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________________ सयं सयं पसंसंता गरहंता परं वयं। जे उ तत्थ विउस्संति संसारे ते विउस्सिया।। अर्थात् जो लोग अपने-अपने मत की प्रशंसा और दूसरे मत की निंदा करते हैं तथा दूसरों के प्रति द्वेष का भाव रखते हैं वे संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं। जैन परम्परा का यह विश्वास रहा है कि सत्य का सूर्य सभी के आंगन को प्रकाशित कर सकता है। उसकी किरणें सर्वत्र विकीर्ण हो सकती हैं। जैनों के अनुसार वस्तुतः मिथ्यात्वा असत्यता तभी उत्पन्न होता है, जब हम अपने को ही एकमात्र सत्य और अपने विरोधी को असत्य मान लेते हैं। जैन आगम साहित्य में मिथ्यात्व के जो विविध रूप बताए गए हैं, उनमें एकांत और आग्रह को भी मिथ्यात्व कहा गया है। कोई भी कथन जब वह अपने विरोधी कथन का एकांतरूप से निषेधक होता है, मिथ्या हो जाता है और जब उन्हीं मिथ्या कहे जाने वाले कथनों की सापेक्षिक सत्यता को स्वीकार कर लिया जाता है तो वह सत्य बन जाता है। जैन आचार्यों ने जैन धर्म को मिथ्यामतसमूह कहा है। आचार्य सिद्धसेन सन्मतितर्क प्रकरण में कहते हैं - भई मिच्छादसण समूहमइयस्स अमयसारस्स। जिणवयस्स भगवओ संविग्ग सुहाहिगम्मस्स। अर्थात् ‘मिथ्यादर्शनसमूहरूप अमृतरस प्रदायी और मुमुक्षुजनों को सहज समझ में आने वाले जिनवचन का कल्याण हो।' यहां जिनधर्म को 'मिथ्यादर्शनसमूह' कहने का तात्पर्य है कि वह अपने विरोधी मतों की भी सत्यता को स्वीकार करता है। जैन धर्म को मिथ्यामतसमूह कहना सिद्धसेन की विशालहृदयता का भी परिचायक है। वस्तुतः जैन धर्म में यह माना गया है कि सभी धर्ममार्ग देश, काल और वैयक्तिक-रुचि-वैभिन्न्य के कारण भिन्न-भिन्न होते हैं, किंतु वे सभी किसी दृष्टिकोण से सत्यं भी होते हैं। मुक्ति का द्वारः सभी के लिए उद्घाटित .. वस्तुतः धार्मिक असहिष्णुता और धार्मिक संघर्षों का एक कारण यह भी होता है कि हम यह मान लेते हैं कि मुक्ति केवल हमारे धर्म में विश्वास करने से या हमारी साधना-पद्धति को अपनाने से ही सम्भव है या प्राप्त हो सकती है। ऐसी स्थिति में हम इसके साथ-साथ यह भी मान लेते हैं कि दूसरे धर्म और विश्वासों के लोग मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकते हैं। किंतु यह मान्यता एक भ्रांत आधार पर खड़ी है। वस्तुतः दुःख या बंधन के कारणों का उच्छेद करने पर कोई भी व्यक्ति मुक्ति का अधिकारी हो सकता है, (185)
SR No.004424
Book TitleBharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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