________________ से हम इंकार भी नहीं कर सकते, क्योंकि जीवन-मुक्ति एक ऐसा व्यक्तित्व है, जो सदैव लोक-कल्याण के लिए प्रस्तुत रहता है। जैनदर्शन में तीर्थंकर बौद्धदर्शन में अर्हत् एवं बोधिसत्व और वैदिक दर्शन में स्थितप्रज्ञा की जो धारणाएं प्रस्तुत की गई हैं और उनके व्यक्तित्व को जिस रूप में चित्रित किया गया है, उससे हम निश्चय ही इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि मोक्ष के प्रत्यय की सामाजिक उपादेयता भी है। वह लोक-मंगल और मानव-कल्याण का एक महान् आदर्श माना जा सकता है, क्योंकि जन-जन का दुःखों से मुक्त होना ही मुक्ति है। मात्र इतना ही नहीं, भारतीय चिंतन में वैयक्तिक मुक्ति की अपेक्षा भी लोक कल्याण के लिए प्रयत्नशील बने रहने को अधिक महत्त्व दिया गया है। बौद्धदर्शन में बोधिसत्व का और गीता में स्थितप्रज्ञ का जो आदर्श प्रस्तुत किया गया है, वह हमें स्पष्ट रूप से बताता है कि केवल वैयक्तिक मुक्ति को प्राप्त कर लेना ही अंतिम लक्ष्य नहीं है। बोधिसत्व तो लोक मंगल के लिए अपने बंधन और दुःख की कोई परवाह नहीं करता है। वह कहता है - बहूनामेक - दुःखेन यदि दुखं विगच्छति। उत्पाद्यमेव तद् दुःखं सदयेन परात्मनोः॥ मुच्यमानेषु सत्वेषु ये ते ग्रामोद्यसागराः। - तैरेव ननु पर्याप्तं मोक्षेणारकेन किम् // - बोधिचर्यावतार, 8/105, 108 यदि एक के कष्ट उठाने से बहुतों का दुःख दूर होता हो, तो करुणापूर्वक उनके दुःख दूर करना ही अच्छा है। प्राणियों को दुःखों से मुक्त होता हुआ देखकर जो आनंद प्राप्त होता है, वही क्या कम है, फिर अपने मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा की क्या आवश्यकता है? वैयक्तिक मुक्ति की धारणा की आलोचना करते हुए और जन-जन की मुक्ति के लिए अपने संकल्प को स्पष्ट करते हुए भागवत के सप्तम स्कन्ध में प्रह्लाद ने स्पष्ट रूप से कहा था कि प्रायेण देवमुनयः स्वविमुक्तिकामाः। मौनं चरन्ति विजने न परार्थनिष्ठाः // नेतान् विहाय कृपणाम् विमुमुक्षुरेकः॥ हे प्रभु ! अपनी मुक्ति की कामना करने वाले देव और मुनि तो अब तक काफ हो चुके हैं, जो जंगल में जाकर मौन साधना किया करते थे, किंतु उनमें पॅरार्थ-निष्ठा नहीं थी। मैं तो अकेला इन सब दुःखीजनों को छोड़कर मुक्त होना भी नहीं चाहता। यह (38)