________________ रहा है। न केवल इतना उपनिषदों में सत्यकाय जबाल की कथा भी सत्यवादी जबाल को ब्राह्मण मानकर इसी मत की पुष्टि करती है। सामाजिक जीवन की पवित्रता का आधार : विवाह संस्था ___सामाजिक जीवन का प्रारम्भ परिवार से ही होता है और परिवार का निर्माण विवाह के बंधन से होता है, अतः विवाह-संस्था सामाजिक दर्शन की एक प्रमुख समस्या है। विवाह-संस्था के उद्भव के पूर्व यदि कोई समाज रहा होगा, तो वह भयभीत प्राणियों का एक समूह रहा होगा जो पारस्परिक सुरक्षा हेतु एक-दूसरे से मिलकर रहते होंगे। विवाह का आधार केवल काम-वासना की संतुष्टि ही नहीं है, अपितु पारस्परिक आकर्षण और प्रेम भी है। यह स्पष्ट है कि निवृत्तिप्रधान संन्यासमार्गी जैन एवं बौद्ध परम्परा में इस विवाह संस्था के सम्बंध में कोई विशेष विवरण नहीं मिलते हैं। जैनधर्म अपनी वैराग्यवादी परम्परा के कारण प्रथमतः तो यही मानता रहा कि उसका प्रथम कर्त्तव्य व्यक्ति को संन्यास की दिशा में प्रेरित करना है, इसलिए प्राचीन जैन आगमों में जैनधर्मानुकूल विवाह-पद्धति के कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होते। प्राचीनकाल में बृहद् भारतीय समाज या हिन्दू समाज से पृथक् जैनों की अपनी कोई विवाह-पद्धति रही होगी, यह कहना भी कठिन है, यद्यपि यह सत्य है कि जैन धर्मानुयायियों में प्राचीनकाल से ही विवाह होते रहें हैं। जैन पुराण साहित्य में यह उल्लेख मिलता है कि ऋषभदेव से पूर्व यौगलिक काल में भाई-बहन ही युवावस्था में पति-पत्नी के रूप में व्यवहार करने लगते थे और एक युगल में पुरुष की अकाल मृत्यु हो जाने पर ऋषभ ने सर्वप्रथम विवाह-पद्धति का प्रारम्भ किया था। पुनः, भरत और बाहुबली की बहनों-ब्राह्मी और सुंदरी द्वारा भी आजीवन ब्रह्मचारी रहने और अपने भाइयों से विवाह न करने का निर्णय लिए जाने पर समाज में विवाह-व्यवस्था को प्रधानता मिली, किंतु विवाह को धार्मिक जीवन का अंग न मानने के कारण जैनों ने प्राचीन काल में किसी विवाह• पद्धति का विकास नहीं किया। इस सम्बंध में जो भी सूचनाएं उपलब्ध होती हैं, उस आधार पर यही कहा जा सकता है कि विवाह के सम्बंध में जैन समाज बृहद् हिन्दूसमाज के ही विधि-विधानों का अनुगमन करता रहा और आज भी करता है। / प्राचीन जैन ग्रंथों में, विवाह कैसे किया जाए- इसका उल्लेख तो नहीं मिलता है, किंतु विवाह संस्था को यौन सम्बंधों के संयमन का एक साधन मानकर उसमें गृहस्थ उपासकों के लिए स्वपत्नी-संतोषव्रत का विधान अवश्य मिलता है। आदिपुराण में (49)