________________ आज विज्ञान के कारण मानव के पूर्वस्थापित जीवन मूल्य समाप्त हो गए हैं। आज श्रद्धा का स्थान तर्क ने ले लिया है। आज मनुष्य पारलौकिक उपलब्धियों के स्थान पर इहलौकिक उपलब्धियों को चाहता है। आज के तर्कप्रधान मनुष्य को सुख और शांति के नाम प्रा बहलाया नहीं जा सकता, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि आज हम अध्यात्म के अभाव में नए जीवन मूल्यों का सृजन नहीं कर पा रहे हैं। आज विज्ञान का युग है। आज उस धर्म को, जो पारलौकिक जीवन की सुख-सुविधाओं के नाम पर मानवीय भावनाओं का शोषण कर रहा है, जानना होगा। आज तथाकथित वे धर्म परम्पराएं जो मनुष्य को भविष्य के सुनहरे सपने दिखाकर फुसलाया करती थीं, अब तर्क की पैनी छेनी के आगे अपने को नहीं बचा सकतीं। अब स्वर्ग में जाने के लिए नहीं जीना है अपितु स्वर्ग को धरती पर लाने के लिए जीना होगा। विज्ञान ने हमें वह शक्ति दे दी है, जिससे स्वर्ग को धरती पर उतारा जा सकता है। अब यदि हम इस शक्ति का. उपयोग धरती पर स्वर्ग उतारने के स्थान पर, धरती को नरक बनाने में करेंगे तो इसकी जवाबदेही हम पर ही होगी। आज वैज्ञानिक शक्तियों का उपयोग इस दृष्टि से करना है कि वे मानव-कल्याण में सहभागी बनकर इस धरती को ही स्वर्ग बना सकें। विनोबा जी ने सत्य ही कहा है- आज विज्ञान का तो विकास हुआ किंतु वैज्ञानिक उत्पन्न ही नहीं हुआ क्योंकि वैज्ञानिक वह है जो निरपेक्ष होता है। आज का वैज्ञानिक राजनीतिज्ञों और पूंजीपतियों के इशारे पर चलने वाला व्यक्ति है। वह पैसे से खरीदा जा सकता है। यह तो वैज्ञानिक की गुलामी है। ऐसे लोग अवैज्ञानिक हैं यदि वैज्ञानिक (Scientist) वैज्ञानिक (Scientific) नहीं बना तो विज्ञान मनुष्य के लिए ही घातक सिद्ध होगा। आज विज्ञान का उपयोग कैसे किया जाए इसका उत्तर विज्ञान के पास नहीं अध्यात्म के पास है। विनोबा जी लिखते हैं कि आज युग की मांग से विज्ञान की जितनी ही शक्ति बढ़ेगी। आत्मज्ञान को उतनी ही शक्ति बढ़ानी होगी। आज अमेरिका इसलिए दुःखी है कि वहां विज्ञान तो है, पर अध्यात्म है नहीं, अतः सुख तो है, शांति नहीं। इसके विपरीत भारत में आध्यात्मिक विकास के कारण मानसिक शांति तो है, किंतु समृद्धि नहीं। आज जहां समृद्धि है वहांशांति नहीं और जहां शांति है वहां समृद्धि नहीं। इसका समाधान आध्यात्म और विज्ञान के समन्वय में निहित है। अध्यात्म शांति देगा तो विज्ञान समृद्धि। जब समृद्धि और शांति दोनों ही एक साथ उपलब्ध होंगी, मानवता अपने विकास के परम शिखर पर होगा। मानव स्वयं अतिमानव के रूप में विकसित हो जाएगा। किंतु इसके लिए प्रयत्न करना होगा। बिना अडिग आस्था और सतत् पुरुषार्थ के यह सम्भव नहीं। (167) नहा। .