________________ ब्राह्मण क्षत्रिय विशां शूद्राणां च परंतप / कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभाव प्रभवैर्गुणैः // (गीता, 18/41) हे अर्जुन ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के कर्मों का विभाजन उनके स्वभाव से उत्पन्न गुणों के आधार पर किया गया है। सामाजिक जीवन में विषमता एवं संघर्ष का एक महत्त्वपूर्ण कारण सम्पत्ति का अधिकार है। श्रीमद्भागवत भी ईशावास्योपनिषद् के समान ही सम्पत्ति पर व्यक्ति के अधिकार को अस्वीकार करती है। उसमें कहा गया है - यावत् भ्रियेत जठरं, तावत् स्वत्वं देहिनाम् / अधिको योऽभिमन्येत स स्तेनो दण्डमर्हति // - श्रीमद्भागवत, 7/14/8 अर्थात्, अपनी दैहिक आवश्यकता से अधिक सम्पदा पर अपना स्वत्व मानना सामाजिक दृष्टिं से चोरी है, अनधिकृत चेष्टा है। आज का समाजवाद एवं साम्यवाद भी इसी आदर्श पर खड़ा है, योग्यता के अनुसार कार्य और आवश्यकता के अनुसार वेतन'की उसकी धारणा यहां पूरी तरह उपस्थित है। भारतीय चिंतन में पुण्य और पाप को जो वर्गीकरण है, उसमें भी सामाजिक दृष्टि ही प्रमुख है। पाप के रूप में जिन दुर्गुणों का और पुण्य के रूप में जिन सद्गुणों का उल्लेख है, उनका सम्बंध वैयक्तिक जीवन की अपेक्षा सामाजिक जीवन से अधिक है। पुण्य और पाप की एकमात्र कसौटी हैकिसी कर्म का लोक-मंगल में उपयोगी या अनुपयोगी होना। कहा भी गया है - . परोपकारः पुण्याय, पापाय परपीडनम्।' जो लोक के लिए हितकर तथा कल्याणकर है, पुण्य है और इसके विपरीत, जो भी दूसरों के लिए पीड़ा-जनक है, अमंगलकर है, वह पाप है। इस प्रकार भारतीय चिंतन में पुण्य-पाप की व्याख्याएं भी सामाजिक दृष्टि पर ही आधारित हैं। - यदि हम निवर्त्तक धारा के समर्थक जैन, बौद्ध, सांख्य, योग एवं शांकर वेदांत की ओर दृष्टिपात करते हैं, तो प्रथम दृष्टि में ऐसा लगता है कि इनमें समाज की दृष्टि की उपेक्षा की गई है। सामान्यतया यह माना जाता है कि निवृत्ति-प्रधान दर्शन व्यक्ति-परक और प्रवृत्ति-प्रधान दर्शन समाज-परक होते हैं। पं. सुखलालजी के शब्दों में प्रवर्तक धर्म का संक्षेप सार यह है कि जो और जैसी समाज व्यवस्था है, उसे इस तरह नियमबद्ध करना कि जिससे समाज का प्रत्येक सभ्य अपनी-अपनी स्थिति और कक्षा के (29)