________________ भारतीय दर्शन और साहित्य का सर्वश्रेष्ठ उद्गार है। इसी प्रकार बोधिसत्व भी सदैव ही दीन और दुःखी जनों को दुःख से मुक्त कराने के लिए प्रयत्नशील बने रहने की अभिलाषा करता है और सबको मुक्त कराने के पश्चात् ही मुक्त होना चाहता है। मवेयमुपजीव्योऽहं यावत्सर्वे न निर्वृताः / (बोधिचर्यावतार, 3/21) वस्तुतः मोक्ष अकेला पाने की वस्तु नहीं है। इस सम्बंध में विनोबा भावे के उद्गार विचारणीय हैं - जो समझता है कि मोक्ष अकेले हथियाने की वस्तु है, वह उसके हाथ से निकल जाता है। 'मैं' के आते ही मोक्ष भाग जाता है, मेरा मोक्ष - यह वाक्य ही गलत है। 'मेरा मिटने पर ही मोक्ष मिलता है। (आत्मज्ञान और विज्ञान, पृ.71) इसी प्रकार, वास्तविक मुक्ति अहंकार से मुक्ति ही है। 'मैं' अथवा 'अहं' भाव से मुक्त होने के लिए हमें अपने आपको समष्टि में, समाज में लीन कर देना होता है। मुक्ति वही व्यक्ति प्राप्त कर सकता है, जो अपने व्यक्तित्व को समष्टि में, समाज में विलीन कर दे। आचार्य शांतिदेव लिखते हैं सर्वत्यागश्च निर्वाणं निर्वाणार्थि च मे मनः। त्यक्तव्यं चेन्मया सर्वं वरं सत्वेषु दीयतां // - बोधिचर्यावतार, 3/11 ... इस प्रकार यह धारणा मोक्ष के प्रत्यय सामाजिकता की विरोधी है, गलत है। मोक्ष वस्तुतः दुःखों से मुक्ति है और मनुष्य जीवन के अधिकांश दुःख मानवीय संवेगों के कारण ही हैं, अतः मुक्ति ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, घृणा आदि के संवेगों से मुक्ति पाने में है और इस रूप में वह वैयक्तिक और सामाजिक-दोनों ही दृष्टि से उपादेय भी है। दुःख, अहंकार एवं मानसिक क्लेशों से मुक्तिरूप में मोक्ष की उपादेयता और सार्थकता को अस्वीकार भी नहीं किया जा सकता है। _अंत में हम कह सकते हैं कि भारतीय जीवन-दर्शन की दृष्टि पूर्णतया सामाजिक और लोक मंगल के लिए प्रयत्नशील बने रहने की है। उसकी एकमात्र मंगल कामना सर्वेऽत्रसुखिनः संतु। सर्वे संतु निरामयाः॥ (39)