________________ लिए ही हैं। . इसी प्रकार इन दर्शनों की साधना पद्धति में समान रूप से प्रस्तुत मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ की भावनाओं के आधार पर भी सामाजिक संदर्भ को स्पष्ट किया जा सकता है। आचार्य अमितगति इन भावनाओं की अभिव्यक्ति निम्न शब्दों में करते हैं - सात्वेषु मैत्री गुणीषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपा-परत्वम् / माध्यस्थ-भावं विपरीतवृत्तौ सदामआत्मा विदधातु देव // - सामायिक पाठ हे प्रभु ! हमारे मनों में प्राणियों के प्रति मित्रता, गुणीजनों के प्रति प्रमोद, दुःखियों के प्रति करुणा तथा दुष्टजनों के प्रति माध्यस्थ भाव विद्यमान रहें। इस प्रकार इन भावनाओं के माध्यम से समाज के विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों से हमारे सम्बंध किस प्रकार के हों, यही स्पष्ट किया गया है। समाज से दूसरे लोगों के साथ हम किस प्रकार जीवन जीए, यह हमारी सामाजिकता के लिए अति आवश्यक है और इन दर्शनों में इस प्रकार से व्यक्ति को समाज-जीवन से जोड़ने का ही प्रयास किया गया है। इन दर्शनों का हृदय रिक्त नहीं है। इनमें प्रेम और करुणा की अटूट धारा बह रही है। तीर्थंकर की वाणी का प्रस्फुटन ही लोक की करुणा के लिए होता है, (समेच्च लोये खेयन्ने पण्डबेइये), इसीलिए तो आचार्य समन्तभद्र लिखते हैं- 'सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदय तीर्थमिदं तवैव', 'हे प्रभु ! आपका अनुशासन सभी दुःखों का अंत करने वाला और सभी का कल्याण, सर्वोदय करने वाला है। जैन आगमों में प्रस्तुत कुल-धर्म, ग्राम-धर्म, नगरधर्म, राष्ट्र-धर्म एवं गण-धर्म भी उसकी समाज-सापेक्षता को स्पष्ट कर देते हैं। त्रिपिटक में भी अनेक संदर्भो में व्यक्ति के विविध सामाजिक सम्बंधों के आदर्शों का चित्रण किया गया है। इन सब पर इस लघु निबंध में प्रकाश डाल पाना सम्भव नहीं है। पारिवारिक और सामाजिक जीवन में हमारे पारस्परिक सम्बंधों को सुमधुर एवं समायोजनपूर्ण बनाने ' तथा सामाजिक टकराव के कारणों का विश्लेषण कर उन्हें दूर करने के लिए इन दर्शनों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। . वस्तुतः इन दर्शनों ने आचार शुद्धि पर बल देकर व्यक्ति सुधार के माध्यम से समाज-सुधार का मार्ग प्रशस्त किया। इन्होंने व्यक्ति को समाज का केंद्र माना और इसलिए उसके चरित्र के निर्माण पर बल दिया। वस्तुतः इन दर्शनों के युग का समाजरचना का कार्य पूरा हो चुका था, अतः इन्होंने मुख्य रूप से सामाजिक बुराइयों को (31)