________________ भारतीय संस्कृति में सामाजिक चिंतन - भारतीय श्रमण एवं वैदिकधारा का एक समन्वित रूप है। वैदिकधारा तो प्रारम्भ से ही समाज परक रही है, किंतु जैन एवं बौद्ध दर्शन के रूप में जीवित श्रमण धारा भी मूलतः संधीय साधनापरक होने से समाज परक रही है। यद्यपि, बौद्धधर्म एवं जैनधर्म निवृत्तिमार्गी श्रमण-परम्परा का धर्म है। सामान्यतया इसे सामाजिक न मानकर व्यक्तिवादी धर्म माना जाता है, किंतु जैनधर्म को एकांत रूप से व्यक्तिवादी धर्म नहीं कहा जा सकता। यह सत्य है कि उसका विकास निवृत्तिमार्गी संन्यास प्रधान श्रमण-परम्परा से ही हुआ है, किंतु मात्र इस आधार पर उसे असामाजिक या व्यक्तिवादी धर्म मानना एक भ्रांति ही होगी। जीवन में दुःख की यथार्थता और दुःखविमुक्ति का जीवनादर्श- यह जैन परम्परा का अथ और इति है, किंतु दुःख और दुःखविमुक्ति के ये सम्प्रत्यय मात्र वैयक्तिक नहीं हैं, उनका एक सामाजिक पक्ष भी है। दुःखविमुक्ति का उनका आदर्श मात्र वैयक्तिक दुःखों की विमुक्ति नहीं है, अपितु सम्पूर्ण प्राणीजगत् के दुःखों की विमुक्ति है और यही उन्हें समाज से जोड़ देता है। श्रमणधारा में धर्म और नीति को अवियोज्य माना गया है और धर्म एवं नीति की यह अवियोज्यता भी उसमें सामाजिक संदर्भ को स्पष्ट कर देती भारतीय चिंतन में सामाजिक चेतना का विकास . सामाजिक चेतना के विकास की दृष्टि से भारतीय चिंतन को तीन युगों में बांटा जा सकता है। (1) वैदिक युग, (2) औपनिषदिक युग, (3) जैन और बौद्ध युग। सर्वप्रथम जहां वैदिक युग में संगच्छध्वं संवदध्वं संवामनांसिं जानताम्'', अर्थात् तुम मिलकर चलो, तुल मिलकर बोलो, तुम्हारे मन साथ-साथ विचार करें- इस रूप में सामाजिक चेतना को विकसित करने का प्रयत्न किया गया, तो वहीं औपनिषदिक युग में उस सामाजिक एकत्व की चेतना के लिए दार्शनिक आधार प्रस्तुत किए गए। ईशावास्योपनिषद् में ऋषि कहता है कि जो सभी प्राणियों को अपने में और अपने को सभी प्राणियों में देखता है, वह अपनी इस एकत्व की अनुभूति के कारण किसी से घृणा नहीं करता। औपनिषदिक चिंतन में सामाजिकता का आधार यही एकत्व की अनुभूति रही है। जब एकत्व की दृष्टि विकसित होती है, तो घृणा और विद्वेष के तत्त्व स्वत: समाप्त हो जाते हैं, क्योंकि ‘पर' रहता ही नहीं, अतः किससे घृणा या विद्वेष किया जाए। (41)