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________________ कर्तव्य-बोध होता है। पशुओं में भी पारस्परिक हित साधन की प्रवृत्ति तो होती है, किंतु वह एक अंध मूलप्रवृत्ति है। उस अंध-प्रवृत्ति के अनुसार ही आचरण करने में पशु विवश होता है। उसके सामने यह विकल्प नहीं होता कि वह वैसा आचरण करे या नहीं करे। किंतु इस सम्बंध में मानवीय-चेतना स्वतंत्र होती है। उसमें अपने दायित्व-बोध की चेतना होती है। किसी उर्दू शायर ने कहा भी है - वह आदमी ही क्या है, जो दर्द आशना न हो! .. पत्थर से कम है, दिल शरर गर निहा नहीं! जैनाचार्य उमास्वाति ने भी न केवल मनुष्य का, अपितु समस्त जीवन का लक्षण पारस्परिक हित साधन को माना है। तत्वार्थसूत्र में कहा है - “परस्परोपग्रहोजीवानाम् / ' एक दूसरे के कल्याण में सहयोगी बनना यही जीवन की विशिष्टता है। इसी अर्थ में हम कह सकते हैं कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और दूसरे मनुष्यों एवं प्राणियों का हित साधन उसका धर्म है। धार्मिक होने का एक अर्थ यह है कि हम एक-दूसरे के सहयोगी बनें। दूसरे के दुःख और पीड़ा को अपनी पीड़ा समझें तथा उसके निराकरण का प्रयत्न करें। जैन आगम आचारांगसूत्र में धर्म की परिभाषा करते हुए बहुत स्पष्ट रूप से कहा गया है - 'सवे सत्ता ण हंतव्वा, एस धम्मे णिइए, सासए समिच्च लोयं खेयण्णेहिं पवेइए' 'अर्थात् भूतकाल में जो अर्हत् हुए हैं, वर्तमानकाल में जो अर्हत् हैं और भविष्यकाल में जो अर्हत होंगे, वे सभी एक ही संदेश देते हैं कि किसी प्राणी की, किसी सत्व की हिंसा नहीं करनी चाहिए, उसका घात नहीं करना चाहिए, उसे पीड़ा नहीं पहुंचानी चाहिए, यही एकमात्र शुद्ध, नित्य और शाश्वत धर्म है।' इस धर्म की लोककल्याणकारी चेतना का प्रस्फुटन लोक की पीड़ा के निवारण के लिए ही हुआ है और यही धर्म का सारतत्व है। कहा है - | यही है इबादत, यही है दीनों इमां। कि काम आए दुनिया में, इंसा के इंसा॥ . दूसरों की पीड़ा को समझकर उसके निवारण का प्रयत्न करना, यही धर्म की मूल आत्मा हो सकती है। संत तुलसीदास जी ने भी कहा है परहित सरिस धरम नहिं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई।. अहिंसा की चेतना का विकास तभी सम्भव है, जब मनुष्य में आत्मवत् (160)
SR No.004424
Book TitleBharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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