मानव-समाज खड़ा हुआ है। रागात्मकता हमें किसी से जोड़ती है, तो कहीं से तोड़ती भी है, क्योंकि राग सदैव द्वेष के साथ-साथ जीता है। राग और द्वेष ऐसे जुड़वां शिशु हैं, जो एक-दूसरे के साथ जीते और मरते हैं। राग के अभाव में द्वेष और द्वेष के अभाव में राग नहीं जी पाता है, अतः राग के आधार पर जो समाज खड़ा होगा, उसमें अनिवार्य रूप से वर्गभेद और वर्णभेद होगा ही, किंतु कर्त्तव्यबोध के आधार पर जो समाज खड़ा होगा, वह वर्णभेद और वर्गभेद से ऊपर होगा। - वस्तुतः, मानवीय विवेक के आधार पर ही कर्तव्यबोध की जो चेतना जाग्रत होती है, वही हमारी सामाजिकता का आधार है। राग की भाषा अधिकार की भाषा है, जबकि विवेक की भाषा दायित्वबोध या कर्त्तव्य की भाषा है। जिस समाज में केवल अधिकारों की बात होती है, वहां केवल विकृत सामाजिकता ही फलित होती है। स्वस्थ सामाजिकता का आधार अधिकार नहीं, कर्त्तव्यबोध है। जैनधर्म अथवा बौद्धधर्म जिस सामाजिक चेतना की बात करता है, वह मानवीय विवेक का अनिवार्य परिणाम है। विवेक से कर्तव्य-भाव और सम-बुद्धि/समता जाग्रत होती है। जब विवेक हमारी सामाजिक चेतना का आधार बनता है, तब मेरे और तेरे की चेतना ही समाप्त हो जाती है। सम-बुद्धि से, सभी आत्मवत् हैं- ऐसी दृष्टि विकसित होती है। यही आत्मवत् दृष्टि हमारी सामाजिकता का आधार है। जब तक आत्मतुल्यता का बोध नहीं आता है, तब तक न तो हिंसा, घृणा आदि असामाजिक वृत्तियों से ऊपर उठा जा सकता है और न हम सही अर्थ में सामाजिक ही बन पाते हैं। भारतीयदर्शनों में सामाजिकता का आधार यही आत्मतुल्यता का बोध है। ईसावास्योपनिषद में कहा गया है कि. सामाजिक जीवन का बाधक तत्त्व : अहंकार सामाजिक सम्बंधों में व्यक्ति का अहंकार भी महत्त्वपूर्ण कार्य करता है। अहंकार के कारण शासन की इच्छा अथवा आधिपत्य की भावना जाग्रत होती है और सामाजिक (47) Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन में विषमता पैदा होती है। शासक-शासित का भेद अहंकार के कारण ही खड़ा होता है। वर्तमान युग में बड़े राष्ट्रों में जो अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने की प्रवृत्ति है, उसके मूल्य में भी अपने राष्ट्रीय अहं की पुष्टि ही है। जब व्यक्ति में आधिपत्य की प्रवृत्ति दृढ़ होती है, तो वह दूसरों के अधिकारों का हनन करता है, परिणामतः दूसरों की स्वतंत्रता खण्डित होती है। न केवल शासित और शासक का भेद, अपितु जातिभेद और वर्गभेद के पीछे भी यही अहंकार का तत्त्व काम करता है। जब हम अपने कुल या जाति के अहंकार से युक्त होते हैं, तो दूसरों को हीन समझने की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है, जिसका परिणाम जाति-संघर्ष या वर्ग-संघर्ष होता है। जातिवाद का विरोध और सामाजिक समता जैनधर्म अहंकार के उपशमन के साथ-साथ जातिवाद और वर्णवाद का स्पष्ट रूप से विरोध करता है। वह कहता है कि किसी जाति में जन्म लेने मात्र से नहीं, अपितु व्यक्ति का सदाचार और उसकी नैतिकता ही उसको श्रेष्ठ बनाती है। इस प्रकार जैनधर्म जातिगत श्रेष्ठता के सम्प्रत्यय का विरोध करता है। वह स्पष्ट रूप से कहता है कि कोई व्यक्ति इस आधार पर ब्राह्मण नहीं होता कि वह किसी ब्राह्मणी के गर्भ से उत्पन्न हुआ है, अपितु वह ब्राह्मण इस आधार पर होता है कि उसका आचार और व्यवहार श्रेष्ठ है। जैनदर्शन जातिगत श्रेष्ठता के स्थान पर आचारगत श्रेष्ठता को ही महत्त्व देता है। आचारांग में स्पष्ट कहा गया है कि न तो कोई हीन है और न कोई श्रेष्ठ'। आज हम देखते हैं कि जातिगत आधारों पर अनेक सामाजिक संगठन बनते हैं, लेकिन ऐसे सामाजिक संगठनों को जैनधर्म कोई मान्यता नहीं देता है। आज भी जैनसंघ में अनेक जातियों के लोग समान रूप से अपनी साधना करते हैं। मथुरा आदि के प्राचीन अभिलेखों से यह ज्ञात होता है कि अनेक जिन-मंदिर और मूर्तियां गंधी, तेली, स्वर्णकार, लोहार, मल्लाह, नर्तक और गणिकाओं द्वारा निर्मित हैं। वे सभी जातियां और वर्ग, जो हिन्दू-धर्म में वर्णव्यवस्था की कठोर रूढ़िवादिता के कारण निम्न मानी गई थीं, जैनधर्म में समादृत थे / हरिकेशीबल (चाण्डाल), मातंग, अर्जुन (मालाकार) आदि अनेक निम्न जातियों में उत्पन्न हुए महान् साधकों की जीवन गाथाओं के उल्लेख जैनागमों में मिलते हैं, जो इस तथ्य के सूचक हैं कि जैनधर्म में जातिवाद या ऊंच-नीच के भेद-भाव मान्य नहीं थे। इस प्रकार जैनधर्म समाज में वर्गभेद और वर्णभेद का विरोधी था। उसका उद्घोष था कि सम्पूर्ण मानव-जाति एक है। बौद्धधर्म भी जातिवाद और वर्णवाद का विरोधी (48) Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहा है। न केवल इतना उपनिषदों में सत्यकाय जबाल की कथा भी सत्यवादी जबाल को ब्राह्मण मानकर इसी मत की पुष्टि करती है। सामाजिक जीवन की पवित्रता का आधार : विवाह संस्था ___सामाजिक जीवन का प्रारम्भ परिवार से ही होता है और परिवार का निर्माण विवाह के बंधन से होता है, अतः विवाह-संस्था सामाजिक दर्शन की एक प्रमुख समस्या है। विवाह-संस्था के उद्भव के पूर्व यदि कोई समाज रहा होगा, तो वह भयभीत प्राणियों का एक समूह रहा होगा जो पारस्परिक सुरक्षा हेतु एक-दूसरे से मिलकर रहते होंगे। विवाह का आधार केवल काम-वासना की संतुष्टि ही नहीं है, अपितु पारस्परिक आकर्षण और प्रेम भी है। यह स्पष्ट है कि निवृत्तिप्रधान संन्यासमार्गी जैन एवं बौद्ध परम्परा में इस विवाह संस्था के सम्बंध में कोई विशेष विवरण नहीं मिलते हैं। जैनधर्म अपनी वैराग्यवादी परम्परा के कारण प्रथमतः तो यही मानता रहा कि उसका प्रथम कर्त्तव्य व्यक्ति को संन्यास की दिशा में प्रेरित करना है, इसलिए प्राचीन जैन आगमों में जैनधर्मानुकूल विवाह-पद्धति के कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होते। प्राचीनकाल में बृहद् भारतीय समाज या हिन्दू समाज से पृथक् जैनों की अपनी कोई विवाह-पद्धति रही होगी, यह कहना भी कठिन है, यद्यपि यह सत्य है कि जैन धर्मानुयायियों में प्राचीनकाल से ही विवाह होते रहें हैं। जैन पुराण साहित्य में यह उल्लेख मिलता है कि ऋषभदेव से पूर्व यौगलिक काल में भाई-बहन ही युवावस्था में पति-पत्नी के रूप में व्यवहार करने लगते थे और एक युगल में पुरुष की अकाल मृत्यु हो जाने पर ऋषभ ने सर्वप्रथम विवाह-पद्धति का प्रारम्भ किया था। पुनः, भरत और बाहुबली की बहनों-ब्राह्मी और सुंदरी द्वारा भी आजीवन ब्रह्मचारी रहने और अपने भाइयों से विवाह न करने का निर्णय लिए जाने पर समाज में विवाह-व्यवस्था को प्रधानता मिली, किंतु विवाह को धार्मिक जीवन का अंग न मानने के कारण जैनों ने प्राचीन काल में किसी विवाह• पद्धति का विकास नहीं किया। इस सम्बंध में जो भी सूचनाएं उपलब्ध होती हैं, उस आधार पर यही कहा जा सकता है कि विवाह के सम्बंध में जैन समाज बृहद् हिन्दूसमाज के ही विधि-विधानों का अनुगमन करता रहा और आज भी करता है। / प्राचीन जैन ग्रंथों में, विवाह कैसे किया जाए- इसका उल्लेख तो नहीं मिलता है, किंतु विवाह संस्था को यौन सम्बंधों के संयमन का एक साधन मानकर उसमें गृहस्थ उपासकों के लिए स्वपत्नी-संतोषव्रत का विधान अवश्य मिलता है। आदिपुराण में (49) Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवाह एवं पति-पत्नी के पारस्परिक एवं सामाजिक दायित्वों की चर्चा है, उसमें विवाह के दो उद्देश्य बताए गए हैं - (1) कामवासना की तृप्ति, (2) सन्तानोत्पत्तिा जैनाचार्यों ने विवाह संस्था को यौन-सम्बंधों के नियंत्रण एवं वैधीकरण के लिए आवश्यक माना था। गृहस्थ का स्वपत्नीसंतोषव्रत न केवल व्यक्ति की कामवासना को नियंत्रित करता है, अपितु सामाजिक जीवन में यौन-व्यवहार को परिष्कृत भी बनाता है। अविवाहित स्त्री से यौन-सम्बंध स्थापित करने, वेश्यागमन करने आदि के निषेध इसी बात के सूचक हैं। जैन धर्म सामाजिक जीवन में यौन सम्बंधों की शुद्धि को आवश्यक मानता है। विवाह के उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुए आदिपुराण में बताया गया है कि जिस प्रकार ज्वर से पीड़ित व्यक्ति उसके उपशमनार्थ कटु-औषधि का सेवन करता है, उसी प्रकार कामज्वर से संतप्त हुआ प्राणी उसके उपशमनार्थ स्त्रीरूपी औषधि का सेवन करता है। इससे इतना प्रतिफलित होता है कि जैनधर्म अवैध या स्वच्छन्द यौन सम्बंधों का समर्थक नहीं रहा है। उसमें विवाह-सम्बंधों की यदि कोई महत्त्वपूर्ण भूमिका है, तो वह यौन-सम्बंधों के नियंत्रण की दृष्टि से ही है और यह उसकी निवृत्तिमार्गी धारा के अनुकूल भी है। उसकी मान्यता के अनुसार यदि कोई आजीवन ब्रह्मचारी बनकर संयमसाधना में अपने को असमर्थ पाता है, तो उसे विवाह सम्बंध के द्वारा अपनी यौनवासना को नियंत्रित कर लेना चाहिए, इसीलिए श्रावक के पांच अणुव्रतों में स्वपत्नीसंतोषव्रत नामक व्रत रखा गया है। पुनः, श्रावक-जीवन के मूलभूतं गुणों की दृष्टि से वेश्यागमन और परस्त्री-गमन को निषिद्ध ठहराया गया। इस प्रकार चाहे विधिमुख से न हो, किंतु निषेधमुख से जैनधर्म विवाह-संस्था की उपयोगिता और महत्ता को स्वीकार करता हुआ प्रतीत होता है। चाहे धार्मिक विधि-विधान के रूप में जैनों में विवाह-सम्बंधी उल्लेख न मिलता हो, किंतु जैन कथा-साहित्य में जो विवरण उपलब्ध होते हैं, उनके आधार पर इतना तो कहा जा सकता है कि जैन-परम्परा में समान वय और समान कुल के मध्य विवाह सम्बंध स्थापित करने के उल्लेख मिलते हैं। आगमों में यह भी उल्लेख मिलता है कि बालभाव से मुक्त होने पर ही विवाह किए जाते थे। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनधर्म में बाल-विवाह की अनुमति नहीं थी। मात्र यही नहीं, कुछ कथानकों में बालविवाह के अथवा अवयस्क कन्याओं के विवाह के दूषित परिणामों के उल्लेख भी मिल जाते हैं। विवाह सम्बंध को हिन्दूधर्म की तरह जैनधर्म में भी एक आजीवन सम्बंध ही माना गया था, अतः विवाह-विच्छेद को जैनधर्म में भी कोई स्थान नहीं मिला। (50) Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैवाहिक जीवन दूभर होने पर उस स्त्री का भिक्षुणी बन जाना ही एकमात्र विकल्प था। जैन आचार्यों ने अल्पकालीन विवाह-सम्बंध और अल्पवयस्क विवाह को घृणित माना है और इसे श्रावक-जीवन का एक दोष निरूपित किया है। जहां तक बहुपतिप्रथा का प्रश्न है, हमें द्रौपदी के एक आपवादिक कथानक के अतिरिक्त इसका कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता है, किंतु बहुपत्नी-प्रथा, जो प्राचीनकाल में एक सामान्य परम्परा बन गई थी, उसका उल्लेख जैन ग्रंथों में भी मिलता है। इस बहुपत्नी-प्रथा को जैन-परम्परा का धार्मिक अनुमोदन हो- ऐसा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि सम्पूर्ण जैन वाङ्मय में ऐसा कोई विधायक निर्देश प्राप्त नहीं होता, जिससे बहुपत्नी-प्रथा का समर्थन किया गया हो। जैन-साहित्य मात्र इतना ही बतलाता है कि बहुपत्नी-प्रथा उस समय सामान्य रूप से प्रचलित थी और जैन परिवारों में भी अनेक पत्नियां रखने का प्रचलन था, किंतु जैन-साहित्य में हमें ऐसा उल्लेख नहीं मिलता कि किसी श्रावक ने जैनधर्म के पंच-अणुव्रतों को ग्रहण करने के पश्चात् अपना दूसरा विवाह किया हो। गृहस्थ उपासक के स्वपत्नीसंतोषव्रत के जिन अतिचारों का उल्लेख मिलता है, उनमें एक परविवाहकरण भी है। यद्यपि इसका अर्थ जैन आचार्यों ने अनेक दृष्टि से किया है, किंतु इसका सामान्य अर्थ दूसरा विवाह करना ही है। इससे ऐसा लगता है कि जैन आचार्यों का अनुमोदन तो एकपत्नीव्रत की ओर ही था। आगे चलकर इसका अर्थ यह भी किया जाने लगा कि स्व-संतान के अतिरिक्त अन्य की संतानों का विवाह करवाना, किंतु मेरी दृष्टि में यह एक परवर्ती अर्थ है और स्वपत्नी संतोषव्रत का एक दोष ही है। - इसी प्रकार वेश्यागमन को भी निषिद्ध माना गया। अपरिगृहीता अर्थात् अविवाहिता स्त्री से यौन-सम्बंध बनाना भी श्रावकव्रत का एक अतिचार (दोष) माना गया। जैनाचार्यों में सोमदेव ही एकमात्र अपवाद हैं, जो गृहस्थ के वेश्यागमन को अनैतिक घोषित नहीं करते, शेष सभी जैनाचार्यों ने वेश्यागमन का एक स्वर से निषेध किया है। . जहां तक प्रेम-विवाह और माता-पिता द्वारा आयोजित विवाह सम्बंधों का प्रश्न है, जैनागमों में ऐसा कोई स्पष्ट निर्देश उपलब्ध नहीं है कि वह किस प्रकार के विवाह-सम्बंधों को करने योग्य मानते हैं, किंतु ज्ञाताधर्मकथा के द्रौपदी एवं मल्लि अध्ययन में पिता पुत्री से स्पष्ट रूप से यह कहता है कि मेरे द्वारा किया गया चुनाव तेरे कष्ट का कारण हो सकता है, इसलिए तुम स्वयं ही अपने पति का चुनाव करो"। इसका स्पष्ट अर्थ यही है कि जैन-परम्परा में माता-पिता द्वारा आयोजित विवाहों और युवक (51) Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युवतियों द्वारा अपनी इच्छा से चुने गए विवाह सम्बंधों को अर्थात् दोनों को मान्यता प्राप्त थी। जैन परिवार के युवक-युवतियों का जैन परिवार में ही विवाह हो, यह आवश्यक नहीं था। अनेक जैन कथाओं में अन्य धर्मावलम्बी कन्याओं से विवाह करने के उल्लेख मिलते हैं और यह व्यवस्था आज भी प्रचलित है। आज भी जैन परिवार अपनी समान जाति के हिन्दू परिवार की कन्या के साथ विवाह सम्बंध करते हैं। इसी प्रकार अपनी कन्या को हिन्दू परिवारों में प्रदान भी करते हैं। सामान्यतया विवाहित होने पर पत्नी पति के धर्म का अनुगमन करती है, किंतु प्राचीन काल से आज तक ऐसे भी सैकड़ों उदाहरण जैन साहित्य में और सामाजिक जीवन में मिलते हैं, जहां पति पत्नी के धर्म का अनुगमन करने लगता है या फिर दोनों अपने-अपने धर्म का परिपालन करते हैं और संतान को उनमें से किसी के भी धर्म को चुनने की स्वतंत्रता होती है, फिर भी इस विसंवाद से बचने के लिए सामान्य व्यवहार में इस बात को प्राथमिकता दी जाती है कि जैन परिवार के युवक-युवतियां जैन परिवार में ही विवाह करें। पारिवारिक दायित्य और भारतीय दृष्टिकोण . गृहस्थ का सामाजिक दायित्व अपने वृद्ध माता-पिता, पत्नी, पुत्र-पुत्री आदि परिजनों की सेवा एवं परिचर्या करना है। श्वेताम्बर साहित्य में उल्लेख है कि महावीर ने माता का अपने प्रति अत्यधिक स्नेह देखकर यह निर्णय ले लिया था कि जब तक उनके माता-पिता जीवित रहेंगे, वे संन्यास नहीं लेंगे। यह माता-पिता के प्रति उनकी भक्तिभावना का ही सूचक है। यद्यपि इस सम्बंध में दिगम्बर परम्परा का दृष्टिकोण भिन्न है। जैनधर्म में संन्यास लेने के पहले पारिवारिक उत्तरदायित्वों से मुक्ति पाना आवश्यक माना गया है। मुझे जैन आगमों में एक भी उल्लेख ऐसा देखने को नहीं मिला, जहां बिना परिजनों की अनुमति से किसी व्यक्ति ने संन्यास ग्रहण किया हो। जैनधर्म में आज भी यह परम्परा अक्षुण्ण रूप से कायम है। कोई भी व्यक्ति बिना परिजनों एवं समाज (संघ) की अनुमति के संन्यास ग्रहण नहीं कर सकता। माता, पिता, पुत्र, पुत्री, पति या पत्नी की अनुमति प्राप्त करना आवश्यक होता है। इसके पीछे मूल भावना यही है कि व्यक्ति सामाजिक उत्तरदायित्वों से निवृत्ति पाकर ही संन्यास ग्रहण करे। इस बात की पुष्टि अंतकृद्दशा के निम्न उदाहरण से होती है - जब श्रीकृष्ण को यह ज्ञात हो गया कि द्वारिका का शीघ्र ही विनाश होने वाला है, तो उन्होंने स्पष्ट घोषणा करवा दी कि यदि (52) Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माता-पिता, पुत्र-पुत्री एवं पत्नी का पालन-पोषण कौन करेगा, तो उनके पालनपोषण का उत्तरदायित्व मैं वहन कर लूंगा|28 यद्यपि भगवान् बुद्ध ने भी प्रारम्भ में संन्यास के लिए परिजनों की अनुमति को आवश्यक नहीं माना था, अतः अनेक युवकों ने परिजनों की अनुमति के बिना ही संघ में प्रवेश ले लिया था, किंतु आगे चलकर उन्होंने भी यह नियम बना दिया था कि बिना परिजनों की अनुमति के उपसम्पदा प्रदान नहीं की जाए। मात्र यही नहीं, उन्होंने यह भी घोषित कर दिया कि ऋणी, राजकीय सेवक या सैनिक को भी, जो सामाजिक उत्तरदायित्वों से भागकर भिक्षु बनना चाहते हैं, बिना पूर्व अनुमति के उपसम्पदा प्रदान नहीं की जावे। हिन्दूधर्म भी पितृ-ऋण अर्थात् सामाजिक दायित्व को चुकाए बिना संन्यास की अनुमति नहीं देता है। चाहे संन्यास लेने का प्रश्न हो या गृहस्थ जीवन में ही आत्मसाधना की बात हो, सामाजिक उत्तरदायित्वों को पूर्ण करना आवश्यक माना गया है। हिन्दू धर्म में आदि शंकराचार्य द्वारा संन्यासी होकर भी माता की सेवा और अंतिम संस्कार करने की कथा भी इसी का प्रतीक है। सामाजिक-धर्म __भारतीय आचार दर्शनों में न केवल आध्यात्मिक दृष्टि से धर्म की विवेचना की गई है, वरन् धर्म के सामाजिक पहलू पर पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। जैन एवं बौद्ध विचारकों ने संघ या सामाजिक जीवन की प्रमुखता सदैव स्वीकार की है। जैनग्रंथ स्थानांगसूत्र में सामाजिक जीवन के संदर्भ में दस धर्मों का विवेचन उपलब्ध है - (1) ग्रामधर्म, (2) नगरधर्म, (3) राष्ट्रधर्म, (4) पाखण्डधर्म, (5) कुलधर्म, (6) गणधर्म, (7) संघधर्म, (8) सिद्धांतधर्म (श्रुतधर्म), (9) चारित्रधर्म और (10) अस्तिकायधर्म 29 / इनमें से प्रथम सात तो पूरी तरह से सामाजिक जीवन से सम्बंधित हैं। ___ 1. ग्रामधर्म - ग्राम के विकास, व्यवस्था तथा शांति के लिए जिन नियमों को ग्रामवासियों ने मिलकर बनाया है, उनका पालन करना ग्रामधर्म है। ग्रामधर्म का अर्थ हैं- जिस ग्राम में हम निवास करते हैं, उस ग्राम की व्यवस्थाओं, मर्यादाओं एवं नियमों के अनुरूप कार्य करना। ग्राम का अर्थ व्यक्तियों के कुलों का समूह हैं, अतः सामूहिक रूप में एक-दूसरे के सहयोग के आधार पर ग्राम का विकास करना, ग्राम के अंदर पूरी तरह व्यवस्था और शांति बनाए रखना और आपस में वैमनस्य और क्लेश उत्पन्न न हो, उसके लिए प्रयत्नशील रहना ही ग्रामधर्म के प्रमुख तत्त्व हैं। ग्राम में शांति एवं व्यवस्था नहीं है, तो वहां के लोगों के जीवन में भी शांति नहीं रहती। जिस परिवेश में हम जीते हैं, (53) Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसमें शांति और व्यवस्था के लिए आवश्यक रूप से प्रयत्न करना हमारा कर्तव्य है। प्रत्येक ग्रामवासी सदैव इस बात के लिए जाग्रत रहे कि उसके किसी आचरण से ग्राम के हितों को चोट न पहुंचे। ग्रामस्थविर ग्राम का मुखिया या नेता होता है। ग्रामस्थविर का प्रयत्न रहता है कि ग्राम की व्यवस्था, शांति एवं विकास के लिए ग्रामजनों में पारस्परिक स्नेह और सहयोग बना रहे। 2. नगरधर्म - ग्रामों के मध्य में स्थित एक केन्द्रीय ग्राम को, जो उनका व्यावसायिक केंद्र होता है, नगर कहा जाता है। सामान्यतः ग्रामधर्म और नगरधर्म में विशेष अंतर नहीं है। नगरधर्म के अंतर्गत नगर की व्यवस्था एवं शांति, नागरिक-नियमों का पालन एवं नागरिकों के पारस्परिक हितों का संरक्षण-संवर्द्धन आता है, लेकिन नागरिकों का उत्तरदायित्व केवल नगर हितों तक ही सीमित नहीं है। युगीन संदर्भ में नगरधर्म यह भी है कि नागरिकों के द्वारा ग्रामवासियों का शोषण न हो। नगरजनों का उत्तरदायित्व ग्रामीणजनों की अपेक्षा अधिक है। उन्हें न केवल अपने नगर के विकास एवं व्यवस्था का ध्यान रखना चाहिए, वरन् उन समग्र ग्रामवासियों के हित की भी चिंता करनी चाहिए, जिनके आधार पर नगर की व्यावसायिक तथा आर्थिक स्थितियां निर्भर हैं। नगर में एक योग्य नागरिक के रूप में जीना, नागरिक कर्तव्यों एवं नियमों का पूरी तरह पालन करना ही मनुष्य का नगरधर्म है। . .. जैन-सूत्रों में नगर की व्यवस्था आदि के लिए नगरस्थविर की योजना का उल्लेख है। आधुनिक युग में जो स्थान एवं कार्य नगरपालिका अथवा नगरनिगम के अध्यक्ष के हैं, जैन-परम्परा में वही स्थान एवं कार्य नगरस्थविर के हैं। 3. राष्ट्रधर्म - जैन विचारणा के अनुसार प्रत्येक ग्राम एवं नगर किसी राष्ट्र का अंग होता है और प्रत्येक राष्ट्र की अपनी एक विशिष्ट सांस्कृतिक चेतना होती है, जो ग्रामीणों एवं नागरिकों को एक राष्ट्र के सदस्यों के रूप में आपस में बांधकर रखती है। राष्ट्रधर्म का तात्पर्य है- राष्ट्र की सांस्कृतिक चेतना अथवा जीवन की विशिष्ट प्रणाली को सजीव बनाए रखना। राष्ट्रीय विधि-विधान, नियमों एवं मर्यादाओं का पालन करना ही राष्ट्रधर्म है। आधुनिक संदर्भ में राष्ट्रधर्म का तात्पर्य है- राष्ट्रीय एकता एवं निष्ठा को बनाए रखना तथा राष्ट्र के नागरिकों के हितों का परस्पर घात न करते हुए राष्ट्र के विकास में प्रयत्नशील रहना, राष्ट्रीय शासन के नियमों के विरुद्ध कार्य न करना, राष्ट्रीय विधिविधानों का आदर करते हुए उनका समुचित रूप से पालन करना। उपासक-दशांगसूत्र में राज्य के नियमों के विपरीत आचरण करना दोषपूर्ण माना गया है। जैनागमों में राष्ट्रस्थविर (54) Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का विवेचन भी उपलब्ध है। प्रजातंत्र में जो स्थान राष्ट्रपति का है, वही प्राचीन भारतीय परम्परा में राष्ट्रस्थविर का रहा होगा, यह माना जा सकता है। 4. पाखण्डधर्म - जैन आचार्यों ने पाखण्ड की अपनी व्याख्या की है। जिसके द्वारा पाप का खण्डन होता हो, वह पाखण्ड है। दशवैकालिकनियुक्ति के अनुसार पाखण्ड एक व्रत का नाम है। जिसका व्रत निर्मल हो, वह पाखण्डी"। सामान्य नैतिक नियमों का पालन करना ही पाखण्डधर्म है। सम्प्रति पाखण्ड का अर्थ ढोंग हो गया है, वह अर्थ यहां अभिप्रेत नहीं है। पाखण्डधर्म का तात्पर्य अनुशासित, नियमित एवं संयमित जीवन है। पाखण्डधर्म के लिए व्यवस्थापक के रूप में प्रशास्ता-स्थविर का निर्देश है। प्रशास्ता-स्थविर शब्द की दृष्टि से विचार करने पर यह स्पष्ट लगता है कि वह जनता को धर्मोपदेश के माध्यम से नियंत्रित करने वाला अधिकारी है। प्रशास्ता-स्थविर का कार्य लोगों को धार्मिक-निष्ठा, संयम एवं व्रत-पालन के लिए प्रेरित करते रहना है। हमारे विचार में प्रशास्ता-स्थविर राजकीय धर्माधिकारी के समान होता होगा, जिसका कार्य जनता को सामान्य नैतिक जीवन की शिक्षा देना होता होगा। 5. कुलधर्म - परिवार अथवा वंश-परम्परा के आचार-नियमों एवं मर्यादाओं का पालन करना कुलधर्म है। परिवार का अनुभवी, वृद्ध एवं योग्य व्यक्ति कुलस्थविर होता है। परिवार के सदस्य कुलस्थविर की आज्ञाओं का पालन करते हैं और कुलस्थविर का कर्तव्य है- परिवार का संवर्द्धन एवं विकास करना तथा उसे गलत प्रवृत्तियों से बचाना। जैन परम्परा में गृहस्थ एवं मुनि-दोनों के लिए कुलधर्म का पालन आवश्यक है, यद्यपि मुनि का कुल उसके पिता के आधार पर नहीं, वरन् गुरु के आधार पर बनता है। 6. गणधर्म - गण का अर्थ समान आचार एवं विचार के व्यक्तियों का समूह है। महावीर के समय में हमें गणराज्यों का उल्लेख मिलता है। गणराज्य एक प्रकार के प्रजासत्तात्मक राज्य होते हैं। गणधर्म का तात्पर्य है- गण के नियमों और मर्यादाओं का पालन करना। ग़ण दो माने गए हैं - 1. लौकिक (सामाजिक) और 2. लोकोत्तर (धार्मिक)। जैन परम्परा में वर्तमान युग में भी साधुओं के गण होते हैं, जिन्हें ‘गच्छ' कहा जाता है। प्रत्येक गण (गच्छ) के आचार-नियमों में थोड़ा-बहुत अंतर भी रहता है। गण के नियमों के अनुसार आचरण करना गणधर्म है। परस्पर सहयोग तथा मैत्री रखना गण के प्रत्येक सदस्य का कर्तव्य है। गण का एक गणस्थविर होता है। गण की देशकालगत परिस्थितियों के आधार पर अवस्थाएं देना, नियमों को बनाना और पालन (55) Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करवाना गणस्थविर का कार्य है। जैन विचारणा के अनुसार बार-बार गण को बदलने वाला साधक हीन दृष्टि से देखा गया है। बुद्ध ने भी गण की उन्नति के लिए नियमों का प्रतिपादन किया है। 7. संघधर्म - विभिन्न गणों से मिलकर संघ बनता है। जैन आचार्यों ने संघधर्म की व्याख्या संघ या सभा के नियमों के परिपालन के रूप में की है। संघ एक प्रकार की राष्ट्रीय संस्था है, जिसमें विभिन्न कुल या गण मिलकर सामूहिक विकास एवं व्यवस्था का निश्चय करते हैं। संघ के नियमों का पालन करना संघ के प्रत्येक सदस्य का कर्तव्य है। जैन-परम्परा में संघ के दो रूप हैं - 1. लौकिक संघ और 2. लोकोत्तर संघा लौकिक संघ का कार्य जीवन के भौतिक पक्ष की व्यवस्थाओं को देखना है, जबकि लोकोत्तर संघ का कार्य आध्यात्मिक विकास करना है। लौकिक संघ हो या लोकोत्तर संघ हो, संघ के प्रत्येक सदस्य का यह अनिवार्य कर्त्तव्य माना गया है कि वह संघ के नियमों का पूरी तरह पालन करे। संघ में किसी भी प्रकार के मनमुटाव अथवा संघर्ष के लिए कोई भी कार्य नहीं करे। एकता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए सदैव ही प्रयत्नशील रहे। जैन परम्परा के अनुसार साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका- इन चारों से मिलकर संघ का निर्माण होता है। नंदीसूत्र में संघ के महत्त्व का विस्तारपूर्वक सुंदर विवेचन हुआ है, जिससे स्पष्ट है कि जैन-परम्परा में नैतिक साधना में संघीय जीवन का कितना अधिक महत्त्व है।32 8. श्रुतधर्म - सामाजिक दृष्टि से श्रुतधर्म का तात्पर्य है- शिक्षण-व्यवस्था सम्बंधी नियमों का पालन करना। शिष्य का गुरु के प्रति, गुरु का शिष्य के प्रति कैसा व्यवहार हो, यह श्रुतधर्म का ही विषय है। सामाजिक संदर्भ में श्रुतधर्म से तात्पर्य शिक्षण की सामाजिक या संघीय व्यवस्था है। गुरु और शिष्य के कर्तव्यों तथा पारस्परिक सम्बंधों का बोध और उनका पालन श्रुतधर्म या ज्ञानार्जन का अनिवार्य अंग है। योग्य शिष्य को ज्ञान देना गुरु का कर्तव्य है, जबकि शिष्य का कर्त्तव्य गुरु की आज्ञाओं का श्रद्धापूर्वक पालन करना है। 9. चारित्रधर्म - चारित्रधर्म का तात्पर्य है- श्रमण एवं गृहस्थ धर्म के आचारनियमों का परिपालन करना। यद्यपि चारित्रधर्म का बहुत कुछ सम्बंध वैयक्तिक साधना से है, तथापि उनका सामाजिक पहलू भी है। जैन आचार के नियमों एवं उपनियमों के पीछे सामाजिक दृष्टि भी है। अहिंसा सम्बंधी सभी नियम और उपनियम सामाजिक (56) Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांति के संस्थापन के लिए हैं। अनाग्रह सामाजिक जीवन से वैचारिक विद्वेष एवं वैचारिक संघर्ष को समाप्त करता है। अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह पर आधारित जैन आचार के नियम-उपनियम प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में सामाजिक दृष्टि से युक्त हैं, यह माना जा सकता है। . 10. अस्तिकायधर्म - अस्तिकायधर्म का बहुत कुछ सम्बंध तत्त्वमीमांसा से है, अतः उसका विवेचन यहां अप्रासंगिक है। इस प्रकार जैन आचार्यों ने न केवल वैयक्तिक एवं आध्यात्मिक पक्षों के सम्बंध में विचार किया, वरन् सामाजिक जीवन पर भी विचार किया है। जैन सूत्रों में स्पष्ट प्रमाण है कि जैन आचारदर्शन सामाजिक पक्ष का यथोचित मूल्यांकन करते हुए उसके विकास का भी प्रयास करता है। ___ वस्तुतः, जैनधर्म वैयक्तिक नैतिकता पर बल देकर सामाजिक सम्बंधों को शुद्ध और मधुर बनाता है। संदर्भ1. ऋग्वेद, 10/19/12. ईशावास्योपनिषद्, 6.. 3. वही, 1. श्रीमद्भागवत, 7/14/8: आचारांग, 1/5/5. 6. प्रश्नव्याकरणसूत्र, 2/1/2. वही, 2/1/3. समन्तभद्र, युक्त्यानुशासन, 61. 9. स्थानांग, 10/760. देखें - सागरमल जैन, व्यक्ति और समाज, श्रमण, वर्ष 34, (1983) अंक 2. 11. देखें - प्रबंधकोश, भद्रबाहु कथानक. 12. उद्धृत - (क) रतनलाल दोशी, आत्मसाधना संग्रह, पृ.441. (ख) भगवतीआराधना, भाग 1, पृ.197. ____13. Bradle, Ethical, Studies. (57) ant in ons i e . Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 15. 16. 17. 18. 22. 23. मुनि नथमल, नैतिकता का गुरुत्वाकर्षण, पृ. 3-4. ___ उमास्वाति, तत्त्वार्थसूत्र, 5/21. उत्तराध्ययनसूत्र, 25/19. आचारांग, 1/2/3/75. सागरमल जैन, सागर जैन-विद्या भारती, भाग 1, पृ.153. 19. जटासिंहनन्दि, वरांगचरित, सर्ग 25, श्लोक 33-43. 20. आचारांगनियुक्ति, 19. 21. आवश्यकचूर्णि, भाग 1, पृ. 152. जिनसेन, आदिपुराण, 19/166-167. अन्तकृद्दशांग, 3/1/3. उपासकदशांग, 1/48. वही, 1/48. 26. वही, 1/48. ज्ञाताधर्मकथा, 8 (मल्लिअध्ययन), 16 (द्रौपदी अध्ययन). अंतकृद्दशांग, 5/1/21. . स्थानांग, 10/760 / विशेष विवेचन के लिए देखेंधर्मव्याख्या, जवाहरलालजी म. और धर्म-दर्शन, शुक्लचंद्रजी म. 30. धर्मदर्शन, पृ. 86. दशवैकालिकनियुक्ति, 158. 32. नन्दीसूत्र-पीठिका, 4-17. 24. 25. 27. 28. 31. (58) Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय संस्कृति में सामाजिक-समता (वर्ण एवं जाति व्यवस्था के विशेष संदर्भ में) मानव समाज में स्त्री-पुरुष, सुंदर-असुंदर, बुद्धिमान्-मूर्ख, आर्य-अनार्य, कुलीन-अनकुलीन, स्पर्श्य-अस्पर्श्य, धनी-निर्धन आदि के भेद प्राचीनकाल से ही पाए जाते हैं। इसमें कुछ भेद तो नैसर्गिक हैं और कुछ मानव सृजित। ये मानव सृजित भेद ही सामाजिक विषमता के मूल कारण हैं। यह सत्य है कि सभी मनुष्य, सभी बातों में एक दूसरे से समान नहीं होते, उनमें रूप-सौन्दर्य, धन-सम्पदा, बौद्धिक-विकास, कार्यक्षमता, व्यावसायिक-योग्यता आदि की दृष्टि से विषमता या तरतमता होती है, किंतु इन विषमताओं या तरतमताओं के आधार पर अथवा मानव समाज के किसी व्यक्ति विशेष को वर्ग-विशेष में जन्म लेने के आधार पर निम्न, पतित, दलित या अस्पर्श्य मान लेना उचित नहीं है। यह सत्य है कि मनुष्यों में विविध दृष्टियों से विभिन्नता या तरतमता पाई जाती है और वह सदैव बनी भी रहेगी, किंतु इसे मानव समाज में वर्ग-भेद या वर्ण-भेद का आधार नहीं माना जा सकता, क्योंकि एक ही पिता के दो पुत्रों में ऐसी भिन्नता या तरतमता देखने में आती है। हम यह भी देखते हैं कि जो व्यक्ति गरीब होता है, ... वही कालक्रम में धनवान् या सम्पत्तिशाली हो जाता है। एक मूर्ख पिता का पुत्र भी बुद्धिमान् अथवा प्राज्ञ हो सकता है। एक पिता के दो पुत्रों में एक बुद्धिमान्, तो दूसरा मूर्ख अथवा एक सुंदर, तो दूसरा कुरूप हो सकता है। अतः, इस प्रकार की तरतमताओं के आधार पर मनुष्यों को सदैव के लिए मात्र जन्मना आधार पर विभिन्न वर्गों में बांट कर नहीं रखा जा सकता है। चाहे वह धनोपार्जन हेतु चयनित विभिन्न व्यावसायिक क्षेत्र हों, चाहे कला, विद्या अथवा साधना के क्षेत्र हों, हम मानव समाज के किसी एक वर्ग विशेष को जन्मना के आधार पर उसका ठेकेदार नहीं मान सकते हैं। यह सत्य है कि नैसर्गिक योग्यताओं एवं कार्यों के आधार पर मानव समाज में सदैव ही वर्गभेद या वर्णभेद बने रहेंगे, फिर भी उनका आधार वर्ग या जाति विशेष में जन्म न होकर व्यक्ति की अपनी स्वाभाविक योग्यता के आधार पर अपनाए गए व्यवसाय या कार्य होंगे। व्यवसाय या कर्म के सभी क्षेत्र सभी व्यक्तियों के लिए समान रूप से खुले होने चाहिए और किसी भी वर्ग विशेष में जन्मे व्यक्ति को भी किसी भी क्षेत्र विशेष में प्रवेश पाने के अधिकार से वंचित नहीं किया जाना चाहिए - यही सामाजिक समता का आधार है। ( 59 ) Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह सत्य है कि मानव समाज में सदैव ही कुछ शासक या अधिकारी और कुछ शासित या कर्मचारी होंगे, किंतु यह अधिकार भी मान्य नहीं हो सकता कि अधिकारी का अयोग्य पुत्र शासक और कर्मचारी या शासित का योग्य पुत्र शासित ही बना रहे। सामाजिक समता का तात्पर्य यह नहीं है कि मानव समाज में कोई भिन्नता या तरतमता ही नहीं हो। उसका तात्पर्य है- मानव समाज के सभी सदस्यों को विकास के समान अवसर उपलब्ध हों तथा प्रत्येक व्यक्ति अपनी क्षमता और योग्यता के आधार पर अपना कार्यक्षेत्र निर्धारित कर सके। इस सामाजिक समता के संदर्भ में जहां तक जैन आचार्यों के चिंतन का प्रश्न है, उन्होंने मानव में स्वाभाविक योग्यताजन्य अथवा पूर्व कर्म-संस्कारजन्य तरतमता को स्वीकारते हुए भी यह माना है कि चाहे विद्या का क्षेत्र हो, चाहे व्यवसाय या साधना का, उसमें प्रवेश का द्वार सभी के लिए बिना भेद-भाव के खुला रहना चाहिए। जैन धर्म स्पष्ट रूप से इस बात को मानता है कि किसी जाति या वर्ण-विशेष में जन्म लेने से कोई व्यक्ति श्रेष्ठ या हीन नहीं होता। उसे जो हीन या श्रेष्ठ बनाता है, वह है- उसका अपना पुरुषार्थ, उसकी अपनी साधना, सदाचार और कर्म। हम जैनों के इसी दृष्टिकोण को अग्रिम पृष्ठों में सप्रमाण प्रस्तुत करने का प्रयत्न करेंगे। जन्मना वर्ण-व्यवस्था : एक असमीचीन अवधारणा भारतीयश्रमण परम्परा श्रुति के इस कथन को स्वीकार नहीं करती है कि ब्राह्मणों की उत्पत्ति ब्रह्मा के मुख से, क्षत्रिय की बाहु से, वैश्यों की जंघा से और शूद्र की पैरों से हुई है। चूंकि मुख श्रेष्ठ अंग है, अतः इन सब में ब्राह्मण ही श्रेष्ठ है'। ब्रह्मा के शरीर के विभिन्न अंगों से जन्म के आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र- ऐसी वर्ण-व्यवस्था श्रमणधारा के चिंतकों को स्वीकार नहीं है। उनका कहना है कि सभी मनुष्य स्त्री-योनि से ही उत्पन्न होते हैं, अतः सभी समान हैं। पुनः, इन अंगों में से किसी को श्रेष्ठ एवं उत्तम और किसी को निकृष्ट या हीन मानकर वर्ण-व्यवस्था में श्रेष्ठता एवं हीनता का विधान नहीं किया जा सकता है, क्योंकि शरीर के सभी अंग समान महत्त्व के हैं। इसी प्रकार शारीरिक वर्णों की भिन्नता के आधार पर किया गया ब्राह्मण आदि जातियों का वर्गीकरण भीश्रमणों को मान्य नहीं है। ___ आचार्य जटासिंह नन्दि ने अपने वरांगचरित में इस बात का विस्तार से विवेचन किया है कि शारीरिक विभिन्नताओं या वर्गों के आधार पर किया जाने वाला जाति सम्बंधी वर्गीकरण मात्र पशु-पक्षी आदि के विषय में ही सत्य हो सकता है, मनुष्यों के संदर्भ में नहीं। वनस्पति एवं पशु-पक्षी आदि में जाति का विचार सम्भव है, किंतु मनुष्य (60) Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के विषय में यह विचार सम्भव नहीं है, क्योंकि सभी मनुष्य समान हैं। मनुष्यों की एक ही जाति है। न तो सभी ब्राह्मण शुभ्र वर्ण के होते हैं, न सभी क्षत्रिय रक्त वर्ण के, न सभी वैश्य पीत वर्ण के और न सभी शूद्र कृष्ण वर्ण के होते हैं, अतः जन्म के आधार पर जाति व वर्ण का निश्चय सम्भव नहीं है। समाज में ऊंच-नीच का आधार किसी वर्ण विशेष या जाति विशेष में जन्म लेना नहीं माना जा सकता। न केवल जैन एवं बौद्ध परम्परा, अपितु हिन्दू परम्परा में भी अनेक उदाहरण हैं, जहां निम्न वर्णों से उत्पन्न व्यक्ति भी अपनी प्रतिभा और आचार के आधार पर श्रेष्ठ कहलाए। ब्राह्मणों की श्रेष्ठता पर प्रश्न चिह्न लगाते हुए वरांगचरित' में जटासिंह नन्दि कहते हैं कि जो ब्राह्मण स्वयं राजा की कृपा के आकांक्षी हैं और उनके द्वारा अनुशासित होकर उनके अनुग्रह की अपेक्षा रखते हैं, ऐसे दीन ब्राह्मण नृपों (क्षत्रियों) से कैसे श्रेष्ठ कहे जा सकते हैं। द्विज ब्रह्मा के मुख से निर्गत हुए अतः श्रेष्ठ हैं- यह वचन केवल अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए कहा गया है। ब्राह्मण प्रतिदिन राजाओं की स्तुति करते हैं और उनके लिए स्वस्ति पाठ एवं शांति पाठ करते हैं, लेकिन वह सब भी धन की आशा से ही किया जाता है, अतः ऐसे ब्राह्मण आप्तकाम नहीं माने जा सकते हैं। फलतः, इनका अपनी श्रेष्ठता का दावा मिथ्या है। जिस प्रकार नट रंगशाला में कार्य स्थिति के अनुरूप विचित्र वेशभूषा को धारण करता है, उसी प्रकार यह जीव भी संसाररूपी रंगमंच पर कर्मों के अनुसार भिन्न-भिन्न रूपों को प्राप्त होता है। तत्त्वतः आत्मा न ब्राह्मण है, न क्षत्रिय, न वैश्य और न शूद्र ही। वह तो अपने ही पूर्व कर्मों के वश में होकर संसार में विभिन्न रूपों में जन्म ग्रहण करता है। यदि शरीर के आधार पर ही किसी को ब्राह्मण, क्षत्रिय कहा जाए, तो यह भी उचित नहीं है। विज्ञ-जन देह को नहीं, ज्ञान (योग्यता) को ही ब्रह्म कहते हैं, अतः निकृष्ट कहा जाने वाला शूद्र भी ज्ञान या प्रज्ञा-क्षमता के आधार पर वेदाध्ययन करने का पात्र हो सकता है। विद्या, आचरण एवं सद्गुण से रहित व्यक्ति जाति विशेष में जन्म लेने मात्र से ब्राह्मण नहीं हो जाता, अपितु अपने ज्ञान, सद्गुण आदि से युक्त होकर ही ब्राह्मण होता है। व्यास, वशिष्ठ, कमठ, कंठ, द्रोण, पाराशर आदि अपने जन्म के आधार पर नहीं, अपितु अपने सदाचरण एवं तपस्या से ही ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए थे। अतः, ब्राह्मणत्व आदि सदाचार और कर्तव्यशीलता पर आधारित हैं- जन्म पर नहीं। सच्चा ब्राह्मण कौन ? - जैन परम्परा ने सदाचरण को ही मानवीय जीवन में उच्चता और निम्नता का (61) Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमान माना है। उत्तराध्ययनसूत्र के पच्चीसवें अध्ययन एवं धम्मपद के ब्राह्मण वर्ग नामक अध्याय में सच्चा ब्राह्मण कौन है, इसका विस्तार से विवेचन उपलब्ध है। विस्तारभय से उसकी समग्र चर्चा में न जाकर केवल कुछ गाथाओं को प्रस्तुत कर ही विराम लेंगे। उसमें कहा गया है कि 'जिसे लोक में कुशल पुरुषों ने ब्राह्मण कहा है, जो अग्नि के समान सदा पूजनीय है और जो प्रियजनों के आने पर आसक्त नहीं होता और न उनके जाने पर शोक करता है, जो सदा आर्य-वचन में रमण करता है, उसे ब्राह्मण कहते हैं।' - 'कसौटी पर कसे हुए और अग्नि के द्वारा दग्धमल हुए, शुद्ध किए गए जातरूप सोने की तरह जो विशुद्ध है, जो राग, द्वेष और भय से मुक्त है तथा जो तपस्वी है, कृश . है, दान्त है, जिसका मांस और रक्त अपचित (कम) हो गया है, जो सुव्रत है, शांत है, उसे ही ब्राह्मण कहा जाता है।' 'जो त्रस और स्थावर जीवों को सम्यक् प्रकार से जानकर उनकी मन, वचन और काया से हिंसा नहीं करता है, जो क्रोध, हास्य, लोभ अथवा भय से झूठ नहीं बोलता, जो सचित्त या अचित्त, थोड़ा या अधिक अदत्त नहीं लेता है, जो देव, मनुष्य और तिर्यंच सम्बंधी मैथुन का मन, वचन और शरीर से सेवन नहीं करता है, जिस प्रकार जल में उत्पन्न हुआ कमल जल में लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार जो कामभोगों से अलिप्त रहता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।' ___ इसी प्रकार जो रसादि में लोलुप नहीं है, जो निर्दोष भिक्षा से जीवन का निर्वाह करता है, जो गृह त्यागी है, जो अकिंचन है, पूर्वज्ञातिजनों एवं बंधु-बांधवों में आसक्त नहीं रहता है, उसे ही ब्राह्मण कहते हैं।' बौद्धग्रंथ धम्मपद में भी कहा गया है कि जैस कमल पत्र पर पानी होता है, जैसे आरे की नोंक पर सरसों का दाना होता है, वैसे ही जो काम-भोगों में लिप्त नहीं होता, जिसने अपने दुःखों के क्षय को यहीं पर देख लिया है, जिसने जन्म-मरण के भार को उतार दिया है, जो सर्वथा अनासक्त है, जो मेघावी है, स्थितप्रज्ञ है, जो सन्मार्ग तथा कुमार्ग को जानने में कुशल है और जो निर्वाण की उत्तम स्थिति को पहुंच चुका है-उसे ही मैं ब्राह्मण कहता हूं। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन एवं बौद्ध- दोनों परम्पराओं ने ही सदाचार के आधार पर ब्राह्मणत्व की श्रेष्ठता को स्वीकार करते हुए ब्राह्मण की एक नई परिभाषा प्रस्तुत की, जो सदाचार और सामाजिक समता की प्रतिष्ठाधक थी। न केवल जैन परम्परा एवं बौद्ध-परम्परा में, वरन् महाभारत में भी ब्राह्मणत्व की यही (62) Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / परिभाषा है। जैन परम्परा के उत्तराध्ययनसूत्र, बौद्ध-परम्परा के धम्मपद और महाभारत के शांतिपर्व में सच्चे ब्राह्मण के स्वरूप का जो विवरण मिलता है, वह न केवल वैचारिक साम्यता रखता है, वरन् उसमें शाब्दिक साम्यता भी अधिक है, जो तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। ___ सच्चा ब्राह्मण कौन है? इस विषय में 'कुमारपाल प्रबोध प्रबंध' में मनुस्मृति एवं महाभारत से कुछ श्लोक उद्धृत करके यह बताया गया है कि- 'शीलसम्पन्न शूद्र भी ब्राह्मणत्व को प्राप्त हो जाता है और सदाचार रहित ब्राह्मण भी शूद्र के समान हो जाता है, अतः सभी जातियों में चाण्डाल और सभी जातियों में ब्राह्मण होते हैं। हे अर्जुन ! जो ब्राह्मण कृषि, वाणिज्य, गोरक्षा एवं राज्य की सेवा करते हैं, वे वस्तुतः ब्राह्मण नहीं हैं। जो भी द्विज हिंसक, असत्यवादी, चौर्यकर्म में लिप्त, दुरादाचार सेवी हैं, वे सभी पतित (शूद्र) हैं। इसके विपरीत, ब्रह्मचर्य और तप से युक्त लौह व स्वर्ण में समान भाव रखने वाले, प्राणियों के प्रति दयावान् सभी जाति के व्यक्ति ब्राह्मण ही हैं। सच्चे ब्राह्मण के लक्षण बताते हुए कहा गया है- 'जो व्यक्ति क्षमाशील आदि गुणों से युक्त हो, जिसने सभी दण्डों (परपीडन) का परित्याग कर दिया है, जो निरामिषभोजी है और किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करता -- यह किसी व्यक्ति के ब्राह्मण होने का प्रथम लक्षण है। इसी प्रकार जो कभी असत्य नहीं बोलता, मिथ्या वचनों से दूर रहता है-- यह ब्राह्मण कां द्वितीय लक्षण है। पुनः, जिसने परद्रव्य का त्याग कर दिया है तथा जो अदत्त को ग्रहण नहीं करता, यह उसके ब्राह्मण होने का तृतीय लक्षण है। जो देव, असुर, मनुष्य तथा पशुओं के प्रति मैथुन का सेवन नहीं करता- वह उसके ब्राह्मण होने का चतुर्थ लक्षण है। जिसने कुटुम्ब का वास अर्थात् गृहस्थाश्रम का त्याग कर दिया हो, जो परिग्रह और आसक्ति से रहित है, यह ब्राह्मण होने का पंचम लक्षण है। जो इन पांच लक्षणों से युक्त है, वही ब्राह्मण है, द्विज है और महान् है, शेष तो शूद्रवत् हैं। केवट की पुत्री के गर्भ से उत्पन्न व्यास नामक महामुनि हुए हैं। इसी प्रकार हरिणी के गर्भ से उत्पन्न श्रृंग ऋषि शुनकी के गर्भ से शुक, माण्डूकी के गर्भ से मांडव्य तथा उर्वशी के गर्भ से उत्पन्न वशिष्ठ महामुनि हुए। न तो इन सभी ऋषियों की माता ब्राह्मणी हैं, न ये संस्कार से ब्राह्मण हुए थे, अपितु ये सभी तप साधना या सदाचार से ब्राह्मण हुए हैं, इसलिए ब्राह्मण होने में जाति विशेष में जन्म कारण नहीं है, अपितु तप या सदाचार ही कारण है। (63) Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मणा वर्ण-व्यवस्था श्रमणों को भी स्वीकार्य - जैन परम्परा में वर्ण का आधार जन्म नहीं, अपितु कर्म माना गया है। जैन. विचारणा जन्मना जातिवाद की विरोधी है, किंतु कर्मणा वर्णव्यवस्था से उसका कोई सैद्धांतिक विरोध नहीं है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि मनुष्य कर्म से ब्राह्मण, कर्म से क्षत्रिय एवं कर्म से वैश्य एवं शूद्र होता है।' महापुराण में कहा गया है- जातिनाम कर्म के उदय से तो मनुष्य जाति एक ही है फिर भी, आजीविका भेद से वह चार प्रकार की कही गई है। व्रतों के संस्कार से ब्राह्मण, शस्त्रों को धारण करने से क्षत्रिय, न्यायपूर्वक अर्थ का उपार्जन करने से वैश्य और निम्न श्रेणी की आजीविका का आश्रय लेने से शूद्र कहे जाते हैं। धन-धान्य आदि सम्पत्ति एवं मकान मिल जाने पर गुरु की आज्ञा से अलग से आजीविका अर्जन करने से वर्ण की प्राप्ति या वर्ण लाभ होता है (40/189.190) / ' इसका तात्पर्य यही है कि वर्ण या जाति सम्बंधी भेद जन्म पर नहीं, आजीविका या वृत्ति पर आधारित हैं। भारतीय वर्ण व्यवस्था के पीछे एक मनोवैज्ञानिक आधार रहा है कि वैयक्तिक योग्यता अर्थात् स्वभाव के आधार पर ही व्यक्ति के सामाजिक दायित्वों (कर्मों) का निर्धारण करती है, जिससे इंकार नहीं किया जा सकता है। - अपनी स्वाभाविक योग्यता के आधार पर सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करने का समर्थन डॉ. राधाकृष्णन् और पाश्चात्य विचारक श्री गैरल्ड हर्ड ने भी किया है। मानवीय स्वभाव में ज्ञानात्मकता या जिज्ञासा-वृत्ति, साहस या नेतृत्व-वृत्ति, संग्रहात्मकता और शासित होने की प्रवृत्ति या सेवा भावना पाई जाती है। सामान्यतः, मनुष्यों में इन वृत्तियों का समान रूप से विकास नहीं होता है। प्रत्येक मनुष्य में इनमें से किसी एक का प्राधान्य होता है, दूसरी ओर सामाजिक दृष्टि से समाज-व्यवस्था में चार-प्रमुख कार्य हैं - 1. शिक्षण, 2. रक्षण, 3. उपार्जन और 4. सेवा। अतः, यह आवश्यक माना गया है कि व्यक्ति, अपने स्वभाव में जिस वृत्ति का प्राधान्य हो, उसके अनुसार सामाजिक व्यवस्था में अपना कार्य चुने। जिसमें बुद्धि नैर्मल्य और जिज्ञासावृत्ति हो, वह शिक्षण का कार्य करे, जिसमें साहस और नेतृत्व वृत्ति हो, वह रक्षण का कार्य करे, जिसमें विनियोग तथा संग्रह-वृत्ति हो, वह उपार्जन का कार्य करे और जिसमें दैन्यवृत्ति या सेवावृत्ति हो, वह सेवा कार्य करे। इस प्रकार जिज्ञासा, नेतृत्व, विनियोग और दैन्य की स्वाभाविक वृत्तियों के आधार पर शिक्षण, रक्षण, उपार्जन और सेवा के सामाजिक कार्यों का विभाजन किया गया और इसी आधार पर क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- ये वर्ण बने, अतः वर्ण व्यवस्था जन्म पर नहीं, अपितु स्वभाव (गुण) .. (64) Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं तदनुसार कर्म पर आधारित है। वास्तव में हिन्दू-आचार-दर्शन में भी वर्ण-व्यवस्था जन्म पर नहीं, वरन् कर्म पर ही आधारित है। गीता में श्रीकृष्ण स्पष्ट कहते हैं कि 'चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था का निर्माण गुण और कर्म के आधार पर ही किया गया है। डॉ. राधाकृष्णन् इसकी व्याख्या में लिखते हैं- यहां जोर गुण और कर्म पर दिया गया है, जाति (जन्म) पर नहीं। हम किस वर्ण के हैं, यह बात लिंग या जन्म पर निर्भर नहीं है, अपितु स्वभाव और व्यवसाय द्वारा निर्धारित होती है।' युधिष्ठिर कहते हैं- 'तत्त्वज्ञानियों की दृष्टि में केवल आचरण (सदाचार) ही जाति का निर्धारक तत्त्व है। ब्राह्मण न जन्म से होता है, न संस्कार से, न कुल से और न वेद के अध्ययन से, ब्राह्मण केवल व्रत (आचरण) से होता है।' प्राचीनकाल में वर्ण-व्यवस्था कठोर नहीं थी, अपितु लचीली थी वर्ण परिवर्तन का अधिकार व्यक्ति के अपने हाथ में था, क्योंकि आचरण या कर्म के चयन द्वारा परिवर्तित हो जाता था। उपनिषदों में वर्णित सत्यकाम जाबाल की कथा इसका उदाहरण है। सत्यकाम जाबाल की सत्यवादिता के आधार पर ही उसे ब्राह्मण मान लिया गया था। मनुस्मृति में भी वर्ण परिवर्तन का विधान है, उसमें लिखा है कि सदाचार के कारण शूद्र ब्राह्मण हो जाता है और दुराचार के कारण ब्राह्मण शूद्र हो जाता है। यही बात क्षत्रिय और वैश्य के सम्बंध में भी है। आध्यात्मिक दृष्टि से कोई एक वर्ण दूसरे वर्ण से श्रेष्ठ नहीं है, क्योंकि आध्यात्मिक विकास वर्ण पर निर्भर नहीं होता है। व्यक्ति स्वभावानुकूल किसी भी वर्ण के नियत कर्मों का सम्पादन करते हुए आध्यात्मिक पूर्णता या सिद्धि को प्राप्त कर सकता है। कोई भी कर्त्तव्य कर्म-हीन नहीं है समाज व्यवस्था में अपने कर्तव्य के निर्वाह हेतु और आजीविका के उपार्जन हेतु व्यक्ति को कौनसा व्यवसाय या कर्म चुनना चाहिए, यह बात उसकी योग्यता अथवा स्वभाव पर ही निर्भर करती है। यदि व्यक्ति अपने गुणों या योग्यताओं के प्रतिकूल व्यवसाय या सामाजिक कर्त्तव्य को चुनता है, तो उसके इस चयन से जहां उसके जीवन की सफ लता धूमिल होती है, वहीं समाज-व्यवस्था भी अस्त-व्यस्त होती है। आध्यात्मिक श्रेष्ठता इस बात पर निर्भर नहीं है कि व्यक्ति क्या कर रहा है या किन सामाजिक कर्तव्यों का पालन कर रहा है, वरन् इस बात पर निर्भर है कि वह उनका पालन किस निष्ठा और योग्यता के साथ कर रहा है। यदि एक शूद्र अपने कर्तव्यों का पालन पूर्ण निष्ठा और कुशलता से करता है, तो वह अनैष्ठिक और अकुशल ब्राह्मण (65) Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की अपेक्षा आध्यात्मिक दृष्टि से श्रेष्ठ है। गीता भी स्पष्टतया यह स्वीकार करती है कि व्यक्ति सामाजिक दृष्टि से स्वस्थान के निम्नस्तरीय कर्मों का सम्पादन करते हुए भी आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से उंचाइयों पर पहुंच सकता है। विशिष्ट सामाजिक कर्तव्यों के परिपालन से व्यक्ति श्रेष्ठ या हीन नहीं बन जाता है, उसकी श्रेष्ठता और हीनता का सम्बंध तो उसके सदाचरण एवं आध्यात्मिक विकास से है। दिगम्बर जैन आचार्य समन्तभद्र रत्नकरण्ड श्रावकाचार में लिखते हैं- सम्यक् दर्शन से युक्त चाण्डाल शरीर में उत्पन्न व्यक्ति भी तीर्थंकरों के द्वारा ब्राह्मण ही कहा गया है। - इसी प्रकार आचार्य रविषेण भी पद्मचरित में लिखते हैं कि कोई भी जाति गर्हित नहीं है, वस्तुतः गुण ही कल्याणकारक होते हैं। जाति से कोई व्यक्ति चाहे चाण्डाल कुल में ही उत्पन्न क्यों न हो, व्रत में स्थित होने पर ऐसे चाण्डाल को भी तीर्थंकरों ने ब्राह्मण ही कहा है", अतः ब्राह्मण जन्म पर नहीं, कर्म/सदाचार पर आधारित हैं। जैन मुनि चौथमलजी निर्ग्रन्थप्रवचनभाष्य में लिखते हैं कि एक व्यक्ति दुःशील, अज्ञानी व प्रकृति से तमोगुणी होने पर भी अमुक वर्ण में जन्म के कारण समाज में ऊंचा व आदरणीय समझा जाए व दूसरा व्यक्ति सुशील, ज्ञानी व सतोगुणी होने पर भी केवल जन्म के कारण नीच व तिरस्कृत समझा जाए, यह व्यवस्था समाज घातक है और मनुष्य की गरिमा व विवेकशीलता पर प्रश्नचिह्न लगाती है। इतना ही नहीं, ऐसा मानने से न केवल समाज के बहुसंख्यक भाग का अपमान होता है, प्रत्युत सदाचार व सद्गुण का भी अपमान होता है। इस व्यवस्था को अंगीकार करने से दुराचारी सदाचारी से ऊपर उठ जाता है, अज्ञान ज्ञान पर विजयी होता है तथा तमोगुण,सतोगुण के सामने आदरास्पद बन जाता है। यह ऐसी स्थिति है, जो गुण ग्राहक विवेकीजनों को सह्य नहीं हो सकती है। वास्तविकता तो यह है कि किसी जाति विशेष में जन्म ग्रहण करने का महत्त्व नहीं है, महत्त्व है व्यक्ति के नैतिक सदाचरण और वासनाओं पर संयम का। जैन विचारणा यह तो स्वीकार करती है कि लोक व्यवहार या आजीविका हेतु प्रत्येक व्यक्ति को रुचि व योग्यता के आधार पर किसी न किसी कार्य का चयन तो करना होगा। यह भी ठीक है कि विभिन्न प्रकार के व्यवसायों या कार्यों के आधार पर सामाजिक वर्गीकरण भी होगा। इस व्यावसायिक या सामाजिक व्यवस्था के क्षेत्र में होने वाले वर्गीकरण में न किसी को श्रेष्ठ, न किसी को हीन कहा जा सकता है। जैनाचार्यों के अनुसार मनुष्य प्राणीवर्ग की सेवा का कोई भी हीन कार्य नहीं है, यहां तक कि मल-मूत्र की सफाई करने वाला कहीं अधिक श्रेष्ठ है। जैन परम्परा में नन्दिषेणमुनि के सेवाभाव की गौरव गाथा लोक-विश्रुत (66) Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। जैन परम्परा में किसी व्यवसाय या कर्म को तभी हीन माना गया है, जब वह व्यवसाय या कर्म हिंसक या क्रूरतापूर्ण कार्यों से युक्त हो। जैनाचार्यों ने जिन जातियों या व्यवसायों को हीन कहा हैं, वे शिकारी, बधिक, चिड़ीमार, मच्छीमार आदि। किसी व्यक्ति की श्रेष्ठता का आधार आजीविका हेतु चुना गया व्यवसाय न होकर उसका आध्यात्मिक विकास या सद्गुणों का विकास है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है कि साक्षात् तप (साधना) का ही महत्त्व दिखाई देता है, जाति का कुछ भी नहीं। चाण्डाल-पुत्र हरकेशी मुनि को देखो, जिनकी प्रभावशाली ऋद्धि है। मानवीय समता जैनधर्म का मुख्य आधार है। उसमें हरकेशीबल जैसे चाण्डाल, अर्जुनमाली जैसे मालाकार, पूनिया जैसे धूनिया और शकडाल पुत्र जैसे कुम्भकार का भी वही स्थान है, जो स्थान उसमें इंद्रभूति जैसे वेदपाठी ब्राह्मण पुत्र, दशार्णभद्र एवं श्रेणिक जैसे क्षत्रिय नरेश, धन्ना व शालिभद्र जैसे समृद्ध श्रेष्ठी रत्नों का है। आत्मदर्शी साधक जैसे पुण्यवान् व्यक्ति को धर्म उपदेश करता है, वैसे ही तुच्छ (विपन्न, दरिद्र) को भी धर्म उपदेश करता है। सन्मार्ग की साधना में सभी मानवों को समान अधिकार प्राप्त है। धनी-निर्धन, राजा-प्रजा और ब्राह्मण-शूद्र का भेद जैन धर्म को मान्य नहीं है। भारतीय धर्मों में वर्ण एवं जाति व्यवस्था का ऐतिहासिक विकासक्रम मूलतः भारतीय संस्कृति में वर्णव्यवस्था एवं जातिव्यवस्था के विरुद्ध जैनधर्म : खड़ा हुआ था, किंतु कालक्रम में बृहत् हिन्दू-समाज के प्रभाव से उसमें भी वर्ण एवं जाति सम्बंधी अवधारणाएं प्रविष्ट हो गईं। जैन परम्परा में जाति और वर्ण व्यवस्था के उद्भव एवं ऐतिहासिक विकास का विवरण सर्वप्रथम आचारांगनियुक्ति (लगभग ईस्वी सन् दूसरी शती) में प्राप्त होता है। उसके अनुसार प्रारम्भ में मनुष्य जाति एक ही थी। ऋषभ के द्वारा राज्य-व्यवस्था का प्रारम्भ होने पर उसके दो विभाग हो गए- 1. शासक (स्वामी), 2. शासित (सेवक)। उसके पश्चात् शिल्प और वाणिज्य के विकास के साथ उसके तीन विभाग हुए- 1. क्षत्रिय (शासक), 2. वैश्य (कृषक एवं व्यवसायी) और 3. शूद्र (सेवक)। उसके पश्चात् श्रावक धर्म की स्थापना होने पर अहिंसक, सदाचारी और धर्मनिष्ठ व्यक्तियों को ब्राह्मण (माहण) कहा गया। इस प्रकार क्रमशः चार वर्ण अस्तित्व में आए। इन चार वर्णों के स्त्री-पुरुषों के समवर्णीय तथा अंतर्वर्णीय अनुलोम एवं प्रतिलोम संयोगों से सोलह वर्ण बने, जिनमें सात वर्ण और नौ अंतरवर्ण कहलाए। सात वर्ण में समवर्णीय स्त्री-पुरुष के संयोग से चार मूल वर्ण तथा ब्राह्मण पुरुष (67) Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं क्षत्रिय स्त्री के संयोग से उत्पन्न, क्षत्रिय पुरुष और वैश्य स्त्री के संयोग से उत्पन्न और वैश्य पुरुष और शूद्र स्त्री के संयोग से उत्पन्न- ऐसे अनुलोम संयोग से उत्पन्न तीन वर्णी आचारांगचूर्णि (ईसा की 7वीं शती) में इसे स्पष्ट करते हुए बताया गया है कि ब्राह्मण पुरुष एवं क्षत्राणी के संयोग से जो संतान होती है, वह उत्तम क्षत्रिय, शूद्र क्षत्रिय या संकर क्षत्रिय कही जाती है, यह पांचवा वर्ण है। इसी प्रकार, क्षत्रिय पुरुष और वैश्य स्त्री से उत्पन्न संतान उत्तम वैश्य, शुद्ध वैश्य या संकर वैश्य कही जाती है, यह छठवां वर्ण है . तथा वैश्य पुरुष एवं शूद्र स्त्री के संयोग से उत्पन्न संतान शुद्ध शूद्र या संकर शूद्र कही जाती है, यह सातवां वर्ण है। पुनः, अनुलोम और प्रतिलोम सम्बंधों के आधार पर निम्न नौ अंतर-वर्ण बने। ब्राह्मण पुरुष और वैश्य स्त्री से अम्बष्ठ' नामक आठवां वर्ण उत्पन्न हुआ। क्षत्रिय पुरुष और शूद्र स्त्री से 'उग्र' नामक नौवां वर्ण हुआ। ब्राह्मण पुरुष और शूद्र स्त्री से 'निषाद' नामक दसवां वर्ण उत्पन्न हुआ। शूद्र पुरुष और वैश्य स्त्री से 'अयोग' नामक ग्यारहवां वर्ण उत्पन्न हुआ। क्षत्रिय और ब्राह्मणी से सूत' नामक तेरहवां वर्ण हुआ शूद्र पुरुष और क्षत्रिय स्त्री से क्षत्रा' (खत्ता) नामक चौदहवां वर्ण उत्पन्न हुआ। वैश्य पुरुष और ब्राह्मण स्त्री के संयोग से 'वैदेह' नामक पंद्रहवां वर्ण उत्पन्न हुआ और शूद्र पुरुष तथा ब्राह्मण स्त्री के संयोग से 'चाण्डाल' नामक सोलहवां वर्ण हुआ। इसके पश्चात् इन सोलह वर्गों में परस्पर अनुलोम एवं प्रतिलोम संयोग से अनेक जातियां अस्तित्व में आईं। . उपर्युक्त विवरण में हम यह देखते हैं कि जैन धर्म के आचार्यों ने भी काल-क्रम में जाति और वर्ण की उत्पत्ति के संदर्भ में हिन्दू परम्परा की व्यवस्थाओं को अपने ढंग से संशोधित कर स्वीकार कर लिया। लगभग सातवीं सदी में दक्षिण भारत में हुए आचार्य जिनसेन ने लोकापवाद के भय से तथा जैन धर्म का अस्तित्व और सामाजिक सम्मान बनाए रखने के लिए हिन्दू वर्ण एवं जातिव्यवस्था को इस प्रकार आत्मसात् कर लिया कि इस सम्बंध में जैनों का जो वैशिष्ट्य था, वह प्रायः समाप्त हो गया जिनसेन ने सर्वप्रथम यह बताया कि आदि ब्रह्मा ऋषभदेव ने षट्कर्मों का उपदेश देने के पश्चात् तीन वर्णों (क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) की सृष्टि की। इसी ग्रंथ में आगे यह भी कहा गया है कि जो क्षत्रिय और वैश्य वर्ण की सेवा करते हैं; वे शूद्र हैं। इनके दो भेद हैं- कारू और अकारू। पुनः, कारू के भी दो भेद हैं- स्पृश्य और अस्पृश्या धोबी, नापित आदि स्पृश्य शूद्र हैं और चाण्डाल आदि जो नगर के बाहर रहते हैं, वे अस्पृश्य शूद्र हैं (आदिपुराण 16/184-186) / शूद्रों के कारु और अकारु तथा स्पृश्य एवं अस्पृश्य- ये भेद (68) Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वप्रथम पुराणकार जिनसेन ने किए हैं। उनके पूर्ववर्ती अन्य किसी जैन आचार्य ने इस प्रकार के भेदों को मान्य नहीं किया है, किंतु हिन्दू समाज व्यवस्था से प्रभावित बाद के जैन आचार्यों ने इसे प्रायः मान्य किया। षट्प्राभृत के टीकाकार श्रुतसागर ने भी इस स्पृश्य-अस्पृश्य की चर्चा की है। यद्यपि पुराणकार ने शूद्रों को एकशाटकव्रत अर्थात् क्षुल्लकदीक्षा का अधिकार मान्य किया था, किंतु बाद के दिगम्बर जैन आचार्यों ने उसमें भी कमी कर दी। श्वेताम्बर परम्परा में स्थानांगसूत्र (3/202) के मूल पाठ में तो केवल रोगी, भयार्त्त और नपुंसक की मुनि दीक्षा का निषेध था, किंतु परवर्ती टीकाकारों ने चाण्डालादि जातिजुंगित और व्याधादि कर्मजुंगित लोगों को दीक्षा देने का निषेध कर दिया, फिर भी यह सब जैन धर्म की मूल परम्परा के तो विरुद्ध ही था। जातीय अहंकार मिथ्या है जैनधर्म में जातीय मद और कुल मद को निंदित माना गया है। भगवान् महावीर के पूर्व-जीवनों की कथा में यह चर्चा आती है कि मारीचि के भव में उन्होंने अपने कुल का अहंकार किया था, फलतः उन्हें निम्न भिक्षुक कुल अर्थात् ब्राह्मणी माता के गर्भ में आना पड़ा है। आचारांग में वे स्वयं कहते हैं कि यह आत्मा अनेक बार उच्च गोत्र को और अनेक बार नीच गोत्र को प्राप्त हो चुका है, इसलिए वस्तुतः न तो कोई हीन/नीच है और न कोई अतिरिक्त/विशेष/उच्च है। साधक इस तथ्य को जानकर उच्च गोत्र की स्पृहा न करे। उक्त तथ्य को जान लेने पर भला कौन गोत्रवादी होगा? कौन * उच्च गोत्र का अहंकार करेगा? और कौन किस गोत्र/जाति विशेष में आसक्त चित्त होगा ? इसलिए, विवेकशील मनुष्य उच्च गोत्र प्राप्त होने पर हर्षित न हों और न नीच गोत्र प्राप्त होने पर कुपित/दुःखी हों। यद्यपि जैनधर्म में उच्च गोत्र एवं निम्न गोत्र की चर्चा उपलब्ध है, किंतु गोत्र का सम्बंध परिवेश के अच्छे या बुरे होने से है। गोत्र का सम्बंध जाति अथवा स्पृश्यता-अस्पृश्यता के साथ जोड़ना भ्रांति है। जैन कर्मसिद्धांत के अनुसार देवगति में उच्च गोत्र का उदय होता है और तिर्यंच मात्र में नीच गोत्र का उदय होता है, किंतु देवयोनि में भी किल्विषिक देव नीच एवं अस्पृश्यवत् होते हैं। इसके विपरीत, अनेक निम्न गोत्र में उत्पन्न पशु, जैसे- गाय, घोड़ा, हाथी बहुत ही सम्मान की दृष्टि से देखे जाते हैं, वे अस्पृश्य नहीं माने जाते। अतः, उच्च गोत्र में उत्पन्न व्यक्ति भी हीन और नीच गोत्र में उत्पन्न व्यक्ति भी उच्च हो सकता है, अत: गोत्रवाद की धारणा को प्रचलित जातिवाद तथा स्पृश्यास्पृश्य की धारणा के साथ नहीं जोड़ना चाहिए। भगवान् (69) Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर ने प्रस्तुत सूत्र में जाति-मद, गोत्र-मद आदि को निरस्त करते हुए यह स्पष्ट कह दिया है कि 'जब आत्मा अनेक बार उच्च-नीच गोत्र का स्पर्श कर चुका है, कर रहा है, तब फिर कौन ऊंचा है? कौन नीचा? ऊंच-नीच की भावना मात्र एक अहंकार है और अहंकार ‘मद' है। मद नीच गोत्र के बंधन का मुख्य कारण है। अतः, इस गोत्रवाद व मानवाद की भावना से मुक्त होकर जो उनमें तटस्थ रहता है, वही समत्वशील है, वही पण्डित है। मथुरा से प्राप्त अभिलेखों का जब हम अध्ययन करते हैं, तो हमें ज्ञात होता है कि न केवल प्राचीन आगमों से, अपितु इन अभिलेखों से भी यही फलित होता है कि जैन धर्म ने सदैव ही सामाजिक समता पर बल दिया है और जैनधर्म में प्रवेश का द्वार सभी जातियों के व्यक्तियों के लिए समान रूप से खुला रहा है। मथुरा के जैन अभिलेख इस तथ्य के स्पष्ट प्रमाण हैं कि जैन मंदिरों के निर्माण और जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा में धनी-निर्धन, ब्राह्मण-शूद्र सभी वर्गों, जातियों एवं वर्गों के लोग समान रूप से भाग लेते थे। मथुरा के अभिलेखों में हम यह पाते हैं कि लोहार, सुनार, गन्धी, केवट, लौहवणिक्, नर्तक और यहां तक कि गणिकाएं भी जिन मंदिरों का निर्माण व जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा करवाती थी। ज्ञातव्य है कि मथुरा के इन अभिलेखों में लगभग 60 प्रतिशत दानदाता उन जातियों से हैं, जिन्हें सामान्यतया निम्न माना जाता है। स्थूलिभद्र की प्रेयसी कोशा वेश्या द्वारा जैनधर्म अंगीकार करने की कथा तो लोकविश्रुत है ही। मथुरा के अभिलेखों में भी गणिका नादा द्वारा देवकुलिका की स्थापना भी इसी तथ्य को सूचित करती है कि एक गणिका भी श्राविका के व्रतों को अंगीकार करके उतनी ही आदरणीय बन जाती थी, जितनी कोई राज-महिषी। आवश्यकचूर्णि और तित्थोगाली प्रकीर्णक में वर्णित कोशा वेश्या का कथानक और मथुरा में नादा नामक गणिका द्वारा स्थापित देवकुलिका, आयगपट्ट आदि इस तथ्य के स्पष्ट प्रमाण हैं। जैन धर्म यह भी मानता है कि कोई दुष्कर्मा व दुराचारी व्यक्ति भी अपने दुष्कर्म का परित्याग करके सदाचारपूर्ण नैतिक-जीवन व व्यवसाय को अपनाकर समाज में प्रतिष्ठित बन सकता है। जैन साधना का राजमार्ग तो उसका है, जो उस पर चलता है, वर्ण, जाति या वर्ग विशेष का उस पर एकाधिकार नहीं है। जैन धर्म साधना का उपदेश तो वर्षा ऋतु के जल के समान है, जो ऊंचे पर्वतों, नीचे खेत-खलिहानों पर सुंदर महल व झोपड़ी पर समान रूप से बरसता है। जिस प्रकार बादल बिना भेद-भाव के सर्वत्र जल की वृष्टि करते हैं, उसी प्रकार मुनि को भी ऊंच-नीच, धनी-निर्धन का विचार किए वगैर सर्वत्र (70) Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मार्ग का उपदेश करना चाहिए। यह बात भिन्न है कि उसमें से कौन कितना ग्रहण करता है। जैन धर्म में जन्म के आधार पर किसी को निम्न या उच्च नहीं कहा जा सकता, हां वह इतना अवश्य मानता है कि अनैतिकआचरण करना अथवा क्रूर कर्म द्वारा अपनी आजीविका अर्जन करना योग्य नहीं है, ऐसे व्यक्ति अवश्य हीन कर्मा कहे गए हैं, किंतु वे अपने क्रूर एवं अनैतिक कर्मों का परित्याग करके श्रेष्ठ बन सकते हैं। ज्ञातव्य है कि आज भी जैन धर्म में और जैन श्रमणों में विभिन्न जातियों में व्यक्ति प्रवेश पाते हैं। मात्र यही नहीं, श्रमण जीवन को अंगीकार करने के साथ ही निम्न व्यक्ति भी सभी का उसी प्रकार आदरणीय बन जाता है, जिस प्रकार उच्चकुल या जाति का व्यक्तिा जैनसंघ में उनका स्थान समान होता है। यद्यपि मध्यकाल में हिन्दू परम्परा के प्रभाव से, विशेष रूप से दक्षिण भारत में जातिवाद का प्रभाव जैन समाज पर भी आया और मध्यकाल में मातंग आदि जाति-जुंगित (निम्न जाति) एवं मछुआरे, नट आदि कर्मजुंगित व्यक्तियों का श्रमण संस्था में प्रवेश अयोग्य माना गया जैन आचार्यों ने इसका कोई आगमिक प्रमाण न देकर मात्र लोकोपवाद का प्रमाण दिया, जो स्पष्ट रूप से इस तथ्य का सूचक है कि जैन परम्परा को जातिवाद बृहद् हिन्दू प्रभाव के कारण लोकोपवाद के भय से स्वीकारना पड़ा। इसी के परिणामस्वरूप दक्षिण भारत में विकसित जैन धर्म की दिगम्बर परम्परा में जो शूद्र की दीक्षा एवं मुक्ति के निषेध की अवधारणा आई, वह सब ब्राह्मण परम्परा के प्रभाव के कारण ही था। यद्यपि हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि दक्षिण में जो निम्न जाति के लोग जैनधर्म का पालन करते थे, वे इस सबके बावजूद जैनधर्म से जुड़े रहे और वे आज भी पंचम वर्ण के नाम से जाने जाते हैं। यद्यपि बृहद् हिन्दू समाज के प्रभाव के कारण जैनों ने अपने प्राचीन मानवीय समता के सिद्धांत का जो उल्लंघन किया, उसका परिणाम भी उन्हें भुगतना पड़ा और जैनों की जनसंख्या सीमित हो गई। विगत वर्षों में सद्भाग्य से जैनों में, विशेष रूप से श्वेताम्बर परम्परा में यह समतावादी दृष्टि पुन: विकसित हुई है। कुछ जैन आचार्यों के इस दिशा में प्रयत्न के फ लस्वरूप कुछ ऐसी जातियां, जो निम्न एवं क्रूरकर्मा समझी जाती थीं, न केवल जैन धर्म में दीक्षित हुईं, अपितु उन्होंने अपने हिंसक व्यवसाय को त्यागकर सदाचारी जीवन को अपनाया है। विशेष रूप से खटिक और बलाई जातियां जैन धर्म से जुड़ी हैं। खटिकों (हिन्दू-कसाइयों) के लगभग पांच हजार परिवार समीर मुनिजी की विशेष प्रेरणा से अपने हिंसक व्यवसाय और मदिरा का सेवन आदि व्यसनों का परित्याग करके जैन धर्म (71) Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से जुड़े और ये परिवार आज न केवल समृद्ध व सम्पन्न हैं, अपितु जैन समाज में भी बराबरी का स्थान पा चुके हैं। इसी प्रकार बलाइयों (हरिजनों) का भी एक बड़ा तबका मालवा में आचार्य नानालालजी की प्रेरणा से मदिरा सेवन, मांसाहार आदि त्यागकर जैनधर्म से जुड़ा और एक सदाचारपूर्ण जीवन व्यतीत करने को प्रेरित हुआ है, ये इस दिशा में अच्छी उपलब्धि है। कुछ अन्य श्वेताम्बर एवं दिगम्बर जैन आचार्यों एवं मुनियों ने भी बिहार प्रांत में सराक जाति एवं परस्पर क्षत्रियों को जैन धर्म से पुनः जोड़ने के सफल प्रयत्न किए हैं। आज भी अनेक जैनमुनि सामान्यतया निम्न कही जाने वाली जातियों से दीक्षित हैं और जैन संघ में समान रूप से आदरणीय हैं। इससे यह प्रमाणित होता है कि जैनधर्म सदैव ही सामाजिक समता का समर्थक रहा है। वर्णव्यवस्था के संदर्भ में जो चिंतन हुआ, उसके निष्कर्ष निम्न हैं 1. सम्पूर्ण मानव जाति एक ही है, क्योंकि उसमें जातिभेद करने वाला ऐसा कोई भी स्वाभाविक लक्षण नहीं पाया जाता है, जो कि एक जाति के पशु से दूसरे जाति के पशु में अंतर होता है। 2. प्रारम्भ में मनुष्य जाति एक ही थी। वर्ण एवं जातिव्यवस्था स्वाभाविक योग्यता के आधार पर सामाजिक कर्तव्यों के कारण और आजीविका हेतु व्यवसाय को अपनाने के कारण उत्पन्न हुई। जैसे-जैसे आजीविका अर्जन के विविध स्त्रोत विकसित होते गए, वैसे-वैसे मानव समाज में विविध जातियां अस्तित्व में आती गईं, किंतु ये जातियां मौलिक नहीं हैं, मात्र मानव सृजित हैं। 3. जाति और वर्ण का निर्धारण जन्म के आधार पर न होकर व्यक्ति के शुभाशुभ आचरण एवं उसके द्वारा अपनाए गए व्यवसाय द्वारा होता है, अतः वर्ण और जाति व्यवस्था जन्मना नहीं, अपितु कर्मणा है। 4. यदि जाति और वर्णव्यवस्था सामाजिक दायित्व पर स्थित है, तो ऐसी स्थिति में सामाजिक कर्त्तव्य और व्यवसाय के परिवर्तन के आधार पर जाति एवं वर्ण में परिवर्तन सम्भव है। 5. कोई भी व्यक्ति किसी जाति या परिवार में उत्पन्न होने के कारण हीन या श्रेष्ठ नहीं होता, अपितु वह अपने सत्कर्मों के आधार पर श्रेष्ठ होता है। 6. जाति एवं कुल की श्रेष्ठता का अहंकार मिथ्या है। उसके कारण सामाजिक समता एवं शांति भंग होती है। 7. जैनधर्म के द्वार सभी वर्ण और जातियों के लिए समान रूप से खुले रहे हैं। (72) Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्तर के जैन ग्रंथों से यह संकेत मिलता है कि उसमें चारों ही वर्गों और सभी जातियों के व्यक्ति जिन-पूजा करने, श्रावक धर्म एवं मुनिधर्म का पालन करने और साधन के सर्वोच्च लक्ष्य निर्वाण को प्राप्त करने के अधिकारी माने गए थे। सातवींआठवीं सदी में जिनसेन ने सर्वप्रथम शद्र को मुनि दीक्षा और मोक्ष प्राप्ति के अयोग्य माना। श्वेताम्बर आगमों में कहीं शूद्र की दीक्षा का निषेध नहीं है, स्थानांग में मात्र रोगी, भयार्त्त और नपुंसक की दीक्षा का निषेध है, किंतु आगे चलकर उनमें भी जातिजुंगित, जैसे-चाण्डाल आदि और कर्मजंगित, जैसे- कसाई आदि की दीक्षा का निषेध कर दिया गया, किंतु यह बृहत्तर हिन्दू परम्परा का प्रभाव ही था, जो कि जैनधर्म के मूल सिद्धांत के विरुद्ध था, जैनों ने इसे केवल अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा को बनाए रखने हेतुं मान्य किया, क्योंकि आगमों में हरकेशीबल, मैतार्य, मातंगमुनि आदि अनेक चाण्डालों के मुनि होने और मोक्ष प्राप्त करने के उल्लेख हैं। 8. प्राचीन जैनागमों में मुनि के लिए उत्तम, मध्यम और निम्न- तीनों ही कुलों से भिक्षा ग्रहण करने का निर्देश मिलता है। इससे यही फलित होता है कि जैनधर्म में वर्ण या जाति का कोई भी महत्त्व नहीं था। 9. जैनधर्म यह स्वीकार करता है कि मनुष्यों में कुछ स्वभावगत भिन्नताएं सम्भव हैं, जिनके आधार पर उनके सामाजिक दायित्व एवं जीविकार्जन के साधन भिन्न होते हैं, फिर भी वह इस बात का समर्थक है कि सभी मनुष्यों को अपने सामाजिक दायित्वों एवं आजीविका अर्जन के साधनों को चयन करने की पूर्ण स्वतंत्रता और सामाजिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक क्षेत्र में विकास के समान अवसर उपलब्ध होने चाहिए, क्योंकि ये ही सामाजिक समता के मूल आधार हैं। . संदर्भ - 1. ब्राह्मणाऽस्य मुखमासीद्वाहू राजन्यः कृतः। ऊरु तदस्य यद्वैश्यः पदभ्यां शूद्रो अजायत् / / - ऋग्वेद, 10/90/12, सं. दामोदर सातवलेकर, बालसाड, 1988 अभिधानराजेंद्रकोश, खण्ड 4, पृ. 1441 चत्वार एकस्य पितुः सुताश्चेत्तेषां सुतानां खलु जातिरेका / एवं प्रजानां च पितैक एवं पित्रैकभावाद्य न जातिभेदः / / फलान्यथोदुम्बर वृक्षजातेर्यथाग्रमध्यान्त भवानि यानि / (73) 3. Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूपाक्षतिस्पर्शसमानि तानि तथैकतो जातिरपि प्रचिन्त्या॥ न ब्राह्मणाश्चन्द्रमरीचिशुभ्रा न क्षत्रियाः किंशुकपुष्पगौराः / न चेह वैश्या हरितालतुल्याः शूद्रा न चाड्गार समानवर्णाः // - वरांगचरित, सर्ग 25, श्लोक 3, 4, 7 - जटासिंहनन्दि, संपा. ए.एन.उपाध्ये, बम्बई 1938 ये निग्रहानुग्रहयोरशक्ता द्विजा वराकाः परपोष्यजीवाः। मायाविनो दीनतमा नृपेभ्यः कथं भवन्त्युत्तमजातयस्ते॥ . . तेषां द्विजानां मुख निर्गतानि वचांस्यमोघान्यघनाशकानि। . इहापि कामान्स्वमनः प्रक्लप्तान लभन्त इत्येव मृषावचस्तत् / / यथानटो रंगमुपेत्य चित्रं नृत्तानुरूपानुपयाति वेषान् / जीवस्तथा संसृतिरंगमध्ये कर्मानुरूपानुपयाति भावान् // न ब्रह्मजातिस्त्विह काचिदस्ति न क्षत्रियो नापि च वैश्यशूद्रे। ततस्तू कर्मानुवशा हितात्मा संसार चक्रे परिवंभ्रमीति // आपातकत्वाच्च शरीरदाहे देहं न हि ब्रह्म वदन्ति तज्झाः। ज्ञानं च न ब्रह्म यतो निकृष्ट शूद्रोऽपि वेदाध्ययनं करोति // विद्याक्रिया चारु गुणैः प्रहीणो न जातिमात्रेण भवेत्स विप्रः। ज्ञानेन शीलेन गुणेन युक्त तं ब्राह्मणं ब्रह्मविदो वदन्ति / / __- वही, सर्ग 25, श्लोक 33, 34, 40-43 .. जे लोए बम्भलो वुत्तो, अग्गी वा महिओ जहा।' सया कुसलसंदिटुं, तं वयं बूम माहणं // जो न सज्जइ आगन्तुं, पव्वयन्तो न सोयई। . रमइ अज्जवयणंमि, तं वयं बूम माहणं॥ जायरूवं जहामट्ठ, निद्धन्तमलपावगं / रागद्दोसभयाईयं, तं वयं बूम माहणं // तवस्स्यिं किसं दन्तं अवचियर्मससोणियं / सुव्वयं पत्तनिव्वाणं, तं वयं बूम माहणं // तसपाणे वियाणेत्ता, संगहेण य थावरे। जो न हिंसइ तिविहेणं, तं वयं बूम माहणं / / कोहा वा जइ वा हासा, लोहा वा जइ वा भया। (74) Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुसं न वयई जो उ, तं वयं बूम माहणं / / चित्तमन्तमचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहुं / न गेण्हाइ अदत्तं जे, तं वयं बूम माहणं // दव्वमाणुसतेरिच्छं, जो न सेवइ मेहुणं। मणसा कायवक्केणं, तं वयं बूम माहणं / जहा पोमं जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा। एवं अलित्तं कामेहिं तं वयं बूम माहणं / / अलोलुयं मुहाजीवी, अणगारं अकिंचणं / असंसत्तं गिहत्थेसु तं वयं बूम माहणं / / जहित्ता पुव्वसंजोगं, नाइसंगे य बन्धवे। जो न सज्जइ भोगेसुं, तं वयं बूम माहणं / - उत्तराध्ययनसूत्र, संपादक-साध्वी चंदना, 25/19-29 वारिपोक्खरपत्ते व आरग्गेरिव सासपो। यो न लिप्पति कामेसु तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं // यो दुक्खस्स पजानाति इधेव खयमत्तनो। पन्नभारं विसञत्तं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं // गम्भीर पझं मेधाविं मग्गामग्गस्स कोविदं। उत्तमत्थं अनुप्पत्तं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं // - धम्मपद, ब्राह्मणवर्ग, 401-403, संपादक-भिक्षुधर्मरक्षित, 1983 शुद्रोऽपि शीलसंपन्नो गुणवान् ब्राह्मणो भवेत्। ब्राह्मणोऽपि क्रियाहीनः शूद्रापत्यसमो भवेत् // अतः - सर्वजातिषु चाण्डालाः सर्वजातिषु ब्राह्मणाः / ब्राह्मणेष्वपि चाण्डालाः चाण्डालेष्वपि ब्राह्मणाः // कृषि-वाणिज्य-गोरक्षां राजसेवामकिंचनाः / ये च विप्राः प्रकृर्वन्ति न ते कौन्तेय ! ब्राह्मणाः / / 3 / / हिंसकोऽनृतवादी च यौर्ययाभिरतश्च यः / परदारोपसेवी च सर्वे ते पतिता द्विजाः // ब्रह्मचर्यतपोयुक्ताः समानलोष्टकांचनाः / सर्वभूतदयावन्तो ब्राह्मणाः सर्वजातिषु // (75) Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षान्त्यादिकगुणैर्युक्तो व्यस्तदण्डो निरामिषः / न हन्ति सर्वभूतानि प्रथमं ब्रह्मलक्षणम् / / सदा सर्वानृतं त्यक्तवा मिथ्यावादाद् विरच्यते / नातृतं च वेदद् वाक्यं द्वितीयं ब्रह्मलक्षणम् / / सदा सर्व परद्रव्यं बहिर्वा यदि वा गृहे। अदत्तं नैव गृहाति तृतीयं ब्रह्मलक्षणम् // .. देवासुरमनुष्येषु तिर्यग्योनिगतेषु च। . न सेवते मैथुनं यश्चचतुर्थं ब्रह्मलक्षणम् / / त्यक्तवा कुटुम्बवासं तु निर्ममो निः परिग्रहः। युक्तश्चरति निः सड्गः पंचमं ब्रह्मलक्षणम् // . पंचलक्षणसंपूर्ण ईशो यो भवेद् द्विजः / महान्तं ब्राह्मणं मन्ये शेषाः शूद्रा युधिष्ठिर ! // कैवर्तीगर्भसम्भूतो व्यासो नाम महामुनिः / तपसा ब्राह्मणो जातस्तस्माजातिरंकारणम् / / हरिणीगर्भसम्भूतो ऋषिश्रृंड्गो महामुनिः / तप / / शुनकीगर्भसम्भूतः शुको नाम मुस्तिथा / तप॥ . मण्डूकीगर्भसम्भूतो माण्डव्यश्च महामुनिः / तप // उर्वशीगर्भसम्भूतो वशिष्ठस्तु महामुनिः / तप / / न तेषां ब्राह्मणी माता संस्कारश्च न विद्यते / तप॥ यद्वत्काष्ठमयो हस्ती यद्वच्चर्ममयो मृगः। ब्राह्मणस्तु कियाहीनस्त्रस्ते नामधारकाः // - कुमारपालचरित्रसंग्रह के अंतर्गत कुमारपाल प्रबोध, पृ.606, श्लोक 119-136, संपादक - जिनविजयमुनि, प्रकाशक-सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ, भारतीय विद्याभवन, बम्बई, विक्रम संवत् 2013 / कम्मुणा बम्भणो होइ कम्मुणा होइ खत्तिओ। वइस्से कम्मुणाहोइ सुद्दो हवइ कम्मुणा / / - उत्तराध्ययनसूत्र, 25/33 मनुष्यजातिरेकैव जातिनामोदयोद्भवा। वृत्तिभेदाहिताद्भेदाच्चातुर्विध्यमिहाश्नुते / / 38-45 (76) 8. Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. ब्राह्मणा व्रतसंस्कारात् क्षत्रयाः शस्त्रधारणात् / / वणिजोऽर्थार्जनान्नयाय्यात शूद्रा न्यग्वृत्तिसंश्रयात् / / 38-46 / / गुरोरनुज्ञया लब्धधनधान्यादिसम्पदः / पृथक्कृतालयस्यास्यै वृत्तिर्वर्णाप्तिरिस्यते // 38-137 / / सृष्टयन्तरमतो दूरं अपास्य नयतत्त्ववित् / अनादिक्षत्रियैः सृष्टां धर्मसृष्टि प्रभावयेत् / / 40-189 / / तीर्थकृद्रियं सृष्टा धर्मसृष्टिः सनातनी। . तां संश्रितान्नृपानेव सृष्टिहेतून् प्रकाशयेत् / / 40-190 / / - महापुराण, जिनसेन, 38/45-46, 137, 189, 190 10. भगवद्गीता, डॉ. राधाकृष्णन, पृ. 353 . 11. चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः। - गीता, 4/13 भगवद्गीता राधाकृष्णन, पृ. 163 राजन् कुलेन वृत्तेन स्वाध्यायेन श्रुतेन वा। ब्राह्मण्यं केन भवित प्रबुह्येतत् सुनिश्चितम् / / 3/3/107 / / श्रुणु यक्ष कुलं तात न स्वाध्यायो न च श्रुतम्। कारणं हि द्विजत्वे च वृत्तमेव न संशयः / / - महाभारत, वनपर्व, 313/107, 108 गीता प्रेस, गोरखपुर . 14. देखें - छान्दोग्योपनिषद् (गीता प्रेस, गोरखपुर) 4/4 शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम्। क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्याद्वैश्चात्तथैव च // __- मनुस्मृति 10/65, सं. सत्यभूषण योगी, 1966 16. सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातंगदेहजम् / देवा देवं विदुर्भस्मगूढांगारान्तरौजसम्॥ - रत्नकरण्डकश्रावकाचार, 28 : 17. न जातिर्गर्हिता काचित् गुणाः कल्याणकारणम् / व्रतस्थमपि चाण्डालं तं देवा ब्राह्मणं विदुः / / - पद्मचरित, पर्व, 11/203 निर्गन्थप्रवचनभाष्य - मुनि श्री चौथमलजी, पृ. 289 19. सक्खं खुदीसइ तवो विसेसो, न दीसई जाइ विसेस कोइ। (77) 18. Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोवागपुत्ते हरिएस साहू, जस्से इडि महाणुभागा॥ - उत्तराध्ययनसूत्र, 12/37 . 20. जहा पुण्णस्स कत्थति तहा तुच्छस्स कत्थति। जहा तुच्छस्स कत्थति तहा पुण्णस्स कत्थति // - आचारांग, सं. मधुकर मुनि, 1/2/6/102 21.अ. एक्का मणुस्सजाई रज्जुप्पत्तीइ दो कया उसभे। तिण्णेव सिप्पवणिए सावगधम्मम्मि चत्तारि // संजोग सोलसगं सत्त य वण्ण उ नव य अंतरिणो। एए दोवि विगप्पा ठवणा बंभस्स णायव्वा // पगई चउक्कगाणंतरे य ते हुंति सत्त वण्णा उ। . आणंतरेसु चरमो एण्णे खलु होइ णायव्वो।। अंबटुग्गनिसाया य अजोगवं मागहा य सूया य / खत्ता (य) विदेहाविय चंडाला नवमगा हुंति / / एगंतरिए इणमो अंबट्ठो चेव होइ उग्गो य। बिइयंतयरिअ निसाओ परासरं तं च पुण वेगे॥ , ' पडिलोमे सुद्दाई अजोगवं मागहो य सूओ अ। . एगंतरिए खत्ता वेदेहा चेव नायव्वा॥ बितियंतरे नियमा चण्डालो सोऽवि होइ णायव्वो। अणुलोमे पडिलोमे एवं एए भवे भेया॥ उग्गेणं खत्ताए सोवागो वेणवो विदेहेणं / अंबठ्ठीए सुद्दीय बुक्कसो जो निस्साएणं॥ . सूएण निसाईए कुक्करओ सोवि होइ णायव्वो। एसो बीओ भेओ चउव्विहो होइ णायव्वो ॥-आचारांगनियुक्ति, 19-27 21. ब. “एगा मणुस्सजाई गाहा (19-8) एत्थ उसभसामिस्स' पुन्वभवजम्मणअहिसेयचक्कवट्ठिरायाभिसेगाति, तत्थ जे . रायअस्सिता ते य खत्तिया जाया अणस्सिता गिवइणो जाया, जया अग्गी उप्पण्णो ततो य भगवऽस्सिता सिप्पिया वाणिगया जाया, तेहिं तेहिं सिप्पवाणिज्जेहिं वित्तिं विसंतीती वइस्सा उप्पन्ना, भगवए पव्वइए भरहे अभिसित्ते सागधम्मे उप्पण्णे बंभणा, अणस्सिता. (78) Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंभणा जाया माहणति, उज्जुगसभावा धम्मपियां जं च किंचि हणंतं पिच्छंति तं निवारंति मा हण भो मा हण, एवं ते जणेणं सुकम्मनिवत्तितसन्ना बंभणा (माहणा) जाया, जे पुण अणस्सिया असिप्पणो ते वयख (क) लासुइबहिकआ तेसु तेसु पओयणेसु सोयमाणा हिंसाचोरियादिसु सज्जमाणा सोगद्रोहणसीला सुद्दा संवुत्ता, एवं तावं चत्तारिवि वण्णा ठााविता, सेसाओ संजोएणं तत्थ संजोए सोलसयं गाहा (20-8) एतेसिं चेव च उण्हं वण्णाणं पुव्वाणुपुव्वीए अणंतरसंजोएणं अण्णे तिण्णि वण्णा भवंति, तत्थ ‘पयती चउक्कयाणंतरे' गाहा (21-8) पगती णाम बंभखत्तियवइससुद्दा चउरो वण्णा। इदाणिं अंतरेण-बंभणेणं खत्तियाणीए जाओ सो उत्तमखत्तिओ वा सुद्धखत्तिओ वा अहवा संकरखत्तिओ पंचमो वण्णो, जो पुण खत्तिएणं वइस्सीए जाओ एसो उत्तमवइस्सो वा सुद्धवइस्सो वा संकरवइस्सो या छट्ठो वण्णो, जो वइस्सेण सुद्दीए जातो सो उत्तमसुद्दो वा (सुद्धसुद्दो) वा संकरसुद्दो वा सत्तमो वण्णो। इदाणिं वण्णेणं वण्णेहिं वा अंतरितो अणुलोमओ पडिलोमतो य अंतरा सत्त वण्णंतरया भवंति, जे. अंतरिया ते एगंतरिया दुअरिया भवंति। चत्तारि गाहाओ पढियव्वाओ (22, 23, 24, 25-8) तत्थ ताव बंभणेणं वइस्सीए जाओ अंबह्रोत्ति वुच्चइ एसो अट्ठमो वण्णो, खत्तिएणं सुंदीए जातो उग्गोत्ति वुच्चइ एसो नवमो वण्णो, बंभणेण सुद्दीए निसातोत्ति वुच्चइ, कित्तिपारासवेत्ति, तिण्णि गया, दसमो वण्णो। इदाणिं पडिलोमा भण्णंति-सुद्देण वइस्सीए जाओ अउगवुत्ति भण्णइ, एक्कारसमो वण्णो, वइस्सेणं खत्तियाणीए जाओ मागहोत्ति भण्णइ, दुवालसमो, खत्तिएणं बंभणीए जाओ सओत्ति भण्णति, तेरसो वण्णो सुद्देण खत्तियाणीए जाओ खत्तिओत्ति भण्णइ . चोद्दसमो, वइस्सेण बंभणीए जाओ वैदेहोत्ति भण्णति, पन्नरसमो वण्णो, सुद्देण बंभणीए जाओ चंडालेत्ति पवुच्चइ, सोलसमो वण्णो, एतवूतिरित्ताजेते बिजाते ते वच्चंति-उग्गेण खत्तियाणिए सोवागेत्ति वुच्चइ, वैदेहेणं खत्तीए जाओ वेणवुत्ति वुच्चइ, निसाएणं (79) Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंबट्टीए जाओ बोक्कसोत्ति वुच्चइ, निसाएण सुद्दीए जातो सोवि बोक्कसो, सुद्देण निसादीए, कुक्कुडओ एवं सच्छंदमतिविगप्पितं। 22. क्षत्रियाः शस्त्रजीवित्वं अनुभूय तदाभवन् / वैश्याश्च कृषिवाणिज्यपशुपाल्योपजीविताः / तेषां शुश्रूषणाच्छूद्रास्ते द्विधा कार्वकारवः / . कारवो राजकाद्याः स्युस्ततोऽन्ये स्थुरकारवः // कारवोऽपि मता द्वेधा स्पृश्यास्पृश्यविकल्पतः। तत्रास्पृश्याः प्रजावास्याः स्पृश्याः स्यु कर्त्तकादयः // .. - आदिपुराण, 16/184-186 23. ततो णो कप्पंति पव्वावेत्तए, तं-पंडए वीत्ते (चाहिए) कीवे ? 24. यदाह -- '3 बाले बुड़े नपुंसे य, जड्डे कीवे य वाहिए। तेणे रायावगारीय, उम्मत्ते य अंदसणे // 1 // . . दासे दुढे (य) अणत्त जुंगिए इय। ओबद्धए य भयए, सेहनिप्फेडिया इय / / 2 / / स्थानांगसूत्रम, अभयदेवसूरिवृत्ति, (प्रकाशक-सेठ माणेकलाल, चुन्नीलाल, अहमदाबाद, . विक्रम संवत् 1994) सूत्र 3/202, वृत्ति, पृ. 154 से असई उच्चागोए असंइ णीयागोए। णो हीणे णो अइरिते णो पीहए॥ , इतिसंखाय के गोतावादी, के माणावादी, कंसि वा एगे गिज्झे? तम्हापंडिते णो हरिसे णो कुज्झे। - आचारांग, (सं. मधुकरमुनि),1/2/3/75 जैन शिलालेख संग्रह, भाग 2, संग्रहकर्ता-विजयमूर्ति, लेख क्रमांक 8, 31, 41, 54, 62, 67, 69. 27. अ. आवश्यकचूर्णि, जिनदासगणि, ऋषभदेव केसरीमल संस्था, रतलाम, भाग 1, पृ.554 ब. भक्तपरिज्ञा, 128 स. तित्थोगालिअ, 777 28. आचारांग, सं.मधुकरमुनि, 1/2/6/102. 25. 26. . (80) Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय संस्कृति में साधना और सेवा का सह-संबंध सामान्यतया साधना व्यक्तिगत और सेवा समाजगत है। दूसरे शब्दों में साधना का संबंध व्यक्ति स्वयं से होता है, अतः वह वैयक्तिक होती है, जबकि सेवा का संबंध दूसरे व्यक्तियों से होता है, अतः उसे समाजगत कहा जाता है। इसी आधार पर कुछ विद्वानों की यह धारणा है कि साधना और सेवा एक-दूसरे से निरपेक्ष हैं। इनके बीच किसी प्रकार का सह-संबंध नहीं है। किंतु मेरी दृष्टि में साधना और सेवा को एक-दूसरे से निरपेक्ष मानना उचित नहीं है, वे एक-दूसरे की पूरक हैं, क्योंकि व्यक्ति अपने आप में केवल व्यक्ति ही नहीं है, वह समाज भी है। व्यक्ति के अभाव में समाज की परिकल्पना जिस प्रकार आधारहीन है, उसी प्रकार समाज के अभाव में व्यक्ति विशेष रूप से मानव व्यक्ति का भी कोई अस्तित्व नहीं है, क्योंकि न केवल मनुष्यों में अपितु किसी सीमा तक पशुओं में भी एक सामाजिक व्यवस्था देखी जाती है। वैज्ञानिक अध्ययनों से यह सिद्ध हो चुका है कि चींटी और मधुमक्खी जैसे क्षुद्र प्राणियों में भी एक सामाजिक व्यवस्था होती है। अतः यह सिद्ध है कि व्यक्ति और समाज एक-दूसरे से निरपेक्ष नहीं है। यदि व्यक्ति और समाज परस्पर सापेक्ष है और उनके बीच कोई सह-संबंध है तो फि र हमें यह भी मानना होगा कि साधना और सेवा भी परस्पर सापेक्ष है और उनके बीच भी एक सह-संबंध है। जैन दर्शन में व्यक्ति की सामाजिक प्रकृति का चित्रण करते हुए स्पष्ट रूप से यह माना गया है कि पारस्परिक सहयोग प्राणीय प्रकृति है। इस संदर्भ में जैन दार्शनिक उमास्वाति ने तत्वार्थसूत्र में एक सूत्र दिया है- परस्परोपग्रहोजीवानम् (5/20) अर्थात् एक-दूसरे का हितसाधन करना प्राणियों की प्रकृति है। प्राणी जगत् में यह एक. स्वाभाविक नियम है कि वे एक-दूसरे के सहयोग या सह-संबंध के बिना जीवित नहीं रह सकते। दूसरे शब्दों में कहें तो जीवन का कार्य है-दूसरे के जीवित जीने में एक-दूसरे का सहयोगी बनना। जीवन एक-दूसरे के सहयोग से ही चलता है, अतः एक-दूसरे का सहयोग करना प्राणियों का स्वाभाविक धर्म है। कुछ विचारकों का यह सोचना है कि व्यक्ति स्वभावतः स्वार्थी है, वह केवल अपना हित चाहता है, किंतु यह एक भ्रान्त अवधारणा है- यदि व्यक्ति और समाज (81) Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक-दूसरे से निरपेक्ष नहीं है, तो हमें यह मानना होगा कि व्यक्ति के हित में ही समाज का हित और समाज के हित में ही व्यक्ति का हित समाया हुआ है। दूसरे शब्दों में सामाजिक-कल्याण और वैयक्तिक-कल्याण एक-दूसरे से पृथक नहीं है। .. ___ यदि व्यक्ति समाज का मूलभूत घटक है तो हमें यह मानना होगा कि समाज के कल्याण में व्यक्ति का कल्याण भी निहित है। व्यक्तियों के अभाव में समाज का अस्तित्व नहीं है। समाज के नाम पर जो कुछ किया जाता है या होता है उसका सीधा लाभ तो व्यक्ति को ही होता है। जैन दर्शन की मूलभूत अवधारणा सापेक्षवाद है। उसका यह स्पष्ट चिंतन है कि व्यक्ति के बिना समाज और समाज के बिना व्यक्ति संभव ही नहीं है। व्यक्ति समाज की कृति है उसका निर्माण समाज की कार्यशाला में ही होता है। हमारा वैयक्तिक विकास, भाषा, सभ्यता एवं संस्कार समाज का परिणाम है। पुनः समाज भी व्यक्तियों से ही निर्मित होता है। अतः व्यक्ति और समाज में हम अंग-अंगी संबंध देखते हैं, किंतु यह संबंध ऐसा है जिसमें एक के अभाव में दूसरे की सत्ता ही नहीं रहती है। इस समस्त चर्चा से यही सिद्ध होता है कि व्यक्ति और समाज एक-दूसरे में अनुस्यूत हैं। एक के बिना दूसरे की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। यदि यह सत्य है तो हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि सेवा और साधना में परस्पर सह-संबंध है। आगे इस प्रश्न पर और अधिक गंभीरता से चर्चा करेंगे। साधना और सेवा के इस सह-संबंध की चर्चा में सर्वप्रथम हमें यह निश्चित करना होगा कि साधना का प्रयोजन या उद्देश्य क्या है?यह तो स्पष्ट है कि साधना वह प्रक्रिया है जो साधक को साध्य से जोड़ती है। वह साध्य और साधक के बीच एक योजक कड़ी है। साधना, साधन के क्रियान्वयन की एक प्रक्रिया है। अतः बिना साध्य के उसका कोई अर्थ नही रह जाता है। साधना में साध्य ही प्रमुख तत्व है। अतः सबसे पहले हमें यह निर्धारित करना होगा कि साधना का वह साध्य क्या है ?जिसके लिए साधना की जाती है। दार्शनिक दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति स्वरूपतः असीम या पूर्ण है, किंतु उसकी यह तार्किक पूर्णता किन्हीं सीमाओं में सिमट गई है। असीम होकर के भी उसने अपने को ससीम बना लिया है, जिस प्रकार मकड़ी स्वयं ही अपना जाल बुनकर उसी घेरे में सीमित हो जाती है या बंध जाती है, उसी प्रकार वैयक्तिक चेतना (आत्मा) भी आकाक्षाओं या ममत्व के घेरे में अपने को सीमित कर बंधन में आ जाती है। वस्तुतः सभी भारतीय धर्मों और साधना-पद्धतियों का मूलभूत लक्ष्य है- व्यक्ति को ममत्व के इस संकुचित घेरे से निकालकर पुनः उसे अपनी अनन्तता या पूर्णता प्रदान करना है। (82) Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरे शब्दों में कहें तो संपूर्ण धर्मों और साधना-पद्धतियों का उद्देश्य आकांक्षा एवं ममत्व के घेरे को तोड़कर अपने को पूर्णता की दिशा में आगे ले जाना है। जिस व्यक्ति के ममत्व का घेरा जितना संकुचित या सीमित होता है वह उतना ही क्षुद्र होता है। इस ममत्व के घेरे को तोड़ने का सहजतम उपाय है- इसे अधिक से अधिक व्यापक बनाया जाए। जो व्यक्ति केवल अपने दैहिक हित-साधन का प्रयत्न या पुरुषार्थ करता है, उसे निकृष्ट कोटि का व्यक्ति कहते है। ऐसे व्यक्ति स्वार्थी होते हैं। किंतु जो व्यक्ति अपनी दैहिक वासनाओं से ऊपर उठकर परिवार या समाज के कल्याण की दिशा में प्रयत्न या पुरुषार्थ करता है उसे उतना ही महान् कहा जाता है। वैयक्तिक हितों से पारिवारिक हित, पारिवारिक हितों से सामाजिक हित, सामाजिक हितों से राष्ट्रीय हित, राष्ट्रीय हितों से मानवीय हित और मानवीय हितों से प्राणी-जगत् के हित श्रेष्ठ माने जाते हैं। जो व्यक्ति इनमें उच्च, उच्चतर और उच्चतम की दिशा में जितना आगे बढ़ता है उसे उतना ही महान् कहा जाता है। किसी व्यक्ति की महानता की कसौटी यही है कि वह कितने व्यापक हितों के लिए कार्य करता है। वही साधक श्रेष्ठतम समझा जाता है जो अपने जीवन को संपूर्ण प्राणी-जगत् के हित के लिए समर्पित कर देता है। इस प्रकार साधना का अर्थ हुआ लोकमंगल या विश्वमंगल के लिए अपने आप को समर्पित कर देना। साधना वैयक्तिक हितों से ऊपर उठकर प्राणी-जगत् के हित के लिए प्रयत्न या पुरुषार्थ करना है, तो वह सेवा से पृथक नहीं है। . . कोई भी भारतीय धर्म या साधना-पद्धति ऐसी नहीं है जो व्यक्ति को अपने वैयक्तिक हितों या वैयक्तिक कल्याण तक सीमित रहने को कहती है। धर्म का अर्थ भी लोकमंगल की साधना ही है। इस सम्बंध में डॉ. राधाकृष्णन् ने एक कथा दी है। यदि कोई पतिव्रता स्त्री दिन-रात पतिदेव की माला जपती रहे और पति के भोजन-पानी की व्यवस्था न करे, तो क्या वह पतिव्रता कही जाएगी। साधना जब तक सेवा एवं समर्पण से नहीं जुड़ेगी; वह अपूर्ण होगी। गोस्वामी तुलसीदास ने धर्म की परिभाषा करते हुए स्पष्ट रूप से कहा है परहित सरिस धरम नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिंअधमाई।। तुलसीदास जी द्वारा प्रतिपादित इसी तथ्य को प्राचीन आचार्यो ने परोपकाराय पुण्याय, पापाय पर पीड़नम्' अर्थात् परोपकार करना पुण्य या धर्म है और दूसरों को (83) Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चीड़ा देना पाप है कहकर परिभाषित किया था। पुण्य-पाप या धर्म-अधर्म के बीच यदि कोई सर्वमान्य विभाजक रेखा है तो वह व्यक्ति की लोकमंगल की या परहित की भावना ही है जो दूसरों के हितों के लिए या समाज कल्याण के लिए अपने हितों का समर्पण करना जानता है, वही नैतिक है, वहीं धार्मिक है और वही पुण्यात्मा है। लोकमंगल की साधना को जीवन का एक उच्च आदर्श माना गया था, यही कारण था कि भगवान बुद्ध ने अपने शिष्यों को यह उपदेश दिया- 'चरत्थ भिक्खवे चारिक्कंबहुजनहिताय बहुजनसुखाय' अर्थात् हे भिक्षुओं! बहुजनों के हित के लिए और बहुजनों के सुख के लिए प्रयत्न करो। न केवल जैन धर्म, बौद्ध धर्म या हिन्दू धर्म की अपितु इस्लाम और ईसाई धर्म की भी मूलभूत शिक्षा लोकमंगल या सामाजिक हित-साधन ही रही है। इससे यही सिद्ध होता है कि सेवा और साधना में परस्पर समाहित है। यही कारण था कि वर्तमान युग में महात्मा गांधी ने भी दरिद्रनारायण की सेवा को ही सबसे बड़ा धर्म या कर्तव्य कहा। __जो लोग साधना को जप, तप, पूजा, उपासना या नाम स्मरण तक सीमित मान लेते हैं, वे वस्तुतः एक भ्रान्ति में ही हैं। यह प्रश्न प्रत्येक धर्म साधना-पद्धति में उठा है कि वैयक्तिक साधना अर्थात् जप, तप, ध्यान, तथा प्रभु की पूजा-उपासना और सेवा में कौन श्रेष्ठ है ? जैन परम्परा में भगवान महावीर से यह पूछा गया कि एक व्यक्ति आपकी पूजा-उपासना या नाम स्मरण में लगा हुआ है और दूसरा व्यक्ति ग्लान एवं रोगी की सेवा में लगा हुआ है, इनमें कौन श्रेष्ठ है ?प्रत्युत्तर में भगवान महावीर ने कहा था कि जो रोगी या ग्लान की सेवा करता है, वहीं श्रेष्ठ है, क्योंकि वही मेरी आज्ञा का पालन करता है। इसका तात्पर्य यह है कि वैयक्तिक जप, तप, पूजा और उपासना की अपेक्षा जैन धर्म में भी संघ-सेवा को अधिक महत्व दिया गया है। ___ उसमें संघ या समाज का स्थान प्रभु से भी ऊपर है, क्योंकि तीर्थंकर भी प्रवचन के पूर्व नमो तित्थस्स' कह कर संघ को वंदन करता है। संघ के हितों की उपेक्षा करना सबसे बड़ा अपराध माना गया था। जब आचार्य भद्रबाहु ने अपनी ध्यान-साधना में विध्न आयेगा, यह समझ कर अध्ययन करवाने से इंकार किया तो संघ ने उनसे यह प्रश्न किया था कि संघहित और आपकी वैयक्तिक साधना में कौन श्रेष्ठ है ? अन्ततोगत्वा उन्हें संघहित को प्राथमिकता देनी पड़ी। यही बात प्रकारान्तर से हिन्दू धर्म में भी कही गई है। उसमें कहा गया है कि वे व्यक्ति जो दूसरों की सेवा छोड़कर केबल प्रभु का नाम स्मरण करते रहते हैं, वे भगवान के सच्चे उपासक नहीं है। (84) Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार समस्त चर्चा से यह फलित होता है कि सेवा ही सच्चा धर्म है और यही सच्ची साधना है। यही कारण है कि जैनधर्म में तप के जो विभिन्न प्रकार बताए गए है, उनमें वैयावृत्य सेवा को एक महत्वपूर्ण आभ्यन्तर तप माना गया है। तप में सेवा का अन्तर्भाव यही सूचित करता है कि सेवा और साधना अभिन्न हैं। मात्र यही नहीं जैन परम्परा में तीर्थकर पद, जो साधना का सर्वोच्च साध्य है, की प्राप्ति के लिए जिन 16 या 20 उपायों की चर्चा की गयी है उसमें सेवा को सर्वाधिक महत्व दिया गया है। गीता में भी लोकमंगल को भूतयज्ञ प्राणियों की सेवा का नाम देकर यज्ञों में सर्वश्रेष्ठ बताया गया है। इस प्रकार जो यज्ञ पहले वैयक्तिक हितों की पूर्ति के लिए किए जात थे, उन्हें गीता ने मानव सेवा से जोडकर एक महत्वपूर्ण क्रान्ति की थी। धर्म का अर्थ दायित्व या कर्तव्य का परिपालन भी है। कर्तव्यों या दायित्वों को दो भागों में विभाजित किया जाता है- एकं वे जो स्वयं के प्रति होते है और दूसरे वे जो दूसरे के प्रति होते हैं। यह ठीक है कि व्यक्ति को अपने जीवन रक्षण और अस्तित्व के लिए भी कुछ करना होता है किंतु इसके साथ-साथ ही परिवार, समाज, राष्ट्र या मानवता के प्रति भी उसके कुछ कर्तव्य होते हैं। व्यक्ति के स्वयं के प्रति जो दायित्व हैं वे ही दूसरे की दृष्टि से उसके अधिकार कहे जाते हैं। वैसे तो अधिकार और कर्तव्य परस्पर सापेक्ष ही हैं। जो मेरा अधिकार है वह दूसरों के लिए उनके प्रति कर्तव्य है। दूसरों के प्रति अपने कर्तव्यों का परिपालन ही सेवा है। जब यह सेवा बिना प्रतिफल की आकांक्षा के की जाती है तो सही साधना बन जाती है। इस प्रकार सेवा और साधना अलग-अलग तथ्य नहीं रह जाते। सेवा साधना है और साधना धर्म है। अतः सेवा, साधना, और धर्म एक दूसरे के पर्यायवाची हैं। सामान्यतया साधना का लक्ष्य मुक्ति माना जाता है और मुक्ति वैयक्तिक होती है। अतः कुछ विचारक सेवा और साधना में किसी प्रकार के सह-संबंध को स्वीकार नहीं करते हैं, उनके अनुसार वैयक्तिक मुक्ति के लिए किया गया प्रयत्न ही साधना है और ऐसी साधना का सेवा से कोई संबंध नहीं है, किंतु भारतीय चिंतकों ने इस प्रकार की वैयक्तिक मुक्ति को उचित नहीं माना है। जब तक वैयक्तिकता या 'मैं' है, अहंकार है और जब तक अंहकार है, मुक्ति संभव नहीं है। जब तक 'मैं' या मेरा' है, राग है और राग मुक्ति का बाधक है। वस्तुतः भारतीय दर्शनों में साधना का परिपाक सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत् दृष्टि के विकास में माना गया है। गीता में कहा गया है कि जो सभी प्राणियों को आत्मा के रूप में (85) Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देखता है वहीं सच्चे अर्थ में द्रष्टा है और वही साधक है। जब व्यक्ति के जीवन में इस आत्मवत् दृष्टि का विकास होता है तो दूसरों की पीड़ा भी उसे अपनी पीड़ा लगने लगती है। इस प्रकार दुःख कातरता को साधना की उच्चतम स्थिति माना गया है। रामकृष्ण परमहंस जैसे उच्चकोटि के साधकों के लिए यह कहा जाता है कि उन्हें दूसरे की पीड़ा अपनी पीड़ा लगती थी। जो साधक साधना की इस उच्चतम स्थिति में पहुंच जाता है और दूसरों की पीड़ा को भी अपनी पीड़ा समझने लगता है, उसके लिए वैयक्तिक मुक्ति का कोई अर्थ नहीं रह जाता हैं श्रीमद्भागवत् के सप्तम स्कन्ध में प्रहलाद ने स्पष्ट रूप से कहा है कि प्रायेण देवमुनयः स्वविमुक्तिकामाः। . मौन चरनिंतविजने न तु परार्थ निष्ठाः। नेतान् विहाय कृपणां विमुमुक्षुरेकः॥ 'प्रायः कुछ मुनिगण अपनी मुक्ति के लिए वन में अपनी चर्या करते हैं और मौन धारण करते हैं, लेकिन उनमें परार्थनिष्ठा नहीं है। मैं तो दुःखीजनों को छोड़कर अकेला मुक्त होना भी नहीं चाहता हूं। * जो व्यक्ति दूसरे प्राणियों को पीड़ा से कराहता देखकर केवल अपनी मुक्ति की कामना करता है वह निकृष्ट कोटि का है। अरे! और तो क्या स्वयं परमात्मा भी दूसरों की पीड़ाओं को दूर करने के लिए ही संसार में जन्म धारण करते हैं। हिन्दू परम्परा में जो अवतार की अवधारणा है, उसमें अवतार का उद्देश्य यही माना गया है कि वे सत्परुषों के परित्राण के लिए जन्म धारण करते हैं। जब परमात्म भी दूसरों को दुःख और पीड़ाओं में तड़पता देखकर उसकी पीड़ा को दूर करने के लिए अवतरित होते हैं, तो फिर केवल अपनी मुक्ति की कामना करने वाला साधक उच्चकोटि का साधक कैसे हो सकता है ?बौद्ध परम्परा में आचार्य शांतिरक्षित ने बोधिचर्यावतार में कहा है कि दूसरों को दुःख और पीड़ाओं में तड़पते देखकर केवल अपने निवार्ह की कामना करना कहां तक उचित है। अरे! दूसरों के दुःखों को दूर करने में जो सुख मिलता है वह क्या कम है जो केवल स्वयं की विमुक्ति की कामना की जाए। __ बौद्ध परम्परा के महायान् सम्प्रदाय में बोधिसत्व का आदर्श सभी के दुःखों की विमुक्ति होता है। वह अपने वैयक्तिक निर्वाण को भी अस्वीकार कर देता है, जब तक संसार के सभी प्राणियों के दुःख समाप्त होकर उन्हें निर्वाण की प्राप्ति न हो। जैन परम्परा में भी तीर्थंकर को लोककल्याण का आदर्श माना गया है। उसमें कहा गया है (86) Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि समस्त लोक की पीड़ा को जानकर तीर्थंकर धर्मचक्र का प्रवर्तन करते है। यह स्पष्ट है कि कैवल्य की प्राप्ति के पश्चात् तीर्थंकर के लिए कुछ भी करना शेष नहीं रहता है, वे कृत-कल्प होते हैं फिर भी लोकमंगल के लिए ही वे धर्मचक्र का प्रवर्तन कर अपना शेष जीवन लोकहित में समर्पित कर देते हैं। यह भारतीय दर्शन और साहित्य का सर्वश्रेष्ठ उद्गार है। इसी प्रकार बोधिसत्व भी सदैव ही दीन और दुःखीजनों को दुःख से मुक्त कराने के लिए प्रयत्नशील बने रहने की अभिलाषा करता है और सबको मुक्त कराने के पश्चात् ही मुक्त होना चाहता है। भवेयमुपजीव्योऽहं, यावतसर्वे न निर्वृता।' वस्तुतः, भारतीय साधना पद्धतियों का लक्ष्य मोक्ष है, किंतु मोक्ष अकेला पाने की वस्तु ही नहीं है। इस संबंध में विनोबा भावे के उदगार विचारणीय हैं जो समझता है कि मोक्ष अकेला हथियाने वस्तु है, वह उसके हाथ से निकल आता है 'मैं' के आते, ही मोक्ष भाग जाता है, मेरा मोक्ष यह वाक्य, ही गलत है। ‘मेरा' मिटने पर ही मोक्ष मिलता है, ___ -अध्यात्म और विज्ञान,पृ.71 इसी प्रकार वास्तविक मुक्ति अहंकार से मुक्ति है। 'मैं' अथवा अहं भाव से मुक्त होने के लिए हमें अपने आपको समष्टि में, समाज में लीन कर देना होता है। आचार्य शांतिदेव लिखते हैं सर्वत्यागश्च निर्वाण निर्वाणार्थ च में मनः। त्यक्तवयं चेन्मया सर्व वर सत्वेषु दीसतां॥' इस प्रकार यह धारणा कि मोक्ष का प्रत्यय सामाजिकता का विरोधी है, गलत है। मोक्ष वस्तुतः दुःखों से मुक्ति है और मनुष्य जीवन के अधिकांश दुःख मानवीय संवेगों के कारण ही है। अतः मुक्ति, ईर्ष्या, द्वेष,क्रोध, घृणा आदि के संवेगों से मुक्ति पाने में है और इस रूप में वह वैयक्तिक और सामाजिक दोनों ही दृष्टि से उपादेय भी है। दुःख,अहंकार एवं मानसिक क्लेशों से मुक्ति रूप में मोक्ष की उपादेयता और सार्थता को अस्वीकार भी नहीं किया जा सकता है। . कुछ लोग अहिंसा की अवधारणा को स्वीकार करके भी उसकी मात्र नकारात्मक अवधारणा प्रस्तुत करते हैं। वे कहते हैं कि अहिंसा का अर्थ दूसरों को पीड़ा नहीं देने तक ही सीमित है, जो दूसरों के दुःख और पीड़ाओं को दूर करने का दायित्व (87) Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोध कराने का भाव कर्तव्य का भान कराता है। वस्तुतः व्यक्ति में जब तक दूसरों के दुःख और पीड़ा को अपने दुःख और पीड़ा मानकर उसके निराकरण का प्रयत्न नहीं होता है तब तक करुणा का परम विकास संभव नहीं है। यदि व्यक्ति दूसरे को दुःख और पीड़ा में तड़पता देखकर उसके निराकरण का कोई प्रयत्न नहीं करता है तो यह कहना कठिन होगा कि उसके हृदय में करुणा का विकास हुआ है और जब तक करुणा का विकास नहीं होता तब तक अहिंसा का परिपालन संभव नहीं है। परम कारुणिक व्यक्ति ही अहिंसक हो सकता है। जिनका हृदय दूसरों को दुःख और पीड़ा में तड़पता देखकर भी निष्क्रिय बना रहे उसे हम किस अर्थ में अहिंसक कहेंगे। समाज को एक आंगिक संरचना माना गया है। शरीर में हम स्वाभाविक रूप से यह प्रक्रिया देखते हैं कि किसी अंग की पीड़ा को देखकर दूसरा अंग उसकी सहायता के लिए तत्काल आगे आता है। जब शरीर का कोई भी अंग दूसरे अंग की पीड़ा में निष्क्रिय नही रहता तो फिर हम यह कैसे कह सकते हैं कि समाज रूपी शरीर में व्यक्ति रूपी अंग दूसरे अंग की पीड़ा में निष्क्रिय बना रहे। अतः हमें यह मानकर चलना होगा कि अहिंसा मात्र नकारात्मक नहीं है, उसमें करुणा और सेवा का सकारात्मक पहलू भी है। यदि हम अहिंसा को साधना का आवश्यक अंग मानते हैं तो हमें सेवा को भी साधना के एक अंग के रूप में स्वीकार करना पड़ेगा और इससे यही सिद्ध होता है कि सेवा और साधना में एक संबंध है। सेवा के अभाव में साधना संभव नहीं है। पुनः जहां सेवा है वहां साधना है वस्तुतः वे व्यक्ति ही महान साधक हैं जो लोकमंगल के लिए अपने को समर्पित कर देते हैं। उनका निष्काम समर्पण-भाव साधना का सर्वोकृष्ट रूप है। अंत में हम कह सकते हैं कि भारतीय जीवन दर्शन की दृष्टि पूर्णतया लोकमंगल के लिए प्रयत्नशील बने रहने की है। उसकी एकमात्र मंगल कामना है सर्वेऽत्र सुखिनः सन्तु। सर्वे सन्तु निरामयाः। . सर्वे भद्राणि पश्चंतु। मा कश्चिद् दुः खमाप्नुयात्।। लोकमंगल की उसकी सर्वोच्च भावना का प्रतिबिम्ब हमें आचार्य शांतिदेव के शिक्षा समुच्चय नामक ग्रन्थ में मिलता है। अतः मैं उसकी हिन्दी में अनुदित निम्न पंक्तियों से अपने इस लेख का समापन करना चाहूंगा। इस दुःखमय नरलोक में, जितने दलित, बन्धग्रसित पीड़ित, विपत्ति विलीन हैं, . (88) Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जितने बहुधन्धी विवेक विहीन हैं। जो कठिन भय से और दारुण शोक से अतिदीन हैं, वे मुक्त हो निजबंध से, स्वच्छन्द हो सब द्वन्द्व से, छूटे दलन के फनद से, हो ऐसा जग में, दुःख से विचले न कोई, वदननाथ हिले न काई, पाप कम कर न काई, असन्मार्ग धरे न कोई, हो सभी सुखशील, पुण्याचार धर्मव्रती, सबका ही परम कल्याण। संदर्भः 1. बोधिचर्यावतार, संपा.-श्री परशुराम शर्मा, प्रका.मिथिला विद्यापीठ दरभंगा, 1960, 3/21 अध्यात्म और विज्ञान, विनोबा भावे, पृ. 71 बोधिचार्यावतार, संपा:- श्री परशुराम शर्मा, प्रका.-मिथिला विद्या-पीठ, दरभंगा, 1960, 3/11 (89) Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय संस्कृति में स्वहित और लोकहित का प्रश्न स्वार्थ और परार्थ की समस्या बहुत पुरानी है। नैतिक चिंतन के प्रारम्भ से ही स्वहित और लोकहित का प्रश्न महत्त्वपूर्ण रहा है। एक ओर चाणक्य कहते हैं - 'स्त्री, धन आदि से बढ़कर अपनी रक्षा का प्रयत्न करना चाहिए। विदुर ने भी कहा है - 'जो स्वार्थ को छोड़कर परार्थ करता है, जो मित्रों अर्थात् दूसरे लोगों के लिए व्यर्थ ही श्रम करता है, वह मूर्ख ही है, किंतु दूसरी ओर यह भी कहा जाता है, स्वहित के लिए तो सभी जीते हैं, जो लोकहित के लिए, परार्थ के लिए जीता है, वस्तुतः उसका जीवन सफ ल है। जिस जीवन में परोपकार वृत्ति नहीं हो, उससे तो मरण ही अच्छा है। पाश्चात्य विचारक हरबर्ट स्पेन्सर ने तो स्वार्थ और परार्थ के इस प्रश्न को नैतिकता की वास्तविक समस्या कहा है, यहां तक कि पाश्चात्य आचारशास्त्रीय विचारणा में तो स्वार्थ की समस्या को लेकर दो दल बन गए। स्वार्थवादी विचारक, जिनमें हाब्स, नीत्शे प्रभृति प्रमुख हैं, यह मानते हैं कि मनुष्य प्रकृत्या केवल स्वार्थ या अपने लाभ से प्रेरित होकर कार्य करता है। वे मानते हैं कि नैतिकता का वही सिद्धांत समुचित है, जो मानव प्रकृति की इस धारणा के अनुकूल हो। उनकी दृष्टि में अपने हित के कार्य करने में ही मनुष्य का श्रेय है, दूसरी ओर बेन्थम, मिल प्रभृति विचारक मानव की स्वसुखवादी मनोवैज्ञानिक प्रकृति को स्वीकार करते हुए भी बौद्धिक आधार पर यह सिद्ध करते हैं कि परहित की भावना ही नैतिक दृष्टि से उचित है। नैतिक जीवन का साध्य परार्थ है। प्रो. मिल केवल परार्थ के बौद्धिक आधार पर सिद्ध कर ही संतुष्ट नहीं हो जाते, वरन् आंतरिक अंकुश (Internal Sanition) के द्वारा उसे स्वाभाविक भी सिद्ध करते हैं। उनके अनुसार, यह आंतरिक अंकुश सजातीयता की भावना है, जो कि मानव में यद्यपि जन्मजात नहीं है, फिर भी अस्वाभाविक या अनैसर्गिक भी नहीं है। दूसरे अन्य विचारक भी, जिनमें बटलर, कोंत, शॉपनहॉवर एवं टालस्टाय आदि प्रमुख हैं, मानव की मनोवैज्ञानिक प्रकृति में सहानुभूति, प्रेम आदि के तत्त्वों की उपस्थिति दिखाकर परार्थवादी या लोकमंगलकारी आचारदर्शन का समर्थन करते हैं। हरबर्ट स्पेन्सर से लेकर ब्रेडले, ग्रीन, अरबन आदि समकालीन विचारकों तक की एक लम्बी परम्परा ने मानव जीवन के विभिन्न पक्षों को उभारते हुए स्वार्थवाद और परार्थवाद में सामान्य-शुभ (Com (90) Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mon Good) के रूप में समन्वय साधने का प्रयास किया है। मानव प्रकृति में विविधताएं हैं, उसमें स्वार्थ और परार्थ के तत्त्व आवश्यक रूप से उपस्थित हैं। आचारदर्शन का कार्य यह नहीं है कि वह स्वार्थवाद या परार्थवाद में से किसी एक सिद्धांत का समर्थन या विरोध करे, उसका कार्य तो यह है कि 'स्व' और 'पर' के मध्य संघर्षों की सम्भावना का निराकरण किया जा सके। भारतीय आचारदर्शन कहां तक और किस रूप में स्व और पर के मध्य संघर्ष की सम्भावना को समाप्त करते हैं, इस बात की विवेचना के पूर्व हमें स्वार्थवाद और परार्थवाद के अर्थ पर भी विचार कर लेना होगा। स्वार्थवाद आत्मरक्षण' है और परार्थवाद आत्मत्याग' है। मैकेन्जी लिखते हैं - 'जब हम केवल अपने ही व्यक्तिगत साध्य की सिद्धि चाहते हैं, तब इसे स्वार्थवाद कहा जाता है, परार्थवाद है- दूसरे के साध्य की सिद्धि का प्रयास करना / दूसरे शब्दों में, स्वार्थवाद को स्वहितवादी दृष्टिकोण और परार्थवाद को लोकहितवादी दृष्टिकोण भी कह सकते हैं। जैन दर्शन में स्वार्थ और परार्थ की समस्या - यदि स्वार्थ और परार्थ की उपरोक्त परिभाषा स्वीकार की जाए, तो जैन दर्शन को न स्वार्थवादी कहा जा सकता है, न परार्थवादी ही। जैन दर्शन आत्मा के स्वगुणों के रक्षण एवं स्वाध्याय की बात कहता है, इस अर्थ में वह स्वार्थवादी है, लेकिन इसके साथ ही वह कषायात्मा के विसर्जन, वासनात्मक आत्मा के त्याग को भी आवश्यक मानता है और इस अर्थ में वह परार्थवादी भी कहा जा सकता है। यदि हम मैकेन्जी की परिभाषा को स्वीकार करें और यह माने कि व्यक्तिगत साध्य की सिद्धि स्वार्थवाद और दूसरे के साध्य की सिद्धि का प्रयास परार्थवाद है, तो भी जैन दर्शन स्वार्थवादी और परार्थवादी- दोनों ही सिद्ध होता है। वह व्यक्तिगत आत्मा से मोक्ष या सिद्धि का समर्थन करने के कारण स्वार्थवादी तो होगा ही, लेकिन दूसरे की मुक्ति के हेतु प्रयासशील होने के कारण परार्थवादी भी कहा जा सकेगा। यद्यपि आत्मकल्याण, वैयक्तिक बंधन एवं दुःख से निवृत्ति के दृष्टिकोण से तो जैन साधना का प्राण आत्महित ही है, तथापि जिस लोक करुणा एवं लोकहित की अनुपम भावना से अर्हत् प्रवचन का प्रस्फुटन होता है, उसे भी नहीं झुठलाया जा सकता। जैन साधना में लोकहित आचार्य समंतभद्र जिनस्तुति करते हुए कहते हैं - हे भगवान् ! आपकी यह संघ (समाज) व्यवस्था सभी प्राणियों के दुःखों का अंत करने वाली और सबका (91) Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याण (सर्वोदय) करने वाली है। इससे बढ़कर लोक आदर्श और लोक मंगल की कामना क्या हो सकती है? प्रश्नव्याकरणसूत्र नामक आगम ग्रंथ में कहा गया है- .. भगवान् का यह सुकथित प्रवचन संसार के सभी प्राणियों के रक्षण एवं करुणा के लिए है। जैन साधना लोक मंगल की धारणा को लेकर ही आगे बढ़ती है। आगे उसी सूत्र में बताया गया है कि जैन साधना के पांचों महाव्रत सब प्रकार से लोकहित के लिए ही हैं? / अहिंसा की विवेचना करते हुए प्रश्नव्याकरणसूत्र में कहा गया है कि साधना के प्रथम स्थान पर स्थित यह अहिंसा सभी प्राणियों का कल्याण करने वाली है। यह भगवती अहिंसा प्राणियों में भयभीतों के लिए शरण के समान है, पक्षियों के लिए आकाशगमन के समान निर्बाध रूप से हितकारिणी है, प्यासों को पानी के समान, भूखों को भोजन के समान, समुद्र में जहाज के समान, रोगियों के लिए औषधि के समान और अटवी में सहायक के समान है। तीर्थंकर नमस्कार-सूत्र (नमोत्थुणं) में तीर्थंकर के लिए लोकनाथ, लोकहितकर, लोकप्रदीप, अभय के दाता आदि जिन विशेषणों का उपयोग हुआ है, वे भी जैन दृष्टि की लोक मंगलकारी भावना को स्पष्ट करते हैं। तीर्थंकरों का प्रवचन एवं धर्म प्रवर्तन प्राणियों के अनुग्रह के लिए होता है, न कि पूजा या सत्कार के लिए। यदि ऐसा माना जाए कि जैन साधना केवल आत्महित, आत्मकल्याण की बात कहती है, तो फिर तीर्थंकर के द्वारा तीर्थप्रवर्तन या संघ संचालन का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता, क्योंकि कैवल्य की उपलब्धि के बाद उन्हें अपने कल्याण के लिए कुछ करना शेष ही नहीं रहता। अतः, मानना पड़ेगा कि जैन साधना का आदर्श मात्र आत्मकल्याण ही नहीं, वरन् लोक-कल्याण भी है। जैन दार्शनिकों ने आत्महित की अपेक्षा लोकहित को सदैव ही महत्त्व दिया है। जैन विचारणा के अनुसार, साधना की सर्वोच्च ऊंचाई पर स्थित सभी जीवन्मुक्त आध्यात्मिक पूर्णता की दृष्टि से यद्यपि समान ही होते हैं, फिर भी जैन विचारकों ने उनकी आत्महितकारिणी और लोकहितकारिणी दृष्टि के तारतम्य को लक्ष्य में रखकर उनमें उच्चावच्च क्रम को स्वीकार किया है। एक सामान्य केवली (जीवन्मुक्त) और तीर्थंकर में आध्यात्मिक पूर्णताएं समान ही होती हैं, फिर भी तीर्थंकर की लोकहित की दृष्टि के कारण ही तीर्थंकर को सामान्य केवली की अपेक्षा उच्च स्थान दिया गया है। जैन धर्म के अनुसार, जीवन्मुक्त अवस्था को प्राप्त कर लेने वाले व्यक्तियों के भी लोकहित के आधार पर तीन वर्ग होते हैं -1. तीर्थंकर, 2. गणधर, 3. मुण्डकेवली 1. तीर्थंकर - तीर्थंकर वह है, जो सर्वहित के संकल्प को लेकर साधना मार्ग में आता (92) Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है और अपनी आध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त कर लेने के पश्चात् भी लोकहित में लगा रहता है। सर्वहित, सर्वोदय और लोक-कल्याण ही उसके जीवन का ध्येय होता है / 2. गणधर - सहवर्गीय हित के संकल्प को लेकर साधना क्षेत्र में प्रविष्ट होने वाला और अपनी आध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त कर लेने पर भी सहवर्गियों के हित एवं कल्याण के लिए प्रयत्नशील रहने वाला साधक गणधर कहलाता है। वर्गहित या गण कल्याण गणधर के जीवन का ध्येय होता है। 3. सामान्य केवली या मुण्डकेवली - आत्म कल्याण को ही जिसने अपनी साधना का ध्येय बनाया होता है और जो इसी आधार पर साधना मार्ग में प्रवृत्त होता हुआ आध्यात्मिक पूर्णता की उपलब्धि करता है, वह मुण्डकेवली कहलाता है। सामान्यतया, विश्व-कल्याण और वैयक्तिक कल्याण की भावनाओं के आधार पर साधकों की ये विभिन्न कक्षाएं निर्धारित की गई हैं। इसमें तीर्थंकर को सर्वोच्च स्थान इसलिए दिया जाता है कि वह लोक-कल्याण के आदर्श को अपनाता है। जिस प्रकार बौद्ध धर्म में बोधिसत्व और अर्हत् के आदर्शों से भिन्नता है, उसी प्रकार जैन धर्म में तीर्थंकर और सामान्य केंवली के आदर्शों में तारतम्यात्मक भिन्नता है। . इन सबके अतिरिक्त, जैन धर्म में संघ (समाज) को सर्वोपरि माना गया है। संघहित समस्त वैयक्तिक साधनाओं से भी ऊपर है, परिस्थिति विशेष में संघ के कल्याण के लिए वैयक्तिक साधना का परित्याग भी आवश्यक माना गया है। जैन साहित्य में आचार्य कालक की कथा इसका सबल उदाहरण है। स्थानांगसूत्र में जिन दस धर्मों (कर्तव्यों)17 का निर्देश किया गया है, उसमें संघधर्म, गणधर्म, राष्ट्रधर्म, नगरधर्म, ग्रामधर्म और कुलधर्म की उपस्थिति इस बात का सबल प्रमाण है कि जैन दृष्टि न केवल आत्महित या वैयक्तिक विकास तक सीमित है, वरन् उसमें लोकहित या लोक-कल्याण का अजस्त्र प्रवाह भी प्रवाहित हो रहा है। यद्यपि जैनदर्शन लोकहित, लोकमंगल की बात कहता है, लेकिन उसकी . एक शर्त है, वह यह कि परार्थ के लिए स्वार्थ का विसर्जन किया जा सकता है, लेकिन आत्मार्थ का नहीं। उसके अनुसार, वैयक्तिक भौतिक उपलब्धियों को लोक-कल्याण के लिए समर्पित किया जा सकता है और किया भी जाना चाहिए, क्योंकि वे हमें जगत् से ही मिली हैं, वे वस्तुतः संसार की हैं, हमारी नहीं। सांसारिक उपलब्धियां संसार के लिए हैं, अतः उनका लोकहित के लिए विसर्जन किया जाना चाहिए, लेकिन आध्यात्मिक विकास या वैयक्तिक नैतिकता को लोकहित के नाम पर कुण्ठित किया (93) Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाना उसे स्वीकार नहीं है। ऐसा लोकहित, जो व्यक्ति के चरित्र के पतन अथवा आध्यात्मिक कुण्ठन से फलित होता हो, उसे स्वीकार नहीं है। लोकहित और आत्महित के संदर्भ में उसका स्वर्णसूत्र है- आत्महित करो और यथाशक्य लोकहित भी करो, लेकिन जहां आत्महित और लोकहित में द्वन्द्व हो और आत्महित के कुण्ठन पर ही लोकहित फलित होता हो, तो वहां आत्म-कल्याण ही श्रेष्ठ है / आत्महित स्वार्थ नहीं है - आत्महित स्वार्थवाद नहीं है। आत्मकाम वस्तुतः निष्काम होता है, क्योंकि उसकी कोई कामना नहीं होती है, उसका कोई स्वार्थ नहीं होता। स्वार्थी तो वह है, जो यह चाहता है कि सभी लोग उसके हित के लिए कार्य करें। आत्मार्थी स्वार्थी नहीं है, उसकी दृष्टि तो यह होती है कि सभी अपने हित के लिए कार्य करें। स्वार्थ और आत्मकल्याण में मौलिक अंतर यह है कि स्वार्थ की साधना में रागद्वेष की वृत्तियां काम करती हैं, जबकि आत्महित या आत्म-कल्याण के लिए राग-द्वेष से युक्त होकर आत्मकल्याण की सम्भावना ही नहीं रहती। यथार्थ आत्महित में राग-द्वेष का अभाव होता है। स्वार्थ और परार्थ में संघर्ष की सम्भावना भी तभी तक है, जबकि उनमें कहीं राग-द्वेष की वृत्ति निहित हो। रागादि भाव या स्वहित की वृत्ति से किया जाने वाला भी सच्चा लोकहित नहीं है, वह तो स्वार्थ ही है। जिस प्रकार शासन के द्वारा नियुक्त एवं प्रेरित समाजकल्याण अधिकारी वस्तुतः लोकहित का कर्ता नहीं है, वह तो वेतन के लिए लोकहित करता है, उसी प्रकार राग से प्रेरित होकर लोकहित के प्रयत्न राग की अभिव्यक्ति, प्रतिष्ठा की रक्षा, यश अर्जन की भावना या भावी लाभ की प्राप्ति हेतु ही होते हैं। ऐसा परार्थ वस्तुतः स्वार्थ ही है। सच्चा आत्महित और सच्चा लोकहित, राग-द्वेष से शून्य अनासक्ति की भूमि पर प्रस्फुटित होता है, लेकिन उस अवस्था में आकर न तो 'स्व' रहता है न पर', क्योंकि जहां राग है, वहीं 'स्व' है और जहां 'स्व' है, वहीं पर' है। राग की शून्यता होने पर स्व और पर का विभेद ही समाप्त हो जाता है। ऐसी रागशून्यता की भूमि पर स्थित होकर किया जाने वाला आत्महित भी लोकहित होता है और लोकहित आत्महित होता है, दोनों में कोई संघर्ष नहीं, कोई द्वैत नहीं है। उस दशा में न तो कोई अपना है, न कोई पराया। स्वार्थ और परार्थ जैसी समस्या यहां रहती ही नहीं। जैन धर्म के अनुसार, स्वार्थ और परार्थ के मध्य सभी अवस्थाओं में संघर्ष रहे, यह आवश्यक नहीं है। व्यक्ति जैसे-जैसे भौतिक जीवन से आध्यात्मिक जीवन की ओर ऊपर उठता जाता है, वैसे-वैसे स्वार्थ-परार्थ का संघर्ष भी समाप्त होता जाता है। (94) Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन विचारकों ने परार्थ या लोकहित के तीन स्तर माने हैं- 1.द्रव्य लोकहित, 2. भाव लोकहित और 3. पारमार्थिक लोकहित। 1. द्रव्य लोकहित - यह लोकहित का भौतिक स्तर है। भौतिक उपादानों, जैसेभोजन, वस्त्र, आवास आदि तथा शारीरिक सेवा के द्वारा लोकहित करना लोकहित का भौतिक स्तर है, यहां पर साधन भौतिक होते हैं। द्रव्य लोकहित एकांत रूप में आचरणीय नहीं कहा जा सकता। यह अपवादात्मक एवं सापेक्ष नैतिकता का क्षेत्र है। भौतिक स्तर पर स्वहित की पूर्णतया उपेक्षा भी नहीं की जा सकती। यहां तो स्वहित और परहित में उचित समन्वय बनाना ही अपेक्षित है। पाश्चात्य नैतिक विचारणा के परिष्कारित स्वार्थवाद, बौद्धिक परार्थवाद और सामान्य शुभ के सिद्धांतों का विचार क्षेत्र लोकहित का यह भौतिक स्वरूप ही है। 2. भाव लोकहित - लोकहित का यह स्तर भौतिक स्तर से ऊपर स्थित है। यहां पर लोकहित के साधन ज्ञानात्मक या चैत्तसिक होते हैं। इस स्तर पर परार्थ में संघर्ष की सम्भावना अल्पतम होती है। 3. पारमार्थिक लोकहित। - यह लोकहित का सर्वोच्च स्तर है, यहां आत्महित और परहित में कोई संघर्ष नहीं रहता, कोई द्वैत नहीं रहता। यहां पर लोकहित का रूप होता है- यथार्थ जीवनदृष्टि के सम्बंध में मार्गदर्शन करना। . लोकहित और आत्महित में विरोध और संघर्ष तो तब होता है, जब उनमें से कोई भी नैतिकता का अतिक्रमण करता है। भगवान् बुद्ध का कहना यही था कि यदि आत्महित करना है, तो नैतिकता की सीमा में करो और यदि परहित करना है, तो वह भी नैतिकता की सीमा में, धर्म की मर्यादा में रहकर ही करो। नैतिकता और धर्म से दूर होकर किया जाने वाला आत्महित स्वार्थ साधन' है और लोकहित सेवा का निरा ढोंग है। बौद्धधर्म में लोकहित- बुद्ध ने आत्महित और लोकहित-दोनों को ही नैतिकता के क्षेत्र में लाकर परखा और उनमें अविरोध पाया। श्री भरतसिंह उपाध्याय के शब्दों में, 'बुद्ध के मौलिक उपदेशों में आत्मकल्याण और परकल्याण, आत्मार्थ और परार्थ, साधना और सेवा-दोनों का उचित संयोग है। आत्मकल्याण और परकल्याण में वहां कोई विभाजक-रेखा नहीं थी।43 बुद्ध आत्मार्थ और परार्थ के सम्यक् रूप को जानने पर बल देते हैं। उनके अनुसार, यथार्थ दृष्टि से आत्मार्थ और परार्थ में अविरोध है। आत्मार्थ और परार्थ में विरोध तो उसी स्थिति में दिखाई देता है, जब हमारी दृष्टि राग, द्वेष तथा मोह से युक्त होती है। राग, द्वेष और मोह का प्रहाण होने पर उनसे कोई विरोध दिखाई ही (95) Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं देता, स्व और पर का विरोध तो राग और द्वेष में ही है। जहां राग-द्वेष नहीं है, वहां कौन अपना और कौन पराया? जब मनुष्य राग-द्वेष से ऊपर उठ जाता है, तब वहां न आत्मार्थ रहता है, न परार्थ, वहां तो केवल परमार्थ रहता है। इसमें यथार्थ आत्मार्थ और यथार्थ परार्थ-दोनों ही एकरूप हैं। तथागत के अन्तेवासी शिष्य आनन्द कहते हैं, 'आयुष्मान्! जो राग से अनुरक्त है, जो राग के वशीभूत है, जो द्वेष से दुष्ट है, द्वेष के वशीभूत है, जो मोह से मूढ़ है, मोह के वशीभूत है, वह यथार्थ आत्मार्थ को भी नहीं पहचानता है, यथार्थ परार्थ को भी नहीं पहचानता है, यथार्थ उभयार्थ को भी नहीं पहचानता है। राग का नाश होने पर, द्वेष का नाश होने पर ....मोह का नाश होने पर- वह यथार्थ आत्मार्थ भी पहचानता है, यथार्थ परार्थ भी पहचानता है, यथार्थ उभयार्थ भी . पहचानता है। राग, द्वेष और मोहं का प्रहाण होने पर ही मनुष्य अपने वास्तविक हित को, दूसरों के वास्तविक हित को तथा अपने और दूसरों के वास्तविक सामूहिक या सामाजिक-हित को जान सकता है। बुद्ध के अनुसार, पहले यह जानो कि अपना और दूसरों का अथवा समाज का वास्तविक कल्याण किसमें है। जो व्यक्ति अपने, दूसरों के और समाज के वास्तविक हित को समझे बिना ही लोकहित, परहित एवं आत्महित का प्रयास करता है, वह वस्तुतः किसी का भी हित नहीं करता है। .. लेकिन राग, द्वेष और मोह के प्रहाण के बिना अपना और दूसरों का वास्तविक हित किसमें है, यह नहीं जाना जा सकता? सम्भवतः, सोचा यह गया कि चित्त के रागादि से युक्त होने पर भी बुद्धि के द्वारा आत्महित या परहित किसमें है, इसे जाना जा सकता है, लेकिन बुद्ध को यह स्वीकार नहीं था। बुद्ध की दृष्टि में तो राग-द्वेष, मोहादि चित्त के मल हैं और इन मलों के होते हुए कभी भी यथार्थ आत्महित और परहित को जाना नहीं जा सकता। बुद्धि तो जल के समान है, यदि जल में गंदगी है, विकार है, चंचलता है, तो वह यथार्थ प्रतिबिम्ब देने में कथमपि समर्थ नहीं होता, ठीक इसी प्रकार, राग-द्वेष से युक्त बुद्ध भी यथार्थ स्वहित और लोकहित को बताने में समर्थ नहीं होती है। बुद्ध एक सुंदर रूपक द्वारा यही बात कहते हैं, भिक्षुओं! जैसे पानी का तालाब गंदला हो, चंचल हो और कीचड़-युक्त हो, वहां किनारे पर खड़े आंखवाले आदमी को न सीपी दिखाई दे, न शंख, न कंकर, न पत्थर, न चलती हुई या स्थित मछलियां दिखाई दे, यह ऐसा क्यों? भिक्षुओं! पानी के गंदला होने के कारण। इसी प्रकार, भिक्षुओं! इसकी सम्भावना नहीं है कि वह भिक्षु मैल (राग-द्वेषादि से युक्त) चित्त से आत्महित (96) Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान सकेगा, परहित जान सकेगा, उभयहित जान सकेगा और सामान्य मनुष्य-धर्म से बढ़कर विशिष्ट आर्य-ज्ञान-दर्शन को जान सकेगा। इसकी सम्भावना है कि भिक्षु निर्मल चित्त से आत्महित को जान सकेगा, परहित को जान सकेगा, उभयहित को जान सकेगा, सामान्य मनुष्य-धर्म से बढ़कर विशिष्ट आर्य-दर्शन को जान सकेगा। बुद्ध के इस कथन का सार यही है कि जीवन में जब तक राग-द्वेष और मोह की वत्तियां सक्रिय हैं, तब तक आत्महित और लोकहित की यथार्थदृष्टि उत्पन्न नहीं होती है। राग और द्वेष का प्रहाण होने पर ही सच्ची दृष्टि का उदय होता है और जब यह यथार्थदृष्टि उत्पन्न हो जाती है तब स्वार्थ (Egoism), परार्थ (Altruis) और उभ्यार्थ (Common good) में कोई विरोधही नहीं रहता। हीनयान यास्थविरवाद में जो स्वहितवाद अर्थात् आत्मकल्याण के दृष्टिकोण का प्राधान्य है, उसका मूल कारण तत्कालीन परिस्थितियां मानी जा सकती हैं, फिर भी हीनयान का उस लोकमंगल की साधना से मूलतः कोई विरोध नहीं है, जो वैयक्तिक नैतिक-विकास में बाधक न हो। जिस अवस्था तक वैयक्तिक नैतिक-विकास और लोकमंगल की साधना में अविरोध है, उस अवस्था तक लोकमंगल उसे भी स्वीकार है। मात्र वह लोकमंगल के लिए आंतरिक और नैतिकविशुद्धि को अधिक महत्त्व देता है। आंतरिक-पवित्रता एवं नैतिक-विशुद्धि से शून्य होकर फलाकांक्षा से युक्त लोकसेवा के आदर्श को वह स्वीकार नहीं करता। उसकी समग्र आलोचनाएं ऐसे ही लोकहित के प्रति है। भिक्षुपारापरियने, बुद्ध के परवर्ती भिक्षुओं में लोकसेवा का जो थोथा आदर्श जोर पकड़ गया था, उसकी समालोचना में निम्न विचार प्रस्तुत किए हैं लोगों की सेवा काय से करते हैं, धर्म से नहीं। दूसरों को धर्म का उपदेश देते हैं. (अपने) लाभ के लिए, न कि (उनके) अर्थ के लिए। स्थविरवादी भिक्षुओं का विरोध लोकसेवा के उस रूप से है, जिसका सेवारूपी शरीर तो है, लेकिन जिसकी नैतिक-चेतनारूपी आत्मा मर चुकी है। वह लोकसेवा नहीं, सेवा का प्रदर्शन है, दिखावा है, ढोंग है, छलना है, आत्मप्रवंचना है। डॉ. भरतसिंह उपाध्याय के अनुसार, एकांतता की साधना की प्रारम्भिक बौद्ध-धर्म में प्रमुखता अवश्य थी, परंतु सार्थक तथ्य यह है कि उसे लोकसेवा के या जनकल्याण के विपरीत वहां कभी नहीं माना गया, बल्कि यह तो उसके लिए एक तैयारी थी। दूसरी ओर हम महायानी-साहित्य का गहराई से अध्ययन करें, तो हमें बोधिचर्यावतार, शिक्षासमुच्चय, (97) Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लंकावतारसूत्र जैसे ग्रंथों में भी कभी ऐसी सेवाभावना का समर्थन नहीं मिलता, जो नैतिक-जीवन के व्यक्तिगत मूल्यों के विरोध में खड़ी हो। लोक-मंगल का जो आदर्श महायान-परम्परा ने प्रस्तुत किया है, वह भी ऐसे किसी लोकहित का समर्थन नहीं करता, जिसके लिए वैयक्तिक-नैतिकता को समाप्त कर दिया जाए। इस प्रकार, सैद्धांतिक-दृष्टि से लोकहित और आत्महित की अवधारणा में हीनयान और महायान में कोई मौलिक विरोध नहीं रह जाता। यद्यपि व्यावहारिक रूप में यह तथ्य सही है कि जहां एक ओर हीनयान ने एकांगी साधना और व्यक्तिनिष्ठ आचार-परम्परा का विकास किया और साधना को अधिकांश रूपेण आंतरिक एवं वैयक्तिक बना दिया, वहां दूसरी ओर महायान ने उसी की प्रतिक्रिया में साधना के वैयक्तिक-पक्ष की उपेक्षा कर उसे सामाजिक और बहिर्मुखी बना दिया। इस तरह, लोक-सेवा और लोकानुकम्पा को अधिक महत्त्व दिया। यहां हम इतना अवश्य कह सकते हैं कि हीनयान और महायान ने जिस सीमा तक अपने में इस एकान्तिक को प्रश्रय दिया है, वे उसी सीमा तक बुद्ध की ध्यम-मार्गीय देशना से पीछे भी हटे हैं। स्वहित और लोकहित के सम्बंध में गीता का मन्तव्य- गीता में सदैव ही स्वहित के ऊ पर लोकहित की प्रतिष्ठा हुई है। गीताकार की दृष्टि में, जो अपने लिए ही पकाता है और खाता है, वह पाप ही खाता है।48 स्वहित के लिए जीने वाला व्यक्ति गीता की दृष्टि में अधार्मिक और नीच है। गीताकार के अनुसार, जो व्यक्ति प्राप्त भोगों को देने वाले देवों को दिए बिना, उनका ऋण चुकाए बिना खाता है, वह चोर है। सामाजिक दायित्वों का निर्वाह न करना गीता की दृष्टि में भारी अपराध है। , गीता के अनुसार, लोकहित करना मनुष्य का कर्तव्य है। सर्व प्राणियों के हितसम्पादन में लगा हुआ पुरुष ही परमात्मा को प्राप्त करता है। वह ब्रह्म-निर्वाण का अधिकारी होता है। जिसे कर्म करने से कोई प्रयोजन नहीं रह गया है, अर्थात् जो जीवन्मुक्त हो गया है, जिसे संसार के प्राणियों से कोई मतलब नहीं, उसे भी लोकहितार्थ कर्म करते रहना चाहिए। 1 श्रीकृष्ण अर्जुन से यही कहते हैं कि लोकसंग्रह (लोकहित) के लिए तुझे कर्त्तव्य करना उचित है। गीता में भगवान् के अवतार धारण करने का उद्देश्य साधुजनों की रक्षा, दुष्टों का नाश और धर्म की संस्थापना है। इस प्रकार, जैन, बौद्ध और गीता इन तीनों परम्पराओं में तीर्थंकर, बुद्ध और ईश्वर का कार्य लोकहित या लोकमंगल ही माना गया है, यद्यपि जैन व बौद्धविचारणाओं में तीर्थंकर एवं बुद्ध का कार्य मात्र धर्म-संस्थापना और लोक-कल्याण (98) Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। वे गीता के कृष्ण के समान धर्म-संस्थापना के साथ-साथ न तो साधुजनों की रक्षा का दावा करते हैं और न दुष्टों के प्रहाण की बात कहते हैं। दुष्टों के प्रहाण की बात उनकी विशुद्ध अहिंसक वाणी से मेल नहीं खाती है। यद्यपि अंगुत्तरनिकाय में बुद्ध ने शिक्षापदों की प्रज्ञप्ति के जो कारण दिए हैं, वे गीता के समान ही हैं,54 तथापि लोक-मंगल के आदर्श को लेकर तीनों विचारणाओं में महत्त्वपूर्ण साम्य है। इन आचार-दर्शनों का केंद्रीय या प्रधान तत्त्व परोपकार ही है, यद्यपि उसे अध्यात्म या परमार्थ का विरोधी नहीं होना चाहिए। गीता में भी जिन-जिन स्थानों पर लोकहित का निर्देश है, वहां निष्कामता की शर्त है ही। निष्काम और आध्यात्मिक या नैतिक-तत्त्वों के अविरोध में रहा हुआ परार्थ ही गता को मान्य है। गीता में भी स्वार्थ और परार्थ की समस्या का सच्चा हल आत्मवत् सर्वभूतेषु की भावना में खोजा गया है। जब सभी में आत्मदृष्टि उत्पन्न हो जाती है, तो न स्वार्थ रहता है, न परार्थ, क्योंकि जहां स्व' हो, वहां स्वार्थ रहता है, जहां पर हो, वहां परार्थ रहता है, लेकिन सर्वात्मभाव में 'स्व' और 'पर' नहीं होते हैं, अतः उस दशा में स्वार्थ और परार्थ भी नहीं होता है। वहां होता है केवल, परमार्था भौतिक-स्वार्थों से ऊपर परार्थ का स्थान सभी को मान्य है। स्वार्थ और परार्थ के सम्बंध में भारतीय आचार-दर्शनों के दृष्टिकोण को भतृहरि के इस कथन से भलीभांति समझा जा सकता है- प्रथम, जो स्वार्थ का परित्याग कर परार्थ के लिए कार्य करते हैं, वे महान् हैं, दूसरे, जो स्वाथ के अविरोध में परार्थ करते हैं, अर्थात् अपने हितों का हनन नहीं करते हुए लोकहित करते हैं, वे सामान्य जन हैं; तीसरे, जो स्वहित के लिए परहित का हनन करते हैं, वे अधम (राक्षस) कहे जाते हैं, लेकिन चौथे, जो निरर्थक परहित का हनन करते हैं, उन्हें क्या कहा जाए, वे तो अधमाधम हैं।55 संदर्भ1. आत्मानं सततं रक्षेत् दारैरपि धनैरपि - चाणक्य नीति 2. स्वमर्थ यः परित्यज्य परार्थमनुतिष्ठति / मिथ्या चरित मित्रार्थेयश्च मूढ़ स उच्यते / / - विदुरनीति 3. आत्मार्थे जीवलोकेऽस्मिन् को न जीवति मानवः।। परं परोपकारार्थ यो जीवति स जीवति // - सुभाषित भाण्डागारम् जीवितान्मरणं श्रेष्ठं परोपकृतिवर्जितात् / नीति प्रवेशिका, मैकेन्जी, हिन्दी अनुवाद, पृ. 234 (99) Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * so se 6. सम्मेच्च लोए खेयन्नेहि पवइए - आचारांग सर्वापदान्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव। सव्व जगजीव रक्खण दयट्ठाए पावयणं भगवं सुकहियं / - प्रश्नव्याकरणसूत्र, 21/22 महव्वयाईं लोकहिय सव्वयाई। - वही, 1/1/21 तत्थपठं अहिंसा, तस थावर सव्वभूयखेमकरी। . __- वही, 1/1/3 11. वही, 1/2/22 12. प्राणिनामनुग्रहार्थम्, न पूजासत्कारार्थम् / - सूत्रकृतांग (टी), 1/6/4 13. मोहन्धकार गहने संसार दुःखिता बत। * सत्वा परिभ्रमन्त्युच्कै सत्यस्मिन् धर्मतेजसि॥ अह्येतानतः कृच्छाद यथायोग कथंचन / अनेनोत्तारयामीति वरबोधि समन्वितः॥ करुणादि गुणोपेतः परार्थ व्यसनी सदा। , तथैव चेष्टते श्रीमान् वर्धमान महोदयः॥ तत्कल्याण योगेने कुर्वन्सत्त्वार्थ मेवसः। तीर्थकृत्वमवाप्नोति परं सवार्थ साधनम् // .. - योगबिन्दु, 285-288 चिन्तयत्येवमेवैतत् स्वजनागतं तु यः। तथानुष्ठानतः सोऽपि धीमान् गणधरोभवेत् // - योगबिन्दु, 289 . 15. संविग्नो भव निर्वेदादात्मनिः सरणं तु यः। आत्मार्थ सम्प्रवृत्तो सौ सदा स्यान् मुण्डकेवली॥ __- योगबिन्दु, 290 16. निशीथचूर्णि, गाथा 2860 17. स्थानांग, 10/760 आदहिदं कादव्वं जदि सक्कई परहिदं च कादव्वं / आदहिद परहियादो आदहिदं सुट्ठ कादव्वं // (100) 14. 18. Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. - उद्धृत- आत्मसाधना संग्रह, पृ. 441 19.. भोजनशयनाऽच्छादन प्रदानाऽदिलक्षणः / सचाल्पतया नात्यन्तिकश्चैहिकार्य स्याऽपि साधनेनैकान्तेन साधीयानिति। - अभिधानराजेंद्र, खण्ड 5, पृ. 697 20. भावोपकारस्त्वध्यापनश्रावणादिस्वरूपों गरीय नित्यात्यन्तिक उभयलोक सुखावहश्चेत्यतो भावोपकार एव यतितव्यम्। - अभिधानराजेंद्र, खण्ड 5, पृ.697 परमार्थतः पारमेश्वर प्रवचनोपदेश एवं तस्येव भवशतोपचित दुःखक्षयक्षमत्वात् - आह च नोपकारो जगत्यस्मिस्ताघ्शो विद्यते क्वचित्। याघ्शी दुःखविच्छेदाद् देहिनां धर्मदेशना / .. - अभिधानराजेंद्र, खण्ड 5, पृ.697 - - - (101) Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय संस्कृति के जीवन मूल्य भारतीय संस्कृति में जीवन के चार मूल्य जिस प्रकार पाश्चात्य-आचारदर्शन में मूल्यवाद का सिद्धांत लोकमान्य है, उसी प्रकार भारतीय नैतिक-चिंतन में पुरुषार्थ-सिद्धांत, जो कि जीवन-मूल्यों का ही सिद्धांत है, पर्याप्त लोकप्रिय रहा है। भारतीय-विचारकों ने जीवन के चार पुरुषार्थ या मूल्य माने हैं 1. अर्थ (आर्थिक-मूल्य)- जीवन-यात्रा के निर्वाह के लिए भोजन, वस्त्र, आवास आदि की आवश्यकता होती है, अतः दैहिक-आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले इन साधनों को उपलब्ध कराना ही अर्थपुरुषार्थ है। ___ 2. काम (मनोदैहिक-मूल्य)- जैविक-आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन जुटाना अर्थपुरुषार्थ और उन साधनों का उपभोग करना काम-पुरुषार्थ है। दूसरे शब्दों में, विविध इंद्रियों के विषयों का भोग कामपुरुषार्थ है। 3. धर्म (नैतिक-मूल्य)- जिन नियमों के द्वारा सामाजिक-जीवन या लोकव्यवहार सुचारु रूप से चले, स्व-पर कल्याण हो और जो व्यक्ति को आध्यात्मिकपूर्णता की दिक्षा में ले जाए, वह धर्मपुरुषार्थ है। 4. मोक्ष (आध्यात्मिक-मूल्य)- आध्यात्मिक-शक्तियों का पूर्ण प्रकटीकरण मोक्ष है। जैन-दृष्टि में पुरुषार्थचतुष्टय . सामान्यतया, यह समझा जाता है निवृत्तिप्रधान जैन-दर्शन में मोक्ष ही एकमात्र पुरुषार्थ है। धर्म-पुरुषार्थ की स्वीकृति उसके मोक्षानुकूल होने में ही है। अर्थ और कामइन दो पुरुषार्थों का उसमें कोई स्थान नहीं है। जैनविचारकों के अनुसार अर्थ अनर्थ का मूल है,110 सभी काम दुःख उत्पन्न करने वाले हैं,111 लेकिन यह विचार एकांगी ही माना जाएगा। कोई भी जिनवचन एकान्त या निरपेक्ष नहीं है। जैन-विचारकों ने सदैव ही व्यक्ति को स्वपुरुषार्थ से धनोपार्जन की प्रेरणा दी है। वे यह मानते हैं कि व्यक्ति को केवल अपने पुरुषार्थ से उपार्जित सम्पत्ति के भोग करने का अधिकार है। दूसरों के द्वारा उपार्जित सम्पत्ति के भोग करने का उसे कोई अधिकार नहीं है। गौतमकुलक में कहा गया है कि पिता के द्वारा उपार्जित लक्ष्मी निश्चय ही पुत्र के लिए बहन होती है और (102) Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरों की लक्ष्मी परस्त्री के समान होती है, दोनों का ही भोग वर्जित है, अतः स्वयं अपने पुरुषार्थ से धन का उपार्जन करके ही उसका भोग करना न्यायसंगत है।112 जैनाचार्यों ने विभिन्न वर्ण के लोगों को किन-किन साधनों से धनार्जन करना चाहिए, इसका भी निर्देश किया है। ब्राह्मणों को मुख (विद्या) से, क्षत्रियों को असि (रक्षण) से, वणिकों से और कर्मशील व्यक्तियों को शिल्पादित-कर्म से धनार्जन करना चाहिए, क्योंकि इन्हीं की साधना में उनकी लक्ष्मी का निवास है।113 यद्यपि यह सही है कि मोक्ष या निर्वाण की उपलब्धि में जो अर्थ और काम बाधक हैं, वे जैनदृष्टि के अनुसार अनाचरणीय एवं हेय हैं, लेकिन जैन-दर्शन यह कभी नहीं कहता कि अर्थ और काम पुरुषार्थ एकान्त रूप से हेय हैं। यदि वे एकांत रूप से हेय होते, तो आदितीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव स्त्रियों की 64 और पुरुषों की 72 कलाओं का विधान कैसे करते? क्योंकि उनमें अधिकांश कलाएं अर्थ और काम-पुरुषार्थ से सम्बंधित हैं।।14 न्यायपूर्वक उपार्जित अर्थ और वैवाहिक मर्यादानुकूल काम का जैन-विचारणा में समुचित स्थान है। जैन विचारकों ने जिसके त्याग पर बल दिया है, वह इन्द्रिय-विषयों का भोग नहीं, भोगों के प्रति आसक्ति, या राग-द्वेष की वृत्ति है। जैन-मान्यता के अनुसार कर्म-विपाक से उपलब्ध भोगों से बचा नहीं जा सकता। इन्द्रियों के सम्मुख उनके विषय उपस्थित होने पर उनके आस्वाद से भी बचना सम्भव नहीं है, जो सम्भव है, वह यह कि उनमें राग-द्वेष की वृत्ति न रखी जाए। इतना ही नहीं, जैनाचार्यों ने जीवन के वासनात्मक एवं सौन्दर्यात्मक-पक्ष को धर्मोन्मुखी बनाने तथा उनके पारस्परिक-विरोध को समाप्त करने का भी प्रयास किया है। उनके अनुसार, मोक्षाभिमुख परस्पर अविरोध में रहे हुए सभी पुरुषार्थ आचरणीय हैं। आचार्य हेमचंद्र कहते हैं कि गृहस्थ-उपासकधर्मपुरुषार्थ, अर्थपुरुषार्थ और कामपुरुषार्थ का इस प्रकार आचरण करे कि कोई किसी का बाधक न हो।115 - आचार्य भंद्रबाहु (8वीं शती) ने तो आचार्य हेमचंद्र (11वीं शताब्दी) के पूर्व ही इस बात की उद्घोषणा कर दी थी कि जैन-परम्परा में तो पुरुषार्थ-चतुष्टय * अविरोध-भाव से रहते हैं। आचार्य बड़े ही स्पष्ट एवं मार्मिक-शब्दों में लिखते हैं धर्म, अर्थ और काम को भले ही अन्य कोई विचारक परस्पर विरोधी मानते हों, किंतु जिनवाणी के अनुसार तो वे कुशल अनुष्ठान में अवतरित होने के कारण परस्पर असपत्न (अविरोधी) हैं। अपनी-अपनी भूमिका के योग्य विहित अनुष्ठानरूप धर्म, स्वच्छाशय प्रयुक्त अर्थ और विस्रम्भयुक्त अर्थात् मर्यादानुकूल वैवाकिह-नियंत्रण से स्वीकृत काम, जिनवाणी के अनुसार परस्पर अविरोधी हैं।116 ये पुरुषार्थ परस्पर अविरोधी तभी होते हैं, जब वे (103) Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षाभिमुख होते हैं और जब वे मोक्षाभिमुख होकर परस्पर अविरोध की स्थिति में हों, असपत्न हों, तो वे सम्यक् होते हैं, इसलिए आचरणीय होते हैं, किंतु जब मोक्ष-मार्ग से विमुख होकर पुरुषार्थ-चतुष्टय परस्पर विरोध में होते हैं, तब वे असम्यक् या अनुचित एवं अनाचरणीय होते हैं। बौद्ध-दर्शन में पुरुषार्थचतुष्टय ____ भगवान् बुद्ध यद्यपि निवृत्तिमार्गी श्रमण-परम्परा के अनुगामी हैं, तथापि उनके विचारों में अर्थ एवं काम-पुरुषार्थ के सम्बंध में भी दिशाबोध उपलब्ध है। दीघनिकाय में अर्थ की उपलब्धि के लिए श्रम करते रहने का संदेश उपलब्ध होता है। बुद्ध कहते हैं, आज बहुत सर्दी है, आज बहुत गर्मी है, अब तो संध्या (देर) हो गई, इस प्रकार श्रम से दूर भागता हुआ मनुष्य धनहीन हो जाता है, किंतु जो सर्दी-गर्मी आदि को सहकर कठोर परिश्रम करता है, वह कभी सुख से वंचित नहीं होता। 17 जैसे प्रत्नवान् रहने से मधुमक्खी का छत्ता बढ़ता है, चींटी का वाल्मीक बढ़ता है, वैसे ही प्रयत्नशील मनुष्य का ऐश्वर्य बढ़ता है। 18 इतना ही नहीं, प्राप्त सम्पदा का उपयोग किस प्रकार हो, इस सम्बंध में भी बुद्ध का निर्देश है कि सद्गृहस्थ प्राप्त धन के एक भाग का उपभोग करे, दो . भागों को व्यापार आदि कार्यक्षेत्र में लगाए और चौथे भाग को आपत्तिकाल में काम आने के लिए सुरक्षित रख छोड़े।'' आज का प्रगतिशील अर्थशास्त्री भी आर्थिकप्रगति के लिए इससे अच्छे सूत्र प्रस्तुत नहीं कर सकता। बुद्ध केवल अर्थशास्त्री के रूप में ही नहीं, वरन् एक सामाजिक-अर्थशास्त्री के रूप में हमारे सामने आते हैं। वे इस बारे में भी पूर्ण सतर्क है कि यदि समाज में धन का समुचितं वितरण नहीं होगा, तो अराजकता और असुरक्षा उत्पन्न होगी। वे कहते हैं, निर्धनों को धन नहीं दिए जाने से दरिद्रता बहुत बढ़ गई और दरिद्रता के बहुत बढ़ जाने से चोरी बहुत बढ़ गई।120 चोरी के बहुत बढ़ने का अर्थ धन की असुरक्षा है। इसके पीछे बुद्ध का निर्देश यही है कि समाज में धन का समवितरण होना चाहिए, ताकि समाज का कोई भी वर्ग अभाव से पीड़ित न हो। बुद्ध की दृष्टि में अर्थ को कभी भी धर्म से विमुख नहीं होना चाहिए, वे धर्मयुक्त व्यवसाय में नियोजित होने का ही निर्देश देते हैं।121 जो जीवन में धन का दान एवं भोग के रूप में समुचित उपयोग नहीं करता, उसका धन निरर्थक है, क्योंकि मरने वाले के पीछे उसका धन आदि नहीं जाता है और न धन से जरामरण से ही छुटकारा मिल सकता है।122 कामपुरुषार्थ के सम्बंध में बुद्ध का दृष्टिकोण मध्यममार्ग का प्रतिपादन करता है। उदान में बुद्ध कहते हैं, ‘ब्रह्मचर्य-जीवन के साथ व्रतों का पालन करना ही सार है, यह एक (104) Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्त है। कामभोगों के सेवन में कोई दोष नहीं, यह दूसरा अंत है। इन दोनों अन्तों के सेवन से संस्कारों की वृद्धि होती है, मिथ्याधारणा बढ़ती है, व्यक्ति मार्ग से भष्ट हो जाता है। 123 इस आधार पर कामपुरुषार्थ के सम्बंध में बुद्ध का दृष्टिकोण यही प्रतीत होता है कि जो काम धर्म-अविरुद्ध है, जिससे आध्यात्मिक-प्रगति या चित्त की विकलता समाप्त हो, वह काम आचरणीय है। इसके विपरीत, धर्मविरुद्ध मानसिक-अशान्तिकारक काम या विषयभोग अनाचरणीय है। बुद्धि की दृष्टि में भी जैन-विचार के समान धर्मपुरुषार्थ निर्वाण या मोक्षपुरुषार्थ का साधन है। मज्झिमनिकाय में बुद्ध कहते हैं, भिक्षुओं! मैंने बेड़े की भांति पार जाने के लिए (निर्वाणलाभ के लिए) तुम्हें धर्म का उपदेश दिया है, पकड़ रखने के लिए नहीं,124 अर्थात् निर्वाण की दिशा में ले जाने वाला धर्म ही आचरणीय है। बुद्ध की दृष्टि में जो धर्म निर्वाण की दिशा में नहीं ले जाता, जिससे निर्वाणलाभ में बाधा आती हो, वह त्याग देने योग्य है। इतना ही नहीं, बुद्ध धर्म को एक साधन के रूप में स्वीकार करते हैं और साध्य की उपलब्धि के लिए उसे भी छोड़ देने का संदेश देते हैं। उनकी दृष्टि में परममूल्य तो निर्वाण ही है। . हिन्दूधर्म में पुरुषार्थचतुष्टय . पुरुषार्थचतुष्टय के सम्बंध में गीता का दृष्टिकोण जैन-परम्परा से भिन्न नहीं है। गीता की दृष्टि में भी मोक्ष ही परम पुरुषार्थ है। वही परम मूल्य है। धर्म, अर्थ और कामपुरुषार्थ सम्बंधी धृति को गीताकार ने राजसी कहा है,125 लेकिन यह मानना भीभ्रांतिपूर्ण होगा कि गीता में इन पुरुषार्थों का कोई स्थान नहीं है। गीताकार जब काम की निंदा करता है,126 धर्म को छोड़ने की बात करता है,127 तो मोक्षपुरुषार्थ या परमात्मा की प्राप्ति की अपेक्षा से ही। मोक्ष ही परमसाध्य है, धर्म, अर्थ और काम का मोक्ष के निमित्त परित्याग किया जा सकता है। गीताकार की दृष्टि में भी यदि धर्म, अर्थ और काम मोक्ष के अविरोधी हैं, तो वे ग्राह्य हैं। गीताकार की मान्यता भी यही प्रतीत होती है कि अर्थ और काम को धर्माधीन होना चाहिए और धर्म को मोक्षाभिमुख होना चाहिए। धर्मयुक्त, यज्ञपूर्वक एवं वर्णानुसार किया गया आजीविकोपार्जन गीता के अनुसार विहित ही है। यद्यपि धन की चिंता में डूबे रहने वाले और धन का तथा धन के द्वारा किए गए दानपुण्यादि का अभिमान करने वाले को गीता में अज्ञानी कहा गया है,128 तथापिक इसका तात्पर्य यही है कि धन को एकमात्र साध्य नहीं बना लेना चाहिए और न उसका तथा उसके द्वारा किए गए सत्कार्यों का अभिमान ही करना चाहिए। इसी प्रकार, कामपुरुषार्थ (105) Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के सम्बंध में गीता का दृष्टिकोण यही है कि उसे धर्म-अविरुद्ध होना चाहिए। श्रीकृष्ण कहते हैं कि प्राणियों में धर्म-अविरुद्ध काम मैं हूं।129 सभी भोगों से विमुख होने की अपेक्षा गीताकार की दृष्टि में यही उचित है कि उनमें आसक्ति का त्याग किया जाए। वस्तुतः, यह दृष्टिकोण भोगों को मोक्ष के अविरोध में रखने का प्रयास है। इसी प्रकार, गीता जब यह कहती है कि बिना यज्ञ के जो भोग करता है, वह चोर है, तो उसका प्रमुख दृष्टिकोण कामपुरुषार्थ को धर्माभिमुख बनाने का ही है।130 ___ इस प्रकार, हम देखते हैं कि जैन, बौद्ध और हिन्दू धर्मों की विचारधाराओं में चारों पुरुषार्थ स्वीकृत हैं, यद्यपि सभी ने इस बात पर बल दिया है कि अर्थ ,और कामपुरुषार्थ को धर्म-अविरुद्ध होना चाहिए और धर्म को सदैव ही मोक्षाभिमुख होना चाहिए। वस्तुतः, यह दृष्टिकोण न केवल जैन, बौद्ध और गीता की परम्पराओं का है, वरन् समग्र भारतीय-चिंतन की इस संदर्भ में यही दृष्टि है। मनु कहते हैं कि धर्म-विहीन अर्थ और काम को छोड़ देना चाहिए।13। महाभारत में भी कहा है कि जो अर्थ और काम धर्म-विरोधी हों, उन्हें छोड़ देना चाहिए। कौटिल्य अपने अर्थशास्त्र में और वात्स्यायन अपने कामसूत्र में लिखते हैं कि धर्म और अर्थ से अविरोध में रहे हुए काम का ही सेवन करना चाहिए।133 इस प्रकार, भारतीय-चिन्तकों का प्रयास यही रहा है कि चारों पुरुषार्थों को . इस प्रकार संयोजित किया जाए कि वे परस्पर अविरोध की अवस्था में रहें। इस हेतु उन्होंने उनका पारस्परिक-सम्बंध निश्चित करने का भी प्रयास किया। कौन-सा पुरुषार्थ सर्वोच्च मूल्यवाला है, इस सम्बंध में महाभारत में गहराई से विचार किया गया है और इसके फलस्वरूप विभिन्न दृष्टिकोण सामने भी आए 1. अर्थ ही परम पुरुषार्थ है, क्योंकि धर्म और काम-दोनों अर्थ के होने पर उपलब्ध होते हैं। धन के अभाव में न तो काम-भोग ही प्राप्त होते हैं और न दान-पुण्यादि धर्म ही किया जा सकता है। 134 कौटिल्य ने भी अर्थशास्त्र में इसी दृष्टिकोण को प्रतिपादित किया है।135 2. काम ही परम पुरुषार्थ है, क्योंकि विषयों की इच्छा या काम के अभाव में न तो कोई धन प्राप्त करना चाहता है और न कोई धर्म करना चाहता है। काम ही अर्थ और धर्म से श्रेष्ठ है।136 जैसे दही का सार मक्खन है, वैसे ही अर्थ और धर्म का सार काम है।137 3. अर्थ, काम और धर्म-तीनों ही स्वतंत्र पुरुषार्थ हैं, तीनों का समान रूप से (106) Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेवन करना चाहिए। जो एक का सेवन करता है, वह अधम है, जो दो के सेवन में निपुण है, वह मध्यम है और जो इन तीनों में समान रूप से अनुरक्त है, वही मनुष्य उत्तम है।138 4. धर्मा ही श्रेष्ठ गुण (पुरुषार्थ) है, अर्थ मध्यम है और काम सबकी अपेक्षा निम्न है, क्योंकि धर्म से ही मोक्ष की उपलब्धि होती है, धर्म पर ही लोक-व्यवस्था आधारित है और धर्म में ही अर्थ समाहित है।139 5. मोक्ष ही परम पुरुषार्थ है। मोक्ष उपाय के रूप में ज्ञान और अनासक्ति-यही परम कल्याणकारक है। 40 चारों पुरुषार्थों की तुलना एवं क्रमनिर्धारण पुरुषार्थचतुष्टय के सम्बंध में उपर्युक्त विभिन्न दृष्टिकोण परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं, लेकिन सापेक्षिक-दृष्टि से इनमें विरोध नहीं रह जाता है। साधन की दृष्टि से विचार करने पर अर्थ ही प्रधान प्रतीत होता है, क्योंकि अर्थाभाव में दैहिक मांगों (काम) की पूर्ति नहीं होती। दूसरी ओर, लोक के अर्थाभाव से पीड़ित होने पर धर्मव्यवस्था या नीति भी समाप्त हो जाती है। कहा भी गया है- भूखा कौन-सा पाप नहीं करता?141 .. यदि साधक (व्यक्ति) की दृष्टि से विचार करें, तो दैहिक-मूल्य (काम) ही प्रधान प्रतीत होना है। मनोदैहिक-मूल्यों (इच्छा एवं काम) के अभाव में न तो नीतिअनीति का प्रश्न खड़ा होता है और न आर्थिक-साधनों की ही कोई आवश्यकता। दूसरे, धर्मसाधन और आध्यात्मिक-प्रगति भी शरीर से सम्बंधित हैं। कहा गया हैधर्मसाधन के लिए शरीर ही प्राथमिक हैं। 142 दैहिक-मांगों की पूर्ति के अभाव में चित्तशान्ति भी कैसे होगी और जिसका चित्त अशान्त है, वह क्या आध्यात्मिक-विकास करेगा? . (107) Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय संस्कृति में धार्मिक सहिष्णुता धार्मिक सहिष्णुता : आज की आवश्यकता आज का युग बौद्धिक विकास और वैज्ञानिक प्रगति का युग है। मनुष्य के बौद्धिक विकास ने उसकी तार्किकता को पैना किया है। आज मनुष्य प्रत्येक समस्या पर तार्किक दृष्टि से विचार करता है, किंतु दुर्भाग्य यह है कि इस बौद्धिक विकास के बावजूद भी एक ओर अंधविश्वास और रूढ़िवादिता बराबर कायम है, तो दूसरी ओर वैचारिक संघर्ष अपनी चरम सीमा पर पहुंच गया है। धार्मिक एवं राजनीतिक साम्प्रदायिकता आज जनता के मानस को उन्मादी बना रही है। कहीं धर्म के नाम पर, कहीं राजनीतिक विचारधाराओं के नाम पर, कहीं धनी और निर्धन के नाम पर, कहीं जातिवाद के नाम पर, कहीं काले और गोरे के भेद को लेकर मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद की दीवारें खींची जा रही हैं। आज प्रत्येक धर्म-सम्प्रदाय, प्रत्येक राजनीतिक दल और प्रत्येक वर्ग अपने हितों की सुरक्षा के लिए दूसरे के अस्तित्व को समाप्त करने पर तुला हुआ है। सब अपने को मानव-कल्याण का एकमात्र ठेकेदार मानकर अपनी सत्यता का दावा कर रहे हैं और दूसरे को भ्रांत तथा भ्रष्ट बतारहे हैं। मनुष्य की असहिष्णुता की वृत्ति मनुष्य के मानस को उन्मादी बनाकर पारस्परिक घृणा, विद्वेष और बिखराव के बीज बो रही है। एक ओर हम प्रगति की बात करते हैं तो दूसरी ओर मनुष्य-मनुष्य के बीच दीवार खड़ी करते हैं। 'इकबाल' इसी बात को लेकर पूछते हैं फिर्केबंदी है कहीं, और कहीं जाते हैं, क्या जमाने में पनपने की बात यही बातें हैं ? यद्यपि वैज्ञानिक तकनीक से प्राप्त आवागमन के सुलभ साधनों ने आज विश्व की दूरी को कम कर दिया है, हमारा संसार सिमट रहा है, किंतु आज मनुष्यमनुष्य के बीच हृदय की दूरी कहीं अधिक ज्यादा हो रही है। वैयक्तिक स्वार्थलिप्सा के कारण मनुष्य एक-दूसरे को काटता चला जा रहा है। आज विश्व का वातावरण तनावपूर्ण एवं विक्षुब्ध है। एक ओर इजरायल और अरब में यहूदी और मुसलमान लड़ रहे हैं, तो दूसरी ओर इस्लाम धर्म के ही दो सम्प्रदाय शिया और सुन्नी इराक और ईरान में लड़ रहे हैं। भारत में भी कहीं हिन्दू और मुसलमानों को, तो कहीं हिन्दू और सिखों को एक-दूसरे के विरूद्ध लड़ने के लिए उभाड़ा जा रहा है। (108) Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अफ्रीका में काले और गोरे का संघर्ष चल रहा है, तो साम्यवादी रूस और पूंजीवादी संयुक्त राज्य अमेरिका एक-दूसरे को नेस्तनाबूद करने पर तुले हुए हैं। आज मानवता उस कगार पर आकर खड़ी हो गई है, जहां से उसने यदि अपना रास्ता नहीं बदला तो उसका सर्वनाश निकट है। 'इकबाल' स्पष्ट शब्दों में हमें चेतावनी देते हुए कहते हैं - अगर अब भी न समझोगे तो मिट जाओगे दुनियां से। तुम्हारी दास्तां तक भी न होगी दास्तानों में॥ विज्ञान और तकनीक की प्रगति के नाम पर हमने मानव जाति के लिए विनाश की चिता तैयार कर ली है। यदि मनुष्य की इस उन्मादी प्रवृत्ति पर कोई अंकुश नहीं लगा, तो कोई भी छोटी सी घटना इस चिता को चिनगारी दे देगी और तब हम सब अपने हाथों तैयार की गई इस चिता में जलने को मजबूर हो जाएंगे। असहिष्णुता और वर्ग-विद्वेष- फिर चाहे वह धर्म के नाम पर हो, राजनीति के नाम पर हो, राष्ट्रीयता के नाम पर हो या साम्प्रदायिकता के नाम पर - हमें विनाश के गर्त की ओर ही लिए जा रहे हैं। आज की इस स्थिति के सम्बंध में उर्दू के शायर 'चकबस्त' ने ठीक ही कहा है - . मिटेगा दीन भी और आबरू भी जाएगी। तुम्हारे नाम से दुनिया को शर्म आएगी॥ अतः आज एक ऐसे दृष्टिकोण की आवश्यकता है जो मानवता को दुराग्रह और मतान्धता से ऊपर उठाकर सत्य को समझने के लिए एक समग्र दृष्टि दे सके, ताकि वर्गीय हितों से ऊपर उठकर समग्र मानवता के कल्याण को प्राथमिकता दी जा सके। धार्मिक मतान्धता क्यों ? . धर्म को अंग्रेजी में रिलीजन' (Religion) कहा जाता है। रिलीजन शब्द रि+लीजेर से बना है। इसका शाब्दिक अर्थ होता है - फिर से जोड़ देना। धर्म मनुष्य को मनुष्य से और आत्मा को परमात्मा से जोड़ने की कला है। धर्म का अवतरण मनुष्य को शाश्वत शांति और सुख देने के लिए हुआ है, किंतु हमारी मतांधता और उन्मादी वृत्ति के कारण धर्म के नाम पर मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद की दीवारें खड़ी हो गई और उसे एक-दूसरे का प्रतिस्पर्धी बना दिया गया। मानव जाति के इतिहास में जितने युद्ध और संघर्ष हुए हैं, उनमें धार्मिक मतान्धता एक बहुत बड़ा कारण रही है। धर्म के नाम पर मनुष्य ने अनेक बार खून की होली खेली है और आज भी खेल रहे हैं। विश्व इतिहास का अध्येता इस बात को भलीभांति जानता है कि धार्मिक असहिष्णुता ने विश्व में (109) Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जघन्य दुष्कृत्य कराए हैं। आश्चर्य तो यह है कि दमन, अत्याचार, नृशंसता और रक्तप्लावन की इन घटनाओं को धर्म का जामा पहनाया गया और ऐसे युद्धों को धर्मयुद्ध कहकर मनुष्य को एक-दूसरे के विरूद्ध उभाड़ा गया, फलतः शांति, सेवा और समन्वय का प्रतीक धर्म ही अशांति, तिरस्कार और वर्ग-विद्वेष का कारण बन गया। यहां हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि धर्म के नाम पर जो कुछ किया या कराया जाता है, वह सब धार्मिक नहीं होता। इन सबके पीछे वस्तुतः धर्म नहीं, धर्म के नाम पर पलने वाली व्यक्ति की स्वार्थपरता काम करती है। वस्तुतः कुछ लोग अपने क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति के लिए मनुष्यों को धर्म के नाम पर एक-दूसरे के विरोध में खड़ा कर देते हैं। धर्म भावना-प्रधान है और भावनाओं को उभाड़ना सहज होता है। अतः धर्म ही एक ऐसा माध्यम है जिसके नाम पर मनुष्यों को एक दूसरे के विरूद्ध जल्दी उभाड़ा जा सकता है। इसीलिए मतान्धता, उन्मादी और स्वार्थी तत्वों ने धर्म को सदैव ही अपने हितों की पूर्ति का साधन बनाया है। जो धर्म मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने के लिए था, उसी धर्म के नाम पर अपने से विरोधी धर्मवालों को उत्पीड़ित करने और उस पर अत्याचार करने के प्रयत्न हुए हैं और हो रहे हैं। किंतु धर्म के नाम पर हिंसा, संघर्ष और वर्ग-विद्वेष की जो भावनाएं उभाड़ी जा रही हैं, उसका कारण क्या धर्म है ? वस्तुतः धर्म नहीं, अपितु धर्म का आवरण डालकर मानव की महत्वाकांक्षा, उसका अहंकार और उसकी क्षुद्र स्वार्थपरता ही यह सब कुछ करवा रही है। यथार्थ में यह धर्म का नकाब डाले हुए अधर्म ही है। धर्म के सारतत्व का ज्ञान : मतान्धता से मुक्ति का मार्ग दुर्भाग्य यह है कि आज जनसामान्य, जिसे धर्म के नाम पर सहज ही उभाड़ा जाता है, धर्म के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ है, वह धर्म के मूल हार्द को नहीं समझ पाया है। उसकी दृष्टि में कुछ कर्मकाण्ड और रीति-रिवाज ही धर्म है। हमारा दुर्भाग्य यह है कि हमारे तथाकथित धार्मिक नेताओं ने हमें धर्म के मूल हार्द से अनभिज्ञ रखकर, इन रीति-रिवाजों और कर्मकाण्डों को ही धर्म कहकर समझाया है। वस्तुतः आज आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझे। आज मानव समाज के समक्ष धर्म के उस सारभूत तत्व को प्रस्तुत किए जाने की आवश्यकता है, जो सभी धर्मों में सामान्यतया उपस्थित है और उनकी मूलभूत एकता का सूचक है। आज धर्म के मूल हार्द और वास्तविक स्वरूप को समझे बिना हमारी धार्मिकता सुरक्षित नहीं रह सकती है। यदि आज धर्म के नाम पर विभाजित होती हुई इस मानवता को पुनः (110) Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोड़ना है तो हमें धर्म के उन मूलभूत तत्वों को सामने लाना होगा, जिनके आधार पर इन टूटी हुई कड़ियों को पुनः जोड़ा जा सके। धर्म का मर्म - यह सत्य है कि आज विश्व में अनेक धर्म प्रचलित हैं। किंतु यदि हम गम्भीरतापूर्वक विचार करें तो इन विविध धर्मों का मूलभूत लक्ष्य है- मनुष्य को एक अच्छे मनुष्य के रूप में विकसित कर उसे परमात्म तत्व की ओर ले जाना। जब तक मनुष्य, मनुष्य नहीं बनता और उसकी यह मनुष्यता देवत्व की ओर अग्रसर नहीं होती, तब तक वह धार्मिक नहीं कहा जा सकता। यदि मनुष्य में मानवीय गुणों का विकास ही नहीं हुआ है तो वह किसी भी स्थिति में धार्मिक नहीं है। अमन' ने ठीक ही कहा है - इंसानियत से जिसने बशर को गिरा दिया। या रब! वह बंदगी हुई या अबतरी हुई। मानवता के बिना धार्मिकता असम्भव है। मानवता धार्मिकता का प्रथम चरण है। मानवता का अर्थ है - मनुष्य में विवेक विकसित हो, वह अपने विचारों, भावनाओं और हितों पर संयम रख सके तथा अपने साथी प्राणियों के सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख समझ सके। यदि यह सब उसमें नहीं है तो वह मनुष्य ही नहीं है, तो फिर उसके धार्मिक होने का प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि कोई पशु धार्मिक या अधार्मिक नहीं होता, मनुष्य ही धार्मिक या अधार्मिक होता है। यदि मानवीय शरीर को धारण : करने वाला व्यक्ति अपने पशुत्व से ऊपर नहीं उठ पाया है, तो उसके धार्मिक होने का प्रश्न तो बहुत दूर की बात है। मानवीयता धार्मिकता की प्रथम सीढ़ी है। उसे पार किए बिना कोई धर्ममार्ग में प्रवेश नहीं कर सकता। मनुष्य का प्रथम धर्म मानवता है। . वस्तुतः यदि हम जैन धर्म की भाषा में धर्म को वस्तु-स्वभाव मानें तो हमें समग्र चेतन सत्ता के मूल स्वभाव को ही धर्म कहना होगा। भगवतीसूत्र में आत्मा का स्वभाव समता-समभाव कहा गया है। उसमें गणधर भगवान् महावीर से प्रश्न करते हैं कि आत्मा क्या है और आत्मा का साध्य क्या है ? प्रत्युत्तर में भगवान कहते हैं- आत्मा सामायिक (समत्ववृत्ति) रूप है और उस समत्वभाव को प्राप्त कर लेना ही आत्मा का साध्य है।' आचारांगसूत्र भी समभाव को ही धर्म कहता है। सभी धर्मों का सार समता तथा शांति है। मनुष्य में निहित काम, क्रोध, अहंकार, लोभ और उनके जनक राग-द्वेष और तृष्णा को समाप्त करना ही सभी धार्मिक साधनाओं का मूलभूत लक्ष्य रहा है। इस सम्बंध में श्री सत्यनारायण जी गोयनका के निम्न विचार द्रष्टव्य हैं- 'क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष (111) Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि न हिन्दू हैं, न बौद्ध, न जैन, न पारसी, न मुस्लिम, न ईसाई। वैसे इनसे विमुक्त रहना भी नं हिन्दू है न बौद्ध, न जैन है न पारसी, न मुस्लिम है न ईसाई। विकारों से विमुक्त रहना ही शुद्ध धर्म है। क्या शीलवान, समाधिवान और प्रज्ञावान होना केवल बौद्धों का ही धर्म है? क्या वीतराग, वीतद्वेष और वीतमोह होना जैनों का ही धर्म है? क्या स्थितप्रज्ञ, अनासक्त, जीवन-मुक्त होना हिन्दुओं का ही धर्म है? धर्म की इस शुद्धता को समझें और धारण करें। (धर्म के क्षेत्र में) निस्सार छिलकों का अवमूल्यन हो, उन्मूलन हो, शुद्धसार का मूल्यांकन हो, प्रतिष्ठापन हो।'' जब यह स्थिति आएगी, धार्मिक सहिष्णुता सहज ही प्रकट होगी। साधनागत विविधता : असहिष्णुता का आधार नहीं ___ तृष्णा, राग-द्वेष और अहंकार अधर्म के बीज हैं। इनसे मानसिक और सामाजिक समभाव भंग होता है। अतः इनके निराकरण को सभी धार्मिक साधनापद्धतियां अपना लक्ष्य बनाती हैं। किंतु मनुष्य का अहंकार, मनुष्य का ममत्व कैसे समाप्त हो, उसकी तृष्णा या आसक्ति का उच्छेद कैसे हो? इस साधनात्मक पक्ष को लेकर ही विचारभेद प्रारम्भ होता है। कोई परम सत्ता या ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण में ही आसक्ति, ममत्व और अहंकार के विसर्जन का उपाय देखता है, तो को उसके लिए जगत् की दुःखमयता, पदार्थों की क्षणिकता और अनात्मता का उपदेश देता है, तो कोई उस आसक्ति या रागभाव की विमुक्ति के लिए आत्म और अनात्म अर्थात् स्व-पर के विवेक को धार्मिक साधना का प्रमुख अंग मानता है। वस्तुतः यह साधनात्मक भेद ही धर्मों की अनेकता का कारण है। किंतु यह अनेकता धार्मिक असहिष्णुता या विरोध का कारण नहीं बन सकती। आचार्य हरिभद्र ने योगदृष्टिसमुच्चय में धार्मिक साधना की विविधताओं का सुंदर विश्लेषण प्रस्तुत किया है। वे लिखते हैं यद्वा तत्तन्नयापेक्षा तत्कालादिनियोगतः। ऋषिभ्यो देशना चित्रा तन्मूलैषापि तत्वतः // अर्थात् प्रत्येक ऋषि अपने देश, काल और परिस्थिति के आधार पर भिन्नभिन्न धर्ममार्गों का प्रतिपादन करते हैं। देश और कालगत विविधताएं तथा साधकों की रुचि और स्वभावगत विविधताएं धार्मिक साधनाओं की विविधताओं के आधार हैं। किंतु इस विविधता को धार्मिक असहिष्णुता का कारण नहीं बनने देना चाहिए। जिस प्रकार एक ही नगर को जाने वाले विविध मार्ग परस्पर भिन्न-भिन्न दिशाओं में स्थित होकर भी विरोधी नहीं कहे जाते हैं, एक ही केंद्र को योजित होने वाली परिधि से खींची (112) Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गई विविध रेखाएं चाहें बाह्य रूप से विरोधी दिखाई दें, किंतु यथार्थतः उनमें कोई विरोध नहीं होता है, उसी प्रकार परस्पर भिन्न-भिन्न आचार-विचार वाले धर्ममार्ग भी वस्तुतः विरोधी नहीं होते। यह एक गणितीय सत्य है कि एक केंद्र से योजित होने वाली परिधि से खींची गई अनेक रेखाएं एक-दूसरे को काटने की क्षमता नहीं रखती हैं, क्योंकि उन सबका साध्य एक ही होता है। वस्तुतः उनमें एक-दूसरे को काटने की शक्ति तभी आती है जब वे अपने केंद्र का परित्याग कर देती हैं। यही बात धर्म के सम्बंध में भी सत्य है। एक . ही साध्य की ओर उन्मुख बाहर से परस्पर विरोधी दिखाई देने वाले अनेक साधना-मार्ग तत्वतः परस्पर विरोधी नहीं होते हैं। यदि प्रत्येक धार्मिक साधक अपने अहंकार, रागद्वेष और तृष्णा की प्रवृत्तियों को समाप्त करने के लिए, अपने काम, क्रोध और लोभ के निराकरण के लिए, अपने अहंकार और अस्मिता के विसर्जन के लिए साधनारत है, तो फिर उसकी साधना-पद्धति चाहे जो हो, वह दूसरी साधना-पद्धतियों का न तो विरोधी होगा और न असहिष्णु। यदि धार्मिक जीवन में साध्यरूपी एकता के साथ साधनारूपी अनेकता रहे तो भी वह संघर्ष का कारण नहीं बन सकती। वस्तुतः यहां हमें यह विचार करना है कि धर्म और समाज में धार्मिक असहिष्णुता का जन्म क्यों और कैसे होता है? . वस्तुतः जब यह मान लिया जाता है कि हमारी साधना-पद्धति ही एकमात्र व्यक्ति को अंतिम साध्य तक पहुंचा सकती है तब धार्मिक असहिष्णुता का जन्म होता हैं इसके स्थान पर यदि हम यह स्वीकार कर लें कि वे सभी साधना-पद्धतियां जो साध्य तक पहुंचा सकती हैं, सही हैं, तो धार्मिक संघर्षों का क्षेत्र सीमित हो जाता है। देश और कालगत विविधताएं तथा व्यक्ति की अपनी प्रवृत्ति और योग्यता आदि ऐसे तत्व हैं, जिनके कारण साधनागत विविधताओं का होना स्वाभाविक है। वस्तुतः जिससे व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास होता है, वह आचार के बाह्य विधि-निषेध या बाह्य औपचारिकताएं या क्रियाकाण्ड नहीं, मूलतः साधक की भावना या जीवन-दृष्टि है। प्राचीनतम जैन आगम आचारांगसूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि - . जे आसवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते आसवा।' जो आस्रव अर्थात् बंधन के कारण हैं, वे ही परिस्रव अर्थात् मुक्ति के कारण हो सकते हैं और इसके विपरीत जो मुक्ति के कारण हैं, वे ही बंधन के कारण बन सकते हैं। अनेक बार ऐसा होता है कि बाह्य रूप में हम जिसे अनैतिक और अधार्मिक कहते हैं, वह देश, काल, व्यक्ति और परिस्थितियों के आधार पर नैतिक और धार्मिक हो जाता है। धार्मिक जीवन में साधना का बाह्य कलेवर इतना महत्वपूर्ण नहीं होता जितना (113) Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसके मूल में रही हुई व्यक्ति की भावनाएं होती हैं। बाह्य रूप से किसी युवती की पंरिचर्या करते हुए एक व्यक्ति अपनी मनोभूमिका के आधार पर धार्मिक हो सकता है, तो दूसरा अधार्मिका वस्तुतः परिचर्या करते समय परिचर्या की अपेक्षा भी जो अधिक महत्वपूर्ण है, वह उस परिचर्या के मूल में निहित प्रयोजन, प्रेरक या मनोभूमिका होती है। एक व्यक्ति निष्काम भावना से किसी की सेवा करता है, तो दूसरा व्यक्ति अपनी वासनाओं अथवा अपने क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति के लिए किसी की सेवा करता है। बाहर से दोनों सेवाएं एक हैं, किंतु उनमें एक नैतिक और धार्मिक है, तो दूसरी अनैतिक और अधार्मिका हम देखते हैं कि अनेकानेक लोग लौकिक एषणाओं की पूर्ति के लिए प्रभु-भक्ति और सेवा करते हैं किंतु उनकी वह सेवा धर्म का कारण न होकर अधर्म का कारण होती है। अतः साधनागत बाह्य विभिन्नताओं को न तो धार्मिकता का सर्वस्व मानना चाहिए और न उन पर इतना अधिक बल दिया जाना चाहिए, जिससे पारस्परिक विभेद और भिन्नता की खाई और गहरी हो। वस्तुतः जब तक देश और कालगत . भिन्नताएं हैं, जब तक व्यक्ति की रुचि या स्वभावगत भिन्नताएं हैं, तब तक साधनागत विभिन्नताएं स्वाभाविक ही हैं। आचार्य हरिभद्र अपने ग्रंथ योगदृष्टिसमुच्चय में कहते हैं - चित्रा तु देशनैतेषां स्याद् विनेयानुगुण्यतः।। यस्मादेते महात्मानो भाव्याधि भिषग्वराः // अर्थात् जिस प्रकार एक अच्छा वैद्य रोगी की प्रकृति, ऋतु आदि को ध्यान में रखकर एक ही रोग के लिए दो व्यक्तियों को अलग-अलग औषधि प्रदान करता है, उसी प्रकार धर्ममार्ग के उपदेष्टा ऋषिगण भी भिन्न-भिन्न स्वभाव वाले व्यक्तियों के लिए अलग-अलग साधना-विधि प्रस्तुत करते हैं। देश, काल और रुचिगत वैचित्र्य धार्मिक साधना पद्धतियों की विभिन्नता का आधार है। वह स्वाभाविक है, अतः उसे अस्वीकार भी नहीं किया जा सकता है। धर्मक्षेत्र में साधनागत विविधताएं सदैव रही हैं और रहेंगी, किंतु उन्हें विवाद का आधार नहीं बनाया जाना चाहिए।' हमें प्रत्येक साधना-पद्धति की उपयोगिता और अनुपयोगिता का मूल्यांकन उन परिस्थितियों में करना चाहिए जिसमें उनका जन्म होता है। उदाहरण के रूप में, मूर्तिपूजा का विधान और मूर्तिपूजा का निषेध दो भिन्न देशगत और कालगत परिस्थितियों की देन हैं और उनके पीछे विशिष्ट उद्देश्य रहे हुए हैं। यदि हम उन संदर्भो में उनका मूल्यांकन करते हैं, तो इन दो विरोधी साधनापद्धतियों में भी हमें कोई विरोध नजर नहीं आएगा। सभी धार्मिक साधना-पद्धतियों का एक लक्ष्य होते हुए भी उनमें देश, काल, व्यक्ति और परिस्थिति के कारण साधनागत (114) Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभिन्नताएं आई हैं। उदाहरण के रूप में, हिन्दूधर्म और इस्लाम दोनों में उपासना के पूर्व एवं पश्चात् शारीरिक शुद्धि का विधान है। फिर भी दोनों की शारीरिक शुद्धि की प्रक्रिया भिन्न-भिन्न है। मुसलमान अपनी शारीरिक शुद्धि इस प्रकार से करता है कि उसमें जल की अत्यल्प मात्रा का व्यय हो, वह हाथ और मुंह को नीचे से ऊपर की ओर धोता है, क्योंकि इसमें पानी की मात्रा कम खर्च होती है। इसके विपरीत हिन्दू अपने हाथ और मुंह ऊपर से नीचे की ओर धोता है। इसमें जल की मात्रा अधिक खर्च होती है। शारीरिक शुद्धि का लक्ष्य समान होते हुए भी अरब देशों में जल का अभाव होने के कारण एक पद्धति अपनाई गई, तो भारत में जल की बहुलता होने के कारण दूसरी पद्धति अपनाई गई। अतः आचार के इन बाहरी रूपों को लेकर धार्मिकता के क्षेत्र में जो विवाद चलाया जाता है, वह उचित नहीं है। चाहे प्रश्न मूर्तिपजा का हो या अन्य कोई, हम देखते हैं कि उन सभी के मूल में कहीं न कहीं देश, काल और व्यक्ति के रुचिगत वैचित्र्य का आधार होता है। इस्लाम ने चाहे कितना हीं बुतपरस्ती का विरोध किया हो किंतु मुहर्रम, कब्र-पूजा आदि के नाम पर प्रकारांतर से उसमें मूर्तिपूजा प्रविष्ट हो ही गई है। इसी प्रकार इस्लाम एवं अन्य परिस्थितियों के प्रभाव से हिन्दू और जैन धर्म में अमूर्तिपूजक सम्प्रदायों का विकास हुआ। अतः धार्मिक जीवन की बाह्य आचार एवं रीति-रिवाज सम्बंधी दैशिक, कालिक और वैयक्तिक भिन्नताओं को धर्म का मूलाधार न मानकर, इन भिन्नताओं के प्रति एक उदार और व्यापक दृष्टिकोण रखना आवश्यक है। हमें इन सभी विभिन्नताओं को उनके उद्भव की मूलभूत परिस्थितियों में समझने का प्रयत्न करना चाहिए। . शास्त्र की सत्यता का प्रश्न - धार्मिकता के क्षेत्र में अनेक बार यह विवाद भी प्रमुख हो जाता है कि हमारा धर्मशास्त्र ही सच्चा धर्मशास्त्र है और दूसरों का धर्मशास्त्र सच्चा और प्रामाणिक नहीं है। इस विषय में प्रथम तो हमें यह जान लेना चाहिए कि धर्मशास्त्र का मूल स्त्रोत तो धर्मप्रवर्तक के उपदेश ही होते हैं और सामान्यतया प्राचीन धर्मों में वे मौखिक ही रहे हैं। जिन्होंने उन्हें लिखित रूप दिया, वे देश और कालगत परिस्थितियों से सर्वथा अप्रभावित रहे, यह कहना बड़ा कठिन है। महावीर के उपदेश उनके परिनिर्वाण ने एक हजार वर्ष बाद लिखे गए- क्या इतनी लम्बी कालावधि में उसमें कुछ घटाव-बढ़ाव नहीं हुआ * होगा? न केवल यह प्रश्न जैन शास्त्रों का है अपितु हिन्दू और बौद्ध धर्म के शास्त्रों का भी है। दुर्भाग्य से किसी भी धर्म का धर्मशास्त्र, उसके उपदेष्टा के जीवनकाल में नहीं (115) Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिखा गया। न महावीर के जीवन में आगम लिखे गए, न बुद्ध के जीवन में त्रिपिटक लिखे गए, न ईसा के जीवन में बाइबिल और न मुहम्मद के जीवन में कुराना पुनः यदि प्रत्येक धर्मशास्त्र में से दैशिक, कालिक और वैयक्तिक तथ्यों को अलग कर धर्म के उत्स या मूल तत्व को देखा जाए, तो उनमें बहुत बड़ी भिन्नता भी दृष्टिगोचर नहीं होती है। आचार के सामान्य नियम- हत्या मत करो, झूठ मत बोलो, चोरी मत करो, व्यभिचार मत करो, नशीले पदार्थों का सेवन मत करो, संचयवृत्ति से दूर रहो और अपने धन का दीन-दुःखियों की सेवा में उपयोग करो- ये सब सभी धर्मशास्त्रों में समान रूप से प्रतिपादित हैं, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि हम इन मूलभूत आधार स्तम्भों को छोड़कर उन छोटीछोटी बातों को ही अधिक पकड़ते हैं, जिनसे पारस्परिक भेद की खाई और गहरी होती जैनों के सामने भी शास्त्र की सत्यता और असत्यता का प्रश्न आया था। किसी सीमा तक उन्होंने सम्यक् - श्रुत और मिथ्या-श्रुत के नाम पर तत्कालीन शास्त्रों का विभाजन भी कर लिया था, किंतु फिर भी उनकी दृष्टि संकुचित और अनुदार नहीं रही। उन्होंने ईमानदारीपूर्वक इस बात को स्वीकार कर लिया कि जो सम्यक् - श्रुत है, वह मिथ्या-श्रुत भी हो सकता है और जो मिथ्या-श्रुत है वह सम्यक् - श्रुत भी हो सकता है। श्रुति या शास्त्र का सम्यक् होना या मिथ्या होना शास्त्र के शब्दों पर नहीं, अपितु उसके अध्येता और व्याख्याता पर निर्भर करता है। जैन आचार्य स्पष्टरूप से कहते हैं कि एक मिथ्यादृष्टि के लिए सम्यक् - श्रुत भी मिथ्या - श्रुत हो सकता है और एक सम्यग्दृष्टि के लिए मिथ्या-श्रुत भी सम्यक् - श्रुत हो सकता है। सम्यक् - दृष्टि व्यक्ति मिथ्या - श्रुत में से भी अच्छाई और सारतत्व ग्रहण कर लेता है, तो दूसरी ओर एक मिथ्यादृष्टि व्यक्ति सम्यक् - श्रुत में भी बुराई और कमियां देख सकता है। अतः शास्त्र के सम्यक् और मिथ्या होने का प्रश्न मूलतः व्यक्ति के दृष्टिकोण पर निर्भर है। ग्रंथ और इसमें लिखे शब्द तो जड़ होते हैं, उनको व्याख्यायित करने वाला तो व्यक्ति का अपना मनस् है। अतः श्रुत सम्यक् और मिथ्या नहीं होता है, सम्यक् या मिथ्या होता है उनसे अर्थ-बोध प्राप्त करने वाले व्यक्ति का मानसिक दृष्टिकोण। एक व्यक्ति सुंदर में भी असुंदर देखता है तो दूसरा व्यक्ति असुंदर में भी सुंदर देखता है। अतः यह विवाद निरर्थक और अनुपयोगी है कि हमारा शास्त्र ही सम्यक् - शास्त्र है और दूसरे का शास्त्र मिथ्या-शास्त्र है। हम शास्त्र को जीवन से नहीं जोड़ते हैं अपितु उसे अपने-अपने ढंग से व्याख्यायित करके उस विचार-भेद के आधार पर विवाद करने का प्रयत्न करते हैं। परंतु शास्त्र को जब भी (116) Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्यायित किया जाता है, वह देश, काल और वैयक्तिक रुचि भेद से अप्रभावित हुए बिना नहीं रहता। एक ही गीता को शंकर और रामानुज दो अलग-अलग दृष्टि से व्याख्यायित कर सकते हैं। वही गीता तिलक, अरविंद और राधाकृष्णन् के लिए अलगअलग अर्थ की बोधक हो सकती है। अतः शास्त्र के नाम पर धार्मिक क्षेत्र में विवाद और असहिष्णुता को बढ़ावा देना उचित नहीं है। शास्त्र और शब्द जड़ है, उससे जो अर्थबोध किया जाता है, वही महत्वपूर्ण है और यह अर्थबोध की प्रक्रिया श्रोता या पाठक की दृष्टि पर निर्भर करती है, अतः महत्व दृष्टि का है, शास्त्र के निरे शब्दों का नहीं है। यदि दृष्टि उदार और व्यापक हो, हममें नीर-क्षीर विवेक की क्षमता हो और शास्त्र के वचनों को हम उस परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रयास करें जिसमें वे कह गए हैं, तो हमारे विवाद का क्षेत्र सीमित हो जाएगा। जैनाचार्यों ने नंदीसूत्र में जो यह कहा कि सम्यक् - श्रुत मिथ्यादृष्टि के लिए मिथ्या-श्रुत हो जाता है और मिथ्या-श्रुत भी सम्यक् - दृष्टि के लिए सम्यक् - श्रुत होता है, उसका मूल आशय यही है। धार्मिक असहिष्णुता का बीज-रागात्मकता . धार्मिक असहिष्णुता का बीज तभी वपित होता है, जब हम अपने धर्म या साधना-पद्धति को ही एकमात्र और अंतिम मानने लगते हैं तथा अपने धर्म-गुरु को ही एकमात्र सत्य का द्रष्टा मान लेते हैं। यह अवधारणा ही धार्मिक वैमनस्यता का मूल कारण है। . वस्तुतः जब व्यक्ति की रांगात्मकता धर्मप्रवर्तक, धर्ममार्ग और धर्मशास्त्र के साथ जुड़ती है, तो धार्मिक कदाग्रहों और असहिष्णुता का जन्म होता है। जब हम अपने धर्म-प्रवर्तक को ही सत्य का एकमात्र द्रष्टा और उपदेशक मान लते हैं, तो हमारे मन में दूसरे धर्मप्रवर्तकों के प्रति तिरस्कार की धारणा विकसित होने लगती है। राग का तत्व जहां एक ओर व्यक्ति को किसी से जोड़ता है, वहीं दूसरी ओर वह उसे कहीं से तोड़ने भी लगता है। जैन परम्परा में धर्म के प्रति इस ऐकान्तिक रागात्मकता को दृष्टिराग कहा गया है और इस दृष्टिराग को व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास में बाधक भी माना गया है। भगवान् महावीर के प्रथम शिष्य एवं गणधर इंद्रभूति गौतम को जब तक भगवान् महावीर जीवित रहे, कैवल्य (सर्वज्ञत्व) की प्राप्ति नहीं हो सकी, वे वीतरागता को उपलब्ध नहीं कर पाए। आखिर ऐसा क्यों हुआ? वह कौन सा तत्व था जो गौतम की वीतरागता और सर्वज्ञता की प्राप्ति में बाधक बन रहा था? प्राचीन जैन साहित्य में यह उल्लिखित है कि . एक बार इंद्रभूति गौतम 500 शिष्यों को दीक्षित कर भगवान् महावीर के पास ला रहे थे। (117) Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर के पास पहुंचते-पहुंचते उनके वे सभी शिष्य वीतराग और सर्वज्ञ हो चुके थे। गौतम को इस घटना से एक मानसिक खिन्नता हुई। वे विचार करने लगे कि जहां मेरे द्वारा दीक्षित मेरे शिष्य वीतरागता और सर्वज्ञता को उपलब्ध कर रहे हैं वहां मैं अभी भी इसको प्राप्त नहीं कर पा रहा हूं। उन्होंने अपनी इस समस्या को भगवान् महावीर के सामने प्रस्तुत किया। गौतम पूछते हैं- हे भगवन् ! ऐसा कौन-सा कारण है, जो मेरी सर्वज्ञता या वीतरागता की प्राप्ति में बाधक बन रहा है? महावीर ने उत्तर दिया - हे गौतम ! तुम्हारा मेरे प्रति जो रागभाव है, वही तुम्हारी सर्वज्ञता और वीतरागता में बाधक है।' जब तीर्थंकर महावीर के प्रति रहा हुआ रागभाव भी वीतरागता का बाधक हो सकता है तो फिर सामान्य धर्मगुरु और धर्मशास्त्र के प्रति हमारी रागात्मकता क्यों नहीं हमारे आध्यात्मिक विकास में बाधक होगी? यद्यपि जैन परम्परा धर्मगुरु और धर्मशास्त्र के प्रति ऐसी रागात्मकता को प्रशस्त-राग की संज्ञा देती है, किंतु वह यह मानती है कि यह प्रशस्त-राग भी हमारे बंधन का कारण है। राग राग है, फिर चाहे वह महावीर के प्रति क्यों न हो? जैन परम्परा का कहना है कि आध्यात्मिक विकास की सर्वोच्च अवस्था को प्राप्त करने के लिए हमें इस रागात्मकता से भी ऊपर उठना होगा। जैन कर्मसिद्धांत में मोह को बंधन का प्रधान माना गया है। यह मोह दो प्रकार का है - (1) दर्शनमोह और (2) चारित्रमोह। जैन आचार्यों ने दर्शनमोह को भी तीन भागों में बांटा है - सम्यक्तव मोह, मिथ्यात्वमोह और मिश्रमोह।। मिथ्यात्व-मोह का अर्थ तो सहज ही हमें समझ में आ जाता है। मिथ्यात्व-मोह का अर्थ है-मिथ्या सिद्धांतों और मिथ्या विश्वासों का आग्रह अर्थात् गलत सिद्धांतों और गलत आस्थाओं में चिपके रहना। किंतु सम्यक्त्वमोह का अर्थ सामान्यतया हमारी समझ में नहीं आता है। सामान्यतया सम्यक्त्व-मोह का अर्थ सम्यक्त्वं का मोह अर्थात् सम्यक्त्व का आवरणऐसा किया जाता है, किंतु ऐसी स्थिति में वह भी मिथ्यात्व का ही सूचक होता है। वस्तुतः सम्यक्त्वमोह का अर्थ है - दृष्टिराग अर्थात् अपनी धार्मिक मान्यताओं और विश्वासों को ही एकमात्र सत्य समझना और अपने से विरोधी मान्यताओं और विश्वासों को असत्य मानना। जैन दार्शनिक यह मानते हैं कि आध्यात्मिक पूर्णता या वीतरागता की उपलब्धि के लिए जहां मिथ्यात्वमोह का विनाश आवश्यक है वहां सम्यक्त्वमोह अर्थात् दृष्टिराग से ऊपर उठना भी आवश्यक है। न केवल जैन परम्परा में अपितु बौद्ध परम्परा में भी भगवान् बुद्ध के अंतेवासी शिष्य आनंद के सम्बंध में भी यह स्थिति है। आनंद भी बुद्ध के जीवन काल में अर्हत् अवस्था को प्राप्त नहीं कर पाए। बुद्ध के प्रति (118) Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनकी रागात्मकता ही उनके अर्हत् बनने में बाधक रही। चाहे वह इंद्रभूति गौतम हो या आनंद हो, यदि दृष्टिराग क्षीण नहीं होता है, तो अर्हत् अवस्था की प्राप्ति सम्भव नहीं है। वीतरागता की उपलब्धि के लिए अपने धर्म और धर्मगुरु के प्रति भी रागभाव का त्याग करना होगा। जैनधर्म में धार्मिक मतान्धता को कम करने का उपाय (अ) गुणोपासना धार्मिक असहिष्णुता के कारणों में एक कारण यह है कि हम गुणों के स्थान पर व्यक्तियों से जुड़ने का प्रयास करते हैं। जब हमारी आस्था का केंद्र या उपास्य आध्यात्मिक एवं नैतिक विकास की अवस्था विशेष न होकर व्यक्ति विशेष बन जाता है, तो फिर स्वाभाविक रूप से ही आग्रह का घेरा खड़ा हो जाता है। हम यह मानने लगते हैं कि महावीर हमारे हैं, बुद्ध हमारे नहीं। राम हमारे उपास्य हैं, कृष्ण या शिव हमारे उपास्य नहीं हैं। अतः यदि हम व्यक्ति के स्थान पर आध्यात्मिक विकास की भूमिका विशेष को अपना उपास्य बनाएं तो सम्भवतः हमारे आग्रह और मतभेद कम हो सकते हैं। इस सम्बंध में जैनों का दृष्टिकोण प्रारम्भ से ही उदार रहा है। जैन परम्परा में निम्न नमस्कार मंत्र को परम पवित्र माना गया है - नमो अरहंताणी नमो सिद्धाण। . नमो आयरियाण। नमो उवज्झायाण। नमो लोए सव्व साहूण। प्रत्येक जैन के लिए इसका पाठ आवश्यक है, किंतु इसमें किसी व्यक्ति के नाम का उल्लेख नहीं है। इसमें जिन पांच पदों की वंदना की जाती है, वे व्यक्तिवाचक न होकर गुणवाचक हैं। अर्हत्, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु व्यक्ति नहीं है, वे आध्यात्मिक और नैतिक विकास की विभिन्न भूमिकाओं के सूचक हैं। प्राचीन जैनाचार्यों की दृष्टि कितनी उदार थी कि उन्होंने इन पांच पदों में किसी व्यक्ति का नाम नहीं जोड़ा। यही कारण है कि आज जैनों में अनेक सम्प्रदायगत मतभेद होते हुए भी नमस्कार मंत्र सर्वमान्य बना हुआ है। यदि उसमें कहीं व्यक्तियों के नाम जोड़ दिए जाते तो सम्भवतः आज तक उसका स्वरूप न जाने कितना परिवर्तित और विकृत हो गया होता। नमस्कार महामंत्र जैनों की धार्मिक उदारता और सहिष्णुता का सबसे महत्वपूर्ण प्रमाण है। उसमें भी 'नमो लोए सव्व साहूणं' यह पद तो धार्मिक उदारता का सर्वोच्च शिखर कहा जा (119) Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकता है। इसमें साधक कहता है कि मैं लोक के सभी साधुओं को नमस्कार करता हूं। वस्तुतः जिसमें भी साधुत्व या मुनित्व है वह वंदनीय है। हमें साधुत्व को जैन व बौद्ध आदि किसी धर्म या किसी सम्प्रदाय के साथ न जोड़कर गुणों के साथ जोड़ना चाहिए। साधुत्व, मुनित्व या श्रमणत्व वेश या व्यक्ति नहीं है, वरन् एक आध्यात्मिक विकास की भूमिका है, एक स्थिति है, वह कहीं भी और किसी भी व्यक्ति में हो सकती है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि - न वि मुंडिएण समणो न ओंकारेण बंभणो। न मुणी रव्ववासेणं कुसचीरेण न तावसो॥ समयाए समणो होइ बंभचेरेण बंभणो। नाणेण य मुणी होइ तवेण होइ तावसो। 1. सिर मुंडा लेने से कोई श्रमण नहीं होता, ओंकार का जाप करने से कोई ब्राह्मण नहीं होता, जंगल में रहने से कोई मुनि नहीं होता और कुशचीवर धारण करने से कोई तापस नहीं होता। समता से श्रमण, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, ज्ञान से मुनि और तपस्या से तापस कहलाता है। . धर्म के क्षेत्र में अपने विरोधी पर नास्तिक, मिथ्यादृष्टि, काफ़िर आदि का आक्षेपण हमने बहुत किया है। हम सामान्यतया यह मान लेते हैं कि हमारे धर्म और दर्शन में विश्वास रखने वाला व्यक्ति ही आस्तिक, सम्यग्दृष्टि और ईमानवाला है तथा दूसरे धर्म और दर्शन में विश्वास रखने वाला नास्तिक है, मिथ्यादृष्टि है, काफ़िर है, वस्तुतः इन सबके मूल में दृष्टि यह है - मैं ही सच्चा हूं और मेरा विरोधी झूठा। हमारा दुर्भाग्य इससे भी अधिक है, वह यह कि हम न केवल दूसरों को नास्तिक, मिथ्यादृष्टि या काफ़िर समझते हैं, अपितु उन्हें सम्यग्दृष्टि और ईमानवाले बनाने की जिम्मेदारी भी अपने सिर पर ओढ़ लेते हैं। हम यह मान लेते हैं कि दुनिया को सच्चे रास्ते पर लगाने का ठेका हमने ही ले रखा है। हम मानते हैं कि मुक्ति हमारे धर्म और धर्मगुरु की शरण में ही होगी। इस एक अंधविश्वास या मिथ्या धारणा ने दुनिया में अनेक बार जिहाद या धर्मयुद्ध कराए हैं। दूसरों को आस्तिक, सम्यग्दृष्टि और ईमानवाला बनाने के लिए हमने अनेक बार खून की होलियां खेली हैं। पहले तो अपने से भिन्न धर्म या सम्प्रदाय वाले को नास्तिकता या कुफ्र का फतवा दे देना और फिर उसके सुधारने की जिम्मेदारी अपने सिर पर ओढ़ लेना, एक दोहरी मूर्खता है। दुनिया को अपने ही धर्म या सम्प्रदाय के रंग में रंगने का स्वप्न न केवल दिवास्वप्न है, अपितु एक दुःस्वप्न भी है। महावीर ने सूत्रकृतांग (120) Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में बहुत ही स्पष्ट रूप से कहा है - सयं सयं पसंसंता गरहंता परं वयं . जे उ तत्थ विउस्संति संसारे ते विउस्सिया॥13 अर्थात् जो लोग अपने-अपने मत की प्रशंसा और दूसरे मत की निंदा करते हैं तथा दूसरों के प्रति द्वेष का भाव रखते हैं वे संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं। जैन परम्परा का यह विश्वास रहा है कि सत्य का सूर्य सभी के आंगन को प्रकाशित कर सकता है। उसकी किरणे सर्वत्र विकीर्ण हो सकती हैं। जैनों के अनुसार वस्तुतः मिथ्यात्वा असत्यता तभी उत्पन्न होता है, जब हम अपने को ही एकमात्र सत्य और अपने विरोधी . को असत्य मान लेते हैं। जैन आगम साहित्य में मिथ्यात्व के जो विविध रूप बताए गए हैं, उनमें एकांत और आग्रह को भी मिथ्यात्व कहा गया है। कोई भी कथन जब वह अपने विरोधी कथन का एकांतरूप से निषेधक होता है, मिथ्या हो जाता है और जब उन्हीं मिथ्या कहे जाने वाले कथनों की सापेक्षिक सत्यता को स्वीकार कर लिया जाता है तो वह सत्य बन जाता है। जैन आचार्यों ने जैन धर्म को मिथ्यामतसमूह कहा है। आचार्य सिद्धसेन सन्मतितर्क प्रकरण में कहते हैं - ... भई मिच्छादसण समूहमइयस्स अमयसारस्स। जिणवयस्स भगवओ संविग्ग सहाहिगम्मस्स॥13 अर्थात् मिथ्यादर्शनसमूहरूप अमृतरस प्रदायी और मुमुक्षुजनों को सहज समझ में आने वाले जिनवचन का कल्याण हो।' यहां जिनधर्म को 'मिथ्यादर्शनसमूह' कहने का तात्पर्य है कि वह अपने विरोधी मतों की भी सत्यता को स्वीकार करता है। जैन धर्म को मिथ्यामतसमूह कहना सिद्धसेन की विशालहृदयता का भी परिचायक है। वस्तुतः जैन धर्म में यह माना गया है कि सभी धर्ममार्ग देश, काल और वैयक्तिक-रुचि-वैभिन्न्य के कारण भिन्न-भिन्न होते हैं, किंतु वे सभी किसी दृष्टिकोण से सत्य भी होते हैं। (ब) मुक्ति का द्वार : सभी के लिए उद्घाटित - वस्तुतः धार्मिक असहिष्णुता और धार्मिक संघर्षों का एक कारण यह भी होता है कि हम यह मान लेते हैं कि मुक्ति केवल हमारे धर्म में विश्वास करने से या हमारी साधना-पद्धति को अपनाने से ही सम्भव है या प्राप्त हो सकती है। ऐसी स्थिति में हम इसके साथ-साथ यह भी मान लेते हैं कि दूसरे धर्म और विश्वासों के लोग मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकते हैं। किंतु यह मान्यता एक भ्रांत आधार पर खड़ी है। वस्तुतः दुःख या बंधन के कारणों का उच्छेद करने पर कोई भी व्यक्ति मुक्ति का अधिकारी हो सकता है, (121) Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस सम्बंध में जैनों का दृष्टिकोण सदैव ही उदार रहा है। जैन धर्म यह मानता है कि जो भी व्यक्ति बंधन के मूलभूत कारण राग-द्वेष और मोह का प्रहाण कर सकेगा, वह मुक्ति को प्राप्त कर सकता है। ऐसा नहीं है कि केवल जैन ही मोक्ष को प्राप्त करेंगे और दूसरे लोग मोक्ष को प्राप्त नहीं करेंगे। उत्तराध्ययनसूत्र में, जो कि जैन परम्परा का एक प्राचीन आगम ग्रंथ है, अन्य लिंगसिद्ध' का उल्लेख प्राप्त होता है - इत्थी पुरिससिद्धा य तहेव य नपुंसगा। सलिंगे अन्नलिंगे य गिहिलिंगे तहेव या 'अन्यलिंग' शब्द का तात्पर्य जैनेतर धर्म और सम्प्रदाय के लोगों से है। जैन धर्म के अनुसार मुक्ति का आधार न तो कोई धर्म सम्प्रदाय है और न कोई विशेष वेशभूषा ही। आचार्य रत्नशेखरसूरि सम्बोधसत्तरी में स्पष्ट रूप से कहते हैं कि - सेयंबरो य आसंबरो य बुद्धो य अहव अन्नो वा। समभावभाविअप्पा लहेय मुक्खं न संदेहो।' अर्थात् जो भी समभाव की साधना करेगा वह निश्चित ही मोक्ष को प्राप्त करेगा फिर चाहे वह श्वेताम्बर हो या दिगम्बर हो, बौद्ध हो या अन्य किसी धर्म को मानने वाला हो। इसी बात का अधिक स्पष्ट प्रतिपादन आचार्य हरिभद्र के ग्रंथ उपदेशतरंगिणी में भी है। वे लिखते हैं कि - नासारम्बरत्वे न सिताम्बरत्वे, न तर्कआ दे न च तत्त्ववाद। न पक्षसेवाश्रयेन मुक्ति, कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव।। अर्थात् मुक्ति तो सफेद वस्त्र पहनने से होती है न दिगम्बर रहने से, तार्किक वाद-विवाद और तत्वचर्चा से भी मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। किसी एक सिद्धांत विशेष में आस्था रखने या किसी व्यक्ति विशेष की सेवा करने से भी मुक्ति असम्भव है। मुक्ति तो वस्तुतः कषायों अर्थात्, क्रोध, मान, माया और लोभ से मुक्त होने में है। एक दिगम्बर आचार्य ने भी स्पष्ट रूप से कहा है - संघो को वि न तारइ, कट्ठो मूलो तहेव णिप्पिच्छो। अप्पा तारइ अप्पा तम्हा अप्पा व झाएहि।। अर्थात् कोई भी संघ या सम्प्रदाय हमें संसार-समुद्र से पार नहीं करा सकता, चाहे वह मूलसंघ हो, काष्ठासंघ हो या निपिच्छिकसंघ हो। वस्तुतः जो आत्मबोध को प्राप्त करता है वही मुक्ति को प्राप्त करता है। मुक्ति तो अपनी विषय-वासनाओं से, अपने (122) Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहंकार और अमर्ष से तथा राग-द्वेष के तत्वों से ऊपर उठने पर प्राप्त होती है। अतः हम कह सकते हैं.कि जैनों के अनुसार मुक्ति पर न तो व्यक्ति विशेष का अधिकार है और न तो किसी धर्म विशेष का अधिकार है। मुक्त पुरुष चाहे वह किसी धर्म या सम्प्रदाय का रहा हो सभी के लिए वंदनीय और पूज्य होता है। आचार्य हरिभद्र लोकतत्वनिर्णय में कहते हैं यस्य अनिखिलाश्च न सन्ति सर्वे गुणाश्च विद्यन्ते। ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्म।।" .. अर्थात् जिसके सभी दोष विनष्ट हो चुके हैं और जिसमें सभी गुण विद्यमान हैं, वह फिर ब्रह्मा हो, महादेव हो, विष्णु हो या फिर जिन, हम उसे प्रणाम करते हैं। इसी बात को आचार्य हेमचंद्र महादेवस्तोत्र में लिखते हैं भव-बीजांकुरजनना रागाद्या क्षयमुपागता यस्या ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्म।। 18 अर्थात् संसार-परिभ्रमण के कारणभूत राग-द्वेष के तत्व जिसके क्षीण हो चुके हैं उसे चाहे ब्रह्मा हो, विष्णु हो, महोदव हो या जिन। . वस्तुतः हम अपने-अपने आराध्य के नामों को लेकर विवाद करते रहते हैं। उसकी विशेषताओं को अपनी दृष्टि से ओझल कर देते हैं। सभी धर्म और दर्शनों में उस परम तत्व या परम सत्ता को राग-द्वेष, तृष्णा और आसक्ति से रहित, विषय-वासनाओं से ऊपर उठी हुई पूर्णप्रज्ञ तथा परम कारुणिक माना गया है। हमारी दृष्टि उस परम तत्व के इस मूलभूत स्वरूप पर न होकर नामों पर टिकी होती है और इसी के आधार पर हम विवाद करते हैं। जबकि यह नामों का भेद अपने आप में कोई अर्थ नहीं रखता है। आचार्य हरिभद्र कहते हैं - सदाशिवः परं ब्रह्म सिद्धात्मा तथातेति च। शब्दैस्तद् उच्यतेऽन्वर्थाद् एकं एवैवमादिभिः॥" ...' अर्थात् वह एक जी तत्व है चाहे उसे सदाशिव कहें, परब्रह्म कहें, सिद्धात्मा कहें या तथागत कहें। नामों को लेकर जो विवाद किया जाता है उसकी निस्तारता को स्पष्ट करने के लिए एक सुंदर उदाहरण दिया जाता है। एक बार भिन्न भाषा-भाषी लोग किसी नगर की धर्मशाला में एकत्रित हो गए। वे एक ही वस्तु के अलग-अलग नामों को लेकर परस्पर विवाद करने लगे। संयोग से उसी समय उस वस्तु का विक्रेता उसे लेकर वहां आया। सब उसे खरीदने के लिए टूट पड़े और अपने विवाद की निस्सारता (123) Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को समझने लगे। धर्म के क्षेत्र में भी हमारी यही स्थिति है। हम सभी अज्ञान, तृष्णा, आसक्ति, या राग-द्वेष के तत्वों से ऊपर उठना चाहते हैं, किंतु आराध्य के नाम या आराधना विधि को लेकर व्यर्थ से विवाद करते हैं और इस प्रकार परम आध्यात्मिक अनुभूति से वंचित रहते हैं। वस्तुतः यह नामों का विवाद तभी तक रहता है जब तक कि हम उस आध्यात्मिक अनुभूति के रस का रसास्वादन नहीं करते हैं। व्यक्ति जैसे ही वीतराग, वीततृष्णा या अनासक्त की भूमिका का स्पर्श करता है, उसके सामने ये सारे नामों के विवाद निरर्थक हो जाते हैं। सतरहवीं शताब्दी के आध्यात्मिक साधक आनंदघन कहते हैं राम कहो रहिमान कहो कोउ काण्ह कहो महादेव री। . पारसनाथ कहो कोउ ब्रह्मा सकल ब्रह्म स्वयमेव री॥ भाजन भेद कहावत नाना एक मृतिका का रूप री। ताते खंड कल्पनारोपित आप अखंड अरूप री // राम-रहीम, कृष्ण-करीम, महादेव और पार्श्वनाथ सभी एक ही सत्य के विभिन्न रूप हैं। जैसे एक ही मिट्टी से बने विभिन्न पात्र अलग-अलग नामों से पुकारे जाते हैं, किंतु उनकी मिट्टी मूलतः एक ही है। वस्तुतः आराध्य के नामों की यह भिन्नता वास्तविक भिन्नता नहीं है। यह भाषागत भिन्नता है, स्वरूपगत भिन्नता नहीं है। अतः इस आधार पर विवाद और संघर्ष निरर्थक है तथा विवाद करने वाले लोगों की अल्पबुद्धि के ही परिचायक हैं। धार्मिक संघर्ष का नियंत्रक तत्व-प्रज्ञा. धर्म के क्षेत्र में अनुदारता और असहिष्णुता के कारणों में एक कारण यह भी है कि हम धार्मिक जीवन में बुद्धि या विवेक के तत्वों को नकार कर श्रद्धा को ही एकमात्र आधार मान लेते हैं। यह ठीक है कि धर्म श्रद्धा पर टिका हुआ है धार्मिक जीवन के आधार हमारे विश्वास और आस्थाएं हैं, लेकिन हमें यह ध्यान रखना होगा कि यदि हमारे ये विश्वास और आस्थाएं विवेक-बुद्धि को नकार कर चलेंगे तो वे अंधविश्वासों में परिणित हो जाएंगे और ये अंधविश्वास ही धार्मिक संघर्षों के मूल कारण हैं। धार्मिक जीवन में विवेक-बुद्धि या प्रज्ञा को श्रद्धा का प्रहरी बनाया जाना चाहिए, अन्यथा हम अंध-श्रद्धा से कभी भी मुक्त नहीं हो सकेंगे। आज का युग विज्ञान और तर्क का युग है, फिर भी हमारा अधिकांश जनसमाज, जो अशिक्षित है, वह श्रद्धा के बल पर जीता है। हमें यह स्मरण रखना होगा कि श्रद्धा यदि विवेक प्रधान नहीं होती तो.वह सर्वाधिक (124) Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घातक होती। इसीलिए जैन आचार्यों ने अपने मोक्षमार्ग की विवेचना में सम्यग्दर्शन के साथ-साथ सम्यग्ज्ञान को भी आवश्यक माना है। जैन परम्परा में भी जब आचार के बाह्य विधि-निषेधों को लेकर पार्श्वनाथ और महावीर की संघ-व्यवस्था में जो मतभेद थे, उन्हें सुलझाने का प्रयत्न किया गया, तब उसके लिए श्रद्धा के स्थान पर प्रज्ञा अर्थात् विवेक-बुद्धि को ही प्रधानता दी गई। उत्तराध्ययनसूत्र तेईसवें अध्ययन में पार्श्वनाथ की परम्परा के तत्कालीन प्रमुख आचार्य केशी महावीर के प्रधान शिष्य इंद्रभूति गौतम से यह प्रश्न करते हैं कि एक ही लक्ष्य की सिद्धि के लिए प्रयत्नशील पार्श्वनाथ और महावीर के आचार-नियमों में यह अंतर क्यों है? इससे समाज में मतिभ्रम उत्पन्न होता है कि - पन्ना समिक्खए धम्मं तत्तं तत्तविणिच्छया अर्थात् धार्मिक आचार के नियमों की समीक्षा और मूल्यांकन प्रज्ञा के द्वारा करना चाहिए। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि धार्मिक जीवन में अकेली श्रद्धा ही आधारभूत नहीं मानी जानी चाहिए, उसके साथ-साथ तर्क-बुद्धि, प्रज्ञा एवं विवेक को भी स्थान मिलना चाहिए। भगवान् बुद्ध ने आलारकलाम को कहा था कि तुम किसी के वचनों को केवल इसलिए स्वीकार मत करो कि इनका कहने वाला श्रमण हमारा पूज्य है। हे कलामों! जब तुम आत्मानुभव से अपने आप ही यह जान लो कि ये बातें कुशल हैं, ये बातें निर्दोष हैं, इनके अनुसार चलने से हित होता है, सुख होता है, तभी उन्हें स्वीकार करो। एक अन्य बौद्ध ग्रंथ तत्वसंग्रह में भी कहा गया है - तापाच्छेदाच्च निकषात् सुवर्णमिव पण्डितैः। परीक्ष्य भिक्षवो ग्राह्यं मद्वचो न तु गौरवात्॥1 . जिस प्रकार स्वर्ण को काटकर, छेदकर, कसकर और तपाकर परीक्षा की जाती है, उसी प्रकार से धर्म की भी परीक्षा की जानी चाहिए। उसे केवल शास्ता के प्रति आदरभाव के कारण स्वीकार नहीं करना चाहिए। धार्मिक जीवन में जब तक विवेक या प्रज्ञा को विश्वास और आस्था का नियंत्रक नहीं माना जाएगा, तब तक हम मानव जाति को धार्मिक संघर्षों और धर्म के नाम पर खेली जाने वाली खून की होली से नहीं बचा सकेंगे। श्रद्धा भावना प्रधान है, भावनाओं को उभाड़ना सहज होता है। अतः धर्म के नाम पर अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए सामान्य जनमानस की भावनाओं को उभाड़कर उसे उन्मादी बना देते हैं तथा शास्त्र में से कोई एक वचन प्रस्तुत कर उसे इस प्रकार व्याख्यायित करते हैं कि जिससे लोगों की भावनाएं या धर्मोन्माद उभड़े और उन्हें (125) Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने निहित स्वार्थों की सिद्धि का अवसर मिले। वे यह भी कहते हैं कि शास्त्र में एक शब्द का भी परिवर्तन करना या शास्त्र की अवहेलना करना बहुत बड़ा पाप है। मात्र यही नहीं, वे जनसामान्य को शास्त्र के अध्ययन का अनधिकारी मानकर अपने को ही शास्त्र का एकमात्र सच्चा व्याख्याता सिद्ध करते हैं और शास्त्र के नाम पर जनता को मूर्ख बनाकर अपना हित साधन करते रहते हैं। धर्म के नाम पर युगों-युगों से जनता का इसी प्रकार शोषण होता रहा है। अतः यह आवश्यक है कि शास्त्र की सारी बातों और उनकी व्याख्याओं को विवेक की तराजू पर तौला जाए। उनके सारे नियमों और मर्यादाओं का युगीन संदर्भ में मूल्यांकन और समीक्षा की जाए। जब तक यह सब नहीं होता है, तब तक धार्मिक जीवन में आई हुई संकीर्णता को मिटा पाना सम्भव नहीं है। विवेक ही ऐसा तत्व है जो हमारी दृष्टि को उदार और व्यापक बनाता है। श्रद्धा आवश्यक है किंतु उसे विवेक का अनुगामी होना चाहिए। विवेकयुक्त श्रद्धा ही सम्यक् श्रद्धा है। वही हमें सत्य का दर्शन करा सकती है। विवेक से रहित श्रद्धा अंध-श्रद्धा होगी और उसके आधार पर अंधविश्वासों के शिकार बनेंगे। आज धार्मिक उदारता और सहिष्णुता के लिए श्रद्धा को विवेक से समन्वित किया जाना चाहिए। इसलिए जैनाचार्यों ने कहा था कि सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन (श्रद्धा) में एक सामंजस्य होना चाहिए। जैन धर्म में धार्मिक सहिष्णुता का आधार-अनेकांतवाद जैन आचार्यों की मान्यता है कि परमार्थ, सत् या वस्तुतत्वअनेक विशेषताओं और गुणों का पुंज है। उनका कहना है कि 'वस्तुतत्व अनंतधर्मात्मक है। उसे अनेक दृष्टियों से जाना जा सकता है और कहा जा सकता है। अतः उसके सम्बंध में कोई भी निर्णय निरपेक्ष और पूर्ण नहीं हो सकता है। वस्तुतत्व के सम्बंध में हमारा ज्ञान और कथन दोनों ही सापेक्ष है अर्थात् वे किसी संदर्भ या दृष्टिकोण के आधार पर ही सत्य हैं। आंशिक एवं सापेक्ष ज्ञान/कथन को या अपने से विरोधी ज्ञान/कथन को असत्य कहकर नकारने का अधिकार नहीं है। इसे हम निम्न उदाहरण से स्पष्टतया. समझ सकते हैंकल्पना कीजिए कि अनेक व्यक्ति अपने-अपने कैमरों से विभिन्न कोणें से एक वृक्ष का चित्र लेते हैं। ऐसी स्थिति में सर्वप्रथम तो हम यह देखेंगे कि एक ही वृक्ष के विभिन्न कोणों से, विभिन्न व्यक्तियों के द्वारा हजारों-हजार चित्र लिए जा सकते हैं। साथ ही इन हजारों-हजार चित्रों के बावजूद भी वृक्ष का बहुत कुछ भाग ऐसा है जो कैमरों की पकड़ से अछूता रह गया है। पुनः जो हजारों-हजार चित्र भिन्न-भिन्न कोणों से लिए गए हैं, वे एक-दूसरे से भिन्नता रखते हैं। यद्यपि वे सभी उसी वृक्ष के चित्र हैं। केवल उसी स्थिति (126) Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में दो चित्र समान होंगे जब उनका कोण और वह स्थल, जहां से वह चित्र लिया गया है- एक ही हो। अपूर्णता और भिन्नता दोनों ही बातें इन चित्रों में हैं। यही बात मानवीय ज्ञान के सम्बंध में भी है। मनुष्य की ज्ञानेन्द्रियों की क्षमता और शक्ति सीमित है। वह एक अपूर्ण प्राणी है। अपूर्ण के द्वारा पूर्ण को जानने के समस्त प्रयास आंशिक सत्य के ज्ञान से आगे नहीं जा सकते हैं। हमारा ज्ञान, जब तक कि वह ऐन्द्रिकता का अतिक्रमण नहीं कर जाता, सदैव आंशिक और अपूर्ण होता है। इसी आंशिक ज्ञान को जब पूर्ण सत्य मान लिया जाता है, तो विवाद और वैचारिक संघर्षों का जन्म होता है। उपर्युक्त उदाहरण में वृक्ष के सभी चित्र उसके किसी एक अंश विशेष को ही अभिव्यक्त करते हैं। वृक्ष के इन सभी अपूर्ण एवं भिन्न-भिन्न और दो विरोधी कोणों के लिए जाने के कारण किसी सीमा तक परस्पर विरोधी अनेक चित्रों में हम यह कहने का साहस नहीं कर सकते हैं कि यह चित्र उस वृक्ष का नहीं है अथवा यह चित्र असत्य है। इसी प्रकार हमारे आंशिक दृष्टिकोणों पर आधारित सापेक्ष ज्ञान को यह अधिकार नहीं है कि वह अपने से विरोधी मन्तव्यों को असत्य कहकर नकार दे। वस्तुतः हमारी ऐन्द्रिक क्षमता, तर्कबुद्धि, शब्दसामर्थ्य और भाषायी अभिव्यक्ति सभी अपूर्ण, सीमित और सापेक्ष है। ये सम्पूर्ण सत्य की एक साथ अभिव्यक्ति में सक्षम नहीं है। मानव बुद्धि सम्पूर्ण सत्य का नहीं, अपितु उसके एकांश का ग्रहण कर सकती है। तत्व या सत्ता अज्ञेय तो नहीं है, किंतु बिना पूर्णता को प्राप्त हुए उसे पूर्णरूप से जाना भी नहीं जा सकता। आइन्सटीन ने कहा था- हम सापेक्ष सत्य को जान सकते हैं, निरपेक्ष सत्य को तो कोई निरपेक्ष द्रष्टा ही जानेगा। जब तक हमारा ज्ञान अपूर्ण, सीमित या सापेक्ष है तब तक हमें दूसरों के ज्ञान और अनुभव को, चाहे वह हमारे ज्ञान का विरोधी क्यों न हो, असत्य कहकर निषेध करने का कोई अधिकारी नहीं है। आंशिक सत्य का ज्ञान दूसरों के द्वारा प्राप्त ज्ञान का निषेधक नहीं हो सकता है। ऐसी स्थिति में यह कहना कि मेरी दृष्टि ही सत्य है, सत्य मेरे ही पास है, दार्शनिक दृष्टि से एक भ्रांत धारणा ही है। यद्यपि जैनों के अनुसार सर्वज्ञ या पूर्ण-पुरुष संपूर्ण सत्य का साक्षात्कार कर लेता है, फिर भी उसका ज्ञान और कथन उसी प्रकार निरपेक्ष (अपेक्षा से रहित) नहीं हो सकता है, जिस प्रकार बिना किसी कोण के किसी भी वस्तु का कोई भी चित्र नहीं लिया जा सकता है। पूर्ण सत्य का बोध चाहे सम्भव हो, किंतु उसे न तो निरपेक्ष रूप से जाना जा सकता है और न कहा ही जा सकता . है। उसकी अभिव्यक्ति का जब भी कोई प्रयास किया जाता है, वह आंशिक और . सापेक्ष बनकर ही रह जाता है। पूर्ण-पुरुष को भी हमें समझाने के लिए हमारी उसी भाषा (127) Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का सहारा लेना पड़ता है जो सीमित, सापेक्ष और अपूर्ण है। है' और 'नहीं है' की सीमा से घिरी हुई भाषा पूर्ण सत्य का प्रकटन कैसे करेगी। इसीलिए जैन परम्परा में कहां गया है कि कोई भी वचन (जिनवचन भी) नय (दृष्टिकोण विशेष) से रहित नहीं होता है अर्थात् सर्वज्ञ के कथन भी सापेक्ष हैं, निरपेक्ष नहीं है। जैन परम्परा के अनुसार जब सापेक्ष सत्य को निरपेक्ष रूप से दूसरे सत्यों का निषेधक मान लिया जाता है तो वह असत्य बन जाता है और इसे ही जैनों की परम्परागत शब्दावली में मिथ्यात्व कहा गया है। जिस प्रकार अलग-अलग कोणों से लिए गए चित्र परस्पर भिन्न-भिन्न और विरोधी होकर भी एक साथ यथार्थ के परिचायक होते हैं, उसी प्रकार अलग-अलग संदर्भो में कहे गए भिन्न-भिन्न विचार परस्पर विरोधी होते हुए भी सत्य हो सकते हैं। सत्य केवल उतना नहीं है, जितना हम जानते हैं। अतः हमें अपने विरोधियों के सत्य का निषेध करने का अधिकार भी नहीं है। वस्तुतः सत्य केवल तभी असत्य बनता है, जब हम उस अपेक्षा या दृष्टिकोण को दृष्टि से ओझल कर देते हैं, जिसमें वह कहा गया है। जिस प्रकार चित्र में वस्तु की सही स्थिति को समझने के लिए उस कोण का भी ज्ञान अपेक्षित होता है, उसी प्रकार वाणी में प्रकट सत्य को समझने के लिए उस दृष्टिकोण का विचार अपेक्षित है जिसमें वह कहा गया है। समग्र कथन संदर्भ सहित होते हैं और उन संदर्भो से अलग हटकर उन्हें नहीं समझा जा सकता है। जो ज्ञान संदर्भ रहित है, वा सापेक्ष है और जो सापेक्ष है, वह अपनी सत्यता का दावा करते हुए भी दूसरे की सत्य का निषेधक नहीं हो सकता है। सत्य के सम्बंध में यही एक ऐसा दृष्टिकोण है जो विभिन्न धर्म और सम्प्रदायों की सापेक्षिक सत्यता एवं मूल्यवत्ता को स्वीकार कर उनमें परस्पर सौहार्द्र और समन्वय स्थापित कर सकता है। अनेकांत की आधारभूमि पर ही यह मानना सम्भव है कि हमारे और हमारे विरोधी के विश्वास और कथन दो भिन्न-भिन्न परिप्रेक्ष्यों में एक साथ सत्य हो सकते हैं। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर सन्मतितर्क में कहते हैं - णिययवयणिजसच्चा सव्वनया परवियालणे मोहा। ते उण ण दिट्ठसमओ विभयइ सच्चे व अलिए वा॥24 अर्थात् सभी नय (अर्थात् सापेक्षिक वक्तव्य) अपने-अपने दृष्टिकोण से सत्य हैं। वे असत्य तभी होते हैं, जब वे अपने से विरोधी दृष्टिकोणों के आधार पर किए गए कथनों का निषेध करते हैं। इसीलिए अनेकांत दृष्टि का समर्थक या शास्त्र का ज्ञाता उन परस्पर विरोधी सापेक्षिक कथनों में ऐसा विभाजन नहीं करता है कि ये सच्चे हैं और ये झूठे हैं। किसी कथन या विश्वास की सत्यता और असत्यता उस संदर्भ अथवा दृष्टिकोण (128) Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष पर निर्भर करती है जिसमें वह कहा गया है। वस्तुतः यदि हमारी दृष्टि उदार और व्यापक है, तो हमें परस्पर विरोधी कथनों की सापेक्षिक, सत्यता को स्वीकार करना चाहिए। परिणामस्वरूप विभिन्न धर्मवादों में पारस्परिक विवाद या संघर्ष का कोई कारण शेष नहीं बचता। जिस प्रकार परस्पर झगड़ने वाले व्यक्ति किसी तटस्थ व्यक्ति के अधीन होकर मित्रता को प्राप्त कर लेते हैं, उसी प्रकार परस्पर विरोधी विचार और विश्वास अनेकांत की उदार और व्यापक दृष्टि के अधीन होकर पारस्परिक विरोध को भूल जाते हैं। उपाध्याय यशोविजय जी लिखते हैं यस्य सर्वत्र समता नयेषु तनयेष्विव। तस्यानेकान्तवादस्य क्व न्यूनाधिकशेमुषी // तेन स्याद्वादमालंब्य सर्वदर्शनतुल्यताम् / मोक्षोद्देशाविशेषणं यः पश्यति स शास्त्रवित् // माध्यस्थ्यमेव शास्त्रार्थों येन तच्यारु सिध्यति / स एव धर्मवादः स्यादन्यद्वालिशवल्गनम् // माध्यस्थ्यसहितं होकपदज्ञानमपि प्रमा। . शास्त्रकोटिर्वथैवान्या तथा चोक्तं महात्मना // अर्थात् सच्चा अनेकान्तवादी किसी भी दर्शन से द्वेष नहीं करता है। वह सम्पूर्ण दृष्टिकोणों (दर्शनों) को इस प्रकार वात्सल्य दृष्टि से देखता है, जिस प्रकार कोई पिता अपने पुत्र को। एक सच्चे अनेकांतवादी की दृष्टि न्यूनाधिक नहीं होती है। वह सभी के प्रति समभाव रखता है अर्थात् प्रत्येक विचारधारा या धर्म-सिद्धांत की सत्यता का विशेष परिप्रेक्ष्य में दर्शन करता है। आगे वे पुनः कहते हैं कि सच्चा शास्त्रज्ञ कहे जाने का अधिकारी वही है जो स्याद्वाद अर्थात् उदार दृष्टिकोण का आलम्बन लेकर सम्पूर्ण विचारधाराओं को समान भाव से देखता है। वस्तुतः माध्यस्थभाव ही शास्त्रों का गूढ रहस्य है और यही सच्चा धर्मवाद है। माध्यस्थभाव अर्थात् उदार दृष्टिकोण के रहने पर शास्त्र के एक पद का ज्ञान भी सफल है, अन्यथा करोड़ों शास्त्रों का ज्ञान भी वृथा है। जैन धर्म और धार्मिक सहिष्णुता के प्रसंग जैनाचार्यों का दृष्टिकोण प्रारम्भ से ही उदार और व्यापक रहा है। यही कारण है कि उन्होंने दूसरी विचारधाराओं और विश्वासों के लोगों का सदैव आदर किया है। इसका सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण जैन परम्परा का एक प्राचीनतम ग्रंथ है-ऋषिभाषित। .. ऋषिभाषित के अंतर्गत उन पैंतालीस अर्हत् ऋषियों के उपदेशों का संकलन है, जिनमें (129) Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वनाथ और महावीर को छोड़कर लगभग सभी जैनेतर परम्पराओं के हैं। नारद, भारद्वाज, नमि, रामपुत्र, शाक्यपुत्र गौतम, मंखलि गोशाल आदि अनेक धर्ममार्ग के प्रवर्तकों एवं आचार्यों के विचारों का इसमें जिस आदर के साथ संकलन किया गया है, वह धार्मिक उदारता और सहिष्णुता का परिचायक है। इन सभी को अर्हत् ऋषि कहा गया है और इनके वचनों को आगमवाणी के रूप में स्वीकार किया गया है। सम्भवतः प्राचीन धार्मिक साहित्य में यही एकमात्र ऐसा उदाहरण है, जहां विरोधी विचारधारा और विश्वासों के व्यक्तियों के वचनों को आगमवाणी के रूप में स्वीकार कर समादर के साथ प्रस्तुत किया गया हो। जैन परम्परा की धार्मिक उदारता की परिचायक सूत्रकृतांगसूत्र की पूर्वनिर्दिष्ट वह गाथा भी है, जिसमें यह कहा गया है कि जो अपने-अपने मत की प्रशंसा करते हैं और दूसरों के मतों की निंदा करते हैं तथा उनके प्रति विद्वेषभाव रखते हैं, वे संसारचक्र में परिभ्रमित होते रहते हैं। सम्भवतः धार्मिक उदारता के लिए इससे महत्वपूर्ण और कोई वचन नहीं हो सकता। यद्यपि यह सत्य है कि अनेक प्रसंगों में जैन आचार्यों ने भी दूसरी विचारधाराओं और मान्यताओं की समालोचना की है, किंतु उन संदर्भो में भी कुछ अपवादों को छोड़कर सामान्यतया हमें एक उदार दृष्टिकोण का परिचय मिलता है। हम सूत्रकृतांग का ही उदाहरण लें, उसमें अनेक विरोधी विचारधाराओं की समीक्षा की गई है। किंतु शालीनता यह है कि कहीं भी किसी धर्ममार्ग या धर्मप्रवर्तक पर वैयक्तिक छींटाकशी नहीं है। ग्रंथकार केवल उनकी विचारधाराओं का उल्लेख करता है, उनके मानने वालों का नामोल्लेख नहीं करता है। वह केवल इतना कहता है कि कुछ लोगों की यह मान्यता है या कुछ लोग यह मानते हैं, जो कि संगतिपूर्ण है। इस प्रकार वैयक्तिक या नामपूर्वक समालोचना से, जो कि विवाद या संघर्ष का कारण हो सकती है, वह सदैव दूर रहता है।28 जैनागम साहित्य में हम ऐसे अनेक संदर्भ भी पाते हैं, जहां अपने से विरोधी विचारों और विश्वासों के लोगों के प्रति समादर दिखाया गया है। सर्वप्रथम आचारांगसूत्र में जैन मुनि को यह स्पष्ट निर्देश दिया गया है कि वह अपनी भिक्षावृत्ति के लिए इस प्रकार जाए कि अन्य परम्पराओं के श्रमणों, परिव्राजकों और भिक्षुओं को भिक्षा प्राप्त करने में कोई बाधा न हो। यदि वह देखे कि अन्य परम्परा के श्रमण या भिक्षु किसी गृहस्थ उपासक के द्वार पर उपस्थित है तो वह या तो भिक्षा के लिए आगे प्रस्थान कर जाए या फिर सबके पीछे इस प्रकार खड़ा रहे कि उन्हें भिक्षाप्राप्ति में कोई बाधा न हो। मात्र यही नहीं यदि गृहस्थ उपासक उसे और अन्य परम्पराओं के भिक्षुओं के (130) Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मिलित उपभोग के लिए जैन भिक्षु को यह कहकर भिक्षा दे कि आप सब मिलकर खा लेना, जो ऐसी स्थिति में जैन भिक्षु का यह दायित्व है कि वह समानरूप से उस भिक्षा को सभी में वितरित करे। वह न तो भिक्षा में प्राप्त अच्छी सामग्री को अपने लिए रखे न भिक्षा का अधिक अंश ही ग्रहण करे। ____भगवतीसूत्र के अंदर हम यह देखते हैं कि भगवान् महावीर के ज्येष्ठ अंतेवासी गणधर इंद्रभूति गौतम को मिलने के लिए उनका पूर्वपरिचित मित्र स्कंध, जो कि अन्य परम्परा के परिव्राजक के रूप में दीक्षित हो गया था, आता है तो महावीर स्वयं गौतम को उसके सम्मान और स्वागत का आदेश देते हैं। गौतम आगे बढ़कर अपने मित्र का स्वागत करते हैं और कहते हैं- हे स्कंध! तुम्हारा स्वागत है, सुस्वागत है। अन्य परम्परा के श्रमणों और परिव्राजकों के प्रति इस प्रकार का सम्मान एवं आदरभाव निश्चित ही धार्मिक सहिष्णुता और पारस्परिक सद्भाव में वृद्धि करता है। उत्तराध्ययनसूत्र में हम देखते हैं कि भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के तत्कालीन प्रमुख आचार्य श्रमणकेशी और भगवान् महावीर के प्रधान गणधर इंद्रभूति गौतम जब संयोग से एक ही समय श्रावस्ती में उपस्थित होते हैं तो वे दोनों परम्पराओं के पारस्परिक मतभेदों को दूर करने के लिए परस्पर सौहार्द्रपूर्ण वातावरण में मिलते हैं। एक ओर ज्येष्ठकुल का विचार कर गौतम स्वयं श्रमणकेशी के पास जाते हैं तो दूसरी ओर श्रमणकेशी उन्हें श्रमणपर्याय में ज्येष्ठ मानकर पूरा समादर प्रदान करते हैं। जिस सौहार्द्रपूर्ण वातावरण में वह चर्चा चलती है और पारस्परिक मतभेदों का निराकरण किया जाता है, वह सब धार्मिक सहिष्णुता और उदार दृष्टिकोण का एक अद्भुत उदाहरण है।" . दूसरी धर्म परम्पराओं और सम्प्रदायों के प्रति ऐसा ही उदार और समादर का भाव हमें आचार्य हरिभद्र के ग्रंथों में भी देखने को मिलता है। हरिभद्र संयोग से उस युग में उत्पन्न हुए जब पारस्परिक आलोचना-प्रत्यालोचना अपनी चरम सीमा पर थी। फिर भी हरिभद्र न केवल अपनी समालोचनाओं में संयत रहे अपितु उन्होंने सदैव ही अन्य परम्पराओं के आचार्यों के प्रति आदरभाव प्रस्तुत किया। शास्त्रवार्तासमुच्चय उनकी इस उदारवृत्ति और सहिष्णुदृष्टि की परिचायक एक महत्वपूर्ण कृति है। बौद्ध दर्शन की दार्शनिक मान्यताओं की समीक्षा करने के उपरांत वे कहते हैं कि बुद्ध ने जिन क्षणिकवाद, अनात्मवाद और शून्यवाद के सिद्धांतों का उपदेश दिया, वह वस्तुतः ममत्व के विनाश और तृष्णा के उच्छेद के लिए आवश्यक ही था वे भगवान् बुद्ध को अर्हत्, महामुनि और सुवैद्य की उपमा देते हैं और कहते हैं कि जिस प्रकार एक अच्छा वैद्य रोगी के रोग (131) Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ और प्रकृति को ध्यान में रखकर एक ही रोग के लिए भिन्न-भिन्न रोगियों को भिन्न भिन्न औषधि प्रदान करता है, उसी प्रकार भगवान् बुद्ध ने अपने अनुयायियों के विभिन्न स्तरों को ध्यान में रखते हुए इन विभिन्न सिद्धांतों का उपदेश दिया है। ऐसा ही उदार दृष्टिकोण वे सांख्य दर्शन के प्रस्तोता महामुनि कपिल और न्यायदर्शन के प्रतिपादकों के प्रति भी व्यक्त करते हैं। कपिल के लिए भी वे महामुनि शब्द का प्रयोग कर अपना आदर भाव प्रकट करते हैं। विभिन्न विरोधी दार्शनिक विचारधाराओं में किस प्रकार संगति स्थापित की जा सकती है इसका एक अच्छा उदाहरण उनका यह ग्रंथ है। 12 वीं शताब्दी के प्रसिद्ध जैनाचार्य हेमचंद्र ने भी इसी प्रकार मार्मिक सहिष्णुता और उदारवृत्ति का परिचय दिया है। उन्होंने न केवल भगवान् शिव की स्तुति में महादेवस्तोत्र की रचना की अपितु शिवमंदिर में जाकर शिव की वंदना करते हुए कहा - जिसने संसार परिभ्रमण के कारणभूत राग-द्वेष के तत्वों को क्षीण कर दिया है, उसे मैं प्रणाम करता हूं चाहे वह ब्रह्मा हो, विष्णु हो, शिव हो या जिना जैनों की इस धार्मिक उदारता का एक प्रमाण यह भी है कि महाराजा कुमारपाल और विष्णुवर्धन ने जैन होकर भी शिव और विष्णु के अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया और उनकी व्यवस्था के लिए भूमिदान किया। कुमारपाल के धर्मगुरु आचार्य हेमचंद्र ने न केवल उसकी इस उदारवृत्ति को प्रोत्साहित किया अपितु शिवमंदिर में स्वयं उपस्थित होकर अपने उदारवृत्ति का परिचय भी दिया। हेमचंद्र के समान इस उदार परम्परा का निर्वाह अन्य जैनाचार्यों ने भी किया था, जिसके अभिलेखीय प्रमाण आज भी उपलब्ध होते हैं। दिगम्बर जैनाचार्य रामकीर्ति ने तोकलजी में मंदिर के लिए और श्वेताम्बर आचार्य जयमंगलसूरि ने चामुण्डा के मंदिर के लिए प्रशस्ति-काव्य लिखे। उपाध्याय यशोविजय की धार्मिक सहिष्णुता का उल्लेख हम पूर्व में कर ही चुके है। उनका यह कहना कि माध्यस्थ या सहिष्णु भाव ही धर्मवाद है, धार्मिक सहिष्णुता का मुद्रालेख है। इसी प्रकार जैन रहस्यवादी सन्तकवि आनंदघन भी कहते हैं - षडदर्शन जिन अंगभणोजे न्यायषडंग जे साधे रे। नमिजिनवरना चरम उपासक षड्दर्शन आराधे रे॥ अर्थात् सभी दर्शन जिन के अंग हैं और जिन का उपासक सभी दर्शनों की उपासना करता है। जैनों की यह उदार और सहिष्णुवृत्ति वर्तमान युग तक यथार्थतः जीवित है। आज भी जैनों की सर्वप्रिय प्रार्थना का प्रारम्भ इसी उदार भाव के साथ होता है (132) - Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिसने रागद्वेष कामादिक जीते, सब जग जान लिया। सब जीकों को मोक्ष मार्ग का, निस्पृह हो उपदेश दिया। बुद्ध वीर जिन हरि हर ब्रह्मा, या उसको स्वाधीन कहो। भक्तिभाव से प्रेरित हो, यह चित्त उसी में लीन रहो। वस्तुतः यदि हम विश्व में शांति की स्थापना चाहते हैं, यदि हम चाहते हैं कि मनुष्य-मनुष्य के बीच घृणा और विद्वेष की भावनाएं समाप्त हों और सभी एक-दूसरे के विकास में सहयोगी बनें, तो हमें आचार्य अमितगति के निम्न चार सूत्रों को अपने जीवन में अपनाना होगा। वे कहते हैं - सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् / माध्यस्थ भावं विपरीतवृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु देव॥ हे प्रभु ! प्राणीमात्र के प्रति मैत्रीभाव, गुणीजनों के प्रति समादरभाव, दुःख एवं पीड़ित जनों के प्रति कृपाभाव तथा विरोधियों के प्रति माध्यस्थभाव - समताभाव मेरी आत्मा में सदैव रहे। संदर्भ1. आयाणे अज्जो समाइए, आयाणे अजो समाइयस्स अट्ठ- व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, संपा. मधुकरमुनि,प्रका.श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर,1992,1/9. समियाए धम्मे आरिएहिं पवेइए - आचारांगसूत्र, संपा. मधुकरमुनि, प्रका. श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 1980, 1/8/3. 3. . धर्म जीवन जीने की कला - पृ. 7-8. 4. योगदृष्टिसमुच्चय, हरिभद्र, विजय कमल केशर ग्रंथमाला, खम्भात्, वि.सं. 1992, 137. आचारांगसूत्र, संपा. मधुकर मुनि, प्रका. श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 1980, 1/4/2. 6. योगदृष्टिसमुच्चय, हरिभद्र, विजय कमल केशर ग्रंथमाला, सम्वत्, वि.सं. 1992, 133. णाणाजीवा णाणा कम्मं णाणाविहं हवे लद्धी। तम्हा वयणविवादं सगपरसमएहिं वज्जिजो॥ - नियमसार, अनु. . (133) 7.. णाणाजावा Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं. परमेष्ठीदास न्यायतीर्थ, प्रका. सत्साहित्य प्रकाशन एवं प्रचार विभाग, श्री कुन्दकुन्द महान जैन दिगम्बर तीर्थ सुरक्षा ट्रस्ट, जयपुर, 1988, 156 / एवाई मिच्छद्दिहिस्स मिच्छत्तपरिग्गहियाई मिच्छसुयं एयाणि चेव सम्मदिट्ठिस्स सम्मत्तपरिरहियाई सम्मसुयं अहवा मिच्छदिट्ठिस्स वि सम्मसुयं कम्हा? सम्मत्तहेउत्तणओ, जम्हा ते मिच्छदिट्ठिया तेहिं चेव समएहिं चोइया समाणा केइ सपक्खदिट्ठीओ वयेति से तं ... मिच्छसुयं / नंदीसूत्र, प्रका. धर्मदास जैन मित्र मंडल, रतलाम, सं. 2005, 72 / / 9 अ. भगवती-अभयदेवकृत वृत्ति, प्रका. केशरीमल जैन, श्वेताम्बर संस्था , सूरत, 1937, 14/7 पृ. 1988 / (ब) मुक्खमग्ग पवनानं सिनेहो वज्जसिंखला। वीरे जीवन्तए जाओ गोयम जं न केवलि॥ - उद्धृतत कल्पसूत्र टीका विनयविजय, प्रका. हीरालाल जैन, जामनगर, 1939, पृ.120। , 10. सम्मत्तं चेव मिच्छत्तं, सम्मामिच्छत्तमेव य। . एयाओ तिन्निपयडीओ मोहणिज्जस्स दंसणे // - उत्तराध्ययन संपा.- साध्वी चंदना, प्रका. वीरायतन प्रकाशन, आगरा, 1972, 33/9 / वही, 25/31-32 सूत्रकृतांगसूत्र, संपा. मधुकर मुनि, प्रका. श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 1982, 1/1/2/23. सन्मतितर्कप्रकरण, 3/69 उत्तराध्ययनसूत्र, संपा. साध्वी चंदना, प्रका. वीरायतन प्रकाशन, आगरा, 1972, 36/49 / सम्बोधसप्ततिका, अनु. डॉ. रविशंकर मिश्र, प्रका. पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, 1986, 2 / उपदेशतरंगिणी, संपा. विजय जिनेंद्रसूरि, प्रका. श्री हर्ष पुष्पामृत जैन ग्रंथमाला, सौराष्ट्र, 1986, 1/81 . .. (134) 11. 12. 13. 14. 15. 16 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24.. 17. लोकतत्वनिर्णय, 140. 18. महादेवस्तोत्र, 44. 19. . योगदृष्टिसम्मुच्चय, हरिभद्र, प्रका. विजय कमल केशर ग्रंथमाला, खम्भात्, वि.सं. 1992, 130. 20. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा. साध्वी चंदना, प्रका. वीरायतन प्रकाशन, आगरा, 1972, 23/25. तत्वसंग्रह, संपा. द्वारिका प्रसाद शास्त्री, प्रका. बौद्ध भारती, वाराणसी, 1968, 3588 / अनन्तधर्मात्मकमेव तत्वम्, 22-अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका, हेमचंद्र, प्रका. जैन ग्रंथ प्रकाशन सभा, भावनगर, वि.सं. 1996 __नत्थि नयहिंविहूणं सुत्तं अत्थो य जिणवये किंचि ... - आवश्यकनियुक्ति, 544 / / सन्मतितर्क, संपा. सुखलाल संघवी, प्रका. पूंजीभाई ग्रंथमाला कार्यालय, अहमदाबाद, 1932, 1.28 / 25. सव्वे समयंति सम्मं चेगवसाओ नया विरुद्धा वि। मिच्च ववहारिणो इव, राआदासीण वसवत्ती॥ - विशेषा. भाष्य, श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण टीका हेमचंद्र, प्रका. हर्षचंद्र भूराभाई, बनारस, सं. 2441, 22671. 26. . अध्यात्मोपनिषद्, यशोविजय, न्यायाचार यशोविजयकृत . . ग्रंथमाला, प्रका. श्री जैनधर्म प्रकारक सभा, भावनगर, वि.सं. - 1965, 61, 70, 71, 73 / 27. अरहता इसिणा बुइयं-इसिभासियाई, संपा. महोपाध्याय विनयसागर, प्रका. प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, 1988, 1 एवमेगे उ पासत्था ते भुज्जो विप्पगब्भिया। - एवं उवट्ठिता संता ण ते दुक्खविमोक्खया॥ - सूत्रकृतांगसूत्र, संपा. मधुकर मुनि, प्रका. श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 1982, 1/2/31-32 आचारांगसूत्र, संपा. मधुकरमुनि, प्रका. श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 2/1/5/29 / (135) 28. वो Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31. 30. हे खंदया ! सागयं, खंदया ! सुसागयं - भगवतीसूत्र, संपा. घासीलाल जी, प्रका. अ.भा.श्चे, स्था. जैन शास्त्रोद्धार समिति, राजकोट, 1962 / उत्तराध्ययन संपा. साधवी चंदना, प्रका. वीरायतन प्रकाशन, आगरा, 1972, अध्याय 23 / देखें - शास्त्रवार्तासमुच्चय, हरिभद्रसूरि, प्रका. लालभाई, दलपतभाई भारतीय विद्या मंदिर, अहमदाबाद, 1968,3/206, 3/237, 6/64-67 / 33. सामायिकपाठ, संपा. प्रेमराज बोगावत, प्रका. सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल, जयपुर, 1975, 1 / (136) Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म का मर्म : भारतीय-जीवन दृष्टि - धर्मशब्द जिसे अंग्रेजी में Religion (रिलीजन) कहा जाता है, उसकी व्युत्पत्ति हमें यह बताती है कि धर्म एक योजक तत्व है, वह जोड़ता है। रिलीजन शब्द री + लीजेर से बना है। जिसका अर्थ होता है- पुनः जोड़ने वाला। जबकि सम्प्रदाय या School शब्द विभाजन का सूचक है। इस प्रकार जहां धर्म का कार्य जोड़ना है, वहां सम्प्रदाय का कार्य विभाजित करना है। यदि हम इस आधार पर ही कोई निष्कर्ष निकालें तो हमें कहना होगा कि साम्प्रदायिकता में धर्म नहीं (रहा हुआ) है। धर्म में रहकर तो सम्प्रदाय में रहा जा सकता है, किंतु सम्प्रदाय में रहकर कोई धर्म में नहीं रह सकता है। यदि इसे और अधिक स्पष्ट करें तो इसका तात्पर्य होगा कि यदि व्यक्ति धार्मिक है और वह किसी सम्प्रदाय से जुड़ा है तो वह बुरा नहीं, किंतु यदि व्यक्ति सम्प्रदाय में ही जीता है और धर्म में नहीं, तो वह निश्चय ही समाज के लिए एक चिंता का विषय है। आज स्थिति यह है कि हम सब सम्प्रदायों में जीते हैं, धर्म में नहीं। इसीलिए आज साम्प्रदायिकता मानव मात्र के लिए खतरा बन रही है। धर्म स्वभाव है, वह आंतरिक है। सम्प्रदाय का सम्बंध आचार की बाह्य रुढ़ियों तक सीमित है इसलिए वह बाहरी है। सम्प्रदाय यदि धर्म से रहित है तो वह ठीक वैसा ही है जैसे आत्मा से रहित शरीर! सम्प्रदाय धर्म का शरीर है और शरीर का होना बुरा भी नहीं, किंतु जिस प्रकार शरीर में से आत्मा के निकल जाने के बाद वह शव हो जाता है और परिवेश में सड़ांध व दुर्गंध फैलाता है उसी प्रकार धर्म से रहित सम्प्रदाय भी समाज में घृणा और अराजकता उत्पन्न करते हैं, सामाजिक जीवन को गलित व सड़ांधयुक्त बनाते हैं। शायद यहां पूछा जा सकता है कि धर्म और सम्प्रदाय में अंतर का आधार क्या है ? वस्तुतः धर्म आस्था / निष्ठा के साथ मानवीय सद्गुणों को जीवन में जीने के प्रयास से भी जुड़ा है, जबकि सम्प्रदाय केवल कुछ रुढ़ क्रियाओं को ही पकड़कर चलता है। नैतिक सद्गुण त्रैकालिक सत्य हैं, वे सदैव शुभ हैं। जबकि साम्प्रदायिक रुढ़ियों का मूल्य युग विशेष और समाज विशेष में ही होता है अतः वे सापेक्ष हैं। जब इन सापेक्षिक सत्यों को ही एक सार्वभौम सत्य मान लिया जाता है तो इसी से सम्प्रदायवाद का जन्म होता है। यह सम्प्रदायवाद वैमनस्य और घृणा के बीज बोता है। अतः कहा जा सकता है कि जहां धर्म आपस में प्रेम करना सिखाता है वहीं (137) Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्प्रदाय आपस में घृणा के बीज बोता है। यदि हम धर्मों के मूल सारतत्व को देखें तो उनमें कोई बहुत बड़ा अंतर नजर नहीं आता, क्योंकि सभी धर्मों की मूलभूत शिक्षाएं समान ही हैं। न केवल मूलभूत शिक्षाएं ही समान हैं अपितु सभी का व्यावहारिक लक्षण भी समान है। वे मनुष्य को एक ऐसी जीवन शैली प्रदान करते हैं जिसमें व्यक्ति और समाज दोनों ही शांति व सुख का अनुभव कर सकें। किसी कवि ने कहा है - न हिन्दू बुरा है न मुसलमां बुरा है। . . . बुरा वह है जिसका दिल बुरा है। सम्प्रदाय वह रंगीन चश्मा है जो सबको अपने ही रंग में देखना चाहता है और जो भी उसे अपने से भिन्न रंग में दिखाई देता है उसे वह गलत मान लेता है। जबकि धर्म खुली आंखों से उस सारभूत तत्व को देखता है, जो सभी के मूल में समान रूप से समाया हुआ है। इसीलिए धार्मिक होकर तो सम्प्रदाय में हुआ जा सकता है, किंतु सम्प्रदाय में होकर कोई व्यक्ति धर्म में नहीं हो सकता। सम्प्रदाय धर्म साधना की एक विशिष्ट प्रक्रिया को अपनाने वाले लोगों का एक समूह है, किंतु जब यही लोग धर्म के मूल उत्स को छोड़कर मात्र बाह्य क्रियाकाण्डों को ही सब कुछ समझ लेते हैं तो वे धार्मिक न रहकर साम्प्रदायिक बन जाते हैं और यही साम्प्रदायिकता बुरी है। पूर्व में जो यह कहा गया है कि सम्प्रदायों में धर्म नहीं, उसका तात्पर्य यही है कि साम्प्रदायिक आग्रहों के साथ कोई व्यक्ति धार्मिक नहीं हो सकता। धर्म को यदि हम केंद्र-बिंदु मानें तो सम्प्रदाय व्यक्ति रूपी परिधि-बिंदु को केंद्र से जोड़ने वाली त्रिज्या रेखा के समान है। एक केंद्र-बिंदु से परिधि-बिंदुओं को जोड़ने वाली अनेक रेखाएं खींची जा सकती है। यदि वे सभी रेखाएं परिधि-बिंदु को केंद्र से जोड़ती हैं तब तो वे एक-दूसरे को नहीं काटती अपितु एक-दूसरे से मिलती है किंतु कोई भी रेखा जब केंद्र का परित्याग कर चलती है तो वह दूसरे को काटने लगती है, यही स्थिति सम्प्रदाय की है। सम्प्रदाय जब तक धर्म की ओर उन्मुख है तब तक वे एक-दूसरे के विरोध में खड़े नहीं होते, किंतु जब जब सम्प्रदाय धर्म से विमुख हो जाते हैं तो वे एक दूसरे को काटने लगते हैं। यदि विभिन्न सम्प्रदाय परस्पर सौजन्य एवं सहिष्णुता के साथ जीवित हैं तो वे वस्तुतः धर्म ही हैं, क्योंकि उनके मूल में धार्मिकता का उत्स समाया हुआ है, किंतु जब वे सम्प्रदाय एक-दूसरे के विरोध में खड़े होते हैं तो वे 'सम्प्रदाय' होते हैं, 'धर्म' नहीं, और ऐसे धर्मरहित सम्प्रदाय ही सामाजिक जीवन में असद्भाव और वैमनस्य को जन्म देते हैं। (138) Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म के दो पक्ष होते हैं - एक उसका शाश्वत और सार्वभौम पक्ष होता है तथा दूसरा दैशिक और कालिक पक्षा धर्म का शाश्वत और सार्वभौम पक्ष उसका सारतत्व कहा जा सकता है, जबकि दैशिक और कालिक पक्ष उसका बाह्यरूप कहा जा सकता है, जो कि समय-समय पर परिवर्तित होता रहता है। धार्मिक असहिष्णुता का जन्म तब होता है जब हम धर्म के इस रुढ़िगत बाह्य रूप को ही उसका सर्वस्व मान लेते हैं और धर्म के मूल उत्स को भुला देते हैं। मनुष्य ने धर्म के सारतत्व के आचरण पर बल न देकर रुढ़ियों और कर्मकाण्डों को ही धर्म का सर्वस्व मान लिया। परिणामतः धर्मों की मूलभूत एकता विस्मृत हो गई और उसके भेद की प्रमुख बन गए। इसकी फलश्रुति धार्मिक असहिष्णुता और धार्मिक संघर्षों के रूप में प्रकट हुई। यदि हम धर्म के मूल उत्स और शिक्षाओं को देखें तो मूसा की दस आज्ञाएं, ईसा के पर्वत पर के उपदेश, बुद्ध के पंचशील, महावरी के पंचमहाव्रत, और पतंजलि के पंचयम एक-दूसरे से अधिक भिन्न नहीं हैं। वस्तुतः ये धर्म की मूलभूत शिक्षाएं हैं और इन्हें जीवन में जीकर व्यक्ति न केवल एक अच्छा ईसाई, जैन, बौद्ध या हिन्दू बनता है अपितु वह सच्चे अर्थ में धार्मिक भी बनता है। दुर्भाग्य से आज धार्मिक साम्प्रदायिकता ने पुनः मानव समाज को अपनी गिरफ्त में ले लिया है और धर्म के कुछ तथाकथित ठेकेदार अपनी क्षुद्र ऐषणाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए धर्म के नाम पर मानव समाज में न केवल बिखराव पैदा कर रहे हैं, अपितु वे एक वर्ग को दूसरे वर्ग के विरुद्ध उभाड़ रहे हैं। मनुष्य की दुविधा-अध्यात्मवाद / भौतिकवाद आज मनुष्य अशांत, विक्षुब्ध एवं तनावपूर्ण स्थिति में है। बौद्धिक विकास से प्राप्त विशाल ज्ञान-राशि और वैज्ञानिक तकनीक से प्राप्त भौतिक सुख-सुविधा एवं आर्थिक समृद्धि मनुष्य की आध्यात्मिक, मानसिक एवं सामाजिक विपन्नता को दूर नहीं कर पाई है। ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा देने वाले सहस्त्राधिक विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों के होते हुए भी आज का शिक्षित मानव अपनी स्वार्थपरता और भोगलोलुपता पर विवेक एवं संयम का अंकुश नहीं लगा पाया है। भौतिक सुख-सुविधाओं का यह अम्बार आज भी उसके मन की मांग को संतुष्ट नहीं कर सका है। आवागमन के सुलभ साधनों ने विश्व की दूरी को कम कर दिया है, किंतु मनुष्य-मनुष्य के बीच हृदय की दूरी आज ज्यादा हो गई है। यह कहीं धर्म के नाम पर तो कहीं जाति एवं वर्ण के नाम एक-दूसरे से कटते चले जा रहे हैं। सुरक्षा के साधनों की यह बहुलता आज भी उसके (139) Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन में अभय का विकास नहीं कर पाई है, आज भी वह उतना ही आशंकित, आतंकित और आक्रामक है, जितना आदिम युग में रहा होगा। मात्र इतना ही नहीं, आज विध्वंसकारी शस्त्रों के निर्माण के साथ उसकी यह आक्रामक वृत्ति अधिक विनाशकारी बन गई है और वह शस्त्र-निर्माण की इस दौड़ में सम्पूर्ण मानव जाति की अन्त्येष्टि की सामग्री तैयार कर रहा है। आर्थिक सम्पन्नता की इस अवस्था में भी मनुष्य उतना ही अधिक अर्थलोलुप है, जितना कि वह पहले कभी रहा होगा। आज मनुष्य की इस अर्थलोलुपता ने मानव जाति को शोषक और शोषित ऐसे दो वर्गों में बांट दिया है, जो एक दूसरे को पूरी तरह निगल जाने की तैयारी कर रहे हैं। एक भोगाकांक्षा और तृष्णा की दौड़ में पागल है तो दूसरा पेट की ज्वाला को शांत करने के लिए व्यग्र और विक्षुब्धा आज विश्व में वैज्ञानिक तकनीक और आर्थिक समृद्धि की दृष्टि से सबसे अधिक विकसित राष्ट्र यू.एस.ए, मानसिक तनावों एवं आपराधिक पवृत्तियों के कारण सबसे अधिक परेशान है, इससे सम्बंधित आंकड़े चौंकाने वाले हैं। किसी उर्दू शायर ने ठीक ही कहा है - तालीम का शोर इतना, तहजीब का गुल इतना। बरकत जो नहीं होती, नीयत की खराबी है // आज मनुष्य का सबसे बड़ा दुर्भाग्य तो यह है कि इस तथाकथित सभ्यता के विकास के साथ उसकी आदिम युग की एक सहज, सरल एवं स्वाभाविक जीवनशैली भी उससे छिन गई है, आज जीवन के हर क्षेत्र में कृत्रिमता और छयों का बाहुल्य है। मनुष्य आज न तो अपनी मूलवृत्तियों एवं वासनाओं का शोधन या उदात्तीकरण कर पाया है और न इस तथाकथित सभ्यता के आवरण को बनाए रखने के लिए उन्हें सहज रूप में प्रकट ही कर पा रहा है। उसके भीतर उसका पशुत्व' कुलांचें भर रहा है, किंतु बाहर वह अपने को 'सभ्य' दिखाना चाहता है। अंदर वासना की उद्दाम ज्वालाएं और बाहर सच्चरित्रंता और सदाशयता का छद्म जीवन, यही आज के मानस की त्रासदी है, पीड़ा है। आसक्ति, भोगलिप्सा, भय, क्रोध, स्वार्थ और कपट की दमित मूलप्रवृत्तियां और उनसे जन्य दोषों के कारण मानवता आज भी अभिशिप्त है, आज वह दोहरे संघर्ष से गुजर रही है - एक आंतरिक और दूसरा बाह्या आंतरिक संघर्षों के कारण आज उसका मानस तनावयुक्त है, विक्षुब्ध है, तो बाह्य संघर्षों के कारण मानव-जीवन अशांत और अस्त-व्यस्ता आज मनुष्य का जीवन मानसिक तनावों, सांवेगिक असंतुलनों और मूल्य संघर्षों से युक्त है। आज का मनुष्य परमाणु तकनीक की बारीकियों को (140) Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिक जानता है किंतु एक सार्थक सामंजस्यपूर्ण जीवन के आवश्यक मूल्यों के प्रति उसका उपेक्षाभाव है। वैज्ञानिक प्रगति से समाज के पुराने मूल्य ढह चुके हैं और नए मूल्यों का सृजन अभी हो नहीं पाया है। आज हम मूल्यरिक्तता की स्थिति में जी रहे हैं और मानवता नए मूल्यों की प्रसव-पीड़ा से गुजर रही है। आज वह एक निर्णायक मोड़ पर खड़ी हुई है, उसके सामने दो ही विकल्प है - या तो पुनः अपने प्रकृत आदिम जीवन की ओर लौट जाए या फिर एक नए मानव का सृजन करे, किंतु पहला विकल्प अब न तो सम्भव है और न वरेण्या अतः आज एक ही विकल्प शेष है - एक नए आध्यात्मिक मानव का निर्माण, अन्यथा आज हम उस कगार पर खड़े हैं, जहां मानव जाति का सर्वनाश हमें पुकार रहा है। यहां जोश का यह कथन कितना मौजूं है - सफाइयां हो रही हैं जितनी, दिल उतने ही हो रहे हैं मैले। अंधेरा छा जाएगा जहां में, अगर यही रोशनी रहेगी। इस निर्णायक स्थिति में मानव को सर्वप्रथम यह तय करना है कि आध्यात्मवादी और भौतिकवादी जीवन दृष्टियों में से कौन उसे वर्तमान संकट से उबार सकता है ? जैन धर्म कहता है कि भौतिकवादी दृष्टि मनुष्य की उस भोग-लिप्सा तथा तद्जनित स्वार्थ एवं शोषण की पाशविक प्रवृत्तियों का निरसन करने में सर्वथा असमर्थ है, क्योंकि भौतिकवादी दृष्टि में मनुष्य मूलतः पशु ही है। वह मनुष्य को एक आध्यात्मिक (Spiritual being) न मानकर एक विकसित सामाजिक पशु (Developed social ani mal) ही मानती है। जबकि जैन धर्म मानव को विवेक और संयम की शक्ति से युक्त मानता है। भौतिकवाद के अनुसार मनुष्य का निःश्रेयम् उसकी शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक मांगों की संतुष्टि में ही है। वह मानव की भोग-लिप्सा की संतुष्टि को ही उसका चरम लक्ष्य घोषित कर देता है। यद्यपि वह एक आरोपित सामाजिकता के द्वारा मनुष्य की स्वार्थ एवं शोषण की पाशविक वृत्तियों का नियमन करना अवश्य चाहता है, किंतु इस आरोपित सामाजिकता का परिणाम मात्र इतना ही होता है कि मनुष्य प्रत्यक्ष में शांत और सभ्य होकर भी परोक्ष में अशांत एवं उद्दीप्त बना रहता है और उन अवसरों की खोज करता है जब समाज की आंख बचाकर अथवा सामाजिक आदर्शों के नाम पर उसकी पाशविक वृत्तियों को छद्म रूप में खुलकर खेलने का अवसर मिले। भौतिकवाद मानव की पाशविक वृत्तियों के नियंत्रण का प्रयास तो करता है, किंतु वह उस दृष्टि का उन्मूलन नहीं करता है, जो कि इस पाशविक वृत्तियों का मूल उद्गम है। उसका प्रयास जड़ों को सींचकर शाखाओं के काटने का प्रयास है। वह रोग के कारणों को खोजकर (141) Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्हें समाप्त नहीं करता है, अपितु मात्र रोग के लक्षणों को दबाने का प्रयास करता है। यदि जीवन की मूल दृष्टि भौतिक उपलब्धि और दैहिक वासनाओं की संतुष्टि हो तो स्वार्थ और शोषण का चक्र भी समाप्त नहीं होगा। उसके लिए हमें जीवन के उच्च मूल्यों या आदर्शों को स्वीकार करना होगा। जब तक एक आध्यात्मिक दृष्टि के आधार पर सामाजिकता को विकसित नहीं किया जाता है, तब तक आरोपित सामाजिकता से मानव की स्वार्थ एवं शोषण की वृत्तियों का वास्तविक रूप में निराकरण असम्भव है। दुःख का मूल ममता . भगवान् महावीर ने इस तथ्य को गहराई से समझा था कि भौतिकवाद मानवीय दुःखों की मुक्ति का सम्यक्-मार्ग नहीं है, क्योंकि वह उस कारण का उच्छेद नहीं कर सकता जिससे दुःख-परम्परा की यह धारा प्रस्फुटित होती है। वे उत्तराध्ययन सूत्र में कहते हैं कि कामाणुगिद्धिप्पभवं खुदुक्खं जं काइयं माणसियं च किंचि' अर्थात् समस्त भौतिक एवं मानसिक दुःखों का मूल कारण कामासक्ति है। भौतिकवाद के पास इस कामासक्ति या ममत्वबुद्धि को समाप्त करने का कोई उपाय नहीं है। न केवल जैन धर्म ने अपितु लगभग सभी धर्मों ने इस बात को एकमत से स्वीकार किया है कि समस्त दुःखों का मूल कारण आसक्ति, तृष्णा या ममत्वबुद्धि है। यदि हम मानव जाति को स्वार्थ, हिंसा, शोषण, भ्रष्टाचार एवं तद्जनित दुःखों से मुक्त करना चाहते हैं तो भौतिकावादी दृष्टि का परित्याग कर उस आध्यात्मिक दृष्टि का विकास करना होगा जिसके अनुसार भौतिक सुख-सुविधाओं की उपलब्धि ही जीवन का अंतिम लक्ष्य नहीं है। हमें यह मानना होगा कि दैहिक सुख-सुविधाओं की उपलब्धि ही जीवन का अंतिम लक्ष्य नहीं है। दैहिक एवं आर्थिक मूल्यों से परे अन्य उच्च मूल्य भी हैं। आध्यात्म-दृष्टि अन्य कुछ नहीं, अपितु इन उच्च मूल्यों की स्वीकृति है। जैन-धर्म के अनुसार अध्यात्म का अर्थ है - परार्थ को परम मूल्य न मानकर आत्म को परम मूल्य मानना। पदार्थवादी दृष्टि मानवीय दुःखों और सुखों का आधार ‘वस्तु' या बाह्य परिस्थिति को मानती है, उसके अनुसार सुख-दुःख वस्तुगत लक्ष्य हैं। अतः भौतिकवादी मानव सुख की लालसा में वस्तुओं के पीछे दौड़ता है और उनके संग्रह हेतु स्तेय, शोषण एवं संघर्ष जैसी सामाजिक बुराइयों को जन्म देता है। इसके विपरीत जैन धर्म या अध्यात्म हमें यह सिखाता है कि सुख-दुःख आत्मकृत हैं। बाहर न कोई शत्रु है और न कोई मित्र। आत्मा ही अपना मित्र और शत्रु है। सुप्रस्थित आत्मा मित्र है और दुःप्रस्थित आत्मा शत्रु है। अतः सुख-दुःख की खोज पदार्थों में न कर आत्मा में करना है। जैन आचार्य कहते हैं कि यह ज्ञान-दर्शन स्वरूप (142) Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाश्वत आत्म तत्व ही अपना है, शेष सभी संयोगजन्य पदार्थ आत्मा से भिन्न हैं, अपने नहीं हैं। इन सांयोगिक उपलब्धियों में ममत्वबुद्धि दुःख परम्परा का कारण है, अतः आनंद की प्राप्ति हेतु इनके प्रति ममत्वबुद्धि का सर्वथा त्याग करना अपेक्षित है। संक्षेप में देहादि आत्मेतर पदार्थों के प्रति ममत्वबुद्धि का त्याग और भौतिक उपलब्धियों के स्थान पर आत्मोपलब्धि अर्थात् वीतराग दशा की उपलब्धि को जीवन का निःश्रेयस स्वीकार करना अध्यात्मविद्या और जैनधर्म का मूलतत्व है और यही मानव जाति के मंगल का मार्ग है, क्योंकि इसी के द्वारा आधुनिक मानव को आंतरिक एवं बाह्य तनावों से मुक्त कर निराकुल बनाया जा सकता है। ममता का विसर्जन/दःख का निराकरण ___आध्यात्मिक मूल्यों की स्वीकृति का यह तात्पर्य नहीं है कि शारीरिक एवं भौतिक मूल्यों की पूर्णतया उपेक्षा की जाए। जैन धर्म के अनुसार शारीरिक मूल्य अध्यात्म के बाधक नहीं, साधक हैं। निशीथभाष्य में कहा गया है कि मोक्ष का साधन ज्ञान है, ज्ञान का साधन शरीर है, शरीर का आधार आहार है। शरीर शाश्वत आनंद के कूल पर ले जाने वाली नौका है। इस दृष्टि से उसका मूल्य भी है, महत्व भी है और उसका सारसम्भाल भी करना है। किंतु ध्यान रहे, दृष्टि नौका पर नहीं, कूल पर होना है, नौका साधन है, साध्य नहीं। भौतिक एवं शारीरिक आवश्यकताओं की एक साधन के रूप में स्वीकृति जैन धर्म और सम्पूर्ण अध्यात्मविद्या का हार्द है। यह वह विभाजक रेखा है, जो अध्यात्म और भौतिकवाद में अंतर स्पष्ट करती है। भौतिकवाद में भौतिक उपलब्धियां या जैविक मूल्य स्वयमेव साध्य हैं, अंतिम हैं, जबकि अध्यात्म में वे किन्हीं उच्च मूल्यों का साधन हैं। जैन धर्म की भाषा में कहें तो साधक का वस्तुओं का त्याग और वस्तुओं का ग्रहण दोनों ही संयम (समत्व) की साधना के लिए हैं। जैन धर्म की सम्पूर्ण साधना का मूल लक्ष्य तो एक ऐसे निराकुल, निर्विकार, निष्काम और वीतराग मानस की अभिव्यक्ति है, जो कि वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन के समस्त तनावों एवं संघर्षों को समाप्त कर सके। उसके सामने मूल प्रश्न दैहिक एवं भौतिक मूल्यों की स्वीकृति या अस्वीकृति का नहीं है, अपितु वैयक्तिक और सामाजिक जीवन में समत्व के संस्थापन का है। अतः जहां तक और जिस रूप में दैहिक और भौतिक उपलब्धियां उसमें साधक हो सकती हैं, वहां तक वे स्वीकार्य हैं और जहां तक वे उसमें बाधक हैं वहां तक त्याज्य हैं। भगवान् महावीर ने आचारांगसूत्र एवं उत्तराध्ययनसूत्र में इस बात को बहुत स्पष्टता के साथ प्रस्तुत किया है। वे कहते हैं कि जब इंद्रियों का अपने विषयों से सम्पर्क होता है, (143) Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तब उस सम्पर्क के परिणामस्वरूप सुखद-दुःखद अनुभूति भी होती है और जीवन में यह शक्य नहीं है कि इंद्रियों का अपने विषयों से सम्पर्क न हो और उसके कारण सुखद या दुःखद न हो, अतः त्याग इंद्रियानुभूति का नहीं अपितु उसके प्रति चित्त में उत्पन्न होने वाले राग-द्वेष का करना है, क्योंकि इंद्रियों के मनोज्ञ या अमनोज्ञ विषय आसक्तचित्त के लिए ही राग-द्वेष (मानसिक विक्षोभों) का कारण बनते हैं, अनासक्त या वीतराग के लिए नहीं। अतः जैन धर्म की मूल शिक्षा ममत्व के विसर्जन की है, जीवन के निषेध की नहीं, क्योंकि उसकी दृष्टि में ममत्व या आसक्ति ही वैयक्तिक और सामाजिक जीवन की समस्त विषमताओं का मूल है और इसके निराकरण के द्वारा ही मनुष्य के समस्त दुःखों का निराकरण सम्भव है। ___धर्म साधना का उद्देश्य है - व्यक्ति को शांति प्रदान करना, किंतु दुर्भाग्य से आज धर्म के नाम पर पारस्परिक संघर्ष पनप रहे हैं - एक धर्म के लोगों को दूसरे धर्म के लोगों से लड़ाया जा रहा है। शांतिप्रदाता धर्म ही आज अशांति का कारण बन गया है। वस्तुतः इसका कारण धर्म नहीं, अपितु धर्म का लबादा ओढ़े अधर्म ही है। हमारा दुर्भाग्य यह है कि हमने धर्म के मर्म' को समझा नहीं है। थोथे क्रियाकाण्ड और बाह्य आडम्बर ही धर्म के परिचायक बन गए हैं। आए देखें धर्म का सच्चा स्वरूप क्या है? धर्म का स्वरूप - धर्म के स्वरूप को जानने की जिज्ञासा प्रत्येक मानव में पाई जाती है। धर्म क्या है ? इस प्रश्न के आजतक अनेक उत्तर दिए गए हैं, किंतु जैन आचार्यों ने जो उत्तर दिया है वह विलक्षण है तथा गम्भीर विवेचना की अपेक्षा करता है। वे कहते हैं - धम्मो वत्थुसहावो, खमादिभावो य दसविहो धम्मो। रयणत्तयं च धम्मो, जीवाणं रक्खणं धम्मो॥ वस्तु का स्वभाव धर्म है। क्षमा आदि भावों की अपेक्षा से वह दस प्रकार का है। रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र) भी धर्म है तथा जीवों की रक्षा करना भी धर्म है। सर्वप्रथम वस्तु स्वभाव को धर्म कहा गया है, आएं जरा इस पर गम्भीरता से विचार करें। सामान्यतया धर्म शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है। हिन्दी भाषा में जब हम कहते हैं कि आग का धर्म जलाना है, पानी का धर्म शीतलता है तो यहां धर्म से हमारा तात्पर्य वस्तु के स्वाभाविक गुणों से होता है। किंतु जब यह कहा जाता है कि दुःखी एवं पीड़ितजनों की सेवा करना मनुष्य का धर्म है अथवा गुरु की आज्ञा का पालन शिष्य का धर्म है तो यहां धर्म का अर्थ होता है कर्तव्य या दायित्वा इसी (144) Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार जब हम यह कहते हैं कि मेरा धर्म जैन है या उसका धर्म ईसाई है, तो हम एक तीसरी ही बात कहते हैं। यहां धर्म का मतलब है किसी दिव्य-सत्ता, सिद्धांत या साधनापद्धति के प्रति हमारी श्रद्धा, आस्था या विश्वास। अक्सर हम धर्म से यही तीसरा अर्थ लेते हैं। जबकि यह तीसरा अर्थ धर्म का अभिरुढ़ अर्थ है, वास्तविक अर्थ नहीं है। सच्चा धर्म सिर्फ धर्म है, वह न हिन्दू होता है, न जैन, न बौद्ध, न ईसाई, न इस्लाम। ये सब नाम आरोपित हैं। हमारा सच्चा धर्म तो वही है जो हमारा निज-स्वभाव है। इसीलिए जैन आचार्यों ने 'वत्थु सहावो धम्मो' के रूप में धर्म को पारिभाषित किया है। प्रत्येक के लिए जो उसका निज-गुण है, स्व-स्वभाव है, वही धर्म है, स्व-स्वभाव से भिन्न जो भी होगा, वह उसके लिए धर्म नहीं, अधर्म ही होगा। इसीलिए गीता में कहा गया है स्वधर्मे निधनं श्रेयः पराधर्मो भयावहः' (गीता, 3/35) / परधर्म अर्थात् दूसरे के स्वभाव को इसलिए भयावह कहा गया, क्योंकि वह हमारे लिए स्वभाव न होकर विभाव होगा और जो विभाव है, वह धर्म न होकर अधर्म ही होगा। अतः आपका धर्म वही है जो आपका निज-स्वभाव है। किंतु आप सोचते होंगे कि बात अधिक स्पष्ट नहीं हुई। इससे हम कैसे जान लें कि हमारा धर्म क्या है? वस्तुतः हमें अपने धर्म को समझने के लिए अपने स्वभाव या अपनी प्रकृति को जानना होगा। किंतु यहां यह बात भी समझ लेनी होगी कि अनेक बार हम आरोपित या पराश्रित गुणों को भी अपना स्वभाव या प्रकृति मान लेते हैं। अतः हमें स्वभाव और विभाव में अंतर को समझ लेना है। स्वभाव वह है, जो स्वतः (अपने आप) होता है और विभाव वह है, जो दूसरे के कारण होता है, जैसे पानी में शीतलता स्वाभाविक है, किंतु उष्णता वैभाविक है, क्योंकि उसके लिए उसे आग के संयोग की आवश्यकता होती है। दूसरे शब्दों में, जिसे होने के लिए किसी बाहरी तत्व की अपेक्षा है वह सब विभाव है, पर-धर्म है। शीतलता पानी का धर्म है और जलाना आग का धर्म है। पुनः जिस गुण को छोड़ा जा सकता है वह उस वस्तु का धर्म नहीं हो सकता है। किंतु जो गुण पूरी तरह छोड़ा नहीं जा सकता है वही उस वस्तु का स्व-धर्म होता है। आग चाहे किसी भी रूप में हो वह जलाएगी ही, पानी चाहे आग के संयोग से कितना ही गरम क्यों न हो यदि उसे आग पर डालेंगे तो वह आग को शीतल ही करेगा। आप सोचते होंगे कि आग और पानी की धर्म की इस चर्चा से मनुष्य के धर्म को हम कैसे जान पाएंगे ? यहां इस चर्चा की उपयोगिता यही है कि हम स्वभाव और विभाव का अंतर समझ लें, क्योंकि अनेक बार हम आरोपित गुणों को ही स्वभाव मानने की भूल कर बैठते हैं, अक्सर हम कहते हैं उसका स्वभाव क्रोधी है। प्रश्न यह उठता है कि (145) Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या क्रोध स्वभाव है या हो भी सकता है ? बात ऐसी नहीं है। इस कसौटी पर क्रोध और शांति के दो गुणों को कसिए और देखिए, इनमें से मनुष्य का स्वधर्म क्या है? पहली बात तो यह है कि क्रोध कभी स्वतः नहीं होता, बिना किसी बाहरी कारण के हम क्रोध नहीं करते हैं। गुस्से या क्रोध का कोई न कोई बाह्य कारण अवश्य होता है, गुस्सा कभी अकारण नहीं होता है। साथ ही गुस्से के लिए किसी दूसरे का होना जरुरी है, गुस्सा या क्रोध बिना किसी प्रतिपक्षी के स्वतः नहीं होता है, अकेले में नहीं होता है। किसी गुस्से से भरे आदमी को अकेले में ले जाइए, आप देखेंगे उसका गुस्सा धीरे-धीरे शांत हो रहा है - गुस्से के बाह्य कारणों एवं प्रतिपक्षी के दूर हो जाने पर गुस्सा ठहर नहीं सकता है। पुनः गुस्सा आरोपित है, वह छोड़ा जा सका है, कोई भी व्यक्ति चौबीसों घटे क्रोध की स्थिति में नहीं रह सकता, किंतु शांत रह सकता है। अतः मनुष्य के लिए क्रोध विधर्म है, अधर्म है और शांति स्वधर्म है, निजगुण है। क्या धर्म है और क्या अधर्म है, इसका निर्णय इसी पद्धति से सम्भव है। हमारे सामने मूल प्रश्न तो यह है कि मनुष्य का धर्म क्या हैं? इस प्रश्न के उत्तर : के लिए हमें मानव-प्रकृति या मानव-स्वभाव को जानना होगा। जो मनुष्य का स्वभाव होगा वही मनुष्य के लिए धर्म होगा। हमें यह विचार करना है कि एक मनुष्य के रूप में हम क्या हैं ? मानव अस्तित्व द्विआयमी (Two Dimensional) है। मनुष्य विवेकात्मक चेतना से युक्त एक शरीर है। शरीर और चेतना यह हमारे अस्तित्व के दो प्रश्न हैं, किंतु इसमें भी हमारे अस्तित्व का मूल आधार जीवन एवं चेतना ही है, चेतन-जीवन के अभाव में शरीर का कोई मूल्य नहीं है। शरीर का महत्व तो है, किंतु वह उसकी चेतनजीवन से युति पर निर्भर है। चेतन-जीवन स्वतः मूल्यवान् है और शरीर परतः मूल्यावान् है। जिस प्रकार कागजी मुद्रा का स्वयं में कोई मूल्य नहीं होता उसका मूल्य सरकार की साख पर निर्भर करता है, उसी प्रकार शरीर का मूल्य चेतन-जीवन की शक्ति पर निर्भर करता है। हमारे अस्तित्व का सार हमारी चेतना है। चेतन-जीवन ही वास्तविक जीवन है। चेतना के अभाव को 'शव' कहा जाता है। चेतना ही एक ऐसा तत्व है जो शव को शिव बना देता है। अतः जो चेतना का स्वभाव होगा वही हमारा वास्तविक धर्म होगा। हमें अपने 'धर्म' को समझने के लिए 'चेतना' के स्वलक्षण को जानना होगा। चेतना क्या है? इस प्रश्न का उत्तर हमें भगवान् महावीर और गौतम के बीच हुए एक सम्वाद में मिलता है। गौतम पूछते हैं- भगवन् ! आत्मा क्या है? और आत्मा का अर्थ या साध्य क्या है? महावीर उत्तर देते हैं- गौतम ! आत्मा का स्वरूप समत्व' है और समत्व' को (146) Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्त कर लेना ही आत्मा का साध्य है (भगवतीसूत्र)। यह बात न केवल दार्शनिक दृष्टि से सत्य है अपितु जीवनशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी सत्य है। जीवशास्त्र (Biology) के अनुसार चेतनजीव का लक्षण आंतरिक और बाह्य संतुलन को बनाए रखना है। फ्रायडनामक सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक का कथन है - चैत्त जीवन और स्नायुजीवन का स्वभाव यह है कि वह विक्षोभ और तनाव को मिटाकर समत्व की स्थापना करता है। विक्षोभ, तनाव और मानसिक द्वंद्वों से ऊपर उठकर शांत, निर्द्वद्व मनः स्थिति को प्राप्त करना यह हमारी स्वाभाविक अपेक्षा है और यही धर्म है। विश्व के लगभग सभी धर्मों ने समाधि, समभाव या समता को धार्मिक जीवन का मूलभूत लक्षण माना है। आचारांगसूत्र में ‘समियाए धम्मे आरियेहिं पवेइए' (1/ 8/3) कहकर धर्म को 'समता' के रूप में परिभाषित किया गया है। समता धर्म है, विषमता अधर्म है। वस्तुतः वे सभी तत्व जो हमारी चेतना में विक्षोभ, तनाव या विचलन उत्पन्न करते हैं अर्थात् चेतना के संतुलन को भंग करते हैं, विभाव के सूचक हैं, इसीलिए अधर्म हैं। अक्सर हम राग-द्वेष, घृणा, आसक्ति, ममत्व, तृष्णा, काम, क्रोध, अहंकार आदि को अधर्म (पाप) कहते हैं और क्षमा, शांति, अनासक्ति, निर्वैरता, वीतरागता, विरागता, निराकुलता आदि को धर्म कहते हैं, ऐसा क्यों है? बात स्पष्ट है। प्रथम वर्ग के तथ्य जहां हमारी आकुलता को बढ़ाते हैं, हमारे मन में विक्षोभ और चेतना में तनाव (Tension) उत्पन्न करते हैं वहीं दूसरे वर्ग के तथ्य उस आकुलता, विक्षेभि या तनाव को कम करते हैं, मिटाते हैं। पूर्वोक्त गाथा में क्षमादि भावों को जो धर्म कहा गया है, उसका आधार यही है। ___ मानसिक विक्षोभ या तनाव हमारा स्वभाव या स्वलक्षण इसलिए नहीं माना जा सकता है क्योंकि हम उसे मिटाना चाहते हैं, उसका निराकरण करना चाहते हैं और जिसे आप छोड़ना चाहते हैं, मिटाना चाहते हैं, वह आपका स्वभाव नहीं हो सकता। पुनः राग, आसक्ति, ममत्व, अहंकार, क्रोध आदि सभी 'पर' की अपेक्षा करते हैं, उनके विषय 'पर' हैं। उनकी अभिव्यक्ति अन्य के लिए होती है। राग, आसक्ति या ममत्व किसी पर होगा। इसी प्रकार क्रोध या अहंकार की अभिव्यक्ति भी दूसरे के लिए है। इन सबके कारण सदैव ही बाह्य जगत् में होते हैं, ये स्वतः नहीं होते, परतः होते हैं। इसीलिए ये आत्मा के विभाव कहे जाते हैं और जो भी विभाव हैं, वे सब अधर्म हैं। जबकि जो स्वभाव है या विभाव से स्वभाव की ओर लौटने के प्रयास हैं वे सब धर्म हैं। भाषाशास्त्र की दृष्टि से धर्म शब्द 'धृ' धातु से बना है जिसका अर्थ होता है - धारण (147) Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करना। सामान्यतया जो प्रजा को धारण करता है, वह धर्म है, 'धर्मो धारयते प्रजा'। इस रूप में धर्म को परिभाषित किया जाता है, किंतु मेरी दृष्टि में जो हमारे अस्तित्व या सत्ता के द्वारा धारित है अथवा जिसके आधार, अस्तित्व या सत्ता रही हुई है वही 'धर्म' है। किसी भी वस्तु का धर्म वही है जिसके कारण वह वस्तु उस वस्तु के रूप में अपना अस्तित्व रखती है और जिसके अभाव में उसकी सत्ता ही समाप्त हो जाती है। उदाहरण के लिए विवेक और संयम के गुणों के अभाव में मनुष्य और पशु में कोई अंतर नहीं रहेगा, यदि विवेक और संयम के गुण हैं तो ही मनुष्य, मनुष्य है। ... यदि हम मनुष्य को एक सामाजिक प्राणी मानते हैं और धर्म को धर्मो धारयते प्रजा' के अर्थ में लेते हैं तो उस स्थिति में धर्म का अर्थ होगा. - जो हमारी समाजव्यवस्था को बनाए रखता है, वही धर्म है। वे सब बातें जो सामाजिक जीवन में बाधा उपस्थित करती हैं और हमारे स्वार्थों को पोषण देकर हमारी सामाजिकता को खण्डित करती हैं, सामाजिक जीवन में अव्यवस्था और अशांति में कारणभूत होती हैं, अधर्म हैं। इसीलिए तृष्णा, विद्वेष, हिंसा, शोषण, स्वार्थपरता आदि को अधर्म और परोपकार, करुणा, दया, सेवा आदि को धर्म कहा गया है, क्योंकि जो मूल्य हमारी सामाजिकंता की स्वाभाविकवृत्ति का रक्षण करते हैं, वे धर्म हैं और उसे जो खण्डित करते हैं, वे अधर्म हैं। यद्यपि धर्म की यह व्याख्या दूसरों के संदर्भ में हैं, इसे समाज-धर्म कह सकते स्वभाव या आत्मधर्म ऐसा तत्व है जो बाहर से लाया नहीं जाता है, वह तो विभाव के हटते ही स्वतः प्रकट हो जाता है जैसे आग के संयोग के हटते ही पानी स्वतः शीतल हो जाता है, वैसे ही धर्म के लिए कुछ करना नहीं होता, केवल अधर्म को छोड़ना होता है, विभावदशा को दूर करना होता है, क्योंकि उसे ही छोड़ा या त्यागा जा सकता है जो आरोपित होता है और विभाव होगा, स्वभाव नहीं। धर्म साधना के नाम पर जो भी प्रयास हैं, वे सब अधर्म को त्यागने के लिए है, विभाग-दशा को मिटाने के लिए हैं धर्म तो आत्मा की शुद्धता है, उसे लाना नहीं है, क्योंकि वह बाहरी नहीं है, केवल विषय कषाय रूपी मल को हटाना है। जैसे बादल के हटते प्रकाश स्वतः प्रकट हो जाता है वैसे ही अधर्म या विभाव के हटते धर्म या स्वभाव प्रकट हो जाता है। इसीलिए धर्म ओढ़ा नहीं जाता है, धर्म जिया जाता है। अधर्म आरोपित होता है, वह एक दोहरा जीवन प्रस्तुत करता है, क्योंकि उसके पापखण्ड भी दोहे होते हैं। अधार्मिकजन दूसरों से अपने प्रति जिस व्यवहार की अपेक्षा करता है, दूसरों के प्रति उसके ठीक विपरीत करना (148) Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहता है। इसीलिए धर्म की कसौटी आत्मवत् व्यवहार माना गया ‘आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां मा समाचरेत्' के पीछे भी यही ध्वनि रही है। धर्म का सार है - निश्छलता, सरलता, स्पष्टता, जहां भी इनका अभाव होगा, वहां धर्म को जिया नहीं जाएगा अपितु ओढ़ा जाएगा। वहां धर्म नहीं, धर्म का दम्भ पनपेगा और हमें याद रखना होगा कि वह धर्म का दम्भ अधार्मिकता से अधिक खतरनाक है। क्योंकि इसमें अधर्म, धर्म की पोषाक को ओढ़ लेता है, वह दिखता धर्म है, किंतु होता है अधर्मी मानव जाति का दुर्भाग्य यही है कि आज धर्म के नाम पर जो कुछ चल रहा है वह सब आरोपित है, ओढ़ा गया है और इसीलिए धर्म के नाम पर अधर्म पनप रहा है। आज धर्म को कितने ही थोथे और निष्प्राण कर्मकाण्डों से जोड़ दिया गया है, क्या पहनें और क्या नहीं पहनें, क्या खाएं और क्या नहीं खाएं, प्रार्थना के लिए मुंह किस दिशा में करें और किस दिशा में नहीं करें, प्रार्थना की भाषा क्या हो, पूजा के द्रव्य क्या हों? आदि आदि। ये सब बातें धर्म का शरीर हो सकती हैं, क्योंकि ये शरीर से गहरे नहीं जाती हैं, किंतु निश्चय ही ये धर्म की आत्मा नहीं है। धर्म की आत्मा तो है-समाधि, शांति, निराकुलता। धर्म तो सहज और स्वाभाविक है। दुर्भाग्य यही है कि आज लोग धर्म के नाम पर बहुत कुछ कर रहे हैं परंतु अधर्म या विभावदशा को छोड़ नहीं रहे हैं। आज धर्म को ओढ़ा जा रहा है, इसीलिए आज का धर्म निरर्थक बन गया है। यह कार्य तो ठीक वैसा ही है जैसे किसी दुर्गंध को स्वच्छ सुगंधित आवरण से ढक दिया गया हो। यह बाह्य प्रतीति से सुंदर होती है किंतु वास्तविकता कुछ और ही होती है। यह तथाकथित धर्म ही धर्म के लिए सबसे बड़ा खतरा है, इसमें अधर्म को छिपाने के लिए धर्म किया जाता है। आज धर्म के नाम पर जो कुछ किया जा रहा है उसका कोई लाभ नहीं मिल रहा है। आज हमारी दशा ठीक वैसी ही है जैसे कोई रोगी दवा तो ले किंतु कुपत्य को छोड़े नहीं। धर्म के नाम पर आत्म-प्रवंचना एवं छलछद्म पनप रहा है, इसका मूल कारण है धर्म के सारतत्व के बारे में हमारा गहरा अज्ञान। हम धर्म के बारे में जानते हैं किंतु धर्म को नहीं जानते हैं। __ आज हमने आत्म-धर्म क्या है, हमारा निजगुण या स्वभाव क्या है, इसे समझा ही नहीं है और निष्प्राण कर्मकाण्डों और रीतिरिवाजों को ही धर्म मान बैठे हैं। आज हमारे धर्म चौके-चूल्हे में , मंदिरों-मस्जिदों और उपासना गृहों में सीमित हो गए हैं, जीवन से उनका कोई सम्पर्क नहीं है। इसीलिए वह जीवित धर्म नहीं, मुर्दा धर्म है। किसी शायर ने ठीक ही कहा है - मस्जिद तो बना दी पर भर में इमां की हरारत वालों ने। (149) Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन वही पुराना पापी रहा, बरसों में नमाजी न हो सका। आज धर्म के नाम पर जो भी किया जाता है उसका सम्बंध परलोक से जोड़ा जाता है। आज धर्म उधार सौदा बन गया है और इसीलिए आज धर्म से आस्था उठती जा रही है। किंतु याद रखिए वास्तविक धर्म उधार सौदा नहीं, नकद सौदा है। उसका फ ल तत्काल है। भगवान् बुद्ध से किसी ने पूछा कि धर्म का फल इस लोक में मिलता है या परलोक में? उन्होंने कहा था - धर्म का फल तो उसी समय मिलता है। जैसे ही मोह टूटता है, तृष्णा छूटती है, चाह और चिंता कम हो जाती है, मन शांति और आनंद से भर जाता है, यही तो धर्म का फल है। हम यदि अपनी अंतरात्मा से पूछे कि हम क्या चाहते हैं? उत्तर स्पष्ट है हमें सुख चाहिए, शांति चाहिए, समाधि या निराकुलता चाहिए और जो कुछ आपकी अंतरात्मा आपसे मांगती है वही तो आपका स्वभाव है, आपका धर्म है। जहां मोह होगा, राग होगा, तृष्णा होगी, आसक्ति होगी, वहां चाह बढ़ेगी, जहां चाह बढ़ेगी, वहां चिंता बढ़ेगी और जहां चिंता होगी वहां मानसिक असमाधि या तनाव होगा और जहां मानसिक तनाव या विक्षोभ है वहीं तो दुःख है, पीड़ा है। जिस दुःख को मिटाने की हमारी ललक है उसकी जड़ें हमारे अंदर हैं, किंतु दुर्भाग्य यही है कि हम उसे बाहर के भौतिक साधनों से मिटाने का प्रयास करते रहे हैं। यह तो ठीक वैसा ही हुआ जैसे घाव कहीं और हो और मलहम कहीं और लगाएं। अपरिग्रहवृत्त या अनासक्ति को जो धर्म कहा गया, उसका आधार यही है कि वह ठीक उस जड़ पर प्रहार करता है, जहां से दुःख की विषवेल फूटती है, आकुलता पैदा होती है। वह धर्म इसीलिए है कि वह हमें आकुलता से निराकुलता की दिशा में, विभाव से स्वभाव की दिशा में ले जाती है। किसी कवि ने कहा है - चाह गई, चिंता मिटी मनुआ भया बेपरवाह। . जिसको कुछ न चाहिए, वह शहंशाहों का शहंशाह।। निराकुलता एवं आकुलता ही धर्म और अधर्म की सीधी और साफ कसौटी है। जहां आकुलता है, तनाव है, असमाधि है, वहां अधर्म है और जहां निराकुलता है, शांति है, समाधि है, वहां धर्म है। जिन बातों से व्यक्ति में अथवा उनके सामाजिक परिवेश में आकुलता बढ़ती है, तनाव पैदा होता है, अशांति बढ़ती है, विषमता बढ़ती है, वे सब बातें अधर्म हैं, पाप हैं। इसके विपरीत जिन बातों से व्यक्ति में और उसके सामाजिक परिवेश में निराकुलता आए, शांति आए, तनाव घटे, विषमता समाप्त हो, वे सब धर्म हैं। धार्मिकता के आदर्श के रूप में जिस वीतराग, वीततृष्णा और अनासक्त (150) बात Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन की कल्पना की गई है, उसका अर्थ यही है कि जीवन में निराकुलता, शांति और समाधि आए। धर्म का सार यही है, फिर चाहे हम इसे कुछ भी नाम क्यों न दें। श्री सत्यनारायणजी गोयनका कहते हैं - धर्म न हिन्दू बौद्ध है, धर्म न मुस्लिम जैन। धर्म चित्त की शुद्धता, धर्म शांति सुख चैन।। कुदरत का कानून है, सब पर लागू होया विकृत मन व्याकुल रहे, निर्मल सुखिया होया। यही धर्म की परख है, यही धर्म का माप / जन-मन का मंगल करे, दूर करे संताप॥ जिस प्रकार मलेरिया, मलेरिया है, वह न जैन है, न बौद्ध है न हिन्दू और न मुसलमान, उसी प्रकार क्रोध, मान, माया, लोभ आदि आध्यात्मिक विकृतियां हैं, वे भी हिन्दू, बौद्ध या जैन नहीं हैं, हम ऐसा नहीं कहते हैं कि यह हिन्दू क्रोध है यह जैन या बौद्ध क्रोध है। यदि क्रोध हिन्दू,बौद्ध या जैन नहीं है तो फिर उसका उपशमन भी हिन्दू, बौद्ध या जैन नहीं कहा जा सकता है। विकार, विकार है और स्वास्थ्य, स्वास्थ्य है, वे हिन्दू, बौद्ध या जैन नहीं हैं। जिन्हें हम हिन्दू, जैन, बौद्ध या अन्य किसी धर्म के नाम से पुकारते हैं, वह विकारों के उपचार की शैली विशेष है जैसे एलोपैथी, आयुर्वेदिक, यूनानी, होम्योपैथी आदि शारीरिक रोगों के उपचार की पद्धति है। समता धर्म/ममता अधर्म . धर्म क्या है? इस प्रश्न का सबसे संक्षिप्त और सरल उत्तर यही है कि वह सब धर्म है, जिसमें मन की आकुलता समाप्त हो, चाह और चिंता मिटे तथा मन निर्मलता, शांति, समभाव और आनंद से भर जाए। इसीलिए महावीर ने धर्म को समता या समभाव के रूप में परिभाषित किया था। समता ही धर्म है और ममता अधर्म है। वीतराग, अनासक्त और वीततृष्णा होने में जो धार्मिक आदर्श की परिपूर्णता देखी गई, उसका कारण भी यही है कि यह आत्मा की निराकुलता या शांति की अवस्था है। आत्मा की इसी निराकुल दशा को हिन्दू और बौद्ध परम्परा में समाधि तथा जैन परम्परा में सामायिक या समता कहा गया है। हमारे जीवन में धर्म है, या नहीं है इसको जानने की एकमात्र कसौटी यह है कि सुख-दुःख, मान-अपमान, लाभ-हानि, जय-पराजय आदि की अनुकूल एवं प्रतिकूल अवस्थाओं में हमारा मन कितना अनुद्विग्न और शांत बना रहता है। यदि अनुकूल परिस्थितियों में मन में संतोष न हो चाह और चिंता बनी रहे तथा प्रतिकूल (151) Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थितियों में मन दुःख और पीड़ा से भर जावे तो हमें समझ लेना चाहिए कि जीवन में अभी धर्म नहीं आया है। धर्म का सीधा सम्बंध हमारी जीवनदृष्टि और जीवनशैली से है। बाह्य परिस्थितियों से हमारी चेतना जितनी अधिक अप्रभावित और अलिप्त रहेगी उतना ही जीवन में धर्म का प्रकटन होगा। क्योंकि मनुष्य के लिए यह सम्भव नहीं है कि उसके जीवन में उतार और चढ़ाव नहीं आए। सुख-दुःख, लाभ-अलाभ, मान-अपमान आदि ये जीवन-चक्र के दुर्निवार पहलू हैं, कोई भी इनसे बच नहीं सकता। जीवन-यात्रा का रास्ता सीधा और सपाट नहीं है, उसमें उतार-चढ़ाव आते ही रहते हैं। बाह्य परिस्थितियों पर आपका अधिकार नहीं है, आपके अधिकार में केवल एक ही बात है, वह यह कि आप इन अनुकूल और प्रतिकूल स्थितियों में अपने मन को, अपनी चेतना को निराकुल और अनुद्विग्न बनाए रखें, मानसिक समता और शांति को भंग नहीं होने दें। यही धर्म है। श्री गोयनका जी के शब्दों में - सुख दुःख आते ही रहें, ज्यों आवे दिन रैन। . . तू क्यों खोवे बावला, अपने मन की चैन / अतः मन की चैन नहीं खोना ही धर्म और धार्मिकता है। जो व्यक्ति जीवन की अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपनी चित्त की शांति नहीं खोता है, वही धार्मिक है उसी के जीवन में धर्म का अवतरण हुआ है। कौन धार्मिक है और कौन अधार्मिक है, इसकी पहचान यही है कि किसका चित्त शांत है और किसका अशांत। जिसका चित्त या मन अशांत है वह अधर्म में जी रहा है, विभाव में जी रहा है और जिसका मन या चित्त शांत है वह धर्म में जी रहा है, स्वभाव में जी रहा है। एक सच्चे धार्मिक पुरुष की जीवनदृष्टि अनुकूलं एवं प्रतिकूल संयोगों में कैसी होगी इसका एक सुंदर चित्रण उर्दू शायर ने किया है, वह कहता है - लायी हयात आ गये, कजा ले चली चले चले। न अपनी खुशी आये, न अपनी खुशी गये। जिंदगी और मौत दोनों ही स्थितियों में जो निराकुलता और शांत बना रहता है वही धार्मिक है, धर्म का प्रकटन उसी के जीवन में हुआ है। धार्मिकता की कसौटी पर नहीं है कि तुमने कितना पूजा-पाठ किया है, कितने उपवास और रोजे रखे हैं, अपितु यही है कि तुम्हारा मन कितना अनुद्विग्न और निराकुल बना है। जीवन में जब तक चाह और चिंता बनी हुई है धार्मिकता का आना सम्भव नहीं है। फिर वह चाह और चिंता परिवार की हो या शिष्य-शिष्याओं की, घर और दुकान की हो, मठ और मंदिर की, (152) Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धन-सम्पत्ति की हो या पूजा-प्रतिष्ठा की, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता है। ___ जब तक जीवन में तृष्णा और स्पृहा है, दूसरों के प्रति जलन की भट्टी सुलग रही है, धार्मिकता सम्भव नहीं है। धार्मिक होने का मतलब है मन की उद्विग्नता या आकुलता समाप्त हो, मन से घृणा, विद्वेष और तृष्णा की आग शांत हो। इसीलिए गीता कहती है दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।। वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते // गीता 2/56 / जिसका मन दुःखों की प्राप्ति में भी दुःखी नहीं होता और सुख की प्राप्ति में जिसकी लालसा तीव्र नहीं होती है, जिसके मन में ममता, भय और क्रोध समाप्त हो चुके हैं वही व्यक्ति धार्मिक है, स्थित बुद्धि है, मुनि है। वस्तुतः चेतना जितनी निराकुल बनेगी उतना ही जीवन में धर्म का प्रकटन होगा। क्योंकि यह निराकुलता या समता ही हमारा निज-धर्म है, स्व-स्वभाव है। आकुलता का मतलब है आत्मा की 'पर' (पदार्थों) में उन्मुखता और निराकुलता का मतलब 'पर' से विमुख होकर स्व में स्थिति। इसीलिए जैन परम्परा में पर-परिणति को अधर्म और आत्म-परिणति को धर्म कहा गया है। . चेतना और मन की निराकुलता हमारा निज-धर्म या स्व-स्वभाव इसीलिए हैं कि यह हमारी स्वाभाविक मांग है, स्वाश्रित है अर्थात् अन्य किसी पर निर्भर नहीं है। आपकी चाह, आपकी चिंता, आपके मन की आकुलता सदैव ही अन्य पर आधारित है, पराश्रित है, ये पर वस्तु के संयोग से उत्पन्न होती है और उन्हीं के आधार पर बढ़ती है एवं जीवित रहती है। समता (निराकुलता) स्वाश्रित है इसीलिए स्वधर्म है, जबकि समता और तजनित आकुलता पराश्रित है, इसीलिए विधर्म, अधर्म है। जो स्वाश्रित या स्वाधीन है वही आनंद को प्राप्त कर सकता है, जो पराश्रित या पराधीन है उसे आनंद और शांति कहां? यहां हमें यह समझ लेना चाहिए कि पदार्थों के प्रति ममत्वभाव और उनके उपभोग में अंतर है। धर्म उनके उपभोग का विरोध नहीं करता है अपितु उनके प्रति ममत्वं-बुद्धि या ममता के भाव का विरोध करता है। जो पराया है उसे अपना समझ लेना, मान लेना अधर्म है, पाप है, क्योंकि इसी से मानसिक शांति और चेतना का समत्व भंग होता है, आकुलता और तनाव उत्पन्न होते हैं। इसे भी शास्त्रों में अनात्म में आत्म-बुद्धि या परपरिणति कहा गया है। जिस प्रकार संसार में वह प्रेमी दुःखी होता है जो किसी ऐसी स्त्री से प्रेम कर बैठता है जो उसकी अपनी होकर रहने वाली नहीं है, उसी प्रकार उन पदार्थों के प्रति जिनका वियोग अनिवार्य है, ममता रखना ही दुःख का कारण (153) Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है और जो दुःख का कारण है वही अधर्म है, पाप है। आदरणीय गोयनकाजी ने बहुत ही - सुंदर बात कही है - सुख-दुःख दोनों एक से, मान और अपमान। चित्त विचलित होए नहीं, तो सच्चा कल्याण // जीवन में आते रहें, पतझड़ और बसंत। मन की समता न छूटे, तो सुख-शांति अनन्त / विषम जगत् में चित्त की, समता रहे अटूट। तो उत्तम मंगल जगे, होय दुःखों में छूट // समता स्वभाव है और ममता विभाव है। ममता छूटेगी तो समता अपने आप आ जाएगी। स्वभाव बाहरी नहीं है, अतः उसे लाना भी नहीं है, मात्र विभाव को छोड़ना है। रोग या बीमारी हटेगी तो स्वस्थता तो आएगी ही। इसलिए प्रयत्न बीमारी को हटाने के लिए करना है। जिस प्रकार बीमारी बनी रहे और आप पुष्टिकारक पथ्य लेते रहे तो वह लाभकारी नहीं होता है, उसी प्रकार जब तक मोह और ममता बनी रहेगी, समता जीवन में प्रकट नहीं होगी। जब मोह और ममता के बादल छटेंगे तो समता का सूर्य स्वतः ही प्रकट हो जाएगा। जब मोह और ममता की चट्टानें टूटेंगी तो समता के शीतल जल का झरना स्वतः ही प्रकट होगा। जिसमें स्नान करके युग-युग का ताप शीतल हो जाएगा। मानव धर्म ___धर्म क्या है? इस प्रश्न पर अभी तक हमने इस दृष्टिकोण से विचार किया था कि एक चेतन सत्ता के रूप में हमारा धर्म क्या है? अब हम इस दृष्टि से विचार करेंगे कि मनुष्य के रूप में हमारा धर्म क्या है? दूसरे प्राणियों से मनुष्य को जिन मनोवैज्ञानिक आधारों से अलग कर सकते हैं, वे हैं- आत्मचेतनता, विवेकशीलता और आत्मसंयम मनुष्य के अलावा दूसरे प्राणियों में इन गुणों का अभाव देखा जाता है। मनुष्य न केवल चेतन है, अपितु आत्मचेतन है। उसकी विशेषता यह है कि उसे अपने ज्ञान की, अपनी अनुभूति की अथवा अपने भावावेशों की भी चेतना होती है। मनुष्य जब क्रोध या काम की भाव-दशा में होता है तब भी यह जानता है कि मुझे क्रोध हो रहा है या काम सता रहा है। पशु को क्रोध होता है किंतु वह यह नहीं जानता कि मैं क्रोध में हूं। उसका व्यवहार काम से प्रेरित होता है किंतु वह यह नहीं जानता है कि काम मेरे व्यवहार की प्रेरित कर रहा है। आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से पशु का व्यवहार मात्र मूलप्रवृत्यात्मक (154) Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Instinctive) है, जो अंधप्रेरणा मात्र है, किंतु मनुष्य का जीवन प्रेरणा से चालित न होकर विचार या विवेक से प्रेरित होता है। उसमें आत्मचेतनता है। मनुष्य और पशु में सबसे महत्वपूर्ण अंतर आत्मचेतनता के सम्बंध में है। जहां भी व्यवहार और आचरण मात्र मूल-प्रवृत्ति या अंधप्रेरणा से चालित होता है वहां मनुष्यत्व नहीं, पशुत्व ही प्रधान होता है, ऐसा मानना चाहिए। मनुष्य की मनुष्यता इसी में है कि अपने व्यवहार और आचरण के प्रति उसमें आत्मचेतनता या सजगता हो। यही सजगता उसे पशुत्व से पृथक् करती है। मनुष्य की ही यह विशेषता है कि वह अपने विचारों, अपनी भावनाओं और अपने व्यवहार का द्रष्टा या साक्षी है। उसमें ही यह क्षमता है कि कर्ता और द्रष्टा दोनों की भूमिकाओं में अपने को रख सकता है। वह अभिनेता और दर्शक दोनों ही है। उसका हित इसी में है कि वह अभिनय करके भी अपने दर्शक होने की भूमिका को नहीं भूले। यदि उसमें यह आत्मचेतनता अथवा द्रष्टा-भाव या साक्षी-भाव नहीं रहता है तो हम यह कह सकते हैं कि उसमें मनुष्यता की अपेक्षा पशुता ही अधिक है। मनुष्य में परमात्मा और पशु दोनों ही उपस्थित हैं। वह जितना आत्मचेतन या अपने प्रति सजग बनता है, उसमें उतना ही परमात्मा का प्रकटन होता है और जितना असावधान रहता है, भावना और वासनाओं के अंध प्रवाह में बहता है, उतना ही पशुता के निकट होता है। जो हमें परमात्मा के निकट ले जाता है वही धर्म है और जो पशुता के निकट ले जाता है वही अधर्म है। इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि एक मनुष्य के रूप में आत्मचेतनता मनुष्य का वास्तविक धर्म है। इसी आत्मचेतनता को ही शास्त्रों में अप्रमाद कहा गया है। मनुष्य जिस सीमा तक आत्मचेतन है, अपने ही विचारों, भावनाओं और व्यवहारों का दर्शक है उसी सीमा तक वह मनुष्य है, धार्मिक है, क्योंकि वह आत्मचेतन होना या आत्मद्रष्टा होना ऐसा आधार है जिससे मानवीय विवेक और सदाचरण का विकास सम्भव है। बीमारी से छुटकारा पाने के लिए पहले उसी बीमारी के रूप में देखना और जानना जरूरी है। यही आत्मचेतनता अथवा साक्षीभाव या द्रष्टा-भाव ही एक ऐसा तत्व है जिस पर धर्म की आधारशिला खड़ी हुई है। जैन आगमों में अप्रमाद को धर्म (अकर्म) और प्रमाद को अधर्म (कर्म) कहा गया है। प्रमाद का सीधा और साफ अर्थ है आत्मचेतनता या आत्मजागृति का अभावा अप्रमत्त वही है जो मनोभावों और प्रवृत्तियों का द्रष्टा है। मनुष्य की मनुष्यता और धार्मिकता इसी बात में है कि वह सदैव अपने आचार और विचार के प्रति सजग रहे। प्रत्येक क्रिया के प्रति हमारी चेतना सजग होनी चाहिए। खाते समय खाने की चेतना और चलते समय (155) Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चलने की चेतना, क्रोध में क्रोध की चेतना और काम में काम की चेतना बनी रहना आवश्यक है। आप जो भी कर रहे हैं उसके प्रति यदि आप पूरी तरह आत्मचेतन हैं तो ही आप सही अर्थ में धार्मिक हैं। जिसे हम सम्यक् - दर्शन कहते हैं मेरी धारणा में उसका अर्थ यही आत्मदर्शन या आत्मजागृति अथवा द्रष्टा एवं साक्षी-भाव की स्थिति है। आत्मचेतन या अप्रमत्त या आत्मद्रष्टा होने का मतलब है खुद के अंदर झांकना, अपनी वृत्तियों, अपने विचारों एवं अपनी भावनाओं को देखना। सरल शब्दों में कहें तो जो अपने मन के नाटक को देखता है वही आत्मद्रष्टा या आत्मचेतन है। जो अपने कर्मों के प्रति, अपने विचारों के प्रति साक्षी या द्रष्टा नहीं बन सकता वह धार्मिक भी नहीं बन सकता है। भगवान् बुद्ध ने इसी आत्मचेतनता को स्मृति के रूप में पारिभाषित किया है। सम्यक् - स्मृति बौद्ध धर्म के साधनामार्ग का एक महत्वपूर्ण चरण है। भगवान् बुद्ध ने साधकों को बार-बार यह निर्देश दिया है कि अपनी स्मृति को सदैव जागृत बनाए रखो। धम्मपद में वे कहते हैं- अपमादो अमत पदं पमादो मच्चुनो पदं' अर्थात् अप्रमाद ही. अमृत पद है, अमरता का मार्ग है और प्रमाद मृत्यु का। स्मृतिवान होना, सजग, अप्रमत्त होना यह धर्म और धार्मिकता की आवश्यक कसौटी है। आचारांग में भगवान् महावीर ने एक बहुत ही सुंदर बार कही है - ‘सुत्ता अमुणी, मुणिणो सया जागरन्ति' अर्थात् जो सोया हुआ है, सजग या आत्मचेतन नहीं है वह अमुनि है और जो सजग है, जागृत है, आत्मचेतन है वह मुनि है। मनुष्य की यह विशेषता है कि वह अपने प्रति सजग या आत्मचेतन रह सकता है, अपने अंदर झांक सकता है, चेतना में स्थित विषय वासना रूपी गंदगी को देख सकता है। आत्मद्रष्टा या आत्मचेतन होने का मतलब यही है कि हम अपने में निहित या उत्पन्न होने वाली वासनाओं, भावावेशों, विषय-विकारों, रागद्वेष की वृत्तियों एवं क्रोध, मान, माया, लोभादि कषायों के प्रति सजग रहें, सावधान रहें, उन्हें देखते रहें। समकालीन मानवतावादी विचारकों में वारनरं फिटे ऐसे विचारक हैं, जो यह मानते हैं कि आत्मचेतनता (Selfawareness) ही एक ऐसी स्थिति है जिसे * किसी कर्म की नैतिकता और अनैतिकता की कसौटी माना जा सकता है। यद्यपि यहां कोई यह प्रश्न उठा सकता है कि क्या आत्मचेतना के साथ या पूरी सजगता के साथ किया जाने वाला हिंसादि कर्म धार्मिक या नैतिक होगा? वस्तुतः इस सम्बंध में हमें एक भ्रांति को दूर कर लेना चाहिए। व्यक्ति जितना आत्म-चेतन बनता है, अपने प्रति सजग बनता है, वह भावावेशों से अर उठता जाता है। पूर्ण आत्मचेतना की स्थिति में आवेश या आवेग नहीं रह पाएंगे और आवेश के अभाव में हिंसा सम्भव नहीं है। अतः (156) Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मचेतनता के साथ हिंसा का कर्म सम्भव ही नहीं होगा। अनुभव और आधुनिक मनोविज्ञान दोनों ही इस बात का समर्थन करते हैं कि दुष्कर्म जितना बड़ा होगा, उसे करते समय व्यक्ति उतने ही भावावेश में होगा। हत्याएं, बलात्कार आदि सभी दुष्कर्म भावावेशों में ही सम्भव होते हैं। वासना का आवेग जितना तीव्र है, आत्मचेतना उतनी ही धूमिल होती है, कुण्ठित होती है और उसी स्थिति में पाप का या बुराइयों का उद्भव होता है। रागाभाव, ममत्व, आसक्ति, तृष्णा आदि को इसीलिए पाप और अधर्म के मूल माने गए हैं, क्योंकि ये आवेगों को उत्पन्न कर हमारी सजगता को कम करते हैं। जब भी व्यक्ति काम में होता है, क्रोध में होता है लोभ में होता है अपने आप को भूल जाता है, उसके आवेग इतने तीव्र बनते जाते हैं कि वह आत्मविस्मृत होता जाता है, अपना आपा खो बैठता है, अतः वे सब बातें जो आत्म-विस्मृति लाती हैं पाप मानी गई हैं, अधर्म मानी गई हैं। वस्तुतः धर्म और अधर्म की एक कसौटी यह है कि जहां आत्मविस्मृति है वहां अधर्म है और जहां आत्म-स्मृति है, आत्म चेतना है, सजगता है, वहां धर्म है। ' दूसरी बात, जिस आधार पर हम मनुष्य और पशु में कोई अंतर कर सकते हैं और जिसे मानव की विशेषता या स्वभाव कहा जा सकता है वह है विवेकशीलता। अक्सर मनुष्य की परिभाषा हम एक बौद्धिक प्राणी के रूप में करते हैं और मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है तो यह विवेक या ज्ञान का तत्व ही एक ऐसा तत्व है जो इसे पशु से पृथक् कर सकता है। कहा भी गया है आहारनिद्राभयमैथुनंच सामान्यमेतद् पशुभिः नाराणाम्।. ज्ञानो ही तेषां अधिको विशेषो, ज्ञानेन हीना नरः पशुभिः समाना / हम से यह पूछा जा सकता है कि यह विवेकशीलता क्या है? वस्तुतः यदि हम सरल भाषा में कहें तो किसी भी क्रिया के करने के पूर्व उसके सम्भावित अच्छे और बुरे परिणामों पर विचार कर लेना ही विवेक है। हम जो कुछ करने जा रहे हैं या कर रहे हैं उसका परिणाम हमारे लिए या समाज के लिए हितकर है या अहितकर इस बात का विचार कर लेना ही विवेक है। यदि आप अपने प्रत्येक आचरण को सम्पादित करने के * पहले उसके परिणामों पर पूरी सावधानी के साथ विचार करते हैं तो आप विवेकशील माने जा सकते हैं। जिसमें अपने हिताहित या दूसरों के हिताहित को समझने की शक्ति है वहीं विवेकशील या धार्मिक हो सकता है। जो व्यक्ति अपने और दूसरों के हिताहितों पर पूर्व में विचार नहीं करता है वह कभी भी धार्मिक नहीं कहला सकता। यह बात बहुत (157) Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पष्ट है कि जो व्यक्ति अपने प्रत्येक आचरण को करने के पहले तौलेगा, उसके हिताहित का विचार करेगा वह कभी भी दुराचरण, अधर्म और अनैतिकता की ओर अग्रसर नहीं हो सकेगा। इसलिए हम कह सकते हैं कि विवेकशील होना मनुष्य का एक महत्वपूर्ण गुण है और जिस सीमा तक उसमें इस गुण का विकास हुआ है उसी सीमा तक उसमें धार्मिकता है। वस्तुतः जहां जीवन में विवेकशीलता होगी वहां धर्म के नाम पर पनपने वाले छलछद्म अंधश्रद्धा तथा ढोंग और आडम्बर अपने आप ही समाप्त हो जाएंगे। यदि हमें धार्मिक होना है तो हमें सबसे पहले विवेकी बनना होगा। जो व्यक्ति सजग नहीं है, जो अपने आचरण और व्यवहार के हिताहित का विचार नहीं करता है वह कदापि धार्मिक नहीं कहा जा सकता। जहां भी व्यक्ति में सजगता और विचारशीलता का अभाव है, वहीं अधर्म की सम्भावनाएं हैं। यदि हम आत्मचेतनता को सम्यक् - दर्शन कहें तो विवेकशीलता को सम्यक् - ज्ञान कहा जा सकता है। जब हमारे आचरण के साथ आत्मचेतनता और विवेकशीलता जुड़ेगी तभी हमारा आचरण धार्मिक बनेगा। . विवेक एक ऐसा तत्व है जो प्रत्येक आचार और व्यवहार का देश, काल और परिस्थिति के संदर्भ में सम्यक् मूल्यांकन करता है। विवेक शक्ति के मूल्यांकन की क्षमता का परिचायक है। विवेक एक ऐसी क्षमता है जो सम्पूर्ण परिस्थिति को दृष्टि में रखकर आचरण के परिणामों का निष्पक्ष मूल्यांकन करती है जीवन में जब विवेक का विकास होता है, तो दूसरों के दुःख और पीड़ा का आत्मवत् दृष्टि से मूल्यांकन होता है स्वार्थवृत्ति क्षीण होने लगती है, समता का विकास होता है और जीवन में धर्म का प्रकटन होता है। इस प्रकार विवेक धर्म और धार्मिकताका आवश्यक लक्षण है। धर्म और धार्मिकता का विकास विवेक की भूमि पर ही सम्भव है, अतः विवेक धर्म है। आप धार्मिक हैं या नहीं? इसकी सीधी और साफ पहचान यही है कि आप किसी क्रिया को करने के पूर्व उसके परिणामों पर सम्यक् रूप से विचार करते हैं। क्या आप अपने हितों और दूसरों के हितों का समान रूप से मूल्यांकन करते हैं? यदि इन प्रश्नों का उत्तर सकारात्मक है तो निश्चय ही आप धार्मिक हैं। विवेक के आलोक में विकसित आत्मवत् - दृष्टि ही धर्म और धार्मिकता का आधार है। . मनुष्य और पशु में तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण अंतर इस बात को लेकर है कि मनुष्य में संयम की शक्ति है, वह अपने आचार और व्यवहार को नियंत्रित कर सकता है। यदि हम पशु का जीवन देखें तो हमें लगेगा कि वे एक प्राकृतिक जीवन जीते हैं। पशु तभी खाता है जब भूखा होता है। पशु के लिए यह सम्भव नहीं है कि भूखा होने (158) Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर खाद्य-सामग्री की उपस्थिति में वह उसे न खाए। किंतु मनुष्य के आचरण की एक विशेषता है, वह भूखा होते हुए भी और खाद्य-सामग्री के उपलब्ध होते हुए भी भोजन करने से इंकार कर देगा, दूसरी ओर मनुष्य के लिए यह भी सम्भव है कि भरपेट भोजन के बाद भी वह सुस्वादु पदार्थ उपलब्ध होने पर उन्हें खा लेता है। इस प्रकार मनुष्य में एक ओर आत्मसंयम की सम्भावनाएं हैं तो दूसरी ओर वासनाओं से प्रेरित हो कर वह एक अप्राकृतिक जीवन भी जी सकता है। इसीलिए हम कह सकते हैं कि यदि कोई मनुष्य की विशेषता हो सकती है तो वह उसमें निहित आत्म-नियंत्रण या संयम का सामर्थ्य है। इसीलिए कहा गया है कि मनुष्य में जैविक आवेग तो बहुत हैं, आवश्यकता इस बात की है कि उसके आवेगों को कैसे नियंत्रित किया जाए? जैविक आवेगों के अनियंत्रण का जीवन अधर्म का जीवन है। मनुष्य का धर्म और धार्मिकता इसी में है कि वह आत्मचेतन होकर विवेकशीलता के साथ अपनी वासनाओं को संयमित करे। यदि वह इतना कर पाता है तो ही उसे हम धार्मिक कह सकते हैं। मनुष्य के धार्मिक होने का मतलब है उसकी चेतना सजग रहे और उसका विवेक वासनाओं को नियंत्रित करता मनुष्य का सामाजिक धर्म धर्म को जब हम वस्तु स्वभाव के रूप में ग्रहण करते हैं तो हमारे सामने प्रश्न उपस्थित होता है कि एक मनुष्य के रूप में हमारा धर्म क्या है? मनुष्य का मूल स्वभाव मनुष्यता ही हो सकता है, लेकिन प्रश्न है कि मनुष्यता से हमारा क्या तात्पर्य है? वह कौन सा तत्व है जो मनुष्य को पशु से भिन्न करता है। इस सम्बंध में चर्चा करते हुए हमने देखा था कि आत्मचेतना (Self Awarencess), विवेक और संयम ये तीन ऐसे तत्व हैं जो मनुष्य को अपनी उपस्थिति के कारण पशु से ऊपर उठा देते हैं। इन सबके साथ ही एक और विशिष्ट गुण मनुष्य का है जो उसे महनीयता प्रदान करता है, वह है उसकी सामाजिक चेतना। पाश्चात्य विचारकों ने मनुष्य की परिभाषा एक सामाजिक प्राणी के रूप में की है। सामाजिकता मनुष्य का एक विशिष्ट गुण है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है (Man is a social animal) वैसे तो सामूहिक जीवन पशुओं में भी पाया जाता है, किंतु मनुष्य की यह सामूहिक जीवन-शैली उनसे कुछ भिन्न है। पशुओं में पारस्परिक सम्बंध तो होते हैं किंतु उन्हें उन सम्बंधों की चेतना नहीं होती है। मनुष्य जीवन की विशेषता यह है कि उसे उन पारस्परिक सम्बंधों की चेतना होती है और उसी चेतना के कारण उसमें एक-दूसरे के प्रति दायित्व-बोध और (159) Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तव्य-बोध होता है। पशुओं में भी पारस्परिक हित साधन की प्रवृत्ति तो होती है, किंतु वह एक अंध मूलप्रवृत्ति है। उस अंध-प्रवृत्ति के अनुसार ही आचरण करने में पशु विवश होता है। उसके सामने यह विकल्प नहीं होता कि वह वैसा आचरण करे या नहीं करे। किंतु इस सम्बंध में मानवीय-चेतना स्वतंत्र होती है। उसमें अपने दायित्व-बोध की चेतना होती है। किसी उर्दू शायर ने कहा भी है - वह आदमी ही क्या है, जो दर्द आशना न हो! .. पत्थर से कम है, दिल शरर गर निहा नहीं! जैनाचार्य उमास्वाति ने भी न केवल मनुष्य का, अपितु समस्त जीवन का लक्षण पारस्परिक हित साधन को माना है। तत्वार्थसूत्र में कहा है - “परस्परोपग्रहोजीवानाम् / ' एक दूसरे के कल्याण में सहयोगी बनना यही जीवन की विशिष्टता है। इसी अर्थ में हम कह सकते हैं कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और दूसरे मनुष्यों एवं प्राणियों का हित साधन उसका धर्म है। धार्मिक होने का एक अर्थ यह है कि हम एक-दूसरे के सहयोगी बनें। दूसरे के दुःख और पीड़ा को अपनी पीड़ा समझें तथा उसके निराकरण का प्रयत्न करें। जैन आगम आचारांगसूत्र में धर्म की परिभाषा करते हुए बहुत स्पष्ट रूप से कहा गया है - 'सवे सत्ता ण हंतव्वा, एस धम्मे णिइए, सासए समिच्च लोयं खेयण्णेहिं पवेइए' 'अर्थात् भूतकाल में जो अर्हत् हुए हैं, वर्तमानकाल में जो अर्हत् हैं और भविष्यकाल में जो अर्हत होंगे, वे सभी एक ही संदेश देते हैं कि किसी प्राणी की, किसी सत्व की हिंसा नहीं करनी चाहिए, उसका घात नहीं करना चाहिए, उसे पीड़ा नहीं पहुंचानी चाहिए, यही एकमात्र शुद्ध, नित्य और शाश्वत धर्म है।' इस धर्म की लोककल्याणकारी चेतना का प्रस्फुटन लोक की पीड़ा के निवारण के लिए ही हुआ है और यही धर्म का सारतत्व है। कहा है - | यही है इबादत, यही है दीनों इमां। कि काम आए दुनिया में, इंसा के इंसा॥ . दूसरों की पीड़ा को समझकर उसके निवारण का प्रयत्न करना, यही धर्म की मूल आत्मा हो सकती है। संत तुलसीदास जी ने भी कहा है परहित सरिस धरम नहिं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई।. अहिंसा की चेतना का विकास तभी सम्भव है, जब मनुष्य में आत्मवत् (160) Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वभूतेषु' की भावना का विकास होगा। जब हम दूसरों के दर्द को अपना दर्द समझेंगे तभी हम लोकमंगल की दिशा में अथवा परपीड़ा के निवारण की दिशा में आगे बढ़ सकेंगे। परपीड़ा की यह आत्मानुभूति भी वस्तुनिष्ठ न होकर आत्मनिष्ठ होनी चाहिए। हम दूसरों की पीड़ा के मूक दर्शक न रहें। ऐसा धर्म और ऐसी अहिंसा, जो दूसरों की पीड़ा की मूक दर्शक बनी रहती है, वस्तुतः वह न धर्म है और न अहिंसा। अहिंसा केवल दूसरों को पीड़ा न देने तक सीमित नहीं है, उसमें लोकमंगल और लोककल्याण का अजस्त्र-स्त्रोत भी प्रवाहित है। जब लोक-पीड़ा अपनी पीड़ा बन जाती है, तभी धार्मिकता का स्त्रोत अंदर से प्रवाहित होता है। तीर्थंकरों, अर्हतों और बुद्धों ने जब लोक-पीड़ा की यह अनुभूति आत्मनिष्ठ रूप में की, तो वे लोककल्याण के लिए सक्रिय बन गए। जब दूसरों की पीड़ा और वेदना हमें अपनी लगती है तब लोककल्याण भी दूसरों के लिए न होकर अपने ही लिए हो जाता है। उर्दू शायर अमीर ने कहा है खंजर चले किसी पे, तड़पते हैं हम मीर। सारे जहां का दर्द, हमारे ज़िगर में है। .. जब सारे जहां का दर्द किसी के हृदय में समा जाता है तो वह लोककल्याण के मंगलमयमार्ग पर चल पड़ता है। उसका यह चलना बाहरी नहीं होता है। उसके सारे व्यवहार में अंतश्चेतना काम करती है और यही अंतश्चेतना धार्मिकता का मूल उत्स (Essence) है, इसे ही दायित्व-बोध की सामाजिक चेतना कहा जाता है। जब यह दायित्व-बोध की सामाजिक चेतना जाग्रत होती है, तो मनुष्य में धार्मिकता प्रकट होती है। दूसरों के प्रति आत्मीयता के भाव का जाग्रत होना ही धार्मिक बनने का सबसे पहला उपक्रम है। यदि हमारे जीवन में दूसरों की पीड़ा, दूसरों का दर्द अपना नहीं बना है तो हमें यह निश्चित ही समझ लेना चाहिए कि हममें धर्म का अवतरण नहीं हुआ है। दूसरों की पीड़ा की आत्मनिष्ठ अनुभूति से जागृत दायित्व-बोध की अंतश्चेतना के बिना सारे धार्मिक क्रिया-काण्ड, पाखण्ड या ढोंग हैं। उनका धार्मिकता से दूर का रिश्ता नहीं है। जैन धर्म के सम्यक् - दर्शन, जो कि धार्मिकता की आधारभूमि है- के जो पांच अंग माने गए हैं, उनमें समभाव और अनुकम्पा सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं। सामाजिक दृष्टि से समभाव का अर्थ है- दूसरों को अपने समान समझना। क्योंकि अहिंसा एवं लोककल्याण की अंतश्चेतना का उद्भव इसी आधार पर होता है। आचारांगसूत्र में कहा गया है कि जिस प्रकार मैं जीना चाहता हूं, मरना नहीं चाहता हूं उसी प्रकार संसार (161) Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के सभी प्राणी जीवन के इच्छुक हैं और मृत्यु से भयभीत हैं, जिस प्रकार मैं सुख की प्राप्ति चाहता हूं और दुःख से बचना चाहता हूं उसी प्रकार विश्व के सभी प्राणी सुख के इच्छुक हैं और दुःख से दूर रहना चाहते हैं।' यही वह दृष्टि है जिस पर अहिंसा का, धर्म का और नैतिकता का विकास होता है। ___ जब तक दूसरों के प्रति हमारे मन में समभाव अर्थात् समानता का भाव, जागृत नहीं होता, अनुकम्पा नहीं आती अर्थात् उनकी पीड़ा हमारी पीड़ा नहीं बनती तब तक सम्यक् - दर्शन का उदय भी नहीं होता, जीवन में धर्म का अवतरण नहीं होता। असर लखनवी का यह निम्न शेर इस सम्बंध में कितना मौजूं है -.. ईमां गलत उसूल गलत, उद्दुआ गलत। इंसां की दिलदिही, अगर इंसां न कर सके।। अध्यात्म और विज्ञान औपनिषदिक ऋषिगण, बुद्ध और महावीर भारतीय अध्यात्म परम्परा के उन्नायक रहे हैं। उनके आध्यात्मिक चिंतन ने भारतीय मानस को आत्मतोष प्रदान किया है। किंतु आज हम विज्ञान के युग में जीवनं जी रहे हैं। वैज्ञानिक उपलब्धियां भी आज हमें उद्वेलित कर रही हैं। आज का मनुष्य दो तलों पर जीवन जी रहा है। यदि विज्ञान को नकारता है तो जीवन की सुख-सुविधा और समृद्धि के खोने का खतरा है। दूसरी ओर अध्यात्म को नकारने पर आत्म-शांति से वंचित होता है। आज आवश्यकता है इन ऋषि-महर्षियों द्वारा प्रतिस्थापित आध्यात्मिक मूल्यों और आधुनिक विज्ञान की उपलब्धियों के समन्वय की। निश्चय ही विज्ञान और अध्यात्म' की चर्चा आज प्रासंगिक सामान्यतया आज विज्ञान और अध्यात्म को परस्पर विरोधी अवधारणाओं के रूप में देखा जाता है। जहां अध्यात्म को धर्मवाद और पारलौकिकता के साथ जोड़ा जाता है, वहीं विज्ञान और भौतिकता और इहलौकिकता के साथ जोड़ा जाता है। आज दोनों में विरोध माना जाता है, लेकिन यह अवधारणा भी भ्रांत है। प्राचीन युग में तो विज्ञान और अध्यात्म ये शब्द भी परस्पर भिन्न अर्थ के बोधक नहीं थे। महावीर ने आचारांगसूत्र में कहा है कि जो आत्मा है वही विज्ञाता है और जो विज्ञाता है वही आत्मा है।' यहां आत्मज्ञान और विज्ञान दोनों एक ही हैं। वस्तुतः विज्ञान शब्द विज्ञान से बना है, 'वि' उपसर्ग विशिष्टता का द्योतक है अर्थात् विशिष्ट ज्ञान ही विज्ञान है। आज (162) Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो विज्ञान शब्द केवल पदार्थ-ज्ञान के रूप में रूढ़ हो गया है, वह मूलतः विशिष्ट ज्ञान या आत्मज्ञान ही था। आत्मज्ञान ही विज्ञान है। पुनः अध्यात्म शब्द भी अधि+आत्म से बना है। अधि' उपसर्ग भी विशिष्टता का ही सूचक है, जो आत्म की विशिष्टता है, वही अध्यात्म है। चूंकि आत्मा ज्ञान स्वरूप ही है, अतः ज्ञान ही विशिष्टता ही अध्यात्म है और वही विज्ञान है। फिर भी आज विज्ञान पदार्थ-ज्ञान के अर्थ में और अध्यात्म आत्मज्ञान के अर्थ में रूढ़ हो गया है। मेरी दृष्टि में विज्ञान साधकों का ज्ञान है तो अध्यात्म साध्य का ज्ञान। प्रस्तुत निबंध में इन्हीं रूढ़ अर्थों में विज्ञान और अध्यात्म शब्द का प्रयोग किया जा रहा है। एक हमें बाह्य-जगत् में जोड़ता है तो दूसरा हमें आत्मजगत् से। दोनों ही 'योग' हैं। एक साधन-योग्य है तो दूसरा साध्य-योग। एक हमें जीवनशैली (Life style) देता है तो दूसरा हमें जीवन-साध्य (Goal of life) देता है। आज हमारा दुर्भाग्य यही है कि जो एक-दूसरे के पूरक हैं उन्हें हमने एक-दूसरे का विरोधी मान लिया है। आज आवश्यकता इस बात की है कि इनकी परस्पर पूरक शक्ति या अभिन्नता को समझा जाए। आज हम विज्ञान को पदार्थ विज्ञान मानते हैं। यद्यपि आज हमने 'पर' या 'अनात्म' के संदर्भ में इतना अधिक ज्ञान अर्जित कर लिया है कि 'स्व' या आत्म' को विस्मृत कर बैठे हैं। हमने परमाणु के आवरण को तोड़कर उसके जर्रे -जर्रे को जानने का प्रयास किया, किंतु दुर्भाग्य यही है कि अपनी आत्मा के आचरण को भेदकर अपने आपको नहीं जान सके। हम परिधि को.व्यापकता देने में केंद्र को ही भुला बैठे। मनुष्य की यह परकेंद्रितता ही उसे अपने आप से बहुत दूर ले गई है। यही आज के जीवन की त्रासदी है। वह दुनिया को समझता है, जानता है, परखता है, किंतु अपने प्रति तन्द्राग्रस्त है। उसे स्वयं यह बोध नहीं है कि मैं कौन हूं ? मेरा कर्तव्य क्या है? लक्ष्य क्या है? वह भटक रहा है, मात्र भटक रहा है। आज से 2500 वर्ष पूर्व महावीर ने मनुष्य की उस पीड़ा को समझा था। उन्होंने कहा था कि कितने ही लोग ऐसे हैं जो नहीं जानते कि मैं कौन हूं? कहां से आया हूं मेरा गंतव्य क्या है? यह केवल महावीर ने कहा हो ऐसी बात नहीं है। बुद्ध ने भी कहा था ‘अदानं गवेस्सेथ' अपने को खोजो। औपनिषदिक ऋषियों ने कहा - 'आत्मानं विद्धि', अपने आपको जानो यही जीवन परिशोध का मूलमंत्र है। आज हमें पुनः इन्हीं प्रश्नों के उत्तर को खोजना है। आज का विज्ञान आपको पदार्थ जगत् के संदर्भ में सूक्ष्मतम सूचनाएं दे सकता है। किंतु वे सूचनाएं हमारे लिए ठीक उसी तरह अर्थहीन हैं जिस प्रकार जब तक आंख न खुली हो, प्रकाश का कोई (163) Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल्य नहीं। विज्ञान प्रकाश है, किंतु अध्यात्म की आंख के बिना उसकी कोई सार्थकता नहीं है। आचार्य भद्रबाहु ने कहा था - अंधे व्यक्ति के सामने करोड़ों दीपक जलाने से क्या लाभ? जिसकी आंख खुली हो उसके लिए एक ही दीपक पर्याप्त है। आज के मनुष्य की भी यही स्थिति है। वह विज्ञान और तकनीक के सहारे बाह्य-जगत् में चकाचौंध विद्युत फैला रहा है किंतु अपने अंतर्चक्षु का उन्मीलन नहीं कर पा रहा है। प्रकाश की चकाचौंध में हम अपने को ही नहीं देख पा रहे हैं। यह सत्य है कि प्रकाश आवश्यक है, किंतु आंखें खोले बिना उसका कोई मूल्य नहीं है। विज्ञान ने मनुष्य को शक्ति दी है। आज वह ध्वनि से भी अधिक तीव्र गति से यात्रा कर सकता है। किंतु स्मरण रहे विज्ञान जीवन के लक्ष्य का निर्धारण नहीं कर सकता। लक्ष्य का निर्धारण तो अध्यात्म ही कर सकता है। विज्ञान साधन देता है, लेकिन उनका उपयोग किस दिशा में करना होगा यह बतलाना अध्यात्म का कार्य है। पूज्य विनोबा जी के शब्दों में विज्ञान में दोहरी शक्ति होती है वह विनाश-शक्ति और दूसरी विकास-शक्ति। वह सेवा भी कर सकता है और संहार भी। अग्नि नारायण की खोज हुई तो उससे रसोई भी बनाई जा सकती है और उससे आग भी लगाई जा सकती है। अग्नि का प्रयोग घर फूंकने में करना या चूल्हा जलाने में यह अक्ल विज्ञान में नहीं है। अक्ल तो आत्मज्ञान में है। आगे वे कहते हैं- आत्मज्ञान है- आंख और विज्ञान है-पांवा अगर मानव को आत्मज्ञान नहीं है तो वह अंधा है। कहां चला जाएगा कुछ पता नही। दूसरे शब्दों में कहें तो अध्यात्म देखता तो है, लेकिन चल नहीं सकता। उसमें लक्ष्य बोध तो है, किंतु गति की शक्ति नहीं। विज्ञान में शक्ति तो है किंतु गति की शक्ति नहीं। विज्ञान में शक्ति तो है किंतु आंख नहीं है, लक्ष्य का बोध नहीं है। जिस प्रकार अंधे और लंगड़े दोनों ही परस्पर सहयोग के अभाव में दावानल में जल मरते हैं, ठीक इसी प्रकार यदि आज विज्ञान और अध्यात्म परस्पर एक दूसरे के पूरक नहीं होंगे तो मानवता अपने ही द्वारा लगाई गई विस्फोटक शस्त्रों की इस आग में जल मरेगी। बिना विज्ञान के संसार में सुख नहीं आ सकता और बिना अध्यात्म के शांति नहीं आ सकती। मानव समाज की सुख (Pleasure) और शांति (Peace) के लिए दोनों का परस्पर होना आवश्यक है। वैज्ञानिक शक्तियों का उपयोग मानव-कल्याण में हो या मानव-संहार में, इस बात का निर्धारण विज्ञान से नहीं, आत्मज्ञान या अध्यात्म से करना होगा। अणु शक्ति का उपयोग मानव के संहार में हो या मानव के कल्याण में, यह निर्णय करने का अधिकार उन वैज्ञानिकों को भी नहीं है, जो सत्ता, स्वार्थ और समृद्धि के पीछे अंधे राजनेताओं के दास हैं। यह निर्णय तो मानवीय विवेक सम्पन्न निःस्पृह (164) Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधकों को ही करना होगा। यह सत्य है कि विज्ञान के सहयोग से तकनीक का विकास हुआ है और उसने मानव के भौतिक दुःखों को बहुत कुछ कम कर दिया है, किंतु दूसरी ओर उसने मारक शक्ति के विकास के द्वारा भय या संत्रास की स्थिति उत्पन्न कर मानव की शांति को भी छीन लिया है। आज मनुष्य जाति भयभीत और संत्रस्त है। आज वह विस्फोटक अस्त्रों के ज्वालामुखी पर खड़ी है, जो कब विस्फोट कर हमारे अस्तित्व को निगल लेगी, यह कहना कठिन है। आज हमारे पास जिन संहारक अस्त्रों का संग्रह है, वे पृथ्वी के सम्पूर्ण जीवन को अनेक बार समाप्त कर सकते हैं। पूज्य विनोबा जी लिखते हैं- 'जो विज्ञान एक ओर क्लोरोफार्म की खोज करता है जिससे करुणा का कार्य होता है, वही विज्ञान अणु अस्त्रों की खोज करता है जिससे भयंकर संहार होता है। एक बाजू सिपाही को जख्मी करता है दूसरा बाजू उसको दुरुस्त करता है, ऐसा गोरखधंधा आज विज्ञान की मदद से चल रहा है। इस हालत में विज्ञान का सारा कार्य उसको मिलने वाले मार्गदर्शन पर आधारित है। उसे जैसा मार्गदर्शन मिलेगा, वह वैसा कार्य करेंगा।' __यदि विज्ञान पर सत्ता के आकांक्षियों का, राजनीतिज्ञों का और अपने स्वार्थ की रोटी सेंकने वालों का अधिकार होगा तो वह मनुष्य-जाति का संहारक ही बनेगा। किंतु इसके विपरीत यदि विज्ञान पर मानव-मंगल के द्रष्टा अनासक्त ऋषियों-महर्षियों का अधिकार होगा, तो वह मानव के विकास में सहायक होगा। आज हम विज्ञान के माध्यम से तकनीकी प्रगति की ऊंचाई तक पहुंच चुके हैं जहां से लौटना भी सम्भव नहीं है। आज मनुष्य उस दोराहे पर खड़ा है, जहां पर उसे हिंसा और अहिंसा दो राहों में से किसी एक को चुनना है। आज उसे यह समझना है कि वह विज्ञान के साथ किसको जोड़ना चाहता है, हिंसा को या अहिंसा को। आज उसके सामने दोनों विकल्प प्रस्तुत हैं। विज्ञान+अहिंसा = विनाशा जब विज्ञान अहिंसा के साथ जुड़ेगा तो वह समृद्धि और शांति लाएगा, किंतु जब उसका गठबंधन हिंसा से होगा तो संहारक होगा और अपने ही हाथों अपना विनाश करेगा। _आज विज्ञान के सहारे मनुष्य ने इतना पाशविक बल संगृहीत कर लिया है कि वह उसका रक्षक न होकर कहीं भक्षक न बन जाए, यह उसे सोचना है। महावीर ने स्पष्ट रूप से कहा था - ‘अत्थि सत्थेन परंपरं, नत्थि असत्थेन परंपर।' शस्त्र एक से बढ़कर एक हो सकता है किंतु अहिंसा से बढ़कर अन्य कुछ नहीं हो सकता। आज सम्पूर्ण मानव समाज को यह निर्णय लेना होगा कि वे वैज्ञानिक शक्तियों का प्रयोग (165) Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानवता के कल्याण के लिए करना चाहते हैं या उसके संहार के लिए। आज तकनीकी प्रगति के कारण मनुष्य-मनुष्य के बीच की दूरी कम हो गई है। आज विज्ञान ने मानव समाज को एक-दूसरे के निकट लाकर खड़ा कर दिया है। आज हम परस्पर इतने निर्भर बन गए हैं कि एक-दूसरे के बिना खड़े भी नहीं रह सकते। किंतु दूसरी ओर आध्यात्मिक दृष्टि के अभाव के कारण हमारे हृदयों की दूरी अधिक विस्तीर्ण हो गई है। हृदय की इस दूरी को पाटने का काम विज्ञान नहीं अध्यात्म ही कर सकता है। . विज्ञान का कार्य है - विश्लेषित करना और अध्यात्म का कार्य है - संश्लेषित करना। विज्ञान तोड़ता है, अध्यात्म जोड़ता है। विज्ञान वियोजक है तो अध्यात्म संयोजका विज्ञान पर केंद्रित है तो अध्यात्म आत्म-केंद्रित। विज्ञान सिखाता है कि हमारे सुखदुःख का केंद्र वस्तुएं हैं, पदार्थ हैं, इसके विपरीत अध्यात्म कहता है कि सुख-दुःख का केंद्र आत्मा है। विज्ञान की दृष्टि बाहर देखती है, अध्यात्म अंदर में देखता है। विज्ञान की यात्रा अंदर से बाहर की ओर है तो अध्यात्म की यात्रा बाहर से अंदर की ओर होती रही तो वह शांति, जिसकी उसे खोज है, कभी नहीं मिलेगी। क्योंकि बहिर्मुखी यात्री शांति की खोज वहां करता है जहां वह नहीं है। शांति अंदर है उसकी खोज बाहर व्यर्थ है। इस सम्बंध में एक रूपक याद आता है। एक वृद्धा शाम के समय कुछ सी रही थी। संयोग से अंधेरा बढ़ने लगा और सुई उसके हाथ से छूटकर कहीं गिर पड़ी। महिला की झोपड़ी में प्रकाश का साधन नहीं था और प्रकाश के बिना सुई की खोज असम्भव थी। बुढ़िया ने सोचा क्या हुआ, अगर प्रकाश बाहर है तो सूई को वहीं खोजा जाए। वह उस प्रकाश में सुई खोजती रही, किंतु सुई वहां कब मिलने वाली थी, क्योंकि वह वहां थी ही नहीं। प्रातः होने वाला था कि कोई यात्री उधर से निकला, उसने वृद्धा से उसकी परेशानी का कारण पूछा। उसने पूछा- अम्मा सुई गिरी कहां थी? वृद्धा ने उत्तर दिया - 'बेटा' सुई तो झोपड़ी में थी, किंतु उजाला नहीं था अतः वहां खोजना सम्भव नहीं था। उजाला बाहर था, इसलिए मैं यहां खोज रही थी। यात्री ने उत्तर दिया- यह सम्भव नहीं है अम्मा ! जो चीज जहां नहीं है वहां खोजने पर मिल जाए। सूर्य का प्रकाश होने को है उस प्रकाश में सुई वहीं खोजें जहां गिरी है। आज मानव समाज की स्थिति भी उसी वृद्धा के समान है। हम शांति की खोज वहां कर रहे हैं, जहां वह होती ही नहीं। शांति आत्मा में है, अंदर है। विज्ञान के सहारे आज शांति की खोज के प्रयत्न उस बुढ़िया के प्रयत्नों के समान निरर्थक ही होंगे। विज्ञान, साधन दे सकता है, शक्ति दे सकता है किंतु लक्ष्य का निर्धारण तो हमें ही करना होगा। (166) Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज विज्ञान के कारण मानव के पूर्वस्थापित जीवन मूल्य समाप्त हो गए हैं। आज श्रद्धा का स्थान तर्क ने ले लिया है। आज मनुष्य पारलौकिक उपलब्धियों के स्थान पर इहलौकिक उपलब्धियों को चाहता है। आज के तर्कप्रधान मनुष्य को सुख और शांति के नाम प्रा बहलाया नहीं जा सकता, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि आज हम अध्यात्म के अभाव में नए जीवन मूल्यों का सृजन नहीं कर पा रहे हैं। आज विज्ञान का युग है। आज उस धर्म को, जो पारलौकिक जीवन की सुख-सुविधाओं के नाम पर मानवीय भावनाओं का शोषण कर रहा है, जानना होगा। आज तथाकथित वे धर्म परम्पराएं जो मनुष्य को भविष्य के सुनहरे सपने दिखाकर फुसलाया करती थीं, अब तर्क की पैनी छेनी के आगे अपने को नहीं बचा सकतीं। अब स्वर्ग में जाने के लिए नहीं जीना है अपितु स्वर्ग को धरती पर लाने के लिए जीना होगा। विज्ञान ने हमें वह शक्ति दे दी है, जिससे स्वर्ग को धरती पर उतारा जा सकता है। अब यदि हम इस शक्ति का. उपयोग धरती पर स्वर्ग उतारने के स्थान पर, धरती को नरक बनाने में करेंगे तो इसकी जवाबदेही हम पर ही होगी। आज वैज्ञानिक शक्तियों का उपयोग इस दृष्टि से करना है कि वे मानव-कल्याण में सहभागी बनकर इस धरती को ही स्वर्ग बना सकें। विनोबा जी ने सत्य ही कहा है- आज विज्ञान का तो विकास हुआ किंतु वैज्ञानिक उत्पन्न ही नहीं हुआ क्योंकि वैज्ञानिक वह है जो निरपेक्ष होता है। आज का वैज्ञानिक राजनीतिज्ञों और पूंजीपतियों के इशारे पर चलने वाला व्यक्ति है। वह पैसे से खरीदा जा सकता है। यह तो वैज्ञानिक की गुलामी है। ऐसे लोग अवैज्ञानिक हैं यदि वैज्ञानिक (Scientist) वैज्ञानिक (Scientific) नहीं बना तो विज्ञान मनुष्य के लिए ही घातक सिद्ध होगा। आज विज्ञान का उपयोग कैसे किया जाए इसका उत्तर विज्ञान के पास नहीं अध्यात्म के पास है। विनोबा जी लिखते हैं कि आज युग की मांग से विज्ञान की जितनी ही शक्ति बढ़ेगी। आत्मज्ञान को उतनी ही शक्ति बढ़ानी होगी। आज अमेरिका इसलिए दुःखी है कि वहां विज्ञान तो है, पर अध्यात्म है नहीं, अतः सुख तो है, शांति नहीं। इसके विपरीत भारत में आध्यात्मिक विकास के कारण मानसिक शांति तो है, किंतु समृद्धि नहीं। आज जहां समृद्धि है वहांशांति नहीं और जहां शांति है वहां समृद्धि नहीं। इसका समाधान आध्यात्म और विज्ञान के समन्वय में निहित है। अध्यात्म शांति देगा तो विज्ञान समृद्धि। जब समृद्धि और शांति दोनों ही एक साथ उपलब्ध होंगी, मानवता अपने विकास के परम शिखर पर होगा। मानव स्वयं अतिमानव के रूप में विकसित हो जाएगा। किंतु इसके लिए प्रयत्न करना होगा। बिना अडिग आस्था और सतत् पुरुषार्थ के यह सम्भव नहीं। (167) नहा। . Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आज विज्ञान ने मनुष्य को सुख-सुविधा और समृद्धि तो प्रदान कर दी है। फि र भी मनुष्य भय और तनाव की स्थिति में जी रहा है। उसे आंतरिक शांति उपलब्ध नहीं है उसकी समाधि भंग हो चुकी है। यदि विज्ञान के माध्यम से कोई शांति आ सकती है तो वह केवल श्मशान की शांति होगी। बाहरी साधनों से न कभी आंतरिक शांति मिली है, न उसका मिलना सम्भव ही है। इस प्रसंग में उपनिषदों का एक प्रसंग याद आ रहा है - नारद जीवन भर वेद-वेदांग का अध्ययन करते रहे। उन्होंने अनेक विद्याएं (भौतिक विद्याएं) प्राप्त कर ली, किंतु उनके मन को कहीं संतोष नहीं मिला। वे सनत्कुमार के पास आए और कहने लगे मैंने अनेक शास्त्रों का अध्ययन किया। मैं शास्त्रविद् तो हूं किंतु आत्मविद् नहीं। आज के वैज्ञानिक भी नारद की भांति ही हैं। वे शास्त्रविद् तो हैं, किंतु आत्मविद् नहीं। आत्मविद् हुए बिना शांति को नहीं पाया जा सकता। यद्यपि मेरे कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि हम विज्ञान और उसकी उपलब्धियों को तिलांजलि दे दें। वैज्ञानिक उपलब्धियों का परित्याग न तो सम्भव है, न औचित्यपूर्ण है। किंतु अध्यात्म या मानवीय विवेक को इनका अनुशासक होना चाहिए। अध्यात्म ही विज्ञान का अनुशासक हो तभी एक समग्रता या पूर्णता आएगी और मनुष्य एक साथ समृद्धि और शांति को पा सकेगा। ईशावास्योपनिषद् में जिसे हम पदार्थ ज्ञान या विज्ञान कहते हैं उसे अविद्या कहा गया है और जिसे हम अध्यात्म कहते हैं विद्या कहा गया है। उपनिषद्कार दोनों के सम्बंध को उचित बताते हुए कहता है- जो पदार्थ विज्ञान या अविद्या की उपासना करता है वह अंधकार में, तमस में प्रवेश करता है, क्योंकि विज्ञान या पदार्थ विज्ञान अंधा है। किंतु साथ ही वह यह भी चेतावनी देता है कि जो केवल विद्या में रत हैं, वे उससे अधिक अंधकार में चले जाते हैं (अंध तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते। ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायां रताः')।' वस्तुतः वह जो अविद्या और विद्या दोनों की एक साथ उपासना करता है वह अविद्या द्वारा मृत्यु को पार करता है अर्थात् सांसारिक कष्टों से मुक्ति पाता है और विद्या द्वारा अमृत प्राप्त करता है। विद्या चाविद्यां च यस्तवेदोमयं सह। अविद्यया मृत्यु तीा विद्ययामृतमश्नुते।।' यह अमृत आत्म-शांति या आत्मतोष ही है। अतः जब विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय होगा तभी मानवता का कल्याण होगा। विज्ञान जीवन के कष्टों को समाप्त कर देगा और अध्यात्म आंतरिक शांति को प्रदान करेगा। आचारांगसूत्र में महावीर ने अध्यात्म के लिए 'अज्झत्थ' शब्द का प्रयोग किया है और यह बताया है कि इसी के द्वारा आत्म-विशुद्धि को प्राप्त किया जा सकता है। वस्तुतः अध्यात्म कुछ नहीं है, वह आत्म-उपलब्धि या आत्म-विशुद्धि की ही एक (168) Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रक्रिया है, उसका प्रारम्भ आत्मज्ञान से है और उसकी परिनिष्पत्ति आध्यात्मिक मूल्यों के प्रति अटूट निष्ठा में है। वस्तुतः आज जितनी मात्रा में पदार्थ विज्ञान विकसित हुआ है उतनी ही मात्रा में आत्मज्ञान को विकसित होना चाहिए। विज्ञान की दौड़ में अध्यात्म पीछे रह गया है। पदार्थ को जानने के प्रयत्नों में हम अपने को भुला बैठे हैं। मेरी दृष्टि में आत्मज्ञान कोई अमूर्त, तात्विक आत्मा की खोज नहीं है, बल्कि अपने आपको जानना है। अपने आपको जानने का तात्पर्य अपने में निहित वासनाओं और विकारों को देखना है। आत्मज्ञान का अर्थ होता है - हम वह देखें कि हमारे जीवन में कहां अहंकार छिपा पड़ा है और कहां किसके प्रति घृणा-विद्वेष के तत्व पल रहे हैं। आत्मज्ञान कोर्ह हौव्वा नहीं है, वह तो अपने अंदर झांककर अपनी वृत्तियों और वासनाओं को पढ़ने की कला है। विज्ञान द्वारा प्रदत्त तकनीक के सहारे हम पदार्थों का परिशोधन करना तो सीख गए और परिशोधन से कितनी किसे शक्ति प्राप्त होती है वह भी जान गए, किंतु आत्मा के परिशोधन की जो कला अध्यात्म के नाम से हमारे ऋषि-मुनियों ने दी, आज हम उसे भूल चुके हैं। फिर भी विज्ञान ने आज हमारी सुख-सुविधा प्रदान करने के अतिरिक्त जो सबसे बड़ा उपकार किया है, वह यह कि धर्मवाद के नाम पर जो अंधश्रद्धा और अंधविश्वास पल रहे थे उन्हें तोड़ दिया है। इसका टूटना आवश्यक भी था, क्योंकि परलोक की लोरी सुनाकर मानव समाज को अधिक समय तक भ्रम में रखना सम्भव नहीं था। विज्ञान ने अच्छा ही किया हमारा यह भ्रम तोड़ दिया। किंतु हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि भ्रम का टूटना ही पर्याप्त नहीं है। इससे जो रिक्तता पैदा हुई है उसे आध्यात्मिक मूल्यनिष्ठा के द्वारा ही भरना होगा। यह आध्यात्मिक मूल्यनिष्ठा उच्च मूल्यों के प्रति निष्ठा है, जो जीवन को शांति और आत्मसंतोष प्रदान करते हैं। अध्यात्म और विज्ञान का संघर्ष वस्तुतः भौतिकवाद और अध्यात्मवाद का संघर्ष है। अध्यात्म की शिक्षा यही है कि भौतिक सुख-सुविधाओं की उपलब्धि ही अंतिम लक्ष्य नहीं है। दैहिक एवं आत्मिक मूल्यों से परे सामाजिक और मानवता के उच्च मूल्य भी हैं। महावीर की दृष्टि में अध्यात्मवाद का अर्थ है पदार्थ को परम मूल्य न मानकर आत्मा को ही परम मूल्य मानना। भौतिकवादी दृष्टि के अनुसार सुख और दुःख वस्तुगत तथ्य हैं। अतः भौतिकवादी सुखों की लालसा में वह वस्तुओं के पीछे दौड़ता है तथा उनकी उपलब्धि हेतु शोषण और संग्रह जैसी सामाजिक बुराइयों को जन्म देता हैं, जिससे वह स्वयं तो संत्रस्त होता ही है, साथ ही साथ समाज को भी संत्रस्त बना देता (169) Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। इसके विपरीत अध्यात्मवाद हमें यह सिखाता है कि सुख का केंद्र वस्तु में न होकर आत्मा में है। सुख-दुःख आत्म-केंद्रित है। आत्मा या व्यक्ति ही अपने सुख-दुःख का कर्ता और भोक्ता है। वही अपना मित्र और वही अपना शत्रु है। सुप्रतिष्ठित अर्थात् सद्गुणों में स्थित आत्मा मित्र है और दुःप्रतिष्ठित अर्थात् दुर्गुणों में स्थित आत्मा शत्रु है। वस्तुतः आध्यात्मिक आनंद की उपलब्धि पदार्थों में न होकर सद्गुणों में स्थित आत्मा में होती है। अध्यात्मवाद के अनुसार देहादि सभी आत्मेत्तर पदार्थों के प्रति ममत्वबुद्धि का विसर्जन साधना का मूल उत्स है। ममत्व का विसर्जन और ममत्व का सृजन यही जीवन का परम मूल्य है। जैसे ही ममत्व का विसर्जन होगा समत्व का सृजन होगा, और जब समत्व का सृजन होगा तो शोषण और संग्रह की सामाजिक बुराइयां समाप्त होंगी। परिमाणतः व्यक्ति-आत्मिक शांति का अनुभव करेगा। अध्यात्मवादी समाज में विज्ञान तो रहेगा किंतु उसका उपयोग संहार में न होकर सृजन में होगा, मानवता के कल्याण में होगा। ___ अंत में पुनः मैं यही कहना चाहूंगा कि विज्ञान के कारण जो एक संत्रास की स्थिति मानव समाज में दिखाई दे रही है उसका मूलभूत कारण विज्ञान नहीं अपितु व्यक्ति की संकुचित और स्वार्थवादी दृष्टि ही है। विज्ञान तो निरपेक्ष है, वह न अच्छा है और न बुरा। उसका अच्छा या बुरा होना उसके उपयोग पर निर्भर करता है और इस उपयोग का निर्धारण व्यक्ति के अधिकार की वस्तु है। अतः आज विज्ञान को नकारने की आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता है उसे सम्यक्-दिशा में नियोजित करने की और यह सम्यक् - दिशा अन्य कुछ नहीं, यह सम्पूर्ण मानवता के कल्याण की व्यापक आकांक्षा ही है और इस आकांक्षा की पूर्ति अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय में है। काश मानवता इन दोनों में समन्वय कर सके बल्कि यही कामना है। . संदर्भ : 1. जे आया से विण्णाया, जे विण्णाया से आया। - आचारांगसूत्र, संपा. मधुकर मुनि, श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 1980, 2/5/5 वही, 1/1/1 आत्मज्ञान और विज्ञान (विनोवा) (170) Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. वही 5.. वी ___ अप्पा खलु मित्तं अमित्तं च सुपट्ठिओ दुपट्ठिओ 7. ईशावस्योपनिषद् , (गीताप्रेस, गोरखपुर, वि.सं.2017), 9 8. वही, 11 (171) Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्मिक सहिष्णुता और जैन धर्म धार्मिक सहिष्णुता : आज की आवश्यकता आज का युग बौद्धिक विकास और वैज्ञानिक प्रगति का युग है। मनुष्य के बौद्धिक विकास ने उसकी तार्किकता को पैना किया है। आज मनुष्य प्रत्येक समस्या पर तार्किक दृष्टि से विचार करता है, किंतु दुर्भाग्य यह है कि इस बौद्धिक विकास के बावजूद भी एक ओर अंधविश्वास और रूढ़िवादिता बराबर कायम है, तो दूसरी ओर वैचारिक संघर्ष अपनी चरम सीमा पर पहुंच गया है। धार्मिक एवं राजनीतिक साम्प्रदायिकता आज जनता के मानस को उन्मादी बना रही है। कहीं धर्म के नाम पर, कहीं राजनीतिक विचारधाराओं के नाम पर, कहीं धनी और निर्धन के नाम पर, कहीं जातिवाद के नाम पर, कहीं काले और गोरे के भेद को लेकर मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद की दीवारें खींची जा रही हैं। आज प्रत्येक धर्म-सम्प्रदाय, प्रत्येक राजनीतिक दल और प्रत्येक वर्ग अपने हितों की सुरक्षा के लिए दूसरे के अस्तित्व को समाप्त करने पर तुला हुआ है। सब अपने को मानव-कल्याण का एकमात्र ठेकेदार मानकर अपनी सत्यता का दावा कर रहे हैं और दूसरे कोभ्रांत तथा भ्रष्ट बता रहे हैं। मनुष्य की असहिष्णुता की वृत्ति मनुष्य के मानस को उन्मादी बनाकर पारस्परिक घृणा, विद्वेष और बिखराव के बीज बो रही है। एक ओर हम प्रगति की बात करते हैं तो दूसरी ओर मनुष्य-मनुष्य के बीच दीवार खड़ी करते हैं। ‘इकबाल' इसी बात को लेकर पूछते हैं फिर्केबंदी है कहीं, और कहीं जाते हैं, क्या जमाने में पनपने की बात यही बातें हैं ? यद्यपि वैज्ञानिक तकनीक से प्राप्त आवागमन के सुलभ साधनों ने आज विश्व की दूरी को कम कर दिया है, हमारा संसार सिमट रहा है, किंतु आज मनुष्यमनुष्य के बीच हृदय की दूरी कहीं अधिक ज्यादा हो रही है। वैयक्तिक स्वार्थलिप्सा के कारण मनुष्य एक-दूसरे को काटता चला जा रहा है। आज विश्व का वातावरण तनावपूर्ण एवं विक्षुब्ध है। एक ओर इजरायल और अरब में यहूदी और मुसलमान लड़ रहे हैं, तो दूसरी ओर इस्लाम धर्म के ही दो सम्प्रदाय शिया और सुन्नी इराक और ईरान में लड़ रहे हैं। भारत में भी कहीं हिन्दू और मुसलमानों को, तो कहीं हिन्दू और सिखों को एक-दूसरे के विरूद्ध लड़ने के लिए उभाड़ा जा रहा है। अफ्रीका में काले और गोरे का संघर्ष चल (172) Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहा है, तो साम्यवादी रूस और पूंजीवादी संयुक्त राज्य अमेरिका एक-दूसरे को नेस्तनाबूद करने पर तुले हुए हैं। आज मानवता उस कगार पर आकर खड़ी हो गई है, जहां से उसने यदि अपना रास्ता नहीं बदला तो उसका सर्वनाश निकट है। ‘इकबाल' स्पष्ट शब्दों में हमें चेतावनी देते हुए कहते हैं - अगर अब भी न समझोगे तो मिट जाओगे दुनियां से। तुम्हारी दास्तां तक भी न होगी दास्तानों में // विज्ञान और तकनीक की प्रगति के नाम पर हमने मानव जाति के लिए विनाश की चिता तैयार कर ली है। यदि मनुष्य की इस उन्मादी प्रवृत्ति पर कोई अंकुश नहीं लगा, तो कोई भी छोटी सी घटना इस चिता को चिनगारी दे देगी और तब हम सब अपने हाथों तैयार की गई इस चिता में जलने को मजबूर हो जाएंगे। असहिष्णुता और वर्ग-विद्वेष- फिर चाहे वह धर्म के नाम पर हो, राजनीति के नाम पर हो, राष्ट्रीयता के नाम पर हो या साम्प्रदायिकता के नाम पर - हमें विनाश के गर्त की ओर ही लिए जा रहे हैं। आज की इस स्थिति के सम्बंध में उर्दू के शायर ‘चकबस्त' ने ठीक ही कहा है - मिटेगा दीन भी और आबरू भी जाएगी। ___ तुम्हारे नाम से दुनिया को शर्म आएगी॥ ... अतः आज एक ऐसे दृष्टिकोण की आवश्यकता है जो मानवता को दुराग्रह और मतान्धता से ऊपर उठाकर सत्य को समझने के लिए एक समग्र दृष्टि दे सके, ताकि वर्गीय हितों से ऊपर उठकर समग्र मानवता के कल्याण को प्राथमिकता दी जा सके। धार्मिक मतान्धता क्यों ? धर्म को अंग्रेजी में रिलीजन' (Religion) कहा जाता है। रिलीजन शब्द रिलीजेर से बना है। इसका शाब्दिक अर्थ होता है - फिर से जोड़ देना। धर्म मनुष्य को मनुष्य से और आत्मा को परमात्मा से जोड़ने की कला है। धर्म का अवतरण मनुष्य को शाश्वत शांति और सुख देने के लिए हुआ है, किंतु हमारी मतांधता और उन्मादी वृत्ति * के कारण धर्म के नाम पर मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद की दीवारें खड़ी हो गई और उसे एक-दूसरे का प्रतिस्पर्धी बना दिया गया। मानव जाति के इतिहास में जितने युद्ध और संघर्ष हुए हैं, उनमें धार्मिक मतान्धता एक बहुत बड़ा कारण रही है। धर्म के नाम पर मनुष्य ने अनेक बार खून की होली खेली है और आज भी खेल रहे हैं। विश्व इतिहास का अध्येता इस बात को भलीभांति जानता है कि धार्मिक असहिष्णुता ने विश्व में जघन्य दुष्कृत्य कराए हैं। आश्चर्य तो यह है कि दमन, अत्याचार, नृशंसता और (173) Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रक्तप्लावन की इन घटनाओं को धर्म का जामा पहनाया गया और ऐसे युद्धों को धर्मयुद्ध .कहकर मनुष्य को एक-दूसरे के विरूद्ध उभाड़ा गया, फलतः शांति, सेवा और समन्वय का प्रतीक धर्म ही अशांति, तिरस्कार और वर्ग-विद्वेष का कारण बन गया। यहां हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि धर्म के नाम पर जो कुछ किया या कराया जाता है, वह सब धार्मिक नहीं होता। इन सबके पीछे वस्तुतः धर्म नहीं, धर्म के नाम पर पलने वाली व्यक्ति की स्वार्थपरता काम करती है। वस्तुतः कुछ लोग अपने क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति के लिए मनुष्यों को धर्म के नाम पर एक-दूसरे के विरोध में खड़ा कर देते हैं। धर्म भावना-प्रधान है और भावनाओं को उभाड़ना सहज होता है। अत: धर्म ही एक ऐसा माध्यम है जिसके नाम पर मनुष्यों को एक दूसरे के विरूद्ध जल्दी उभाड़ा जा सकता है। इसीलिए मतान्धता, उन्मादी और स्वार्थी तत्वों ने धर्म को सदैव ही अपने हितों की पूर्ति का साधन बनाया है। जो धर्म मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने के लिए था, उसी धर्म के नाम पर अपने से विरोधी धर्मवालों को उत्पीड़ित करने और उस पर अत्याचार करने के प्रयत्न हुए हैं और हो रहे हैं। किंतु धर्म के नाम पर हिंसा, संघर्ष और वर्ग-विद्वेष की जो भावनाएं उभाड़ी जा रही हैं, उसका कारण क्या धर्म है ? वस्तुतः धर्म नहीं, अपितु धर्म का आवरण डालकर मानव की महत्वाकांक्षा, उसका अहंकार और उसकी क्षुद्र स्वार्थपरता ही यह सब कुछ करवा रही है। यथार्थ में यह धर्म का नकाब डाले हुए अधर्म ही है। धर्म के सारतत्व का ज्ञान : मतान्धता से मुक्ति का मार्ग दुर्भाग्य यह है कि आज जनसामान्य, जिसे धर्म के नाम पर सहज ही उभाड़ा जाता है, धर्म के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ है, वह धर्म के मूल हार्द को नहीं समझ पाया है। उसकी दृष्टि में कुछ कर्मकाण्ड और रीति-रिवाज ही धर्म है। हमारा दुर्भाग्य यह है कि हमारे तथाकथित धार्मिक नेताओं ने हमें धर्म के मूल हार्द से अनभिज्ञ रखकर, इन रीति-रिवाजों और कर्मकाण्डों को ही धर्म कहकर समझाया है। वस्तुतः आज आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझे। आज मानव समाज के समक्ष धर्म के उस सारभूत तत्व को प्रस्तुत किए जाने की आवश्यकता है, जो सभी धर्मों में सामान्यतया उपस्थित है और उनकी मूलभूत एकता का सूचक है। आज धर्म के मूल हार्द और वास्तविक स्वरूप को समझे बिना हमारी धार्मिकता सुरक्षित नहीं रह सकती है। यदि आज धर्म के नाम पर विभाजित होती हुई इस मानवता को पुनः जोड़ना है तो हमें धर्म के उन मूलभूत तत्वों को सामने लाना होगा, जिनके आधार पर (174) राहा Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन टूटी हुई कड़ियों को पुनः जोड़ा जा सके। धर्म का मर्म यह सत्य है कि आज विश्व में अनेक धर्म प्रचलित हैं। किंतु यदि हम गम्भीरतापूर्वक विचार करें तो इन विविध धर्मों का मूलभूत लक्ष्य है- मनुष्य को एक अच्छे मनुष्य के रूप में विकसित कर उसे परमात्म तत्व की ओर ले जाना। जब तक मनुष्य, मनुष्य नहीं बनता और उसकी यह मनुष्यता देवत्व की ओर अग्रसर नहीं होती, तब तक वह धार्मिक नहीं कहा जा सकता। यदि मनुष्य में मानवीय गुणों का विकास ही नहीं हुआ है तो वह किसी भी स्थिति में धार्मिक नहीं है। अमन' ने ठीक ही कहा है - इंसानियत से जिसने बशर को गिरा दिया। या रब! वह बंदगी हुई या अबतरी हुई। मानवता के बिना धार्मिकता असम्भव है। मानवता धार्मिकता का प्रथम चरण है। मानवता का अर्थ है - मनुष्य में विवेक विकसित हो, वह अपने विचारों, भावनाओं और हितों पर संयम रख सके तथा अपने साथी प्राणियों के सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख समझ सके। यदि यह सब उसमें नहीं है तो वह मनुष्य ही नहीं है, तो फिर उसके धार्मिक होने का प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि कोई पशु धार्मिक या अधार्मिक नहीं होता, मनुष्य ही धार्मिक या अधार्मिक होता है। यदि मानवीय शरीर को धारण करने वाला व्यक्ति अपने पशुत्व से ऊपर नहीं उठ पाया है, तो उसके धार्मिक होने का प्रश्न तो बहुत दूर की बात है। मानवीयता धार्मिकता की प्रथम सीढ़ी है। उसे पार किए बिना कोई धर्ममार्ग में प्रवेश नहीं कर सकता। मनुष्य का प्रथम धर्म मानवता है। वस्तुतः यदि हम जैन धर्म की भाषा में धर्म को वस्तु-स्वभाव मानें तो हमें समग्र चेतन सत्ता के मूल स्वभाव को ही धर्म कहना होगा। भगवतीसूत्र में आत्मा का स्वभाव समता-समभाव कहा गया है। उसमें गणधर भगवान् महावीर से प्रश्न करते हैं कि आत्मा क्या है और आत्मा का साध्य क्या है ? प्रत्युत्तर में भगवान कहते हैं- आत्मा सामायिक (समत्ववृत्ति) रूप है और उस समत्वभाव को प्राप्त कर लेना ही आत्मा का साध्य है।' आचारांगसूत्र भी समभाव को ही धर्म कहता है। सभी धर्मों का सार समता तथा शांति है। मनुष्य में निहित काम, क्रोध, अहंकार, लोभ और उनके जनक राग-द्वेष और तृष्णा को समाप्त करना ही सभी धार्मिक साधनाओं का मूलभूत लक्ष्य रहा है। इस सम्बंध में श्री सत्यनारायण जी गोयनका के निम्न विचार द्रष्टव्य हैं- 'क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष आदि न हिन्दू हैं, न बौद्ध, न जैन, न पारसी, न मुस्लिम, न ईसाई। वैसे इनसे विमुक्त रहना (175) Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी न हिन्दू है न बौद्ध, न जैन है न पारसी, न मुस्लिम है न ईसाई। विकारों से विमुक्त रहना ही शुद्ध धर्म है। क्या शीलवान, समाधिवान और प्रज्ञावान होना केवल बौद्धों का ही धर्म है? क्या वीतराग, वीतद्वेष और वीतमोह होना जैनों का ही धर्म है? क्या स्थितप्रज्ञ, अनासक्त, जीवन-मुक्त होना हिन्दुओं का ही धर्म है? धर्म की इस शुद्धता को समझें और धारण करें। (धर्म के क्षेत्र में) निस्सार छिलकों का अवमूल्यन हो, उन्मूलन हो, शुद्धसार का मूल्यांकन हो, प्रतिष्ठापन हो।'' जब यह स्थिति आएगी, धार्मिक सहिष्णुता सहज ही प्रकट होगी। साधनागत विविधता : असहिष्णुता का आधार नहीं . .. तृष्णा, राग-द्वेष और अहंकार अधर्म के बीज हैं। इनसे मानसिक और सामाजिक समभाव भंग होता है। अतः इनके निराकरण को सभी धार्मिक साधनापद्धतियां अपना लक्ष्य बनाती हैं। किंतु मनुष्य का अहंकार, मनुष्य का. ममत्व कैसे समाप्त हो, उसकी तृष्णा या आसक्ति का उच्छेद कैसे हो? इस साधनात्मक पक्ष को लेकर ही विचारभेद प्रारम्भ होता है। कोई परम सत्ता या ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण में ही आसक्ति, ममत्व और अहंकार के विसर्जन का उपाय देखता है, तो कोई उसके लिए जगत् की दुःखमयता, पदार्थों की क्षणिकता और अनात्मता का उपदेश देता है, तो कोई उस आसक्ति या रागभाव की विमुक्ति के लिए आत्म और अनात्म अर्थात् स्व-पर. के विवेक को धार्मिक साधना का प्रमुख अंग मानता है। वस्तुतः यह साधनात्मक भेद ही धर्मों की अनेकता का कारण है। किंतु यह अनेकता धार्मिक असहिष्णुता या विरोध का कारण नहीं बन सकती। आचार्य हरिभद्र ने योगदृष्टिसमुच्चय में धार्मिक साधना की विविधताओं का सुंदर विश्लेषण प्रस्तुत किया है। वे लिखते हैं यद्वा तत्तन्नयापेक्षा तत्कालादिनियोगतः / ऋषिभ्यो देशना चित्रा तन्मूलैषापि तत्वतः // . अर्थात् प्रत्येक ऋषि अपने देश, काल और परिस्थिति के आधार पर भिन्नभिन्न धर्ममार्गों का प्रतिपादन करते हैं। देश और कालगत विविधताएं तथा साधकों की रुचि और स्वभावगत विविधताएं धार्मिक साधनाओं की विविधताओं के आधार हैं। किंतु इस विविधता को धार्मिक असहिष्णुता का कारण नहीं बनने देना चाहिए। जिस प्रकार एक ही नगर को जाने वाले विविध मार्ग परस्पर भिन्न-भिन्न दिशाओं में स्थित होकर भी विरोधी नहीं कहे जाते हैं, एक ही केंद्र को योजित होने वाली परिधि से खींची गई विविध रेखाएं चाहें बाह्य रूप से विरोधी दिखाई दें, किंतु यथार्थतः उनमें कोई विरोध (176) Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं होता है, उसी प्रकार परस्पर भिन्न-भिन्न आचार-विचार वाले धर्ममार्ग भी वस्तुतः विरोधी नहीं होते। यह एक गणितीय सत्य है कि एक केंद्र से योजित होने वाली परिधि से खींची गई अनेक रेखाएं एक-दूसरे को काटने की क्षमता नहीं रखती हैं, क्योंकि उन सबका साध्य एक ही होता है। वस्तुतः उनमें एक-दूसरे को काटने की शक्ति तभी आती है जब वे अपने केंद्र का परित्याग कर देती हैं। यही बात धर्म के सम्बंध में भी सत्य है। एक ही साध्य की ओर उन्मुख बाहर से परस्पर विरोधी दिखाई देने वाले अनेक साधनामार्ग तत्वतः परस्पर विरोधी नहीं होते हैं। यदि प्रत्येक धार्मिक साधक अपने अहंकार, राग-द्वेष और तृष्णा की प्रवृत्तियों को समाप्त करने के लिए, अपने काम, क्रोध और लोभ के निराकरण के लिए, अपने अहंकार और अस्मिता के विसर्जन के लिए साधनारत है, तो फिर उसकी साधना-पद्धति चाहे जो हो, वह दूसरी साधना-पद्धतियों का न तो विरोधी होगा और न असहिष्णु। यदि धार्मिक जीवन में साध्यरूपी एकता के साथ साधनारूपी अनेकता रहे तो भी वह संघर्ष का कारण नहीं बन सकती। वस्तुतः यहां हमें यह विचार करना है कि धर्म और समाज में धार्मिक असहिष्णुता का जन्म क्यों और कैसे होता है? .. वस्तुतः जब यह मान लिया जाता है कि हमारी साधना-पद्धति ही एकमात्र व्यक्ति को अंतिम साध्य तक पहुंचा सकती है तब धार्मिक असहिष्णुता का जन्म होता हैं इसके स्थान पर यदि हम यह स्वीकार कर लें कि वे सभी साधना-पद्धतियां जो साध्य तक पहुंचा सकती हैं, सही हैं, तो धार्मिक संघर्षों का क्षेत्र सीमित हो जाता है। देश और * कालगत विविधताएं तथा व्यक्ति की अपनी प्रवृत्ति और योग्यता आदि ऐसे तत्व हैं, जिनके कारण साधनागत विविधताओं का होना स्वाभाविक है। वस्तुतः जिससे व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास होता है, वह आचार के बाह्य विधि-निषेध या बाह्य औपचारिकताएं या क्रियाकाण्ड नहीं, मूलतः साधक की भावना या जीवन-दृष्टि है। प्राचीनतम जैन आगम आचारांगसूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि - जे आसवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते आसवा। जो आस्रव अर्थात् बंधन के कारण हैं, वे ही परिस्रव अर्थात् मुक्ति के कारण हो सकते हैं और इसके विपरीत जो मुक्ति के कारण हैं, वे ही बंधन के कारण बन सकते हैं। अनेक बार ऐसा होता है कि बाह्य रूप में हम जिसे अनैतिक और अधार्मिक कहते हैं, वह देश, काल, व्यक्ति और परिस्थितियों के आधार पर नैतिक और धार्मिक हो जाता है। धार्मिक जीवन में साधना का बाह्य कलेवर इतना महत्वपूर्ण नहीं होता जितना (177) Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसके मूल में रही हुई व्यक्ति की भावनाएं होती हैं। बाह्य रूप से किसी युवती की परिचर्या करते हुए एक व्यक्ति अपनी मनोभूमिका के आधार पर धार्मिक हो सकता है, तो दूसरा अधार्मिका वस्तुतः परिचर्या करते समय परिचर्या की अपेक्षा भी ज़ो अधिक महत्वपूर्ण है, वह उस परिचर्या के मूल में निहित प्रयोजन, प्रेरक या मनोभूमिका होती है। एक व्यक्ति निष्काम भावना से किसी की सेवा करता है, तो दूसरा व्यक्ति अपनी वासनाओं अथवा अपने क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति के लिए किसी की सेवा करता है। बाहर से दोनों सेवाएं एक हैं, किंतु उनमें एक नैतिक और धार्मिक है, तो दूसरी अनैतिक और अधार्मिक। हम देखते हैं कि अनेकानेक लोग लौकिक एंषणाओं की पूर्ति के लिए प्रभु-भक्ति और सेवा करते हैं किंतु उनकी वह सेवा धर्म का कारण न होकर अधर्म का कारण होती है। अतः साधनागत बाह्य विभिन्नताओं को न तो धार्मिकता का सर्वस्व मानना चाहिए और न उन पर इतना अधिक बल दिया जाना चाहिए, जिससे पारस्परिक विभेद और भिन्नता की खाई और गहरी हो। वस्तुतः जब तक देश और कालगत भिन्नताएं हैं, जब तक व्यक्ति की रुचि या स्वभावगत भिन्नताएं हैं, तब तक साधनागत विभिन्नताएं स्वाभाविक ही हैं। आचार्य हरिभद्र अपने ग्रंथ योगदृष्टिसमुच्चय में कहते हैं - चित्रा तु देशनैतेषां स्याद् विनेयानुगुण्यतः। यस्मादेते महात्मानो भाव्याधि भिषग्वराः // अर्थात् जिस प्रकार एक अच्छा वैद्य रोगी की प्रकृति, ऋतु आदि को ध्यान में रखकर एक ही रोग के लिए दो व्यक्तियों को अलग-अलग औषधि प्रदान करता है, उसी प्रकार धर्ममार्ग के उपदेष्टा ऋषिगण भी भिन्न-भिन्न स्वभाव वाले व्यक्तियों के लिए अलग-अलग साधना-विधि प्रस्तुत करते हैं। देश, काल और रुचिगत वैचित्र्य धार्मिक साधना पद्धतियों की विभिन्नता का आधार है। वह स्वाभाविक है, अतः उसे अस्वीकार भी नहीं किया जा सकता है। धर्मक्षेत्र में साधनागत विविधताएं सदैव रही हैं और रहेंगी, किंतु उन्हें विवाद का आधार नहीं बनाया जाना चाहिए।' हमें प्रत्येक साधना-पद्धति की उपयोगिता और अनुपयोगिता का मूल्यांकन उन परिस्थितियों में करना चाहिए जिसमें उनका जन्म होता है। उदाहरण के रूप में, मूर्तिपूजा का विधान और मूर्तिपूजा का निषेध दो भिन्न देशगत और कालगत परिस्थितियों की देन हैं और उनके पीछे विशिष्ट उद्देश्य रहे हुए हैं। यदि हम उन संदर्भो में उनका मूल्यांकन करते हैं, तो इन दो विरोधी साधनापद्धतियों में भी हमें कोई विरोध नजर नहीं आएगा। सभी धार्मिक साधना-पद्धतियों का एक लक्ष्य होते हुए भी उनमें देश, काल, व्यक्ति और परिस्थिति के कारण साधनागत (178) Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभिन्नताएं आई हैं। उदाहरण के रूप में, हिन्दू धर्म और इस्लाम दोनों में उपासना के पूर्व एवं पश्चात् शारीरिक शुद्धि का विधान है। फिर भी दोनों की शारीरिक शुद्धि की प्रक्रिया भिन्न-भिन्न है। मुसलमान अपनी शारीरिक शुद्धि इस प्रकार से करता है कि उसमें जल की अत्यल्प मात्रा का व्यय हो, वह हाथ और मुंह को नीचे से ऊपर की ओर धोता है, क्योंकि इसमें पानी की मात्रा कम खर्च होती है। इसके विपरीत हिन्दू अपने हाथ और मुंह ऊपर से नीचे की ओर धोता है। इसमें जल की मात्रा अधिक खर्च होती है। शारीरिक शुद्धि का लक्ष्य समान होते हुए भी अरब देशों में जल का अभाव होने के कारण एक पद्धति अपनाई गई, तो भारत में जल की बहुलता होने के कारण दूसरी पद्धति अपनाई गई। अतः आचार के इन बाहरी रूपों को लेकर धार्मिकता के क्षेत्र में जो विवाद चलाया जाता है, वह उचित नहीं है। चाहे प्रश्न मूर्तिपजा का हो या अन्य कोई, हम देखते हैं कि उन सभी के मूल में कहीं न कहीं देश, काल और व्यक्ति के रुचिगत वैचित्र्य का आधार होता है। इस्लाम ने चाहे कितना ही बुतपरस्ती का विरोध किया हो किंतु मुहर्रम, कब्र-पूजा आदि के नाम पर प्रकारांतर से उसमें मूर्तिपूजा प्रविष्ट हो ही गई है। इसी प्रकार इस्लाम एवं अन्य परिस्थितियों के प्रभाव से हिन्दू और जैन धर्म में अमूर्तिपूजक सम्प्रदायों का विकास हुआ। अतः धार्मिक जीवन की बाह्य आचार एवं रीति-रिवाज सम्बंधी दैशिक, कालिक और वैयक्तिक भिन्नताओं को धर्म का मूलाधार न मानकर, इन भिन्नताओं के प्रति एक उदार और व्यापक दृष्टिकोण रखना आवश्यक है। हमें इन सभी विभिन्नताओं को उनके उद्भव की मूलभूत परिस्थितियों में समझने का प्रयत्न करना चाहिए। शास्त्र की सत्यता का प्रश्न धार्मिकता के क्षेत्र में अनेक बार यह विवाद भी प्रमुख हो जाता है कि हमारा धर्मशास्त्र ही सच्चा धर्मशास्त्र है और दूसरों का धर्मशास्त्र सच्चा और प्रामाणिक नहीं है। इस विषय में प्रथम तो हमें यह जान लेना चाहिए कि धर्मशास्त्र का मूल स्त्रोत तो धर्मप्रवर्तक के उपदेश ही होते हैं और सामान्यतया प्राचीन धर्मों में वे मौखिक ही रहे हैं। जिन्होंने उन्हें लिखित रूप दिया, वे देश और कालगत परिस्थितियों से सर्वथा अप्रभावित रहे, यह कहना बड़ा कठिन है। महावीर के उपदेश उनके परिनिर्वाण ने एक हजार वर्ष बाद लिखे गए- क्या इतनी लम्बी कालावधि में उसमें कुछ घटाव-बढ़ाव नहीं हुआ होगा? न केवल यह प्रश्न जैन शास्त्रों का है अपितु हिन्दू और बौद्ध धर्म के शास्त्रों का भी है। दुर्भाग्य से किसी भी धर्म का धर्मशास्त्र, उसके उपदेष्टा के जीवनकाल में नहीं (179) Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिखा गया। न महावीर के जीवन में आगम लिखे गए, न बुद्ध के जीवन में त्रिपिटक लिखे गए, न ईसा के जीवन में बाइबिल और न मुहम्मद के जीवन में कुराना पुनः यदि प्रत्येक धर्मशास्त्र में से दैशिक, कालिक और वैयक्तिक तथ्यों को अलग कर धर्म के उत्स या मूल तत्व को देखा जाए, तो उनमें बहुत बड़ी भिन्नता भी दृष्टिगोचर नहीं होती है। आचार के सामान्य नियम- हत्या मत करो, झूठ मत बोलो, चोरी मत करो, व्यभिचार मत करो, नशीले पदार्थों का सेवन मत करो, संचयवृत्ति से दूर रहो और अपने धन का दीन-दुःखियों की सेवा में उपयोग करो- ये सब सभी धर्मशास्त्रों में समान रूप से प्रतिपादित हैं, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि हम इन मूलभूत आधार स्तम्भों को छोड़कर उन छोटीछोटी बातों को ही अधिक पकड़ते हैं, जिनसे पारस्परिक भेद की खाई और गहरी होती है। जैनों के सामने भी शास्त्र की सत्यता और असत्यता का प्रश्न आया था। किसी सीमा तक उन्होंने सम्यक् - श्रुत और मिथ्या-श्रुत के नाम पर तत्कालीन शास्त्रों का विभाजन भी कर लिया था, किंतु फिर भी उनकी दृष्टि संकुचित और अनुदार नहीं रही। उन्होंने ईमानदारीपूर्वक इस बात को स्वीकार कर लिया कि जो सम्यक् - श्रुत है, वह मिथ्या-श्रुत भी हो सकता है और जो मिथ्या-श्रुत है वह सम्यक् - श्रुत भी हो सकता है। श्रुति या शास्त्र का सम्यक् होना या मिथ्या होना शास्त्र के शब्दों पर नहीं, अपितु उसके अध्येता और व्याख्याता पर निर्भर करता है। जैन आचार्य स्पष्टरूप से कहते हैं कि एक मिथ्यादृष्टि के लिए सम्यक् - श्रुत भी मिथ्या - श्रुत हो सकता है और एक सम्यग्दृष्टि के लिए मिथ्या-श्रुत भी सम्यक् - श्रुत हो सकता है। सम्यक् - दृष्टि व्यक्ति मिथ्या - श्रुत में से भी अच्छाई और सारतत्व ग्रहण कर लेता है, तो दूसरी ओर एक मिथ्यादृष्टि व्यक्ति सम्यक् - श्रुत में भी बुराई और कमियां देख सकता है। अतः शास्त्र के सम्यक् और मिथ्या होने का प्रश्न मूलतः व्यक्ति के दृष्टिकोण पर निर्भर है। ग्रंथ और इसमें लिखे शब्द तो जड़ होते हैं, उनको व्याख्यायित करने वाला तो व्यक्ति का अपना मनस् है। अतः श्रुत सम्यक् और मिथ्या नहीं होता है, सम्यक् या मिथ्या होता है उनसे अर्थ-बोध प्राप्त करने वाले व्यक्ति का मानसिक दृष्टिकोण। एक व्यक्ति सुंदर में भी असुंदर देखता है तो दूसरा व्यक्ति असुंदर में भी सुंदर देखता है। अतः यह विवाद निरर्थक और अनुपयोगी है कि हमारा शास्त्र ही सम्यक - शास्त्र है और दूसरे का शास्त्र मिथ्या-शास्त्र है। हम शास्त्र को जीवन से नहीं जोड़ते हैं अपितु उसे अपने-अपने ढंग से व्याख्यायित करके उस विचार-भेद के आधार पर विवाद करने का प्रयत्न करते हैं। परंतु शास्त्र को जब भी (180) Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्यायित किया जाता है, वह देश, काल और वैयक्तिक रुचि भेद से अप्रभावित हुए बिना नहीं रहता। एक ही गीता को शंकर और रामानुज दो अलग-अलग दृष्टि से व्याख्यायित कर सकते हैं। वही गीता तिलक, अरविंद और राधाकृष्णन् के लिए अलगअलग अर्थ की बोधक हो सकती है। अतः शास्त्र के नाम पर धार्मिक क्षेत्र में विवाद और असहिष्णुता को बढ़ावा देना उचित नहीं है। शास्त्र और शब्द जड़ है, उससे जो अर्थबोध किया जाता है, वही महत्वपूर्ण है और यह अर्थबोध की प्रक्रिया श्रोता या पाठक की दृष्टि पर निर्भर करती है, अतः महत्व दृष्टि का है, शास्त्र के निरे शब्दों का नहीं है। यदि दृष्टि उदार और व्यापक हो, हममें नीर-क्षीर विवेक की क्षमता हो और शास्त्र के वचनों को हम उस परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रयास करें जिसमें वे कह गए हैं, तो हमारे विवाद का क्षेत्र सीमित हो जाएगा। जैनाचार्यों ने नंदीसूत्र में जो यह कहा कि सम्यक् - श्रुत मिथ्यादृष्टि के लिए मिथ्या-श्रुत हो जाता हैं और मिथ्या-श्रुत भी सम्यक् - दृष्टि के लिए सम्यक् - श्रुत होता है, उसका मूल आशय यही है। धार्मिक असहिष्णुता का बीज-रागात्मकता धार्मिक असहिष्णुता का बीज तभी वपित होता है, जब हम अपने धर्म या साधना-पद्धति को ही एकमात्र और अंतिम मानने लगते हैं तथा अपने धर्म-गुरु को ही एकमात्र सत्य का द्रष्टा मान लेते हैं। यह अवधारणा ही धार्मिक वैमनस्यता का मूल कारण है। . वस्तुतः जब व्यक्ति की रागात्मकता धर्मप्रवर्तक, धर्ममार्ग और धर्मशास्त्र के साथ जुड़ती है, तो धार्मिक कदाग्रहों और असहिष्णुता का जन्म होता है। जब हम अपने धर्म-प्रवर्तक को ही सत्य का एकमात्र द्रष्टा और उपदेशक मान लते हैं, तो हमारे मन में दूसरे धर्मप्रवर्तकों के प्रति तिरस्कार की धारणा विकसित होने लगती है। राग का तत्व जहां एक ओर व्यक्ति को किसी से जोड़ता है, वहीं दूसरी ओर वह उसे कहीं से तोड़ने भी लगता है। जैन परम्परा में धर्म के प्रति इस ऐकान्तिक रागात्मकता को दृष्टिराग कहा गया है और इस दृष्टिराग को व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास में बाधक भी माना गया है। भगवान् महावीर के प्रथम शिष्य एवं गणधर इंद्रभूति गौतम को जब तक भगवान् महावीर जीवित रहे, कैवल्य (सर्वज्ञत्व) की प्राप्ति नहीं हो सकी, वे वीतरागता को उपलब्ध नहीं कर पाए। आखिर ऐसा क्यों हुआ? वह कौन सा तत्व था जो गौतम की वीतरागता और सर्वज्ञता की प्राप्ति में बाधक बन रहा था? प्राचीन जैन साहित्य में यह उल्लिखित है कि एक बार इंद्रभूति गौतम 500 शिष्यों को दीक्षित कर भगवान् महावीर के पास ला रहे (181) Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थे। महावीर के पास पहुंचते-पहुंचते उनके वे सभी शिष्य वीतराग और सर्वज्ञ हो चुके थे। गौतम को इस घटना से एक मानसिक खिन्नता हुई। वे विचार करने लगे कि जहां मेरे द्वारा दीक्षित मेरे शिष्य वीतरागता और सर्वज्ञता को उपलब्ध कर रहे हैं वहां मैं अभी भी इसको प्राप्त नहीं कर पा रहा हूं। उन्होंने अपनी इस समस्या को भगवान् महावीर के सामने प्रस्तुत कियागौतम पूछते हैं- हे भगवन् ! ऐसा कौन-सा कारण है, जो मेरी सर्वज्ञता या वीतरागता की प्राप्ति में बाधक बन रहा है? महावीर ने उत्तर दिया - हे गौतम ! तुम्हारा मेरे प्रति जो रागभाव है, वही तुम्हारी सर्वज्ञता और वीतरागता में बाधक है। जब तीर्थंकर महावीर के प्रति रहा हुआ रागभाव भी वीतरागता का बाधक हो सकता है तो फिर सामान्य धर्मगुरु और धर्मशास्त्र के प्रति हमारी रागात्मकता क्यों नहीं हमारे आध्यात्मिक विकास में बाधक होगी? यद्यपि जैन परम्परा धर्मगुरु और धर्मशास्त्र के प्रति ऐसी रागात्मकता को प्रशस्त-राग की संज्ञा देती है, किंतु वह यह मानती है कि यह प्रशस्त-राग भी हमारे बंधन का कारण है। राग राग है, फिर चाहे वह महावीर के प्रति क्यों न हो? जैन परम्परा का कहना है कि आध्यात्मिक विकास की सर्वोच्च अवस्था को प्राप्त करने के लिए हमें इस रागात्मकता से भी ऊपर उठना होगा। जैन कर्मसिद्धांत में मोह को बंधन का प्रधान माना गया है। यह मोह दो प्रकार का है - (1) दर्शनमोह और (2) चारित्रमोह। जैन आचार्यों ने दर्शनमोह को भी तीन भागों में बांटा है - सम्यक्तव मोह, मिथ्यात्वमोह और मिश्रमोह। मिथ्यात्व-मोह का अर्थ तो सहज ही हमें समझ में आ जाता है। मिथ्यात्व-मोह का अर्थ है-मिथ्या सिद्धांतों और मिथ्या विश्वासों का आग्रह अर्थात् गलत सिद्धांतों और गलत आस्थाओं में चिपके रहना। किंतु सम्यक्त्वमोह का अर्थ सामान्यतया हमारी समझ में नहीं आता है। सामान्यतया सम्यक्त्व-मोह का अर्थ सम्यक्त्व का मोह अर्थात् सम्यक्त्व का आवरणऐसा किया जाता है, किंतु ऐसी स्थिति में वह भी मिथ्यात्व का ही सूचक होता है। वस्तुतः सम्यक्त्वमोह का अर्थ है - दृष्टिराग अर्थात् अपनी धार्मिक मान्यताओं और विश्वासों को ही एकमात्र सत्य समझना और अपने से विरोधी मान्यताओं और विश्वासों को असत्य मानना। जैन दार्शनिक यह मानते हैं कि आध्यात्मिक पूर्णता या वीतरागता की उपलब्धि के लिए जहां मिथ्यात्वमोह का विनाश आवश्यक है वहां सम्यक्त्वमोह अर्थात् दृष्टिराग से ऊपर उठना भी आवश्यक है। न केवल जैन परम्परा में अपितु बौद्ध परम्परा में भी भगवान् बुद्ध के अंतेवासी शिष्य आनंद के सम्बंध में भी यह स्थिति है। आनंद भी बुद्ध के जीवन काल में अर्हत् अवस्था को प्राप्त नहीं कर पाए। बुद्ध के प्रति (182) Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनकी रागात्मकता ही उनके अर्हत् बनने में बाधक रही। चाहे वह इंद्रभूति गौतम हो या आनंद हो, यदि दृष्टिराग क्षीण नहीं होता है, तो अर्हत् अवस्था की प्राप्ति सम्भव नहीं है। वीतरागता की उपलब्धि के लिए अपने धर्म और धर्मगुरु के प्रति भी रागभाव का त्याग करना होगा। धार्मिक मतान्धता को कम करने का उपाय-गुणोपासना धार्मिक असहिष्णुता के कारणों में एक कारण यह है कि हम गुणों के स्थान पर व्यक्तियों से जुड़ने का प्रयास करते हैं। जब हमारी आस्था का केंद्र या उपास्य आध्यात्मिक एवं नैतिक विकास की अवस्था विशेष न होकर व्यक्ति विशेष बन जाता है, तो फिर स्वाभाविक रूप से ही आग्रह का घेरा खड़ा हो जाता है। हम यह मानने लगते हैं कि महावीर हमारे हैं, बुद्ध हमारे नहीं। राम हमारे उपास्य हैं, कृष्ण या शिव हमारे उपास्य नहीं हैं। अतः यदि हम व्यक्ति के स्थान पर आध्यात्मिक विकास की भूमिका विशेष को अपना उपास्य बनाएं तो सम्भवतः हमारे आग्रह और मतभेद कम हो सकते हैं। इस सम्बंध में जैनों का दृष्टिकोण प्रारम्भ से ही उदार रहा है। जैन परम्परा में निम्न नमस्कार मंत्र को परम पवित्र माना गया है - नमो अरहंताणं। नमो सिद्धाणं। नमो आयरियाण। नमो उवज्झायाण। नमो लोए सव्व साहूण। * प्रत्येक जैन के लिए इसका पाठ आवश्यक है, किंतु इसमें किसी व्यक्ति के नाम का उल्लेख नहीं है। इसमें जिन पांच पदों की वंदना की जाती है, वे व्यक्तिवाचक न होकर गुणवाचक हैं। अर्हत्, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु व्यक्ति नहीं है, वे आध्यात्मिक और नैतिक विकास की विभिन्न भूमिकाओं के सूचक हैं। प्राचीन जैनाचार्यों की दृष्टि कितनी उदार थी कि उन्होंने इन पांच पदों में किसी व्यक्ति का नाम नहीं जोड़ा। यही कारण है कि आज जैनों में अनेक सम्प्रदायगत मतभेद होते हुए भी नमस्कार मंत्र सर्वमान्य बना हुआ है। यदि उसमें कहीं व्यक्तियों के नाम जोड़ दिए जाते तो सम्भवतः आज तक उसका स्वरूप न जाने कितना परिवर्तित और विकृत हो गया होता। नमस्कार महामंत्र जैनों की धार्मिक उदारता और सहिष्णुता का सबसे महत्वपूर्ण प्रमाण है। उसमें भी नमो लोए सव्व साहूणं' यह पद तो धार्मिक उदारता का सर्वोच्च शिखर कहा जा - सकता है। इसमें साधक कहता है कि मैं लोक के सभी साधुओं को नमस्कार करता हूं। (183) Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुतः जिसमें भी साधुत्व या मुनित्व है वह वंदनीय है। हमें साधुत्व को जैन व बौद्ध आदि किसी धर्म या किसी सम्प्रदाय के साथ न जोड़कर गुणों के साथ जोड़ना चाहिए। साधुत्व, मुनित्व या श्रमणत्व वेश या व्यक्ति नहीं है, वरन् एक आध्यात्मिक विकास की भूमिका है, एक स्थिति है, वह कहीं भी और किसी भी व्यक्ति में हो सकती है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि - न वि मुंडिएण समणो न ओंकारेण बंभणो। न मुणी रव्ववासेणं कुसचीरेण न तावसो॥ समयाए समणो होइ बंभचेरेण बंभणो। नाणेण य मुणी होइ तवेण होइ तावसो।। .. सिर मुंडा लेने से कोई श्रमण नहीं होता, ओंकार का जाप करने से कोई ब्राह्मण नहीं होता, जंगल में रहने से कोई मुनि नहीं होता और कुशचीवर धारण करने से कोई तापस नहीं होता। समता से श्रमण, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, ज्ञान से मुनि और तपस्या से तापस कहलाता है। धर्म के क्षेत्र में अपने विरोधी पर नास्तिक, मिथ्यादृष्टि, काफ़िर आदि का आक्षेपण हमने बहुत किया है। हम सामान्यतया यह मान लेते हैं कि हमारे धर्म और दर्शन में विश्वास रखने वाला व्यक्ति ही आस्तिक, सम्यग्दृष्टि और ईमानवाला है तथा दूसरे धर्म और दर्शन में विश्वास रखने वाला नास्तिक है, मिथ्यादृष्टि है, काफ़िर है, वस्तुतः इन सबके मूल में दृष्टि यह है - मैं ही सच्चा हूं और मेरा विरोधी झूठा। हमारा दुर्भाग्य इससे भी अधिक है, वह यह कि हम न केवल दूसरों,को नास्तिक, मिथ्यादृष्टि या काफ़िर समझते हैं, अपितु उन्हें सम्यग्दृष्टि और ईमानवाले बनाने की जिम्मेदारी भी अपने सिर पर ओढ़ लेते हैं। हम यह मान लेते हैं कि दुनिया को सच्चे रास्ते पर लगाने का ठेका हमने ही ले रखा है। हम मानते हैं कि मुक्ति हमारे धर्म और धर्मगुरु की शरण में ही होगी। इस एक अंधविश्वास या मिथ्या धारणा ने दुनिया में अनेक बार जिहाद या धर्मयुद्ध कराए हैं। दूसरों को आस्तिक, सम्यग्दृष्टि और ईमानवाला बनाने के लिए हमने अनेक बार खून की होलियां खेली हैं। पहले तो अपने से भिन्न धर्म या सम्प्रदाय वाले को नास्तिकता या कुफ्र का फतवा दे देना और फिर उसके सुधारने की जिम्मेदारी अपने सिर पर ओढ़ लेना, एक दोहरी मूर्खता है। दुनिया को अपने ही धर्म या सम्प्रदाय के रंग में रंगने का स्वप्न न केवल दिवास्वप्न है, अपितु एक दुःस्वप्न भी है। महावीर ने सूत्रकृतांग में बहुत ही स्पष्ट रूप से कहा है - (184) Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सयं सयं पसंसंता गरहंता परं वयं। जे उ तत्थ विउस्संति संसारे ते विउस्सिया।। अर्थात् जो लोग अपने-अपने मत की प्रशंसा और दूसरे मत की निंदा करते हैं तथा दूसरों के प्रति द्वेष का भाव रखते हैं वे संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं। जैन परम्परा का यह विश्वास रहा है कि सत्य का सूर्य सभी के आंगन को प्रकाशित कर सकता है। उसकी किरणें सर्वत्र विकीर्ण हो सकती हैं। जैनों के अनुसार वस्तुतः मिथ्यात्वा असत्यता तभी उत्पन्न होता है, जब हम अपने को ही एकमात्र सत्य और अपने विरोधी को असत्य मान लेते हैं। जैन आगम साहित्य में मिथ्यात्व के जो विविध रूप बताए गए हैं, उनमें एकांत और आग्रह को भी मिथ्यात्व कहा गया है। कोई भी कथन जब वह अपने विरोधी कथन का एकांतरूप से निषेधक होता है, मिथ्या हो जाता है और जब उन्हीं मिथ्या कहे जाने वाले कथनों की सापेक्षिक सत्यता को स्वीकार कर लिया जाता है तो वह सत्य बन जाता है। जैन आचार्यों ने जैन धर्म को मिथ्यामतसमूह कहा है। आचार्य सिद्धसेन सन्मतितर्क प्रकरण में कहते हैं - भई मिच्छादसण समूहमइयस्स अमयसारस्स। जिणवयस्स भगवओ संविग्ग सुहाहिगम्मस्स। अर्थात् ‘मिथ्यादर्शनसमूहरूप अमृतरस प्रदायी और मुमुक्षुजनों को सहज समझ में आने वाले जिनवचन का कल्याण हो।' यहां जिनधर्म को 'मिथ्यादर्शनसमूह' कहने का तात्पर्य है कि वह अपने विरोधी मतों की भी सत्यता को स्वीकार करता है। जैन धर्म को मिथ्यामतसमूह कहना सिद्धसेन की विशालहृदयता का भी परिचायक है। वस्तुतः जैन धर्म में यह माना गया है कि सभी धर्ममार्ग देश, काल और वैयक्तिक-रुचि-वैभिन्न्य के कारण भिन्न-भिन्न होते हैं, किंतु वे सभी किसी दृष्टिकोण से सत्यं भी होते हैं। मुक्ति का द्वारः सभी के लिए उद्घाटित .. वस्तुतः धार्मिक असहिष्णुता और धार्मिक संघर्षों का एक कारण यह भी होता है कि हम यह मान लेते हैं कि मुक्ति केवल हमारे धर्म में विश्वास करने से या हमारी साधना-पद्धति को अपनाने से ही सम्भव है या प्राप्त हो सकती है। ऐसी स्थिति में हम इसके साथ-साथ यह भी मान लेते हैं कि दूसरे धर्म और विश्वासों के लोग मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकते हैं। किंतु यह मान्यता एक भ्रांत आधार पर खड़ी है। वस्तुतः दुःख या बंधन के कारणों का उच्छेद करने पर कोई भी व्यक्ति मुक्ति का अधिकारी हो सकता है, (185) Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस सम्बंध में जैनों का दृष्टिकोण सदैव ही उदार रहा है। जैन धर्म यह मानता है कि जो भी व्यक्ति बंधन के मूलभूत कारण राग-द्वेष और मोह का प्रहाण कर सकेगा, वह मुक्ति को प्राप्त कर सकता है। ऐसा नहीं है कि केवल जैन ही मोक्ष को प्राप्त करेंगे और दूसरे लोग मोक्ष को प्राप्त नहीं करेंगे। उत्तराध्ययनसूत्र में, जो कि जैन परम्परा का एक प्राचीन आगम ग्रंथ है, अन्य लिंगसिद्ध' का उल्लेख प्राप्त होता है - इत्थी परिससिद्धा य तहेव य नपुंसगा। सलिंगे अन्नलिंगे य गिहिलिंगे तहेव या। ... - 'अन्यलिंग' शब्द का तात्पर्य जैनेतर धर्म और सम्प्रदाय के लोगों से है। जैन धर्म के अनुसार मुक्ति का आधार न तो कोई धर्म सम्प्रदाय है और न कोई विशेष वेशभूषा ही। आचार्य रत्नशेखरसूरि सम्बोधसत्तरी में स्पष्ट रूप से कहते हैं कि - ... सेयंबरो य आसंबरो य बुद्धो य अहव अन्नो वा। समभावभाविअप्पा लहेय मुक्खं न संदेहो।' अर्थात जो भी समभाव की साधना करेगा वह निश्चित ही मोक्ष को प्राप्त करेगा फिर चाहे वह श्वेताम्बर हो या दिगम्बर हो, बौद्ध हो या अन्य किसी धर्म को मानने वाला हो। इसी बात का अधिक स्पष्ट प्रतिपादन,आचार्य हरिभद्र के ग्रंथ उपदेशतरंगिणी में भी है। वे लिखते हैं किनासारम्भरत्वे न सिताम्बरत्वे, न तर्कवा दे न च तत्ववाद। न पक्षेवाश्रयेन मुक्ति, कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव।।" अर्थात् मुक्ति तो सफेद वस्त्र पहनने से होती है न दिगम्बर रहने से, तार्किक वाद-विवाद और तत्वचर्चा से भी मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। किसी एक सिद्धांत विशेष में आस्था रखने या किसी व्यक्ति विशेष की सेवा करने से भी मुक्ति असम्भव है। मुक्ति तो वस्तुतः कषायों अर्थात्, क्रोध, मान, माया और लोभ से मुक्त होने में है। एक दिगम्बर आचार्य ने भी स्पष्ट रूप से कहा है - संघो को विन तारइ, कट्ठो मूलो तहेव णिप्पिच्छो। अप्पा तारइ अप्पा तम्हा अप्पा व झाएहि // अर्थात् कोई भी संघ या सम्प्रदाय हमें संसार-समुद्र से पार नहीं करा सकता, चाहे वह मूलसंघ हो, काष्ठासंघ हो या निपिच्छिकसंघ हो। वस्तुतः जो आत्मबोध को प्राप्त करता है वही मुक्ति को प्राप्त करता है। मुक्ति तो अपनी विषय-वासनाओं से, अपने (186) Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहंकार और अमर्ष से तथा राग-द्वेष के तत्वों से ऊपर उठने पर प्राप्त होती है। अतः हम कह सकते हैं कि जैनों के अनुसार मुक्ति पर न तो व्यक्ति विशेष का अधिकार है और न तो किसी धर्म विशेष का अधिकार है। मुक्त पुरुष चाहे वह किसी धर्म या सम्प्रदाय का रहा हो सभी के लिए वंदनीय और पूज्य होता है। आचार्य हरिभद्र लोकतत्वनिर्णय में कहते हैं यस्य अनिखिलाश्च न सन्ति सर्वे गुणाश्च विद्यन्ते। ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै // " अर्थात् जिसके सभी दोष विनष्ट हो चुके हैं और जिसमें सभी गुण विद्यमान हैं, वह फिर ब्रह्मा हो, महादेव हो, विष्णु हो या फिर जिन, हम उसे प्रणाम करते हैं। इसी बात को आचार्य हेमचंद्र महादेवस्तोत्र में लिखते हैं भव-बीजांकुरजनना रागाद्या क्षयमुपागता यस्य / ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै॥18 अर्थात् संसार-परिभ्रमण के कारणभूत राग-द्वेष के तत्व जिसके क्षीण हो चुके हैं उसे चाहे ब्रह्मा हो, विष्णु हो, महोदव हो या जिना . वस्तुतः हम अपने-अपने आराध्य के नामों को लेकर विवाद करते रहते हैं। उसकी विशेषताओं को अपनी दृष्टि से ओझल कर देते हैं। सभी धर्म और दर्शनों में उस परम तत्व या परम सत्ता को राग-द्वेष, तृष्णा और आसक्ति से रहित, विषय-वासनाओं से ऊपर उठी हुई पूर्णप्रज्ञ तथा परम कारुणिक माना गया है। हमारी दृष्टि उस परम तत्व के इस मूलभूत स्वरूप पर न होकर नामों पर टिकी होती है और इसी के आधार पर हम विवाद करते हैं। जबकि यह नामों का भेद अपने आप में कोई अर्थ नहीं रखता है। आचार्य हरिभद्र कहते हैं - सदाशिवः परं ब्रह्म सिद्धात्मा तथातेति च / शब्दैस्तद् उच्यतेऽन्वर्थाद् एकं एवैवमादिभिः // " ... अर्थात् वह एक जी तत्व है चाहे उसे सदाशिव कहें, परब्रह्म कहें, सिद्धात्मा कहें या तथागत कहें। नामों को लेकर जो विवाद किया जाता है उसकी निस्तारता को स्पष्ट करने के लिए एक सुंदर उदाहरण दिया जाता है। एक बार भिन्न भाषा-भाषी लोग किसी नगर की धर्मशाला में एकत्रित हो गए। वे एक ही वस्तु के अलग-अलग नामों को लेकर परस्पर विवाद करने लगे। संयोग से उसी समय उस वस्तु का विक्रेता उसे लेकर वहां आया। सब उसे खरीदने के लिए टूट पड़े और अपने विवाद की निस्सारता (187) Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को समझने लगे। धर्म के क्षेत्र में भी हमारी यही स्थिति है। हम सभी अज्ञान, तृष्णा, आसक्ति, या राग-द्वेष के तत्वों से ऊपर उठना चाहते हैं, किंतु आराध्य के नाम या आराधना विधि को लेकर व्यर्थ से विवाद करते हैं और इस प्रकार परम आध्यात्मिक अनुभूति से वंचित रहते हैं। वस्तुतः यह नामों का विवाद तभी तक रहता है जब तक कि हम उस आध्यात्मिक अनुभूति के रस का रसास्वादन नहीं करते हैं। व्यक्ति जैसे ही वीतराग, वीततृष्णा या अनासक्त की भूमिका का स्पर्श करता है, उसके सामने ये सारे. नामों के विवाद निरर्थक हो जाते हैं। सतरहवीं शताब्दी के आध्यात्मिक साधक आनंदघन कहते हैं राम कहो रहिमान कहो कोउ काण्ह कहो महादेव री। पारसनाथ कहो कोउ ब्रह्मा सकल ब्रह्म स्वयमेव री॥ भाजन भेद कहावत नाना एक मृतिका का रूप री। ताते खंड कल्पनारोपित आप अखंड अरूप री॥ राम-रहीम, कृष्ण-करीम, महादेव और पार्श्वनाथ सभी एक ही सत्य के विभिन्न रूप हैं। जैसे एक ही मिट्टी से बने विभिन्न पात्र अलग-अलग नामों से पुकारे जाते हैं, किंतु उनकी मिट्टी मूलतः एक ही है। वस्तुतः आराध्य के नामों की यह भिन्नता वास्तविक भिन्नता नहीं है। यह भाषागत भिन्नता है, स्वरूपगत भिन्नता नहीं है। अतः इस आधार पर विवाद और संघर्ष निरर्थक है तथा विवाद करने वाले लोगों की अल्पबुद्धि के ही परिचायक हैं। धार्मिक संघर्ष का नियंत्रक तत्व-प्रज्ञा धर्म के क्षेत्र में अनुदारता और असहिष्णुता के कारणों में एक कारण यह भी है कि हम धार्मिक जीवन में बुद्धि या विवेक के तत्वों को नकार कर श्रद्धा को ही एकमात्र आधार मान लेते हैं। यह ठीक है कि धर्म श्रद्धा पर टिका हुआ हैं धार्मिक जीवन के आधार हमारे विश्वास और आस्थाएं हैं, लेकिन हमें यह ध्यान रखना होगा कि यदि हमारे ये विश्वास और आस्थाएं विवेक-बुद्धि को नकार कर चलेंगे तो वे अंधविश्वासों में परिणित हो जाएंगे और ये अंधविश्वास ही धार्मिक संघर्षों के मूल कारण हैं। धार्मिक जीवन में विवेक-बुद्धि या प्रज्ञा को श्रद्धा का प्रहरी बनाया जाना चाहिए, अन्यथा हम अंध-श्रद्धा से कभी भी मुक्त नहीं हो सकेंगे। आज का युग विज्ञान और तर्क का युग है, फिर भी हमारा अधिकांश जनसमाज, जो अशिक्षित है, वह श्रद्धा के बल पर जीता है। हमें यह स्मरण रखना होगा कि श्रद्धा यदि विवेक प्रधान नहीं होती तो वह सर्वाधिक (188) Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घातक होती। इसीलिए जैन आचार्यों ने अपने मोक्षमार्ग की विवेचना में सम्यग्दर्शन के साथ-साथ-सम्यग्ज्ञान को भी आवश्यक माना है। जैन परम्परा में भी जब आचार के बाह्य विधि-निषेधों को लेकर पार्श्वनाथ और महावीर की संघ-व्यवस्था में जो मतभेद थे, उन्हें सुलझाने का प्रयत्न किया गया, तब उसके लिए श्रद्धा के स्थान पर प्रज्ञा अर्थात् विवेक-बुद्धि को ही प्रधानता दी गई। उत्तराध्ययनसूत्र तेईसवें अध्ययन में पार्श्वनाथ की परम्परा के तत्कालीन प्रमुख आचार्य केशी महावीर के प्रधान शिष्य इंद्रभूति गौतम से यह प्रश्न करते हैं कि एक ही लक्ष्य की सिद्धि के लिए प्रयत्नशील पार्श्वनाथ और महावीर के आचार-नियमों में यह अंतर क्यों है? इससे समाज में मतिभ्रम उत्पन्न होता है कि - पन्ना समिक्खए धम्मं तत्तं तत्तविणिच्छया अर्थात् धार्मिक आचार के नियमों की समीक्षा और मूल्यांकन प्रज्ञा के द्वारा करना चाहिए। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि धार्मिक जीवन में अकेली श्रद्धा ही आधारभूत नहीं मानी जानी चाहिए, उसके साथ-साथ तर्क-बुद्धि, प्रज्ञा एवं विवेक को भी स्थान मिलना चाहिए। भगवान् बुद्ध ने आलारकलाम को कहा था कि तुम किसी के वचनों को केवल इसलिए स्वीकार मत करो कि इनका कहने वाला श्रमण हमारा पूज्य है। हे कलामों! जब तुम आत्मानुभव से अपने आप ही यह जान लो कि ये बातें कुशल हैं, ये बातें निर्दोष हैं, इनके अनुसार चलने से हित होता है, सुख होता है, तभी उन्हें स्वीकार करो। एक अन्य बौद्ध ग्रंथ तत्वसंग्रह में भी कहा गया है - तापाच्छेदाच्च निकषात् सुवर्णमिव पण्डितैः। परीक्ष्य भिक्षवो ग्राह्यं मद्वचो न तु गौरवात्॥ . जिस प्रकार स्वर्ण को काटकर, छेदकर, कसकर और तपाकर परीक्षा की जाती है, उसी प्रकार से धर्म की भी परीक्षा की जानी चाहिए। उसे केवल शास्ता के प्रति आदरभाव के कारण स्वीकार नहीं करना चाहिए। धार्मिक जीवन में जब तक विवेक या प्रज्ञा को विश्वास और आस्था का नियंत्रक नहीं माना जाएगा, तब तक हम मानव जाति को धार्मिक संघर्षों और धर्म के नाम पर खेली जाने वाली खून की होली से नहीं बचा सकेंगे। श्रद्धा भावना प्रधान है, भावनाओं को उभाड़ना सहज होता है। अतः धर्म के नाम पर अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए सामान्य जनमानस की भावनाओं को उभाड़कर उसे उन्मादी बना देते हैं तथा शास्त्र में से कोई एक वचन प्रस्तुत कर उसे इस प्रकार व्याख्यायित करते हैं कि जिससे लोगों की भावनाएं या धर्मोन्माद उभड़े और उन्हें (189) Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने निहित स्वार्थों की सिद्धि का अवसर मिले। वे यह भी कहते हैं कि शास्त्र में एक शब्द का भी परिवर्तन करना या शास्त्र की अवहेलना करना बहुत बड़ा पाप है। मात्र यही नहीं, वे जनसामान्य को शास्त्र के अध्ययन का अनधिकारी मानकर अपने को ही शास्त्र का एकमात्र सच्चा व्याख्याता सिद्ध करते हैं और शास्त्र के नाम पर जनता को मूर्ख बनाकर अपना हित साधन करते रहते हैं। धर्म के नाम पर युगों-युगों से जनता का इसी प्रकार शोषण होता रहा है। अतः यह आवश्यक है कि शास्त्र की सारी बातों और उनकी व्याख्याओं को विवेक की तराजू पर तौला जाए। उनके सारे नियमों और मर्यादाओं का युगीन संदर्भ में मूल्यांकन और समीक्षा की जाए। जब तक यह सब नहीं होता है, तब तक धार्मिक जीवन में आई हुई संकीर्णता को मिटा पाना सम्भव नहीं है। विवेक ही ऐसा तत्व है जो हमारी दृष्टि को उदार और व्यापक बनाता है। श्रद्धा आवश्यक है किंतु उसे विवेक का अनुगामी होना चाहिए। विवेकयुक्त श्रद्धा ही सम्यक् श्रद्धा है। वही हमें सत्य का दर्शन करा सकती है। विवेक से रहित श्रद्धा अंध-श्रद्धा होगी और उसके आधार पर अंधविश्वासों के शिकार बनेंगे। आज धार्मिक उदारता और सहिष्णुता के लिए श्रद्धा को विवेक से समन्वित किया जाना चाहिए। इसलिए जैनाचार्यों ने कहा था कि सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन (श्रद्धा) में एक सामंजस्य होना चाहिए। , जैन धर्म में धार्मिक सहिष्णुता का आधार-अनेकांतवाद . जैन आचार्यों की मान्यता है कि परमार्थ, सत् या वस्तुतत्व अनेक विशेषताओं और गुणों का पुंज है। उनका कहना है कि वस्तुतत्व अनंतधर्मात्मक है।22 उसे अनेक दृष्टियों से जाना जा सकता है और कहा जा सकता है। अतः उसके सम्बंध में कोई भी निर्णय निरपेक्ष और पूर्ण नहीं हो सकता है। वस्तुतत्व के सम्बंध में हमारा ज्ञान और कथन दोनों ही सापेक्ष है अर्थात् वे किसी संदर्भ या दृष्टिकोण के आधार पर ही सत्य हैं। आंशिक एवं सापेक्ष ज्ञान/कथन को या अपने से विरोधी ज्ञान/कथन को असत्य कहकर नकारने का अधिकार नहीं है। इसे हम निम्न उदाहरण से स्पष्टतया समझ सकते हैंकल्पना कीजिए कि अनेक व्यक्ति अपने-अपने कैमरों से विभिन्न कोणें से एक वृक्ष का चित्र लेते हैं। ऐसी स्थिति में सर्वप्रथम तो हम यह देखेंगे कि एक ही वृक्ष के विभिन्न कोणों से, विभिन्न व्यक्तियों के द्वारा हजारों-हजार चित्र लिए जा सकते हैं। साथ ही इन हजारों-हजार चित्रों के बावजूद भी वृक्ष का बहुत कुछ भाग ऐसा है जो कैमरों की पकड़ से अछूता रह गया है। पुनः जो हजारों-हजार चित्र भिन्न-भिन्न कोणों से लिए गए हैं, वे एक-दूसरे से भिन्नता रखते हैं। यद्यपि वे सभी उसी वृक्ष के चित्र हैं। केवल उसी स्थिति (190) Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में दो चित्र समान होंगे जब उनका कोण और वह स्थल, जहां से वह चित्र लिया गया है- एक ही हो। अपूर्णता और भिन्नता दोनों ही बातें इन चित्रों में हैं। यही बात मानवीय ज्ञान के सम्बंध में भी है। मनुष्य की ज्ञानेन्द्रियों की क्षमता और शक्ति सीमित है। वह एक अपूर्ण प्राणी है। अपूर्ण के द्वारा पूर्ण को जानने के समस्त प्रयास आंशिक सत्य के ज्ञान से आगे नहीं जा सकते हैं। हमारा ज्ञान, जब तक कि वह ऐन्द्रिकता का अतिक्रमण नहीं कर जाता, सदैव आंशिक और अपूर्ण होता है। इसी आंशिक ज्ञान को जब पूर्ण सत्य मान लिया जाता है, तो विवाद और वैचारिक संघर्षों का जन्म होता है। उपर्युक्त उदाहरण में वृक्ष के.सभी चित्र उसके किसी एक अंश विशेष को ही अभिव्यक्त करते हैं। वृक्ष के इन सभी अपूर्ण एवं भिन्न-भिन्न और दो विरोधी कोणों के लिए जाने के कारण किसी सीमा तक परस्पर विरोधी अनेक चित्रों में हम यह कहने का साहस नहीं कर सकते हैं कि यह चित्र उस वृक्ष का नहीं है अथवा यह चित्र असत्य है। इसी प्रकार हमारे आंशिक दृष्टिकोणों पर आधारित सापेक्ष ज्ञान को यह अधिकार नहीं है कि वह अपने से विरोधी मन्तव्यों को असत्य कहकर नकार दे। वस्तुतः हमारी ऐन्द्रिक क्षमता, तर्कबुद्धि, शब्दसामर्थ्य और भाषायी अभिव्यक्ति सभी अपूर्ण, सीमित और सापेक्ष है। ये सम्पूर्ण सत्य की एक साथ अभिव्यक्ति में सक्षम नहीं है। मानव बुद्धि सम्पूर्ण सत्य का नहीं, अपितु उसके एकांश का ग्रहण कर सकती है। तत्व या सत्ता अज्ञेय तो नहीं है, किंतु बिना पूर्णता को प्राप्त हुए उसे पूर्णरूप से जाना भी नहीं जा सकता। आइन्सटीन ने कहा था- हम सापेक्ष सत्य को जान सकते हैं, निरपेक्ष सत्य को तो कोई निरपेक्ष द्रष्टा ही जानेगा। जब तक हमारा ज्ञान अपूर्ण, सीमित या सापेक्ष है तब तक हमें दूसरों के ज्ञान और अनुभव को, चाहे वह हमारे ज्ञान का विरोधी क्यों न हो, असत्य कहकर निषेध करने का कोई अधिकारी नहीं है। आंशिक सत्य का ज्ञान दूसरों के द्वारा प्राप्त ज्ञान का निषेधक नहीं हो सकता है। ऐसी स्थिति में यह कहना कि मेरी दृष्टि ही सत्य है, सत्य मेरे ही पास है, दार्शनिक दृष्टि से एक भ्रांत धारणा ही है। यद्यपि जैनों के अनुसार सर्वज्ञ या पूर्ण-पुरुष संपूर्ण सत्य का साक्षात्कार कर लेता है, फिर भी उसका ज्ञान और कथन उसी प्रकार निरपेक्ष (अपेक्षा से रहित) नहीं हो सकता है, जिस प्रकार बिना किसी कोण के किसी भी वस्तु का कोई भी चित्र नहीं लिया जा सकता है। पूर्ण सत्य का बोध चाहे सम्भव हो, किंतु उसे न तो निरपेक्ष रूप से जाना जा सकता है और न कहा ही जा सकता है। उसकी अभिव्यक्ति का जब भी कोई प्रयास किया जाता है, वह आंशिक और सापेक्ष बनकर ही रह जाता है। पूर्ण-पुरुष को भी हमें समझाने के लिए हमारी उसी भाषा (191) Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का सहारा लेना पड़ता है जो सीमित, सापेक्ष और अपूर्ण है। 'है' और 'नहीं है' की सीमा से घिरी हुई भाषा पूर्ण सत्य का प्रकटन कैसे करेगी। इसीलिए जैन परम्परा में कहा गया है कि कोई भी वचन (जिनवचन भी) नय (दृष्टिकोण विशेष) से रहित नहीं होता है अर्थात् सर्वज्ञ के कथन भी सापेक्ष हैं, निरपेक्ष नहीं है। जैन परम्परा के अनुसार जब सापेक्ष सत्य को निरपेक्ष रूप से दूसरे सत्यों का निषेधक मान लिया जाता है तो वह असत्य बन जाता है और इसे ही जैनों की परम्परागत शब्दावली में मिथ्यात्व कहा गया है। जिस प्रकार अलग-अलग कोणों से लिए गए चित्र परस्पर भिन्न-भिन्न और विरोधी होकर भी एक साथ यथार्थ के परिचायक होते हैं, उसी प्रकार अलग-अलग संदर्भो में कहे गए भिन्न-भिन्न विचार परस्पर विरोधी होते हुए भी सत्य हो सकते हैं। सत्य केवल उतना नहीं है, जितना हम जानते हैं। अतः हमें अपने विरोधियों के सत्य का निषेध करने का अधिकार भी नहीं है। वस्तुतः सत्य केवल तभी असत्य बनता है, जब हम उस अपेक्षा या दृष्टिकोण को दृष्टि से ओझल कर देते हैं, जिसमें वह कहा गया है। जिस प्रकार चित्र में वस्तु की सही स्थिति को समझने के लिए उस कोण का भी ज्ञान अपेक्षित होता है, उसी प्रकार वाणी में प्रकट सत्य.को समझने के लिए उस दृष्टिकोण का विचार अपेक्षित है जिसमें वह कहा गया है। समग्र कथन संदर्भ सहित होते हैं और उन संदर्भो से अलग हटकर उन्हें नहीं समझा जा सकता है। जो ज्ञान संदर्भ रहित है, वह सापेक्ष है और . जो सापेक्ष है, वह अपनी सत्यता का दावा करते हुए भी दूसरे की सत्य का निषेधक नहीं हो सकता है। सत्य के सम्बंध में यही एक ऐसा दृष्टिकोण है जो विभिन्न धर्म और सम्प्रदायों की सापेक्षिक सत्यता एवं मूल्यवत्ता को स्वीकार कर उनमें परस्पर सौहार्द्र और समन्वय स्थापित कर सकता है। अनेकांत की आधारभूमि पर ही यह मानना सम्भव है कि हमारे और हमारे विरोधी के विश्वास और कथन दो भिन्न-भिन्न परिप्रेक्ष्यों में एक साथ सत्य हो सकते हैं। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर सन्मतितर्क में कहते हैं - णिययवयणिज्जसच्चा सव्वनया परवियालणे मोहा। ते उण ण दिट्ठसमओ विभयइ सच्चे व अलिए वा॥4 अर्थात् सभी नय (अर्थात् सापेक्षिक वक्तव्य) अपने-अपने दृष्टिकोण से सत्य हैं। वे असत्य तभी होते हैं, जब वे अपने से विरोधी दृष्टिकोणों के आधार पर किए गए कथनों का निषेध करते हैं। इसीलिए अनेकांत दृष्टि का समर्थक या शास्त्र का ज्ञाता उन परस्पर विरोधी सापेक्षिक कथनों में ऐसा विभाजन नहीं करता है कि ये सच्चे हैं और ये झूठे हैं। किसी कथन या विश्वास की सत्यता और असत्यता उस संदर्भ अथवा दृष्टिकोण (192) Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष पर निर्भर करती है जिसमें वह कहा गया है। वस्तुतः यदि हमारी दृष्टि उदार और व्यापक है, तो हमें परस्पर विरोधी कथनों की सापेक्षिक, सत्यता को स्वीकार करना चाहिए। परिणामस्वरूप विभिन्न धर्मवादों में पारस्परिक विवाद या संघर्ष का कोई कारण शेष नहीं बचता। जिस प्रकार परस्पर झगड़ने वाले व्यक्ति किसी तटस्थ व्यक्ति के अधीन होकर मित्रता को प्राप्त कर लेते हैं, उसी प्रकार परस्पर विरोधी विचार और विश्वास अनेकांत की उदार और व्यापक दृष्टि के अधीन होकर पारस्परिक विरोध को भूल जाते हैं।25 उपाध्याय यशोविजय जी लिखते हैं यस्य सर्वत्र समता नयेषु तनयेष्विव। तस्यानेकान्तवादस्य क्व न्यूनाधिकशेमुषी // तेन स्याद्वादमालंब्य सर्वदर्शनतुल्यताम् / मोक्षोद्देशाविशेषणं यः पश्यति स शास्त्रवित् // माध्यस्थ्यमेव शास्त्रार्थों येन तच्चारु सिध्यति। स एव धर्मवादः स्यादन्यद्वालिशवल्गनम् // माध्यस्थ्यसहितं होकपदज्ञानमपि प्रमा। ... शास्त्रकोटितथैवान्या तथा चोक्तं महात्मना / अर्थात् सच्चा अनेकान्तवादी किसी भी दर्शन से द्वेष नहीं करता है। वह सम्पूर्ण दृष्टिकोणों (दर्शनों) को इस प्रकार वात्सल्य दृष्टि से देखता है, जिस प्रकार कोई पिता अपने पुत्र को। एक सच्चे अनेकांतवादी की दृष्टि न्यूनाधिक नहीं होती है। वह सभी के प्रति समभाव रखता है अर्थात् प्रत्येक विचारधारा या धर्म-सिद्धांत की सत्यता का विशेष परिप्रेक्ष्य में दर्शन करता है। आगे वे पुनः कहते हैं कि सच्चा शास्त्रज्ञ कहे जाने का अधिकारी वही है जो स्याद्वाद अर्थात् उदार दृष्टिकोण का आलम्बन लेकर सम्पूर्ण विचारधाराओं को समान भाव से देखता है। वस्तुतः माध्यस्थभाव ही शास्त्रों का गूढ़ रहस्य है और यही सच्चा धर्मवाद है। माध्यस्थभाव अर्थात् उदार दृष्टिकोण के रहने पर शास्त्र के एक पद का ज्ञान भी सफल है, अन्यथा करोड़ों शास्त्रों का ज्ञान भी वृथा है। जैन धर्म और धार्मिक सहिष्णुता के प्रसंग - जैनाचार्यों का दृष्टिकोण प्रारम्भ से ही उदार और व्यापक रहा है। यही कारण है कि उन्होंने दूसरी विचारधाराओं और विश्वासों के लोगों का सदैव आदर किया है। इसका सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण जैन परम्परा का एक प्राचीनतम ग्रंथ है-ऋषिभाषिता ऋषिभाषित के अंतर्गत उन पैंतालीस अर्हत् ऋषियों के उपदेशों का संकलन है, जिनमें (193) Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वनाथ और महावीर को छोड़कर लगभग सभी जैनेतर परम्पराओं के हैं। नारद, भारद्वाज, नमि, रामपुत्र, शाक्यपुत्र गौतम, मंखलि गोशाल आदि अनेक धर्ममार्ग के प्रवर्तकों एवं आचार्यों के विचारों का इसमें जिस आदर के साथ संकलन किया गया है, वह धार्मिक उदारता और सहिष्णुता का परिचायक है। इन सभी को अर्हत् ऋषि कहा गया है और इनके वचनों को आगमवाणी के रूप में स्वीकार किया गया है। सम्भवतः प्राचीन धार्मिक साहित्य में यही एकमात्र ऐसा उदाहरण है, जहां विरोधी विचारधारा और विश्वासों के व्यक्तियों के वचनों को आगमवाणी के रूप में स्वीकार कर समादर के साथ प्रस्तुत किया गया हो। जैन परम्परा की धार्मिक उदारता की परिचायक सूत्रकृतांगसूत्र की पूर्वनिर्दिष्ट वह गाथा भी है, जिसमें यह कहा गया है कि जो अपने-अपने मत की प्रशंसा करते हैं और दूसरों के मतों की निंदा करते हैं तथा उनके प्रति विद्वेषभाव रखते हैं, वे संसारचक्र में परिभ्रमित होते रहते हैं। सम्भवतः धार्मिक उदारता के लिए इससे महत्वपूर्ण और कोई वचन नहीं हो सकता। यद्यपि यह सत्य है कि अनेक प्रसंगों में जैन आचार्यों ने भी दूसरी विचारधाराओं और मान्यताओं की समालोचना की है, किंतु उन संदर्भो में भी कुछ अपवादों को छोड़कर सामान्यतया हमें एक उदार दृष्टिकोण का परिचय मिलता है। हम सूत्रकृतांग का ही उदाहरण लें, उसमें अनेक विरोधी विचारधाराओं की समीक्षा की गई है। किंतु शालीनता यह है कि कहीं भी किसी धर्ममार्ग या धर्मप्रवर्तक पर वैयक्तिक छींटाकशी नहीं है। ग्रंथकार केवल उनकी विचारधाराओं का उल्लेख करता है, उनके मानने वालों का नामोल्लेख नहीं करता है। वह केवल इतना कहता है कि कुछ लोगों की यह मान्यता है या कुछ लोग यह मानते हैं, जो कि संगतिपूर्ण है। इस प्रकार वैयक्तिक या नामपूर्वक समालोचना से, जो कि विवाद या संघर्ष का कारण हो सकती है, वह सदैव दूर रहता है।28 जैनागम साहित्य में हम ऐसे अनेक संदर्भ भी पाते हैं, जहां अपने से विरोधी विचारों और विश्वासों के लोगों के प्रति समादर दिखाया गया है। सर्वप्रथम आचारांगसूत्र में जैन मुनि को यह स्पष्ट निर्देश दिया गया है कि वह अपनी भिक्षावृत्ति के लिए इस प्रकार जाए कि अन्य परम्पराओं के श्रमणों, परिव्राजकों और भिक्षुओं को भिक्षा प्राप्त करने में कोई बाधा न हो। यदि वह देखे कि अन्य परम्परा के श्रमण या भिक्षु किसी गृहस्थ उपासक के द्वार पर उपस्थित है तो वह या तो भिक्षा के लिए आगे प्रस्थान कर जाए या फिर सबके पीछे इस प्रकार खड़ा रहे कि उन्हें भिक्षाप्राप्ति में कोई बाधा न हो। मात्र यही नहीं यदि गृहस्थ उपासक उसे और अन्य परम्पराओं के भिक्षुओं के (194) Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मिलित उपभोग के लिए जैन भिक्षु को यह कहकर भिक्षा दे कि आप सब मिलकर खा लेना, तो ऐसी स्थिति में जैन भिक्षु का यह दायित्व है कि वह समानरूप से उस भिक्षा को सभी में वितरित करे। वह न तो भिक्षा में प्राप्त अच्छी सामग्री को अपने लिए रखे न भिक्षा का अधिक अंश ही ग्रहण करे।29 / भगवतीसूत्र के अंदर हम यह देखते हैं कि भगवान् महावीर के ज्येष्ठ अंतेवासी गणधर इंद्रभूति गौतम को मिलने के लिए उनका पूर्वपरिचित मित्र स्कंध, जो कि अन्य परम्परा के परिव्राजक के रूप में दीक्षित हो गया था, आता है तो महावीर स्वयं गौतम को उसके सम्मान और स्वागत का आदेश देते हैं। गौतम आगे बढ़कर अपने मित्र का स्वागत करते हैं और कहते हैं- हे स्कंध! तुम्हारा स्वागत है, सुस्वागत है। अन्य परम्परा के श्रमणों और परिव्राजकों के प्रति इस.प्रकार का सम्मान एवं आदरभाव निश्चित ही धार्मिक सहिष्णुता और पारस्परिक सद्भाव में वृद्धि करता है। ... उत्तराध्ययनसूत्र में हम देखते हैं कि भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के तत्कालीन प्रमुख आचार्य श्रमणकेशी और भगवान् महावीर के प्रधान गणधर इंद्रभूति गौतम जब संयोग से एक ही समय श्रावस्ती में उपस्थित होते हैं तो वे दोनों परम्पराओं के पारस्परिक मतभेदों को दूर करने के लिए परस्पर सौहार्द्रपूर्ण वातावरण में मिलते हैं। एक ओर ज्येष्ठकुल का विचार कर गौतम स्वयं श्रमणकेशी के पास जाते हैं तो दूसरी ओर श्रमणकेशी उन्हें श्रमणपर्याय में ज्येष्ठ मानकर पूरा समादर प्रदान करते हैं। जिससौहार्द्रपूर्ण वातावरण में वह चर्चा चलती है और पारस्परिक मतभेदों का निराकरण किया जाता है, वह सब धार्मिक सहिष्णुता और उदार दृष्टिकोण का एक अद्भुत उदाहरण है।1 ___ दूसरी धर्म परम्पराओं और सम्प्रदायों के प्रति ऐसा ही उदार और समादर का भाव हमें आचार्य हरिभद्र के ग्रंथों में भी देखने को मिलता है। हरिभद्र संयोग से उस युग में उत्पन्न हुए जब पारस्परिक आलोचना-प्रत्यालोचना अपनी चरम सीमा पर थी। फिर भी हरिभद्र न केवल अपनी समालोचनाओं में संयत रहे अपितु उन्होंने सदैव ही अन्य परम्पराओं के आचार्यों के प्रति आदरभाव प्रस्तुत किया शास्त्रवार्तासमुच्चय उनकी इस उदारवृत्ति और सहिष्णुदृष्टि की परिचायक एक महत्वपूर्ण कृति है। बौद्ध दर्शन की दार्शनिक मान्यताओं की समीक्षा करने के उपरांत वे कहते हैं कि बुद्ध ने जिन क्षणिकवाद, अनात्मवाद और शून्यवाद के सिद्धांतों का उपदेश दिया, वह वस्तुतः ममत्व के विनाश और तृष्णा के उच्छेद के लिए आवश्यक ही था। वे भगवान् बुद्ध को अर्हत्, महामुनि और सुवैद्य की उपमा देते हैं और कहते हैं कि जिस प्रकार एक अच्छा वैद्य रोगी के रोग (195) Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और प्रकृति को ध्यान में रखकर एक ही रोग के लिए भिन्न-भिन्न रोगियों को भिन्न. भिन्न औषधि प्रदान करता है, उसी प्रकार भगवान् बुद्ध ने अपने अनुयायियों के विभिन्न स्तरों को ध्यान में रखते हुए इन विभिन्न सिद्धांतों का उपदेश दिया है। ऐसा ही उदार दृष्टिकोण वे सांख्य दर्शन के प्रस्तोता महामुनि कपिल और न्यायदर्शन के प्रतिपादकों के प्रति भी व्यक्त करते हैं। कपिल के लिए भी वे महामुनि शब्द का प्रयोग कर अपना आदर भाव प्रकट करते हैं। विभिन्न विरोधी दार्शनिक विचारधाराओं में किस प्रकार संगति स्थापित की जा सकती है इसका एक अच्छा उदाहरण उनका यह ग्रंथ है। .. - 12 वीं शताब्दी के प्रसिद्ध जैनाचार्य हेमचंद्र ने भी इसी प्रकार मार्मिक सहिष्णुता और उदारवृत्ति का परिचय दिया है। उन्होंने न केवल भगवान् शिव की स्तुति में महादेवस्तोत्र की रचना की अपितु शिवमंदिर में जाकर शिव की वंदना करते हुए कहा - जिसने संसार परिभ्रमण के कारणभूत राग-द्वेष के तत्वों को क्षीण कर दिया है, उसे मैं प्रणाम करता हूं चाहे वह ब्रह्मा हो, विष्णु हो, शिव हो या जिन। जैनों की इस धार्मिक उदारता का एक प्रमाण यह भी है कि महाराजा कुमारपाल और विष्णुवर्धन ने जैन होकर भी शिव और विष्णु के अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया और उनकी व्यवस्था के लिए भूमिदान किया। कुमारपाल के धर्मगुरु आचार्य हेमचंद्र ने न केवल उसकी इस उदारवृत्ति को प्रोत्साहित किया अपितु शिवमंदिर में स्वयं उपस्थित होकर अपने उदारवृत्ति का परिचय भी दिया। हेमचंद्र के समान इस उदार परम्परा का निर्वाह अन्य जैनाचार्यों ने भी किया था, जिसके अभिलेखीय प्रमाण आज भी उपलब्ध होते हैं। दिगम्बर जैनाचार्य रामकीर्ति ने तोकलजी में मंदिर के लिए और श्वेताम्बर आचार्य जयमंगलसूरि ने चामुण्डा के मंदिर के लिए प्रशस्ति-काव्य लिखे। उपाध्याय यशोविजय की धार्मिक सहिष्णुता का उल्लेख हम पूर्व में कर ही चुके है। उनका यह कहना कि माध्यस्थ या सहिष्णु भाव ही धर्मवाद है, धार्मिक सहिष्णुता का मुद्रालेख है। इसी प्रकार जैन रहस्यवादी सन्तकवि आनंदघन भी कहते हैं षडदर्शन जिन अंगभणोजे न्यायषडंग जे साधे रे। नमिजिनवरना चरम उपासक षड्दर्शन आराधे रे॥ अर्थात् सभी दर्शन जिन के अंग हैं और जिन का उपासक सभी दर्शनों की उपासना करता है। जैनों की यह उदार और सहिष्णुवृत्ति वर्तमान युग तक यथार्थतः जीवित है। आज भी जैनों की सर्वप्रिय प्रार्थना का प्रारम्भ इसी उदार भाव के साथ होता है (196) Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिसने रागद्वेष कामादिक जीते, सब जग जान लिया। सब जीवों को मोक्ष मार्ग का, निस्पृह हो उपदेश दिया। बुद्ध वीर जिन हरि हर ब्रह्मा, या उसको स्वाधीन कहो। भक्तिभाव से प्रेरित हो, यह चित्त उसी में लीन रहो। वस्तुतः यदि हम विश्व में शांति की स्थापना चाहते हैं, यदि हम चाहते हैं कि मनुष्य-मनुष्य के बीच घृणा और विद्वेष की भावनाएं समाप्त हों और सभी एक-दूसरे के विकास में सहयोगी बनें, तो हमें आचार्य अमितगति के निम्न चार सूत्रों को अपने जीवन में अपनाना होगा। वे कहते हैं - सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् / माध्यस्थ भावं विपरीतवृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु देव // हे प्रभु ! प्राणीमात्र के प्रति मैत्रीभाव, गुणीजनों के प्रति समादरभाव, दुःख एवं पीड़ित जनों के प्रति कृपाभाव तथा विरोधियों के प्रति माध्यस्थभाव-समताभाव मेरी आत्मा में सदैव रहे। . संदर्भ 1. आयाणे अज्जो समाइए, आयाणे अज्जो समाइयस्स अट्टेव्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, संपा. मधुकरमुनि, प्रका. श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 1992, 1/9. 2.. समियाए धम्मे आरिएहिं पवेइए - आचारांगसूत्र, संपा. मधुकरमुनि, प्रका. श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 1980, 1/8/3. धर्म जीवन जीने की कला - पृ. 7-8. 4. योगदृष्टिसमुच्चय, हरिभद्र, विजय कमल केशरं ग्रंथमाला, खम्भात्, वि.सं. 1992, 137. 5. . ' आचारांगसूत्र, संपा. मधुकर मुनि, प्रका. श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 1980, 1/4/2. 6. योगदृष्टिसमुच्चय, हरिभद्र, विजय कमल केशर ग्रंथमाला, सम्वत्, वि.सं. 1992, 133. णाणाजीवा णाणा कम्मं णाणाविहं हवे लद्धी। तम्हा वयणविवादं सगपरसमएहिं वज्जिजो।। - नियमसार, अनु. (197) Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं. परमेष्ठीदास न्यायतीर्थ, प्रका. सत्साहित्य प्रकाशन एवं प्रचार विभाग, श्री कुन्दकुन्द महान जैन दिगम्बर तीर्थ सुरक्षा ट्रस्ट, ... जयपुर, 1988, 156 / एवाई मिच्छद्दिट्ठिस्स मिच्छत्तपरिग्गहियाई मिच्छसुयं एयाणि चेव / सम्मदिट्ठिस्स सम्मत्तपरिहियाइं सम्मसुयं अहवा मिच्छदिट्ठिस्स वि सम्मसुयं कम्हा? सम्मत्तहेउत्तणओ, जम्हा ते मिच्छदिट्ठिया तेहिं चेव समएहिं चोइया समाणा केइ सपक्खदिट्ठीओ वयेति से तं मिच्छसुयं / नंदीसूत्र, प्रका. धर्मदास जैन मित्र मंडल, रतलाम, .. सं. 2005, 72 / 9 अ. भगवती-अभयदेवकृत वृत्ति, प्रका. केशरीमल जैन, श्वेताम्बर संस्था, सूरत, 1937, 14/7 पृ. 1988 / (ब) मुक्खमग्ग पवनानं सिनेहो वज्जसिंखला। वीरे जीवन्तए जाओ गोयम जं न केवलि // - उद्धृतत कल्पसूत्र टीका विनयविजय, प्रका. हीरालाल जैन, : जामनगर, 1939, पृ.120। सम्मत्तं चेव मिच्छत्तं, सम्मामिच्छत्तमेव य। एयाओ तिन्निपयडीओ मोहणिज्जस्स दंसणे // - उत्तराध्ययन संपा. - साध्वी चंदना, प्रका. वीरायतन प्रकाशन, आगरा, 1972, 33/9 / 11. वही, 25/31-32 सूत्रकृतांगसूत्र, संपा. मधुकर मुनि, प्रका. श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 1982, 1/1/2/23. 13. सन्मतितर्कप्रकरण, 3/69 14. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा. साध्वी चंदना, प्रका. वीरायतन प्रकाशन, आगरा, 1972, 36/49 / सम्बोधसप्ततिका, अनु. डॉ. रविशंकर मिश्र, प्रका. पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, 1986, 2 / 16. उपदेशतरंगिणी, संपा. विजय जिनेंद्रसूरि, प्रका. श्री हर्ष पुष्पामृत जैन ग्रंथमाला, सौराष्ट्र, 1986, 1/8 / लोकतत्वनिर्णय, 140. (198) . 10. 12. 15. 17. Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. महादेवस्तोत्र, 44. 19. योगदृष्टिसम्मुच्चय, हरिभद्र, प्रका. विजय कमल केशर ग्रंथमाला, खम्भात्, वि.सं. 1992, 130. . उत्तराध्ययनसूत्र, संपा. साध्वी चंदना, प्रका. वीरायतन प्रकाशन, आगरा, 1972, 23/25. तत्वसंग्रह, संपा. द्वारिका प्रसाद शास्त्री, प्रका. बौद्ध भारती, वाराणसी, 1968, 3588 / अनन्तधर्मात्मकमेव तत्वम्, 22-अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका, हेमचंद्र, प्रका. जैन ग्रंथ प्रकाशन सभा, भावनगर, वि.सं. 1996 23. नत्थि नयहिंविहूणं सुत्तं अत्थो य जिणवये किंचि -आवश्यकनियुक्ति, 5441 24. सन्मतितर्क, संपा. सुखलाल संघवी, प्रका. पूंजीभाई ग्रंथमाला कार्यालय, अहमदाबाद, 1932, 1.28 / 25. सव्वे समयंति सम्मं चेगवसाओ नया विरुद्धा वि। मिच्च ववहारिणो इव, राआदासीण वसवत्ती॥ - विशेषा. भाष्य, श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण टीका हेमचंद्र, प्रका. हर्षचंद्र भूराभाई, बनारस, सं. 2441, 2267 / अध्यात्मोपनिषद्, यशोविजय, न्यायाचार यशोविजयकृत ग्रंथमाला, प्रका. श्री जैनधर्म प्रकारक सभा, भावनगर, वि.सं. 1965, 61,, 70, 71, 73 / 27. . अरहता इसिणा बुइयं-इसिभासियाई, संपा. महोपाध्याय विनयसागर, प्रका. प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, 1988, 1 28. एवमेगे उ पासत्था ते भुज्जो विप्पगब्भिया। एवं उवट्ठिता संता ण ते दुक्खविमोक्खया॥ . . - सूत्रकृतांगसूत्र, संपा. मधुकर मुनि, प्रका. श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 1982, 1/2/31-32 29. आचारांगसूत्र, संपा. मधुकरमुनि, प्रका. श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 2/1/5/29 / 30. हे खंदया ! सागयं, खंदया ! सुसागयं - भगवतीसूत्र, संपा. घासीलाल जी, प्रका. अ.भा.श्चे, स्था. जैन शास्त्रोद्धार समिति, (199) 26. गम प्रकाशन Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजकोट, 1962 / उत्तराध्ययन संपा. साधवी चंदना, प्रका. वीरायतन प्रकाशन, आगरा, 1972, अध्याय 23 / देखें - शास्त्रवार्तासमुच्चय, हरिभद्रसूरि, प्रका. लालभाई, दलपतभाई भारतीय विद्या मंदिर, अहमदाबाद, 1968, 3/206, 3/ 237, 6/64-67 / सामायिकपाठ, संपा. प्रेमराज बोगावत, प्रका. सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल, जयपुर, 1975, 11 (200) Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * धर्म निरपेक्षता और बौद्धधर्म * वैज्ञानिक प्रगति के परिणाम स्वरूप आज हमारा विश्व सिमट गया है। विभिन्न संस्कृतियों और विभिन्न धर्मों के लोग आज एक दूसरे के निकट सम्पर्क में हैं। साथ ही वैज्ञानिक एवं औद्योगिक प्रगति के कारण और विशिष्टीकरण से हम परस्पराश्रित हो गए हैं। आज किसी भी धर्म और संस्कृति के लोग दूसरे धर्मों और संस्कृतियों से निरपेक्ष होकर जीवन नहीं जी सकते। हमारा दुर्भाग्य यह है कि इस परिवेशजन्य निकटता और पारस्परिक निर्भरता के बावजूद आज मनुष्य मनुष्य के बीच हृदय की दूरियां बढ़ती जा रही है। वैयक्तिक या राष्ट्रीय स्वार्थलिप्सा एवं महत्त्वाकांक्षा के कारण हम एक-दूसरे से कटते चले जा रहे हैं। धर्मों और धार्मिक सम्प्रदायों के संघर्ष बढ़ते जा रहे हैं और मनुष्य आज भी धर्म के नाम पर दमन, अत्याचार, नृशंसता और रक्तप्लावन का शिकार हो रहा है। एक धर्म और एक सम्प्रदाय के लोग दूसरे धर्म और सम्प्रदाय को मटियामेट करने पर तुले हुए हैं। इन सब परिस्थितियों में आज राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर धर्मनिरपेक्षता का प्रश्न अत्यंत प्रासंगिक हो गया है। धर्मनिरपेक्षता से ही धर्मों के नाम पर होने वाली इन सब दुर्घटनाओं से मानवता को बचाया जा सकता है। इस संदर्भ में सर्वप्रथम हमें यह विचार करना होगा कि धर्मनिरपेक्षता से हमारा क्या तात्पर्य है? वस्तुतः, धर्मनिरपेक्षता को अंग्रेजी शब्द ‘सक्युलरिज्म' का हिन्दी पर्यायवाची मान लिया गया है। हम अक्सर 'सेक्युलर स्टेट' की बात करते हैं। यहां हमारा तात्पर्य ऐसे राज्य/राष्ट्र से होता है जो किसी धर्म विशेष को राष्ट्रीय धर्म के रूप में स्वीकार नहीं करके अपने राष्ट्र में प्रचलित सभी धर्मों को अपनी-अपनी साधना पद्धति को अपनाने की स्वतंत्रता, अपने विकास के समान अवसर और सभी के प्रति समान आदर भाव प्रदान करता है। अतः राष्ट्रीय नीति के संदर्भ में 'सेक्युलरिज्म' का अर्थ धर्मविहीनता नहीं, अपितु किसी धर्म विशेष को प्रमुखता न देकर, सभी धर्मों के प्रति समव्यवहार हैं। जो लोग धर्मनिरपेक्षता का अर्थ धर्म अथवा नीति विहीनता करते हैं, वे भी एक भ्रांत धारणा को प्रस्तुत करते हैं। कोई भी व्यक्ति अथवा राष्ट्र धर्मविहीन नहीं हो सकता, क्योंकि धर्म एक जीवनशैली है। सेक्युलरिज्म या धर्मनिरपेक्षता के लिए महात्मा गांधी ने हमें ‘सर्वधर्म समभाव' शब्द दिया था, जो अधिक महत्त्वपूर्ण और सार्थक है। सभी धर्मों की सापेक्षिक मूल्यवत्ता को स्वीकार करते हुए उनके विकास के समान (201) Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवसर प्रदान करना ही धर्मनिरपेक्षता है। इसका तात्पर्य है कि धार्मिक दुर्भिनिवेश एवं मताग्रह से मुक्त होना ही दृष्टि की परिवासना से मुक्त होना है। वह किसी दृष्टि/कर्मकाण्ड/ उपासना पद्धति से बंधना नहीं है। इसी प्रकार 'धर्म' शब्द भी अनेक अर्थ में प्रयुक्त होता है। वह एक ओर वस्तुस्वरूप का सूचक है, तो दूसरी ओर कर्त्तव्य और किसी साधना या उपासना की पद्धति विशेष का भी सूचक है। अतः जब हम धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा के संदर्भ में धर्म' शब्द का प्रयोग करें, तो हमें उसके अर्थ के सम्बंध में स्पष्टता रखनी होगी। प्रस्तुत संदर्भ में धर्म का अर्थ न स्वभाव है, न कर्त्तव्य और न सदाचरण है। धर्म निरपेक्षता के संदर्भ में 'धर्म' शब्द आध्यात्मिक साधना और उपासना की पद्धति विशेष का परिचायक है, जो किसी सीमा तक नीति और आचार के विशेष नियमों से भी जुड़ा है। अतः धर्मनिरपेक्षता का तात्पर्य उपासना या साधना की विभिन्न पद्धतियों की सापेक्षिक सत्यता और मूल्यवत्ता को स्वीकार करना है। संक्षेप में किसी एक धर्म/सम्प्रदाय/ कर्मकाण्ड या उपासना की पद्धति के प्रति प्रतिबद्ध न होकर साधना और उपासना की सभी पद्धतियों को विकसित होने एवं जीवित रहने का समान अधिकार प्रदान करना ही . धर्मनिरपेक्षता है। जब हम बौद्धधर्म के संदर्भ में इस धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा पर विचार करते हैं तो हमें इस तथ्य को स्पष्ट रूप से स्वीकार कर लेना चाहिए कि बौद्धधर्म भी एक धर्मविशेष ही है, अतः उसमें धर्मनिरपेक्षता का वह अर्थ नहीं है, जिसे सामान्यतया हम स्वीकार करते हैं। उसमें धर्मनिरपेक्षता का तात्पर्य दूसरे धर्मों के प्रति समादर भाव से अधिक नहीं है। यह भी सत्य है कि बौद्धधर्म में अन्य धार्मिक एवं दार्शनिक मान्यताओं की उसी प्रकार समीक्षा की गई है, जिस प्रकार अन्य धर्मों एवं दर्शनों में बौद्धधर्म की गई थी, फिर भी बौद्धधर्म में सर्वधर्मसमभाव एवं धार्मिक सहिष्णुता के पर्याप्त आधार हैं। भारतीय चिंतनधारा का ही अंग होने के कारण बौद्धधर्म भी अपने प्रारम्भिक काल से लेकर आज तक धार्मिक समन्वयशीलता और सर्वधर्मसमभाव का आदर्श प्रस्तुत करता रहा है, क्योंकि उसने प्रतिद्वंदी धर्मों को शक्ति के बल पर समाप्त करने का कभी प्रयत्न नहीं किया। एक ओर उसकी इस समन्वयवादिता का परिणाम यह हुआ कि वह व्यापक हिन्दू धर्म में आत्मसात् होकर भारत में अपना स्वतंत्र अस्तित्व ही नहीं रख सका, किंतु दूसरी ओर उसने अपनी इस समन्वयवादिता के परिणामस्वरूप विश्व के धर्मों में शीर्षस्थ स्थान प्राप्त कर लिया और भारत के बाहर भूटान, तिब्बत, चीन, वियतनाम, जापान, कम्बोडिया, थाईलैण्ड, बर्मा, लंका आदि देशों में उनकी संस्कृतियों (202) Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से समन्वय साधते हुए अपने अस्तित्व का विस्तार कर लिया है। यहां हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि बौद्धधर्म ने अपना विस्तार सत्ता और शक्ति के बल पर नहीं किया है। बौद्धधर्म की उदार और समन्वयशील दृष्टि का ही यह परिणाम था कि वह जिस देश में गया वहां के आचार-विचार और नीति व्यवहार को, वहां के देवी-देवताओं को इस प्रकार से समन्वित कर लिया कि उन देशों के लिए वह एक बाहरी धर्म न रहकर उनका अपना ही अंग बन गया। इस प्रकार वह विदेश की भूमि में भी विदेशी नहीं रहा। यह उसकी समन्वयवादिता ही थी, जिसके कारण वह विदेशी भूमि में अपने को खड़ा रख सका। बौद्धधर्म में धर्मनिरपेक्षता का आधार-दृष्टिराग का प्रहाण धर्मनिरपेक्षता या सर्वधर्मसमभाव की अवधारणा तभी बलवती होती है जब व्यक्ति अपने को आग्रह और मतान्धता के घेरे से ऊपर उठा सके। आग्रह और मतान्धता से ऊपर उठने के लिए बौद्धधर्म में दृष्टिराग (दिट्ठी परिवासना) का स्पष्टरूप से निषेध किया गया है। बौद्धधर्म और साधना पद्धति की अनिवार्य शर्त यह है कि व्यक्ति अपने को दृष्टिराग से ऊपर उठाए, क्योंकि बौद्ध परम्परा में दृष्टिराग को ही मिथ्यादृष्टि और दृष्टिराग के प्रहाण को सम्यक्दृष्टि कहा गया है। यद्यपि कुछ विचारक यह कह सकते हैं कि बौद्धधर्म या दर्शन स्वयं में भी तो एक दृष्टि है। लेकिन यदि हम बौद्धधर्म का गम्भीरता से अध्ययन करें तो हमें यह बात स्पष्ट हो जाती है कि बुद्ध का संदेश किसी दृष्टि को अपनाना नहीं था, क्योंकि सभी दृष्टियां तृष्णा के ही, राग के ही रूप हैं और सत्य के एकांश का ग्रहण करती हैं। इन दृष्टियों से ऊपर उठना ही बुद्ध की धर्मदेशना का सार है। दृष्टिराग से ऊपर उठना ही दृष्टिनिरपेक्षता है और इसे ही हम धर्मनिरपेक्षता कह सकते हैं। यद्यपि यह एक निषेधात्मक प्रयास ही अधिक है, जैनों के अनेकान्त के समान विधायक प्रयास नहीं है। फिर भी बौद्धधर्म में सम्यक्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि की चर्चा हुई है, किंतु उसकी सम्यक्दृष्टि, दृष्टिनिरपेक्षता या दृष्टिशून्यता के अतिरिक्त कुछ नहीं है। बौद्धधर्म की दृष्टि में सभी दृष्टियां ऐकान्तिक होती है। वह यह मानता है कि आग्रह या एकांगीदृष्टि राग के ही रूप है और जो इस प्रकार के दृष्टिराग में रत रहता है वह सम्यक्दृष्टि को उपलब्ध नहीं होता, अपितु जहां एक ओर स्वयं दृष्टिराग के कारण बंधन में पड़ा रहता है, वहीं दूसरी ओर इसी दृष्टिराग के परिणामस्वरूप कलह और विवाद का कारण बनता है। इसके विपरीत जो मनुष्य दृष्टिपक्ष या आग्रह से ऊपर उठ जाता है, वह न तो विवाद में पड़ता है न बंधन में। वह विश्वशांति का साधक होता है। (203) Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तनिपात में बुद्ध बहुत ही मार्मिक शब्दों में कहते हैं कि जो अपनी दृष्टि का दृढ़ाग्रही हो दूसरों को मूर्ख मानता है, वह दूसरे धर्म को मूर्ख और अशुद्ध बतलाने वाला . स्वयं ही कलह का आह्वान करता है। वह किसी धारणा या दृष्टि पर अवस्थित हो, उसके. द्वारा संसार में विवाद या कलह उत्पन्न करता है, किंतु जो सभी धारणाओं को त्याग देता है, वह मनुष्य संसार में कलह नहीं करता है'' क्योंकि दृष्टि सग बांधता है, जो बांधता है वह अन्यत्र से तोड़ता भी है और जो तोड़ेगा वह कलह और विनाश को आमंत्रित करेगा। बुद्ध पुनः स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि साधारण मनुष्यों की जो कुछ दृष्टियां हैं, पण्डित उन सबमें नहीं पड़ता है। दृष्टि को न ग्रहण करने वाला आसक्तिरहित पण्डित क्या ग्रहण करेगा? बुद्ध के शब्दों में जो लोग अपने धर्म को परिपूर्ण और दूसरे धर्म को हीन बताते हैं वे दूसरों की अवज्ञा (निंदा) से हीन होकर धर्म में श्रेष्ठ नहीं हो सकते। जो किसी दृष्टि विशेष को मानता है, जो किस वादविशेष में आसक्त है वह मनुष्य शुद्धि को प्राप्त नहीं हो सकता। यही कारण है कि बुद्ध के शब्दों में विवेकी ब्राह्मण दृष्टि की तृष्णा में नहीं पड़ता, वह जो कुछ भी दृष्टि, श्रुति या विचार है, उन सब पर विजयी होता है और दृष्टियों से पूर्णरूप से मुक्त हो संसार में लिप्त नहीं होता। इस प्रकार हम देखते हैं कि बौद्धधर्म दृष्टिराग का निषेध करके इस बात का संदेश देता है कि व्यक्ति को साधना और आध्यात्म के क्षेत्र में किसी प्रकार के दुराग्रह से ग्रसित नहीं होना चाहिए। बौद्धधर्म की यह स्पष्ट धारणा है कि बिना दृष्टिराग को छोड़े कोई भी व्यक्ति न तो सम्यग्दृष्टि को प्राप्त हो सकता है और न निर्वाण के पथ का अनुगामी हो सकता है। इसीलिए बौद्धधर्म के सशक्त व्याख्याता विद्वान दार्शनिक नागार्जुन स्पष्ट शब्दों में कहते हैं- तत्त्व का साक्षात्कार दृष्टियों के घेरे से ऊपर उठकर ही किया जा सकता है, क्योंकि समग्र दृष्टियां (दर्शन) उसे दूषित ही करती हैं। इस प्रकार बौद्ध दर्शन का दृष्टिराग के प्रहाण का सिद्धांत धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत का एक महत्त्वपूर्ण आधार है। बुद्ध का संदेश सदैव ही आग्रह और मतान्धता के घेरे से ऊपर उठने का रहा है। क्योंकि वे यह मानते हैं कि सत्य का दर्शन आग्रह और मतान्धता से ऊपर उठकर ही हो सकता है। बौद्ध दर्शन का विभज्यवाद का सिद्धांत भी हमें यही संदेश देता है कि सत्य का समग्ररूप से दर्शन करने के इच्छुक व्यक्ति को सत्य को ऐकान्तिक दृष्टि से नहीं, अपितु अनैकान्तिक दृष्टि से देखना होगा। बौद्ध परम्परा में सत्य को अनेक पहलुओं के साथ देखना ही विद्वता है। थेरगाथा में कहा गया है कि जो सत्य को एक ही पहलू से (204) Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देखता है वह मूर्ख है, पंडित तो सत्य को अनेक पहलुओं से देखता है। विवाद का जन्म एकांगी दृष्टि से होता है, क्योंकि एकांगदर्शी ही आपस में झगड़ते हैं। जब हम सत्य को अनेक पहलुओं से देखते हैं तो निश्चय ही हमारे सामने विभिन्न पहलुओं के आधार पर विभिन्न रूप होते हैं और ऐसी स्थिति में हम किसी एक विचारसरणी में आबद्ध न होकर सत्य का व्यापक रूप में दर्शन करते हैं। इसीलिए सुत्तनिपात में बुद्ध कहते हैं कि मैं विवाद (आग्रह) के दो फल बताता हूं- एक तो वह अपूर्ण और एकांगी होता है और दूसरे वह विग्रह और अशांति का कारण होता है। निर्वाण जो कि हमारे जीवन का परम साध्य है वह तो निर्विवादता की भूमि पर स्थित है। इसलिए बुद्ध कहते हैं कि निर्वाण को निर्विवाद भूमि समझनेवाला साधक विवाद में न पड़े। भगवान् बुद्ध की दृष्टि में पक्षाग्रह या वादविवाद निर्वाणमार्ग के पथिक के कार्य नहीं हैं। वे स्पष्ट कहते हैं कि यह तो मल्लविद्या है। राजभोजन से पुष्ट पहलवान की तरह अपने प्रतिवादी को ललकारने वाले वादी को उस जैसे प्रतिवादी के पास भेजना चाहिए, क्योंकि मुक्त पुरुषों के पास विवादरूपी युद्ध का कोई कारण ही शेष नहीं है और जो अपने मत या दृष्टि को सत्य बताते हैं, उनसे कहना चाहिए कि विवाद उत्पन्न होने पर तुम्हारे साथ बहस करने को यहां कोई नहीं है।' इस प्रकार बौद्धदर्शन इस बात को भी अनुचित मानता है कि हम केवल अपने मत की प्रशंसा और दूसरे मत की निंदा करते रहें। बुद्ध स्वयं कहते हैं कि शुद्धि यहीं है, दूसरे वर्गों में नहीं है, ऐसा अपनी दृष्टि में अतिदृढ़ग्रही व्यक्ति तैर्थिक (मिथ्यादृष्टि) है। इस प्रकार दृष्टिराग ही मिथ्यादृष्टि है और दृष्टिगि का प्रहाण ही सम्यग्दृष्टि है। धार्मिक संघर्ष की नियंत्रक तत्त्व प्रज्ञा . समग्र धार्मिक मतान्धता और संघर्ष इसीलिए होते हैं कि व्यक्ति धार्मिक संदर्भो में विचार और तर्क की अपेक्षा श्रद्धा को अधिक महत्त्व देते हैं। तर्क और चिंतन से रहित श्रद्धा अंधश्रद्धा होती है और ऐसी अंधश्रद्धा से युक्त व्यक्तियों का उपयोग तथाकथित धार्मिक नेता अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए कर लेते हैं। अतः धर्म के क्षेत्र में श्रद्धा का स्थान स्वीकृत करते हुए भी उसे विवेक या चिंतन से रहित कर देना नहीं है। बौद्धधर्म ने सदैव ही श्रद्धा की अपेक्षा तर्क और प्रज्ञा को अधिक महत्त्व दिया है। आलारकलामसुत्त में बुद्ध स्पष्टरूप में कहते हैं कि हे कलाम! तुम मेरी बात को केवल इसलिए सत्य स्वीकार मत करो कि इनको कहने वाला व्यक्ति तुम्हारी आस्था या श्रद्धा का केंद्र है। अध्यात्म और साधना के क्षेत्र में प्रत्येक बात को तर्क की तराजू पर तौल कर (205) Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और अनुभव की कसौटी पर कस कर ही स्वीकार करना चाहिए। बुद्ध अन्य विचारकों की वैचारिक स्वतंत्रता का कभी हनन नहीं करना चाहते। इसके विपरीत वे हमेशा कहते हैं कि जो कुछ हमने कहा है उसे अनुभव की कसौटी पर कसो और सत्य की तराजू पर तौलो, यदि वह सत्य लगता है तो उसे स्वीकार करो। बुद्ध के शब्दों में हे कलाम! जब तुम आत्म अनुभव से जानलो कि ये बातें कुशल हैं, निर्दोष हैं, इनके आधार पर चलने से सुख होता है तभी इन्हें स्वीकार करो अन्यथा नहीं। बुद्ध आस्था प्रधान धर्म के स्थान पर तर्क प्रधान धर्म का व्याख्यान करते हैं और इस प्रकार के धार्मिक मतान्धता और वैचारिक दुराग्रहों से व्यक्ति को ऊपर उठाते हैं। उसे केवल शास्ता के प्रति आदर के कारण स्वीकार नहीं करना चाहिए। वस्तुतः, धार्मिक जीवन में जब तक विवेक या प्रज्ञा को विश्वास या आस्था का नियंत्रक नहीं माना जाएगा तब तक हम धार्मिक संघर्षों और धर्म के नाम पर खेली जाने वाली होलियों से मानवजाति को नहीं बचा सकेंगे। धर्म के लिए श्रद्धा आवश्यक है, किंतु उसे विवेक का अनुगामी होना चाहिए। यह आवश्यक है कि शास्त्र की सारी बातों और व्याख्याओं को विवेक की तराजू पर तौला जाए और युगीन संदर्भ में उनका मूल्यांकन किया जाए। जब तक यह नहीं होता तब तक धार्मिक जीवन में आई संकीर्णता का मिट पाना सम्भव नहीं। विवेक ही ऐसा तत्त्व है, जो हमारी दृष्टि को उदार और व्यापक बना सकता है। श्रद्धा आवश्यक है, किंतु उसे विवेक का अनुगामी होना चाहिए। आज आवश्यकता बौद्धिक धर्म की है और बुद्ध ने बौद्धिक धर्म का संदेश देकर हमें धार्मिक मतान्धताओं और धार्मिक आग्रहों से ऊपर उठने का संदेश दिया है। बुद्ध का मध्यममार्ग धर्मनिरपेक्षता का आधार बुद्ध ने अपने दर्शन को मध्यममार्ग की संज्ञा दी है। जिस प्रकार नदी की धारा कुलों में न उलझकर उनके मध्य से बह लेती है, उसी प्रकार बौद्धधर्म भी ऐकान्तिक दृष्टियों से बचकर अपनी यात्रा करता है। मध्यममार्ग का एक आशय यह भी है कि वह किसी भी दृष्टि को स्वीकार नहीं करता। सांसारिक सुखभोग और देहदण्डन की प्रक्रिया दोनों ही उसके लिए एकान्तिक है। एकान्तों के त्याग में ही मध्यम मार्ग की विशिष्टता है। मध्यममार्ग का अर्थ है- परस्पर विरोधी मतवादों में किसी एक ही पक्ष को स्वीकार न करना। बुद्ध का मध्यममार्ग अनैकान्तिक दृष्टि का उदाहरण है। यद्यपि वे केवल निषेधमुख से इतना ही कहते हैं कि हमें ऐकान्तिक दृष्टियों में नहीं उलझना चाहिए। धार्मिक निरपेक्षता का भी किसी सीमा तक यही आदर्श है कि हमें किसी एक धर्म विशेष या मतवाद (206) Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष में न उलझकर एक व्यापक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। बुद्ध के शब्दों में एकांशदर्शी ही आपस में झगड़ते और उलझते हैं। मध्यममार्ग का तात्पर्य है- विवादों से ऊपर उठना और इस अर्थ में वह किसी सीमा तक धर्मनिरपेक्षता का हामी है। बौद्धधर्म यह मानता है कि जीवन का मुख्य लक्ष्य तृष्णा की समाप्ति है। आसक्ति और अहं से ऊपर उठना ही सर्वोच्च आदर्श है। दृष्टिराग वैचारिक तृष्णा अथवा वैचारिक अहं का ही एक रूप है और जब तक वह उपस्थित है तब तक मध्यममार्ग की साधना सम्भव नहीं है। अतः मध्यममार्ग का साधक इन दृष्टिरागों से ऊपर उठकर कार्य करता है। जैसा कि बौद्धदर्शन में कहा गया है कि पण्डित वही है जो उभय अंतों का विवर्जन कर मध्य में स्थित रहता है। वस्तुतः, माध्यस्थ दृष्टि ही धर्मनिरपेक्षता है। बुद्ध का जीवन और धार्मिक सहिष्णुता / यदि हम बुद्ध के जीवन को देखें तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि वे स्वयं किसी धर्म या साधना-पद्धति विशेष के आग्रही नहीं रहे हैं। उन्होंने अपनी साधना के प्रारम्भ में अनेक धर्मनायकों, विचारकों और साधकों से जीवन्त सम्पर्क स्थापित किया था और उनकी साधना पद्धतियों को अपनाया। उदकरामपुत्त आदि अनेक साधकों के सम्पर्क में वे आए और उनकी साधना पद्धतियों को सीखा। यह समस्त चर्चा पालि त्रिपिटक में आज भी उपलब्ध है। चाहे आत्मतोष न होने पर उन्होंने उनका बाद में त्याग किया हो, फिर भी उनके मन में सभी साधकों के प्रति सदा आदरभाव रहा और ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् भी उनके मन में यह अभिलाषा रही कि अपने द्वारा उद्घाटित सत्य का बोध उन्हें कराए। यह दुर्भाग्य ही था कि पंचवर्गी भिक्षुओं को छोड़कर शेष सभी आचार्य उस काल तक कालकवलित हो चुके थे, फिर भी बुद्ध के द्वारा उनके प्रदर्शित आदरभाव उनकी उदार और व्यापक दृष्टि का परिचायक है। यद्यपि बौद्धधर्म में अन्य तीर्थिकों के रूप में पूर्णकश्यप, निगंठनाटपुत्त, अजितकेशकंबलि, मंखलिगोशाल आदि की समालोचना हमें उपलब्ध होती है, किंतु ऐसा लगता है कि यह सब परवर्ती साम्प्रदायिक अभिनिवेश का ही परिणाम है। बुद्ध जैसा महामनस्वी इन वैचारिक दुराग्रहों और अभिनिवेशों से युक्त रहा हो, ऐसा सोचना सम्भव नहीं है। . पुनः बौद्धधर्म मूलतः एक कर्मकाण्डी धर्म न होकर एक नैतिक आचार पद्धति है। एक नैतिक आचार पद्धति के रूप में वह धार्मिक दुराग्रहों और अभिनिवेशों से मुक्त रह सकता है। उसके अनुसार तृष्णा की समाप्ति ही जीवन का परम श्रेय है और तृष्णा की परिसमाप्ति के समग्र प्रयत्न किसी एक धर्म परम्परा से सम्बद्ध नहीं किए जा सकते। वे (207) Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभी उपाय जो तृष्णा के भेदन में उपयोगी हों बौद्धधर्म को स्वीकार हैं। शीलवान, समाधिवान और प्रज्ञावान होना बौद्ध विचारणा का मन्तव्य है, किंतु इसे हम केवल बौद्धों का धर्म नहीं कह सकते। यह धर्म का सार्वजनीन और सार्वकालिक स्वरूप है और बौद्धधर्म इसे अपनाकर व्यापक और उदार दृष्टि का ही परिचायक बनता है। बौद्धधर्म में धर्म (साधना-पद्धति) एक साधन है, वह पकड़कर रखने के लिए नहीं है और उसे भी छोड़ना ही है, अतः वह साधना के किसी विशिष्ट मार्ग का आग्रही नहीं है। उपसंहार वस्तुतः, वैयक्तिक भिन्नताओं के आधार पर साधनागत और आचारगत भिन्नताएं स्वाभाविक हैं। अतः मानवीय एकता और मानवीय संघर्षों की समाप्ति के लिए एक धर्म का नारा न केवल अशक्य है अपितु अस्वाभाविक भी है। जब तक व्यक्तियों में रुचिगत और स्वभावगत भेद है तब तक साधनागत भेद भी अपरिहार्य रूप से बने रहेंगे। इसीलिए तो बुद्ध ने किसी एक यान का उपदेश न देकर विविध यानों (धर्म मार्गों) का उपदेश दिया था। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम इन साधनागत भेदों को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में समन्वित कर तथा उनकी उपादेयता को स्वीकार कर एक ऐसी जीवनदृष्टि का निर्माण करें जो सभी की सापेक्षिक मूल्यवत्ता को स्वीकार करते हुए मानव कल्याण में सहायक बन सके। संदर्भ 1. सुत्तनिपात 50/16-17 सुत्तनिपात 51/3, 10-11, 16-20 थेरगाथा 1/106 उदान 6/4 . सुत्तनिपात 51/2 सुत्तनिपात 46/8-9 (208) Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दू धर्म और धार्मिक सहिष्णुता और सह-अस्तित्व . विश्व के विभिन्न धर्मों में हिन्दू धर्म और विश्व के विभिन्न देशों में भारत ही एक ऐसा देश है, जो धार्मिक सहिष्णुता और सह-अस्तित्व के अविरण उदाहरण प्रस्तुत करता है। विश्व के विभिन्न देशों को देखें तो भारत ही एक ऐसा देश है, जहां विश्व के सभी प्रमुख धर्मों के अनुयायी साथ-साथ रहते हैं। धार्मिक सहिष्णुता और सह-अस्तित्व का इससे बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है? यदि हम इस देश का इतिहास देखे तो विभिन्न जातियों एवं धर्मों के लोग यहां आए और इस देश की माटी के होकर रह गए। सर्वप्रथम भारत में शक हूण आए और यहां के परिवेश में ऐसे घुल मिल गए, आज उन्हें अलग से पहचान पाना भी कठिन या असम्भवसा है। सिकंदर से साथ ग्रीस और यूनान के लोग भी भारत आए थे और इसी माटी में समाहित हो गए। केरल में ईसाई आए चाहे उन्होंने अपने धर्म और अपनपी संस्कृति को बचाने का प्रयास अवश्य किया हो, किंतु वे इस देश की सभ्यता और संस्कृति से अप्रभावित भी नहीं रहे। यही स्थिति ईरान से आए पारसियों की रही। इस देश की माटी ने न केवल उन्हें स्वीकार किया, अपितु उन्हें अपने धर्म और संस्कृति को सुरक्षित रखने में पूरा सहयोग दिया। यही स्थिति इस्लाम की भी रही- भारत ने उनके धर्म और संस्कृति को बचाए रखने में उन्हें पूरा सहयोग दिया। इस्लाम भी एक ओर बृहद् हिन्दू धर्म से प्रभावित हुआ, तो दसरी ओर उसने उसे प्रभावित भी किया। इस्लाम में मजारपूजा और मोहर्रम जैसे पर्व बृहद् हिन्दूधर्म के प्रभाव से अस्तित्व में आए, तो दूसरी ओर हिन्दूधर्म में निर्गुण उपासना की जो धारा विकसित हुई, वह भी हिन्दूधर्म पर इस्लाम के प्रभाव का कारण है। भारत में सिक्ख धर्म की उत्पत्ति और विकास आज भी हिन्दूधर्म और इस्लाम के समन्वय की कहानी कहता है। इस देश में सूफी संतों के साथ-साथ कबीर, दादू, नानक ने सहिष्णुता और सह-अस्तित्व की जो गंगा बहाई थी, उसकी धारा आज भी जीवित है। भारतीय संस्कृति और भारतीय चिंतन प्रारम्भ से ही उदारवादी और समन्वयवादी रहा है। भारतीय चिंतन की इसी उदारता एवं समन्वयवादिता के परिणामस्वरूप हिन्दूधर्म विभिन्न साधना और उपासना की पद्धतियों का कुछ ऐसा संग्रहालय बन गया कि आज कोई भी विद्वान हिन्दूधर्म की सुनिश्चित परिभाषा देने में असफल हो जाता है। पूजा-उपासना एवं कर्मकाण्ड की आदिम प्रवृत्तियों से लेकर अद्वैत वेदांत का श्रेष्ठतम दार्शनिक सिद्धांत (209) Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसमें समाहित है। प्रकृति पूजा के विविध रूपों से लेकर निर्गुण-साधना विकसित रूप उसमें परिलक्षित होता है। उसकी धार्मिक समन्वयशीलता हमारे सामने एक अद्वितीयक आदर्श उपस्थित करती है। धर्म के नाम पर जो लोग अपने स्वार्थ की सिद्धि या अहम् का पोषण चाहते हैं, उन्हें यदि एक ओर कर दें तो आज भी सामान्य हिन्दू या सामान्य मुसलमान सहयोग और सह-अस्तित्व की भावना के साथ जीते हैं। चाहे हम में भाष एवं व्यवहारगत भिन्नताएं हों, फिर भी लक्ष्यगत भिन्नता नहीं है। सभी उसी परमसत्ता से मिलन के आकांक्षी है। किसी हिन्दी कवि ने सही कहा है अलग - अलग नदियों के उद्गम अलग - अलग है नदियों के नाम। एक ही महासागर में पाने को विश्राम फिर भी बही चली जा रही है, अविराम // कबीरदासजी कहते हैं कि 'को हिन्दू को तुरक कहावे, एक ही माटी के भाण्डे'। अर्थात् एक ही देश की माटी से निर्मित एक ही प्रकार के शरीर के धारकों में कौन हिन्दू और कौन तुर्क, ऐसा भेद नहीं किया जा सकता है। गांधीजी का कथन था कि अल्लाह और ईश्वर उसी परमात्मा के नाम है। . मात्र यही नहीं, हिन्दूधर्म द्वारा जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव को और बौद्धधर्म के भगवान् बुद्ध को ईश्वर के अवतार के रूप में स्वीकार कर लेना, हिन्दूधर्म की समन्वयवादिता का सबसे बड़ा प्रमाण है। जैन आचार्य हरिभद्र और हेमचंद्र के कथनों के अनुसार नामभेद को भिन्नता का आधार न मानकर विभिन्न नामों में उसकी परमसत्ता या परमात्मा का दर्शन करना धार्मिक सहिष्णुता का एक महत्त्वपूर्ण आधार है। किसी संस्कृत कवि ने भी कहा था कि - जिनकी शैवधर्म वाले शिव के रूप में उपासना करते हैं, जिन्हें वेदांत को मानने वाले ब्रह्म के नाम से पुकारते हैं, जैनधर्म को मानने वाले जिन्हें अर्हत् कहते हैं और मीमांसक जिसे कर्म करते हैं। प्रमाण प्रस्तुत करने में कुशल बौद्ध जिसे बुद्धनाम से अभिहित करते हैं और नैयायिक जिसे ईश्वर कहते हैं, वे परमात्मा हरि मुझे वांछित फल प्रदान करे। (210) Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राच्य विद्यापीठ: एक परिचय डॉ. सागरमल जैन पारमार्थिक शिक्षण न्यास द्वारा सन् 1997 से संचालित प्राच्य विद्या पीठ, शाजापुर आगरा-मुम्बई मार्ग पर स्थित इस संस्थान का मुख्य उदेश्य भारतीय प्राच्य विद्याओं के उच्च स्तरीय अध्ययन, प्रशिक्षण एवं शोधकार्य के साथ-साथ भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों को पुनः प्रतिष्ठित करना है। ___ इस विद्यापीठ में जैन, बौद्ध और हिन्दु धर्म आदि के लगभग 12,000 दुर्लभ ग्रन्थ उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त 700 हस्तलिखित पाण्डुलिपियाँ भी है। यहाँ 40 पत्र पत्रिकाएँ भी नियमित आती है ____ इस परिसर में साधु-साध्वियों, शोधार्थियों और मुमुक्षुजनों के लिए अध्ययन अध्यापन के साथ-साथ निवास, भोजन आदि की भी उत्तम व्यवस्था है। _शोधकार्य के मार्गदर्शन एवं शिक्षण हेतु डॉ. सागरमलजी जैन का सतत् सानिध्य प्राप्त है। इसे विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन द्वारा शोध संस्थान के रुप में मान्यता प्रदान की गई है। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. सागरमल जैन जन्म दि. 22.02.1932 जन्म स्थान शाजापुर (म.प्र.) शिक्षा साहित्यरत्न : 1954 एम.ए. (दर्शन शास्त्र) : 1963 पी-एच.डी. : 1969 अकादमिक उपलब्धियाँ : प्रवक्ता (दर्शनशास्त्र) म.प्र. शास. शिक्षा सेवाः 1964-67 सहायक प्राध्यापक म.प्र. शास. शिक्षा सेवा : 1968-85 प्राध्यापक (प्रोफेसर) म.प्र. शास. शिक्षा सेवा : 1985-89 निदेशक, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी : 1979-1987 एवं 1989-1997 लेखन : 49 पुस्तकें सम्पादन : 160 पुस्तकें प्रधान सम्पादक : जैन विद्या विश्वकोष (पार्श्वनाथ विद्यापीठ की महत्वाकांक्षी परियोजना) पुरस्कार : प्रदीपकुमार रामपुरिया पुरस्कार : 1986 एवं 1998 स्वामी प्रणवानन्द पुरस्कार : 1987 डिप्टीमल पुरस्कार : 1992 आचार्य हस्तीमल स्मृति सम्मान : 1994 विद्यावारधि सम्मान : 2003 प्रेसीडेन्सीयल अवार्ड ऑफ जैना यू.एस.ए 2007 वागार्थ सम्मान (म.प्र. शासन) : 2007 गौतम गणधर सम्मान (प्राकृत भारती) : 2008 आर्चाय तुलसी प्राकृत सम्मान : 2009 विद्याचन्द्रसूरी सम्मान : 2011 समता मनीषी सम्मान : 2012 सदस्य : अकादमिक संस्थाएँ : पूर्व सदस्य - विद्वत परिषद, भोपाल विश्वविद्यालय, भोपाल सदस्य - जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूँ : पूर्व सदस्य - मानद निदेशक, आगम, अहिंसा, समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर। सम्प्रति : संस्थापक - प्रबंध न्यासी एवं निदेशक प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर (म.प्र) पूर्वसचिवःपार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी। विदेश भ्रमण यू.एस.ए. शिकागों, राले, ह्यूटन, न्यूजर्सी, उत्तरीकरोलीना, वाशिंगटन, सेनफ्रांसिस्को, लॉस एंजिल्स, फिनीक्स, सेंट लुईस, पिट्सबर्ग, टोरण्टों, (कनाड़ा) न्यूयार्क, लन्दन (यू.के.) और काटमा (नेपाल) Printed at Akrati Offset, UJJAIN Ph. 0734-2561720