________________ विवाह एवं पति-पत्नी के पारस्परिक एवं सामाजिक दायित्वों की चर्चा है, उसमें विवाह के दो उद्देश्य बताए गए हैं - (1) कामवासना की तृप्ति, (2) सन्तानोत्पत्तिा जैनाचार्यों ने विवाह संस्था को यौन-सम्बंधों के नियंत्रण एवं वैधीकरण के लिए आवश्यक माना था। गृहस्थ का स्वपत्नीसंतोषव्रत न केवल व्यक्ति की कामवासना को नियंत्रित करता है, अपितु सामाजिक जीवन में यौन-व्यवहार को परिष्कृत भी बनाता है। अविवाहित स्त्री से यौन-सम्बंध स्थापित करने, वेश्यागमन करने आदि के निषेध इसी बात के सूचक हैं। जैन धर्म सामाजिक जीवन में यौन सम्बंधों की शुद्धि को आवश्यक मानता है। विवाह के उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुए आदिपुराण में बताया गया है कि जिस प्रकार ज्वर से पीड़ित व्यक्ति उसके उपशमनार्थ कटु-औषधि का सेवन करता है, उसी प्रकार कामज्वर से संतप्त हुआ प्राणी उसके उपशमनार्थ स्त्रीरूपी औषधि का सेवन करता है। इससे इतना प्रतिफलित होता है कि जैनधर्म अवैध या स्वच्छन्द यौन सम्बंधों का समर्थक नहीं रहा है। उसमें विवाह-सम्बंधों की यदि कोई महत्त्वपूर्ण भूमिका है, तो वह यौन-सम्बंधों के नियंत्रण की दृष्टि से ही है और यह उसकी निवृत्तिमार्गी धारा के अनुकूल भी है। उसकी मान्यता के अनुसार यदि कोई आजीवन ब्रह्मचारी बनकर संयमसाधना में अपने को असमर्थ पाता है, तो उसे विवाह सम्बंध के द्वारा अपनी यौनवासना को नियंत्रित कर लेना चाहिए, इसीलिए श्रावक के पांच अणुव्रतों में स्वपत्नीसंतोषव्रत नामक व्रत रखा गया है। पुनः, श्रावक-जीवन के मूलभूतं गुणों की दृष्टि से वेश्यागमन और परस्त्री-गमन को निषिद्ध ठहराया गया। इस प्रकार चाहे विधिमुख से न हो, किंतु निषेधमुख से जैनधर्म विवाह-संस्था की उपयोगिता और महत्ता को स्वीकार करता हुआ प्रतीत होता है। चाहे धार्मिक विधि-विधान के रूप में जैनों में विवाह-सम्बंधी उल्लेख न मिलता हो, किंतु जैन कथा-साहित्य में जो विवरण उपलब्ध होते हैं, उनके आधार पर इतना तो कहा जा सकता है कि जैन-परम्परा में समान वय और समान कुल के मध्य विवाह सम्बंध स्थापित करने के उल्लेख मिलते हैं। आगमों में यह भी उल्लेख मिलता है कि बालभाव से मुक्त होने पर ही विवाह किए जाते थे। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनधर्म में बाल-विवाह की अनुमति नहीं थी। मात्र यही नहीं, कुछ कथानकों में बालविवाह के अथवा अवयस्क कन्याओं के विवाह के दूषित परिणामों के उल्लेख भी मिल जाते हैं। विवाह सम्बंध को हिन्दूधर्म की तरह जैनधर्म में भी एक आजीवन सम्बंध ही माना गया था, अतः विवाह-विच्छेद को जैनधर्म में भी कोई स्थान नहीं मिला। (50)