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________________ मोक्ष की धारणा सामाजिक दृष्टि से उपादेय हो सकती है? जहां तक मोक्ष की मरणोत्तर अवस्था या तत्त्वमीमांसीय धारणा का प्रश्न है, उस सम्बंध में न तो भारतीय दर्शनों में ही एकरूपता है और न ही उसकी कोई सामाजिक सार्थकता ही खोजी जा सकती है, किंतु इसी आधार पर मोक्ष को अनुपादेय मान लेना उचित नहीं है। लगभग सभी भारतीय दार्शनिक इस सम्बंध में एकमत हैं कि मोक्ष का सम्बंध मुख्यतः मनुष्य की मनोवृत्ति से है। बंधन और मुक्ति-दोनों ही मनुष्य के मनोवेगों से सम्बंधित हैं। राग, द्वेष, आसक्ति, तृष्णा, ममत्व, अहं आदि की मनोवृत्तियां ही बंधन हैं और इनसे मुक्त होना ही मुक्ति। मुक्ति की व्याख्या करते हुए जैन दार्शनिकों ने कहा था कि मोह और क्षोभ से रहित आत्मा की अवस्था ही मुक्ति है। आचार्य शंकर कहते हैं'वासनाप्रक्षयो मोक्षः' (विवेक चूड़ामणि, 318) वस्तुतः, मोह और क्षोभ हमारे जीवन से जुड़े हुए हैं और इसलिए मुक्ति का सम्बंध भी हमारे जीवन से ही है। मेरी दृष्टि में मोक्ष मानसिक तनावों से मुक्ति है। यदि हम मोक्ष के प्रत्यय की सामाजिक सार्थकता के सम्बंध में विचार करना चाहते हैं, तो हमें इन्हीं मनोवृत्तियों एवं मानसिक विक्षोभों के संदर्भ में उस पर विचार करना होगा। सम्भवतः इस सम्बंध में कोई भी दो मत नहीं रखेगा कि राग, द्वेष, तृष्णा, आसक्ति, ममत्व, ईर्ष्या आदि की मनोवृत्तियां हमारे सामाजिक जीवन के लिए अधिक बाधक हैं। यदि इन मनोवृत्तियों से मुक्त होना ही मुक्ति का हार्द है, तो मुक्ति का सम्बंध हमारे सामाजिक जीवन के साथ जुड़ा हुआ है। मोक्ष मात्र एक मरणोत्तर अवस्था नहीं है, अपितु वह हमारे जीवन से सम्बंधित है। मोक्ष को पुरुषार्थ माना गया है, इसका तात्पर्य यह है कि वह इसी जीवन में प्राप्तव्य है। जो लोग मोक्ष को एक मरणोत्तर अवस्था मानते हैं, वे मोक्ष के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ हैं। आचार्य शंकर लिखते हैं - देहस्य मोक्षो नो मोक्षो न दण्डस्य कमण्डलौः / अविद्या हृदय ग्रन्थि मोक्षो यतस्ततः॥ - विवेक चूड़ामणि, 559 _मरणोत्तर मोक्ष या विदेह-मुक्ति साध्य नहीं है। उसके लिए कोई साधना अपेक्षित नहीं है। जिस प्रकार मृत्यु जन्म लेने का अनिवार्य परिणाम है, उसी पकार विदेह-मुक्ति तो जीवन-मुक्ति का अनिवार्य परिणाम है। अतः, जो प्राप्तव्य है, जो पुरुषार्थ है और जो साध्य है, वह तो जीवन-मुक्ति ही है। जीवन-मुक्ति के प्रत्यय की सामाजिक सार्थकता (37)
SR No.004424
Book TitleBharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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