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________________ अनुरूप सुख लाभ करे। प्रवर्तक धर्म समाज-गामी था, इसका मतलब यह था कि प्रत्येक व्यक्ति समाज में रहकर (उन) सामाजिक कर्तव्यों का पालन करे, जो ऐहिक जीवन से सम्बंध रखते हैं। (जबकि) निवर्त्तकधर्म व्यक्तिगामी है, (वह) समस्त सामाजिक एवं धार्मिक कर्तव्यों से बद्ध होने की बात नहीं कहता है। उसके अनुसार व्यक्ति के लिए मुख्य कर्त्तव्य एक ही है, वह यह कि जिस तरह भी हो, आत्म-साक्षात्कार का और उसमें रुकावट डालने वाली इच्छा के नाश का प्रयत्न करे (दर्शन और चिंतन), किंतु इस आधार पर यह मान लेना कि भारतीय चिंतन की निवर्त्तक धारा के समर्थक अर्थात् जैन, बौद्ध, सांख्य, योग, शांकर वेदांत आदि दर्शन असामाजिक हैं, या इन दर्शनों में सामाजिक संदर्भ का अभाव है, नितांत भ्रम होगा। इनमें भी सामाजिक भावना से परांङ्गमुखता नहीं दिखाई देती है। ये दर्शन इतना तो अवश्य मानते हैं कि चाहे वैयक्तिक साधना की दृष्टि से एकाकी जीवन लाभप्रद हो सकता है, किंतु उस साधना से प्राप्त सिद्धि का उपयोग सामाजिक कल्याण की दिशा में ही होना चाहिए। महावीर, बुद्ध और शंकराचार्य का जीवन स्वयं इस बात का साक्षी है कि वे ज्ञान-प्राप्ति के पश्चात् जीवनपर्यंत लोक-मंगल के लिए कार्य करते रहे। यद्यपि इन निवृत्तिप्रधान दर्शनों में जो सामाजिक संदर्भ उपस्थित हैं, वे थोड़े भिन्न प्रकार के अवश्य हैं। इनमें मूलतः सामाजिक सम्बंधों की शुद्धि का प्रयास परिलक्षित होता है। सामाजिक संदर्भ की दृष्टि से इनमें समाजरचना एवं सामाजिक दायित्वों का निर्वहन की अपेक्षा समाज-जीवन को दूषित बनाने वाले तत्त्वों के निरसन पर बल दिया गया है। जैन दर्शन के पंच महाव्रत, बौद्ध दर्शन के पंचशील और योग दर्शन के पंच यमों का सम्बंध अनिवार्यतया हमारे सामाजिक जीवन से ही है। प्रश्नव्याकरण सूत्र नामक जैन आगम में कहा गया है कि तीर्थंकर का यह सुकथित प्रवचन सभी प्राणियों के रक्षण एवं करुणा के लिए है। पांचों महाव्रत सर्वप्रकार से लोकहित के लिए ही हैं - (प्रश्नव्याकरणसूत्र, 1/1/21-22) / हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार, संग्रह (परिग्रह)- ये सब वैयक्तिक नहीं, सामाजिक जीवन की दुष्प्रवृत्तियां हैं। ये सब दूसरों के प्रति हमारे व्यवहार से सम्बंधित हैं। हिंसा का अर्थ है किसी अन्य की हिंसा, असत्य का मतलब है किसी अन्य को गलत जानकारी देना, चोरी का अर्थ है- किसी दूसरे की सम्पत्ति का अपहरण करना, इसी प्रकार संग्रह या परिग्रह का अर्थ है- समाज में आर्थिक विषमता पैदा करना। क्या समाज जीवन के अभाव में इनका कोई अर्थ या संदर्भ रह जाता है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह की जो मर्यादाएं इन दर्शनों ने दीं, वे हमारे सामाजिक सम्बंधों की शुद्धि के (30)
SR No.004424
Book TitleBharatiya Sanskruti ke Multattva Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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