________________ उनकी रागात्मकता ही उनके अर्हत् बनने में बाधक रही। चाहे वह इंद्रभूति गौतम हो या आनंद हो, यदि दृष्टिराग क्षीण नहीं होता है, तो अर्हत् अवस्था की प्राप्ति सम्भव नहीं है। वीतरागता की उपलब्धि के लिए अपने धर्म और धर्मगुरु के प्रति भी रागभाव का त्याग करना होगा। धार्मिक मतान्धता को कम करने का उपाय-गुणोपासना धार्मिक असहिष्णुता के कारणों में एक कारण यह है कि हम गुणों के स्थान पर व्यक्तियों से जुड़ने का प्रयास करते हैं। जब हमारी आस्था का केंद्र या उपास्य आध्यात्मिक एवं नैतिक विकास की अवस्था विशेष न होकर व्यक्ति विशेष बन जाता है, तो फिर स्वाभाविक रूप से ही आग्रह का घेरा खड़ा हो जाता है। हम यह मानने लगते हैं कि महावीर हमारे हैं, बुद्ध हमारे नहीं। राम हमारे उपास्य हैं, कृष्ण या शिव हमारे उपास्य नहीं हैं। अतः यदि हम व्यक्ति के स्थान पर आध्यात्मिक विकास की भूमिका विशेष को अपना उपास्य बनाएं तो सम्भवतः हमारे आग्रह और मतभेद कम हो सकते हैं। इस सम्बंध में जैनों का दृष्टिकोण प्रारम्भ से ही उदार रहा है। जैन परम्परा में निम्न नमस्कार मंत्र को परम पवित्र माना गया है - नमो अरहंताणं। नमो सिद्धाणं। नमो आयरियाण। नमो उवज्झायाण। नमो लोए सव्व साहूण। * प्रत्येक जैन के लिए इसका पाठ आवश्यक है, किंतु इसमें किसी व्यक्ति के नाम का उल्लेख नहीं है। इसमें जिन पांच पदों की वंदना की जाती है, वे व्यक्तिवाचक न होकर गुणवाचक हैं। अर्हत्, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु व्यक्ति नहीं है, वे आध्यात्मिक और नैतिक विकास की विभिन्न भूमिकाओं के सूचक हैं। प्राचीन जैनाचार्यों की दृष्टि कितनी उदार थी कि उन्होंने इन पांच पदों में किसी व्यक्ति का नाम नहीं जोड़ा। यही कारण है कि आज जैनों में अनेक सम्प्रदायगत मतभेद होते हुए भी नमस्कार मंत्र सर्वमान्य बना हुआ है। यदि उसमें कहीं व्यक्तियों के नाम जोड़ दिए जाते तो सम्भवतः आज तक उसका स्वरूप न जाने कितना परिवर्तित और विकृत हो गया होता। नमस्कार महामंत्र जैनों की धार्मिक उदारता और सहिष्णुता का सबसे महत्वपूर्ण प्रमाण है। उसमें भी नमो लोए सव्व साहूणं' यह पद तो धार्मिक उदारता का सर्वोच्च शिखर कहा जा - सकता है। इसमें साधक कहता है कि मैं लोक के सभी साधुओं को नमस्कार करता हूं। (183)